Baalkand Ramcharitmanas

 

 

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शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि

 

दोहा :

परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥

 

सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥56॥

 

चौपाई :

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा।

सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥

एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं।

सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥ 

 

तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥1॥

 

अस बिचारि संकरु मतिधीरा।

चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥

चलत गगन भै गिरा सुहाई।

जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥ 

 

स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की॥2॥

 

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना।

रामभगत समरथ भगवाना॥

सुनि नभगिरा सती उर सोचा।

पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

 

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥

 

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला।

सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥

जदपि सतीं पूछा बहु भाँती।

तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥

 

हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥

 

दोहा :

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥

 

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥57 (क)॥

 

सोरठा :

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

 

प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥

 

चौ.

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी।

चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥

कृपासिंधु सिव परम अगाधा।

प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

 

अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥

 

संकर रुख अवलोकि भवानी।

प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥

निज अघ समुझि न कछु कहि जाई।

तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

 

शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥

 

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू।

कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥

बरनत पंथ बिबिध इतिहासा।

बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

 

वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥

 

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन।

बैठे बट तर करि कमलासन॥

संकर सहज सरूपु सम्हारा।

लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

 

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥

 

दोहा :

सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

 

तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥

 

चौपाई :

नित नव सोचु सती उर भारा।

कब जैहउँ दुख सागर पारा॥

मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना।

पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥

 

सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥

 

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा।

जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥

अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही।

संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥

 

उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है॥2॥

 

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी।

मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥

जौं प्रभु दीनदयालु कहावा।

आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥

 

सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, ॥3॥

 

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी।

छूटउ बेगि देह यह मोरी॥

जौं मोरें सिव चरन सनेहू।

मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥

 

तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है,॥4॥

 

दोहा :

तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥

 

तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥

 

चौपाई :

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी।

अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

बीतें संबत सहस सतासी।

तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥

 

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥

 

राम नाम सिव सुमिरन लागे।

जानेउ सतीं जगतपति जागे॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा।

सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥

 

शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

 

लगे कहन हरि कथा रसाला।

दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥

देखा बिधि बिचारि सब लायक।

दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

 

शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥

 

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा।

अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।

प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

 

जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥

 

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