Baalkand Ramcharitmanas

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मानस का रूप और माहात्म्य

 

दोहा :

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।

अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

 

यह रामचरित मानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्री उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ॥35॥

 

चौपाई :

 संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।

रामचरितमानस कबि तुलसी॥

करइ मनोहर मति अनुहारी।

सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥

 

श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, किन्तु फिर भी हे सज्जनो! सुंदर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार लीजिए॥1॥

 

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू।

बेद पुरान उदधि घन साधू॥

बरषहिं राम सुजस बर बारी।

मधुर मनोहर मंगलकारी॥2॥

 

सुंदर (सात्त्वकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधु रूपी मेघ) श्री रामजी के सुयश रूपी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल की वर्षा करते हैं॥2॥

 

लीला सगुन जो कहहिं बखानी।

सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥

प्रेम भगति जो बरनि न जाई।

सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥

 

सगुण लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है॥3॥

 

सो जल सुकृत सालि हित होई।

राम भगत जन जीवन सोई॥

मेधा महि गत सो जल पावन।

सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥

भरेउ सुमानस सुथल थिराना।

सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥

 

वह (राम सुयश रूपी) जल सत्कर्म रूपी धान के लिए हितकर है और श्री रामजी के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धि रूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कान रूपी मार्ग से चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुंदर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया॥4-5॥

 

दोहा :

 

सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।

तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

 

इस कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यन्त सुंदर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं॥36॥

 

चौपाई :

 

सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।

ग्यान नयन निरखत मन माना॥

रघुपति महिमा अगुन अबाधा।

बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥

 

सात काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्री रघुनाथजी की निर्गुण (प्राकृतिक गुणों से अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमा का जो वर्णन किया जाएगा, वही इस सुंदर जल की अथाह गहराई है॥1॥

 

राम सीय जस सलिल सुधासम।

उपमा बीचि बिलास मनोरम॥

पुरइनि सघन चारु चौपाई।

जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥2॥

 

श्री रामचन्द्रजी और सीताजी का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गई हैं, वही तरंगों का मनोहर विलास है। सुंदर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन (कमलिनी) हैं और कविता की युक्तियाँ सुंदर मणि (मोती) उत्पन्न करने वाली सुहावनी सीपियाँ हैं॥2॥

 

छंद सोरठा सुंदर दोहा।

सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥

अरथ अनूप सुभाव सुभासा।

सोइ पराग मकरंद सुबासा॥3॥

 

जो सुंदर छन्द, सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलों के समूह सुशोभित हैं। अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग (पुष्परज), मकरंद (पुष्परस) और सुगंध हैं॥3॥

 

सुकृत पुंज मंजुल अलि माला।

ग्यान बिराग बिचार मराला॥

धुनि अवरेब कबित गुन जाती।

मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥

 

सत्कर्मों (पुण्यों) के पुंज भौंरों की सुंदर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं॥4॥

 

अरथ धरम कामादिक चारी।

कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥

नव रस जप तप जोग बिरागा।

ते सब जलचर चारु तड़ागा॥5॥

 

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्य के प्रसंग- ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर जीव हैं॥5॥

 

सुकृती साधु नाम गुन गाना।

ते बिचित्र जलबिहग समाना॥

संतसभा चहुँ दिसि अवँराई।

श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥

 

सुकृती (पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥

 

भगति निरूपन बिबिध बिधाना।

छमा दया दम लता बिताना॥

सम जम नियम फूल फल ग्याना।

हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥

 

नाना प्रकार से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रिय निग्रह) लताओं के मण्डप हैं। मन का निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्री हरि के चरणों में प्रेम ही इस ज्ञान रूपी फल का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है॥7॥

 

औरउ कथा अनेक प्रसंगा।

तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥8॥

 

इस (रामचरित मानस) में और भी जो अनेक प्रसंगों की कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं॥8॥

 

दोहा :

 

पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।

माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥

 

कथा में जो रोमांच होता है, वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है, वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है॥37॥

 

चौपाई :

 

जे गावहिं यह चरित सँभारे।

तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥

सदा सुनहिं सादर नर नारी।

तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥

 

जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुंदर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं॥1॥

 

अति खल जे बिषई बग कागा।

एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥

संबुक भेक सेवार समाना।

इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥

 

जो अति दुष्ट और विषयी हैं, वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते, क्योंकि यहाँ (इस मानस सरोवर में) घोंघे, मेंढक और सेवार के समान विषय रस की नाना कथाएँ नहीं हैं॥2॥

 

तेहि कारन आवत हियँ हारे।

कामी काक बलाक बिचारे॥

आवत ऐहिं सर अति कठिनाई।

राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥

 

इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना यहाँ नहीं आया जाता॥3॥

 

कठिन कुसंग कुपंथ कराला।

तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥

गृह कारज नाना जंजाला।

ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥

 

घोर कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है, उन कुसंगियों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल ही अत्यंत दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं॥4॥

 

बन बहु बिषम मोह मद माना।

नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥5॥

 

मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥5॥

 

दोहा :

 

जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति

जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

 

जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। (अर्थात् श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥

 

चौपाई :

 

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई।

जातहिं नीद जुड़ाई होई॥

जड़ता जाड़ बिषम उर लागा।

गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥

 

यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥

 

करि न जाइ सर मज्जन पाना।

फिरि आवइ समेत अभिमाना।

जौं बहोरि कोउ पूछन आवा।

सर निंदा करि ताहि बुझावा॥2॥

 

उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता है॥2॥

 

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही।

राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥

सोइ सादर सर मज्जनु करई।

महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥

 

ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान् भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥

 

ते नर यह सर तजहिं न काऊ।

जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥

जो नहाइ चह एहिं सर भाई।

सो सतसंग करउ मन लाई॥4॥

 

जिनके मन में श्री रामचंद्रजी के चरणों में सुंदर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्संग करे॥4॥

 

अस मानस मानस चख चाही।

भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू।

उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

 

ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥

 

चली सुभग कबिता सरिता सो।

राम बिमल जस जल भरित सो।

सरजू नाम सुमंगल मूला।

लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥

 

उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥

 

नदी पुनीत सुमानस नंदिनि।

कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥7॥

 

यह सुंदर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बड़े) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली है॥7॥

 

दोहा :

 

श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥

 

तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥

 

चौपाई :

 

रामभगति सुरसरितहि जाई।

मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥

सानुज राम समर जसु पावन।

मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥

 

सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥

 

जुग बिच भगति देवधुनि धारा।

सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥

त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी।

राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥

 

दोनों के बीच में भक्ति रूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥

 

मानस मूल मिली सुरसरिही।

सुनत सुजन मन पावन करिही॥

बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा।

जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥

 

इस (कीर्ति रूपी सरयू) का मूल मानस (श्री रामचरित) है और यह (रामभक्ति रूपी) गंगाजी में मिली है, इसलिए यह सुनने वाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं, वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं॥3॥

 

उमा महेस बिबाह बराती।

ते जलचर अगनित बहुभाँती॥

रघुबर जनम अनंद बधाई।

भवँर तरंग मनोहरताई॥4॥

 

श्री पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव हैं। श्री रघुनाथजी के जन्म की आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरंगों की मनोहरता है॥4॥

 

दोहाः

 

बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।

नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥40॥

 

चारों भाइयों के जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत से कमल हैं। महाराज श्री दशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियों के सत्कर्म (पुण्य) ही भ्रमर और जल पक्षी हैं॥40॥

 

चौपाई :

 

सीय स्वयंबर कथा सुहाई।

सरित सुहावनि सो छबि छाई॥

नदी नाव पटु प्रस्न अनेका।

केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥

 

श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं॥1॥

 

सुनि अनुकथन परस्पर होई।

पथिक समाज सोह सरि सोई॥

घोर धार भृगुनाथ रिसानी।

घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥

 

इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के सहारे-सहारे चलने वाले यात्रियों का समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजी का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और श्री रामचंद्रजी के श्रेष्ठ वचन ही सुंदर बँधे हुए घाट हैं॥2॥

 

सानुज राम बिबाह उछाहू।

सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥

कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं।

ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥

 

भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है, जो सभी को सुख देने वाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं॥3॥

 

राम तिलक हित मंगल साजा।

परब जोग जनु जुरे समाजा।

काई कुमति केकई केरी।

परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥

 

श्री रामचंद्रजी के राजतिलक के लिए जो मंगल साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी॥4॥

 

दोहा :

 

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

 

संपूर्ण अनगिनत उत्पातों को शांत करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥41॥

 

चौपाई :

 

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी।

समय सुहावनि पावनि भूरी॥

हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू।

सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

 

यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥

 

बरनब राम बिबाह समाजू।

सो मुद मंगलमय रितुराजू॥

ग्रीषम दुसह राम बनगवनू।

पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥

 

श्री रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥

 

बरषा घोर निसाचर रारी।

सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥

राम राज सुख बिनय बड़ाई।

बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥

 

राक्षसों के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुंदर कल्याण करने वाली है। रामचंद्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देने वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥

 

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा।

सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥

भरत सुभाउ सुसीतलताई।

सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥

 

सती-शिरोमणि श्री सीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। श्री भरतजी का स्वभाव इस नदी की सुंदर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥

 

दोहा :

 

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।

भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥

 

चारों भाइयों का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुंदर भाईपना इस जल की मधुरता और सुगंध है॥42॥

 

चौपाई :

 

आरति बिनय दीनता मोरी।

लघुता ललित सुबारि न थोरी॥

अदभुत सलिल सुनत गुनकारी।

आस पिआस मनोमल हारी॥1॥

 

मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात् अत्यंत हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशा रूपी प्यास को और मन के मैल को दूर कर देता है॥1॥

 

राम सुप्रेमहि पोषत पानी।

हरत सकल कलि कलुष गलानी॥

भव श्रम सोषक तोषक तोषा।

समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥

 

यह जल श्री रामचंद्रजी के सुंदर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥

 

काम कोह मद मोह नसावन।

बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥

सादर मज्जन पान किए तें।

मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

 

यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥

 

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए।

ते कायर कलिकाल बिगोए॥

तृषित निरखि रबि कर भव बारी।

फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥

 

जिन्होंने इस (राम सुयश रूपी) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य की किरणों के रेत पर पड़ने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने को दौड़ता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे (कलियुग से ठगे हुए) जीव भी (विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होंगे॥4॥

 

दोहा :

 

मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।

सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43 क॥

 

अपनी बुद्धि के अनुसार इस सुंदर जल के गुणों को विचार कर, उसमें अपने मन को स्नान कराकर और श्री भवानी-शंकर को स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुंदर कथा कहता है॥43 (क)॥

 

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