BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
01 – 12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥12 .1॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; एवम्-इस प्रकार; सतत–निरंतर; युक्ताः -समर्पित; ये-जो; भक्ताः -भक्तजन; त्वाम्-आपको; पर्युपासते-आराधना करते हैं; ये-जो; च-भी; अपि-पुनः; अक्षरम्-अविनाशी; अव्यक्तम्-अप्रकट को; तेषाम्-उनमें से; के-कौन; योगवित्तमा:-योगविद्या में अत्यन्त पारंगत।
अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? अर्थात जो भक्त, सतत युक्त और समर्पित होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपके साकार रूप की दृढ़तापूर्वक उपासना करते हैं और जो भक्त आपके अक्षर, अविनाशी , अव्यक्त और निराकार रूप की उपासना करते हैं, उन दोनों में से आप किसे पूर्ण मानते हैं ?॥12.1॥
( ‘एवं सततयुक्ता ये भक्ताः’ – 11वें अध्याय के 55वें श्लोक में ‘भगवान्ने यः’ और ‘सः’ पद जिस साधक के लिये प्रयुक्त किये हैं उसी साधक के लिये अर्थात् सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले सब साधकों के लिये यहाँ ‘ये भक्ताः’ पद आये हैं। यहाँ ‘एवम्’ पद से 11वें अध्याय के 55वें श्लोक का निर्देश किया गया है। मैं भगवान का ही हूँ – इस प्रकार भगवान का होकर रहना ही सततयुक्त होना है।भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखने वाले साधक भक्तों का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होता है। अतः प्रत्येक (पारमार्थिक – भगवत्सम्बन्धी जपध्यानादि अथवा व्यावहारिक – शारीरिक और आजीविकासम्बन्धी) क्रिया में उनका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर भगवान से बना रहता है। ‘सततयुक्ताः’ पद ऐसे ही साधक भक्तों का वाचक है। साधक से यह एक बहुत बड़ी भूल होती है कि वह पारमार्थिक क्रियाओं को करते समय तो अपना सम्बन्ध भगवान से मानता है पर व्यावहारिक क्रियाओं को करते समय वह अपना सम्बन्ध संसार से मानता है। इस भूल का कारण है – समय-समय पर साधक के उद्देश्य में होने वाली भिन्नता। जब तक बुद्धि में धनप्राप्ति , मानप्राप्ति , कुटुम्ब-पालन आदि भिन्न-भिन्न उद्देश्य बने रहते हैं तब तक साधक का सम्बन्ध निरन्तर भगवान के साथ नहीं रहता। अगर वह अपने जीवन के एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति को ठीक-ठीक पहचान ले तो उसकी प्रत्येक क्रिया भगवत्प्राप्ति का साधन हो जायगी। भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य हो जाने पर भगवान का जप-स्मरण-ध्यानादि करते समय तो उसका सम्बन्ध भगवान से है ही किन्तु व्यावहारिक क्रियाओं को करते समय भी उसको नित्य-निरन्तर भगवान में लगा हुआ ही समझना चाहिये। अगर क्रिया के आरम्भ और अन्त में साधक को भगवत्स्मृति है तो क्रिया करते समय भी उसकी निरन्तर सम्बन्धात्मक भगवत्स्मृति रहती है – ऐसा मानना चाहिये। जैसे बहीखाते में जोड़ लगाते समय व्यापारी की वृत्ति इतनी तल्लीन होती है कि मैं कौन हूँ और जोड़ क्यों लगा रहा हूँ ? इसका भी ज्ञान नहीं रहता। केवल जोड़ के अङ्कों की ओर ही उसका ध्यान रहता है। जोड़ शुरू करने से पहले उसके मन में यह धारणा रहती है कि मैं अमकु व्यापारी हूँ तथा अमुक कार्य के लिये जोड़ लगा रहा हूँ और जोड़ लगाना समाप्त करते ही पुनः उसमें उसी भाव की स्फुरणा हो जाती है कि मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा था। अतः जिस समयमें वह तल्लीनतापूर्वक जो़ड़ लगा रहा है? उस समय भी मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा हूँ – इस भाव की विस्मृति दीखते हुए भी वस्तुतः विस्मृति नहीं मानी जाती। इसी प्रकार यदि कर्तव्यकर्म के आरम्भ और अन्त में साधक का यह भाव है कि मैं भगवान का ही हूँ और भगवान के लिये ही कर्तव्यकर्म कर रहा हूँ तथा इस भाव में उसे थोड़ी भी शङ्का नहीं है तो जब वह अपने कर्तव्यकर्म में तल्लीनतापूर्वक लग जाता है उस समय उसमें भगवान की विस्मृति दिखते हुए भी वस्तुतः विस्मृति नहीं मानी जाती। ‘त्वाम् पर्युपासते’ – यहाँ ‘त्वाम्’ पद से उन सभी सगुण साकार स्वरूपों को ग्रहण कर लेना चाहिये जिनको भगवान भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर धारण किया करते हैं और जो स्वरूप भगवान ने भिन्न-भिन्न अवतारों में धारण किये हैं तथा भगवान का जो स्वरूप दिव्यधाम में विराजमान है – जिसको भक्त लोग अपनी मान्यता के अनुसार अनेक रूपों और नामों से कहते हैं। ‘पर्युपासते ‘ – पद का अर्थ है – ‘परितः उपासते ‘ अर्थात् अच्छी तरह उपासना करते हैं। जैसे पतिव्रता स्त्री कभी पति की सेवा में अपने शरीर को अर्पण करके कभी पति की अनुपस्थिति में पति का चिन्तन करके कभी पति के सम्बन्ध से सास-ससुर आदि की सेवा करके और कभी पति के लिये रसोई बनाना आदि घर के कार्य करके सदा-सर्वदा पति की ही उपासना करती है – ऐसे ही साधक भक्त भी कभी भगवान में तल्लीन होकर कभी भगवान का जप-स्मरण चिन्तन करके कभी सांसारिक प्राणियों को भगवान का ही मानकर उनकी सेवा करके और कभी भगवान की आज्ञा के अनुसार सांसारिक कर्मों को करके सदा-सर्वदा भगवान की उपासना में ही लगा रहता है। ऐसी उपासना ही अच्छी तरह की गयी उपासना है। ऐसे उपासक के हृदय में उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थों और क्रियाओं का किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं होता। ‘ये चाप्यक्षरमव्यक्तम् ‘ – यहाँ ये पद निर्गुण-निराकार की उपासना करने वाले साधकों का वाचक है। अर्जुन ने श्लोक के पूर्वार्द्ध में जिस श्रेणी के सगुण-साकार के उपासकों के लिये ये पद का प्रयोग किया है उसी श्रेणी के निर्गुण-निराकार के उपासकों के लिये यहाँ ये पद का प्रयोग किया गया है। ‘अक्षरम् ‘ पद अविनाशी सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में की जायगी)। जो किसी इन्द्रिय का विषय नहीं है उसे ‘अव्यक्त’ कहते हैं। यहाँ ‘अव्यक्तम् ‘ पद के साथ ‘अक्षरम्’ विशेषण दिया गया है। अतः यह पद निर्गुण-निराकार ब्रह्म का वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में की जायगी)। ‘अपि ‘ पद से ऐसा भाव प्रतीत होता है कि यहाँ साकार उपासकों की तुलना उन्हीं निराकार उपासकों से की गयी है जो केवल निराकार ब्रह्म को श्रेष्ठ मानकर उसकी उपासना करते हैं। ‘तेषां के योगवित्तमाः’ – यहाँ ‘तेषाम् ‘ पद सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के उपासकों के लिये आया है। इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘तेषाम्’ पद निर्गुण उपासकों के लिये आया है जबकि सातवें श्लोक में ‘तेषाम्’ पद सगुण उपासकों के लिये आया है।इन पदों से अर्जुन का अभिप्राय यह है कि इन दो प्रकार के उपासकों में कौन से उपासक श्रेष्ठ हैं। साकार और निराकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन है ? अर्जुन के इस प्रश्न का भगवान ने जो उत्तर दिया है उस पर गहरा विचार करने से अर्जुन के प्रश्न की महत्ता का पता चलता है जैसे इस अध्याय के दूसरे श्लोक से 14वें अध्याय के 20वें श्लोक तक भगवान अविराम बोलते ही चले गये हैं। 73 श्लोकों का इतना लम्बा प्रकरण गीता में एकमात्र यही है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि भगवान इस प्रकरण में कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात समझाना चाहते हैं। साधकों को साकार और निराकार स्वरूप में एकता का बोध हो उनके हृदय में इन दोनों स्वरूपों को प्राप्त कराने वाले साधनों का साङ्गोपाङ्ग रहस्य प्रकट हो । सिद्ध भक्तों (गीता 12। 13 — 19) और ज्ञानियों (गीता 14। 22 — 25) के आदर्श लक्षणों से वे परिचित हों और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद की विशेष महत्ता उनकी समझमें आ जाय – इन्हीं उद्देश्यों को सिद्ध करने में भगवान की विशेष रुचि मालूम देती है। तात्पर्य है कि भगवान के हृदय में जीवों के लिये जो परम कल्याणकारी , अत्यन्त गोपनीय और उत्तमोत्तम भाव थे , उनको प्रकट करवाने का श्रेय अर्जुन के इस भगवत्प्रेरित प्रश्न को ही है। अर्जुन के सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठताविषयक प्रश्न के उत्तर में भगवान निर्णय देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )