ashtavakra gita

 

 

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तीसरा अध्याय | Third chapter

 

 

अष्टावक्र उवाच

अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः॥१॥

 

अष्टावक्र कहते हैं

आत्मा को अविनाशी और एक जानो   उस आत्मज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की  रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है ॥१॥

 

आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे॥ २॥

 

स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है ॥२॥

 

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि॥ ३॥

 

सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, वह मैं ही हूँ जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो ॥३॥

 

श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति॥४॥

 

यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो ॥४॥

 

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते॥ ५॥

 

सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सब प्राणियों को जानने वाले मुनि में ममता की भावना का बने रहना आश्चर्य ही है ॥५॥ 

 

आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।
आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया॥ ६॥

 

एक ब्रह्म का आश्रय लेने वाले और मोक्ष के अर्थ का ज्ञान रखने वाले का आमोदप्रमोद द्वारा उत्पन्न कामनाओं से विचलित होना आश्चर्य ही है॥६॥

 

उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रमवधार्यातिदुर्बलः।
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥७॥

 

अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त हैआश्चर्य ही है ॥७॥

 

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।
आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका॥ ८॥

 

इस लोक और परलोक से विरक्त, नित्य और अनित्य का ज्ञान रखने वाले और मोक्ष की कामना रखने वालों का मोक्ष से डरनाआश्चर्य ही है ॥८॥  

 

धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन् तुष्यति कुप्यति॥९॥

 

सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर प्रसन्न होते हैं और क्रोध ही करते हैं ॥९॥ 

 

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः॥ १०॥

 

अपने कार्यशील शरीर को दूसरों के शरीरों की तरह देखने वाले महापुरुषों को प्रशंसा या निंदा कैसे विचलित कर सकती है ॥१०॥


मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः॥११॥

 

समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है ॥११॥


निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते॥१२॥

 

निराशा में भी समस्त इच्छाओं से रहितस्वयं के ज्ञान से प्रसन्न महात्मा की तुलना किससे की जा सकती है ॥१२॥


स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं किं पश्यति धीरधीः॥१३॥

 

स्वभाव से ही विश्व को दृश्यमान जानो, इसका कुछ भी अस्तित्व नहीं है  यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य, देखने वाला स्थिर प्रज्ञायुक्त व्यक्ति क्या देखता है॥१३॥

 

अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।
यदृच्छयागतो भोगो दुःखाय तुष्टये॥ १४॥

 

विषयों की आतंरिक आसक्ति का त्याग करने वाले, संदेह से परे, बिना किसी इच्छा वाले व्यक्ति को  स्वतः आने वाले भोग दुखी कर सकते है और सुखी ॥१४॥

 

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