पंचम अध्याय | Fifth chapter
अष्टावक्र उवाच –
न ते संगोऽस्ति केनापिकिं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन्–नेवमेव लयं व्रज॥१॥
अष्टावक्र कहते हैं – तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ॥१॥
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानं एवमेव लयं व्रज॥ २॥
जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विश्व एक आत्मा से ही उत्पन्न होता है। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥२॥
प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद् विश्वं नास्त्यमले त्वयि।
रज्जुसर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज॥३॥
यद्यपि यह विश्व आँखों से दिखाई देता है परन्तु अवास्तविक है। विशुद्ध तुम में इस विश्व का अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार कल्पित सर्प का रस्सी में। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ॥३॥
समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः।
समजीवितमृत्युः सन्–नेवमेव लयं व्रज॥४॥
स्वयं को सुख और दुःख में समान, पूर्ण, आशा और निराशा में समान, जीवन और मृत्यु में समान, सत्य जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ॥४॥