BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
13 – 20 भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण
अर्जुन उवाच
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥12.13॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.14॥
अद्वेष्टा – द्वेष रहित ; सर्वभूतानाम-समस्त जीवों के प्रति; मैत्रः-मैत्रीभाव वाला; करुणः-दयावान; एव-वास्तव में; च-भी; निर्मम-स्वामित्व की आसक्ति से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सम-समभाव; दुःख-दुख; सुखः-सुख; क्षमी-क्षमावान; सन्तुष्टः-तुष्ट; सततम्-निरंतर; योगी-भक्ति में एकीकृत; यतात्मा – आत्मसंयमी; दृढनिश्चयः-दृढसंकल्प सहित; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मन:-मन को; बुद्धिः-तथा बुद्धि को; यः-जो; मत् भक्त:-मेरा भक्त; स:-वह; मे-मेरा; प्रियः-अतिप्रिय।
जो मनुष्य सब भूतों ( प्राणियों ) में द्वेष भाव से रहित अर्थात जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, स्वार्थ रहित , सबसे प्रेम करने वाले , सबके मित्र और दयालु है ऐसे मुझमें अर्पण किये हुए मन और बुद्धि वाले भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त , ममता और मिथ्या अहंकार से मुक्त रहते हैं, दुख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाले हैं तथा जो । ऐसे भक्त निरन्तर संतुष्ट और तृप्त रहते हैं , मेरी भक्ति में दृढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं। वे आत्म संयमित होकर, दूंढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं। ऐसे भक्त मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाले हैं । इस प्रकार मुझ में अर्पित और समर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे अतिशय प्रिय है॥12.13-12.14॥
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् – अनिष्ट करने वालों के दो भेद हैं – (1) इष्ट की प्राप्ति में अर्थात् धन , मान-बड़ाई , आदर-सत्कार आदि की प्राप्ति में बाधा पैदा करने वाले और (2) अनिष्ट पदार्थ , क्रिया , व्यक्ति , घटना आदि से संयोग कराने वाले। भक्त के शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ और सिद्धान्त के प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही , किसी प्रकार का व्यवहार करे – इष्ट की प्राप्ति में बाधा डाले , किसी प्रकार की आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये पर भक्त के हृदय में उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्र में अपने प्रभु को ही व्याप्त देखता है ऐसी स्थिति में वह विरोध करे तो किससे करे -निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।। (मानस 7। 112 ख)। इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करने वालों की सब क्रियाओं को भी भगवान का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है , प्राणिमात्र स्वरूप से भगवान का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणी के प्रति थोड़ा भी द्वेष-भाव रहना भगवान के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणी के प्रति द्वेष रहते हुए भगवान से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्र के प्रति द्वेषभाव से रहित होने पर ही भगवान में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्त में प्राणिमात्र के प्रति द्वेष का सर्वथा अभाव होता है। मैत्रः करुण एव च (टिप्पणी प0 648) – भक्त के अन्तःकरण में प्राणिमात्र के प्रति केवल द्वेष का अत्यन्त अभाव ही नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण प्राणियों में भगवद्भाव होने के नाते उसका सबसे मैत्री और दया का व्यवहार भी होता है। भगवान प्राणिमात्र के सुहृद् हैं – सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। भगवान का स्वभाव भक्त में अवतरित होने के कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् होता है – सुहृदः सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्त का भी सभी प्राणियों के प्रति बिना किसी स्वार्थ के स्वाभाविक ही मैत्री और दया का भाव रहता है – हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।। (मानस 7। 47। 3) अपना अनिष्ट करने वालों के प्रति भी भक्त के द्वारा मित्रता का व्यवहार होता है क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करने वाले ने अनिष्टरूप में भगवान का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं , भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करने वाला (अनिष्ट में निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मों का नाश कर रहा है । अतः वह विशेषरूप से आदर का पात्र है। साधकमात्र के मन में यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करने वाला उसके पिछले पापों का फल भुगता कर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधक में भी अनिष्ट करने वाले के प्रति मैत्री और करुणा का भाव रहता है फिर सिद्ध भक्त का तो कहना ही क्या है ? सिद्ध भक्त का तो उसके प्रति ही क्या , प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और दया का विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शन में चित्तशुद्धि के चार हेतु बताये गये हैं – मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। (1। 33) सुखियों के प्रति मैत्री , दुःखियों के प्रति करुणा , पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता (प्रसन्नता ) और पापात्माओं के प्रति उपेक्षा के भाव से चित्त में निर्मलता आती है परन्तु भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में विभक्त कर दिया है – ‘मैत्रः च करुणः।’ तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त का सुखियों और पुण्यात्माओं के प्रति मैत्री का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओं के प्रति करुणा का भाव रहता है। दुःख पाने वाले की अपेक्षा दुःख देने वाले पर (उपेक्षा का भाव न होकर) दया होनी चाहिये क्योंकि दुःख पाने वाला तो (पुराने पापों का फल भोगकर) पापों से छूट रहा है पर दुःख देने वाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देने वाला दया का विशेष पात्र है।निर्ममः – यद्यपि भक्त का प्राणिमात्र के प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणा का भाव रहता है तथापि उसकी किसी के प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थों में ममता (मेरेपन का भाव ) ही मनुष्य को संसार में बाँधने वाली होती है। भक्त इस ममता से सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि में भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधक से भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थों से तो ममता को हटाने की चेष्टा करता है पर अपने शरीर , मन , बुद्धि और इन्द्रियों से ममता हटाने की ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। निरहंकारः – शरीर , इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थों को अपना स्वरूप मानने से अहंकार उत्पन्न होता है। भक्त की अपने शरीरादि के प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होने के कारण तथा केवल भगवान से अपने नित्य सम्बन्ध का अनुभव हो जाने के कारण उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ , दिव्य , अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणों को भी वह अपने गुण नहीं मानता बल्कि (दैवी सम्पत्ति होने से) भगवान के ही मानता है। सत् (परमात्मा )के होने के कारण ही ये गुण सद्गुण कहलाते हैं। ऐसी दशा में भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है ? इसलिये वह अहंकार से सर्वथा रहित होता है।समदुःखसुखः – भक्त सुख दुःखों की प्राप्ति में सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदय में राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते। गीता में सुख-दुःख , पद , अनुकूलता-प्रतिकूलता की परिस्थिति (जो सुख-दुःख उत्पन्न करने में हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरण में होने वाले हर्ष-शोक आदि विकारों के लिये भी आया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुख-दुःख में सम होने का अर्थ है – अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आने पर अपने में हर्षशोकादि विकारों का न होना। भक्त के शरीर , इन्द्रियाँ , मन , सिद्धान्त आदि के अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी , पदार्थ , परिस्थिति, घटना आदि का संयोग या वियोग होने पर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है पर उसके अन्तःकरण में हर्षशोकादि कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थिति का ज्ञान होना अपने आप में कोई दोष नहीं है बल्कि उससे अन्तःकरण में विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकारों से सर्वथा रहित होता है। जैसे प्रारब्धानुसार भक्त के शरीर में कोई रोग होने पर उसे शारीरिक पीड़ा का ज्ञान (अनुभव) तो होगा किन्तु उसके अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार नहीं होगा। क्षमी – अपना किसी तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी प्रकार का दण्ड देने की इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देने वाले को क्षमी कहते हैं। भक्त के लक्षणों में पहले अद्वेष्टा पद देकर भगवान ने भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति द्वेष का अभाव बताया । अब यहाँ ‘क्षमी’ पद से यह बताते हैं कि भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान अथवा अन्य किसी के द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्त की एक विशेषता है। ‘संतुष्टः सततम्’ (टिप्पणी प0 650.1) – जीव को मन के अनुकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि के संयोग में और मन के प्रतिकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि के वियोग में एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थों से होने के कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होने के कारण जीव को नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान को प्राप्त होने पर भक्त नित्य निरन्तर संतुष्ट रहता है क्योंकि न तो उसका भगवान से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान संसार की कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोष का कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टि के कारण वह संसार के किसी भी प्राणी पदार्थ के प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)। ‘संतुष्टः’ के साथ ‘सततम्’ पद देकर भगवान ने भक्त के उस नित्यनिरन्तर रहने वाले संतोष की ओर ही लक्ष्य कराया है जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग? ज्ञानयोग या भक्तियोग – किसी भी योगमार्ग से सिद्धि प्राप्त करने वाले महापुरुष में ऐसी संतुष्टि (जो वास्तव में है) निरन्तर रहती है। योगी – भक्तियोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त (नित्यनिरन्तर परमात्मा से संयुक्त ) पुरुष का नाम यहाँ योगी है। वास्तव में किसी भी मनुष्य का परमात्मा से कभी वियोग हुआ नहीं , है नहीं , हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकता का जिसने अनुभव कर लिया है , वही योगी है। ‘यतात्मा’ – जिसका मन-बुद्धि-इन्द्रियों सहित शरीर पर पूर्ण अधिकार है , वह यतात्मा है। सिद्ध भक्त को मन-बुद्धि आदि वश में करने नहीं पड़ते बल्कि ये स्वाभाविक ही उसके वश में रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकार के इन्द्रियजन्य दुर्गुण-दुराचारी के आने की सम्भावना ही नहीं रहती। वास्तव में मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से सन्मार्ग पर चलने के लिये ही हैं किन्तु संसार से रागयुक्त सम्बन्ध रहने से ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्त का संसार से किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता इसलिये उसकी मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ सर्वथा उसके वश में होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों के लिये आदर्श होती है। ऐसा देखा जाता है कि न्यायपथ पर चलने वाले सत्पुरुषों की इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे राजा दुष्यन्त की वृत्ति शकुन्तला की ओर जाने पर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रिय कन्या ही है , ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदास के कथनानुसार जहाँ सन्देह हो वहाँ सत्पुरुष के अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है ,सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः।। (अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21) जब न्यायशील सत्पुरुष की इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्ग की ओर नहीं होती तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्म से कभी किसी अवस्था में च्युत नहीं होता) की मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती हैं ? दृढनिश्चयः – सिद्ध महापुरुष की दृष्टि में संसार की स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धि में एक परमात्मा की ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धि में विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलने वाले संसार का स्थायी दिखना ) नहीं रहता। उसको एक भगवान के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धि में नहीं बल्कि स्वयं में होता है जिसका आभास बुद्धि में प्रतीत होता है। संसार की स्वतन्त्र सत्ता मानने से अथवा संसार से अपना सम्बन्ध मानने से ही बुद्धि में विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुष की बुद्धि के निश्चय में ही अन्तर होता है स्वरूप से तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानी की बुद्धि में संसार की सत्ता और उसका महत्त्व रहता है परन्तु सिद्ध भक्त की बुद्धि में एक भगवान के सिवाय न तो संसार की किसी वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोष से सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मा में ही दृढ़ निश्चय होता है। मय्यर्पितमनोबुद्धिः – जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान का ही हो जाता है (जो कि वास्तव में है ) तब उसके मन-बुद्धि भी अपने आप भगवान में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्त के मन-बुद्धि भगवान के अर्पित रहें – इसमें तो कहना ही क्या है ? जहाँ प्रेम होता है वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्य का मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्त से श्रेष्ठ समझता है उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्त के लिये भगवान से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धि पर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान में लगे रहते हैं। यः मद्भक्तः स मे प्रियः (टिप्पणी प0 651) – भगवान को तो सभी प्रिय हैं परन्तु भक्त का प्रेम भगवान के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशा में ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता 4। 11) – इस प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान को भी भक्त प्रिय होता है। सिद्ध भक्त के लक्षणों का दूसरा प्रकरण जिसमें छः लक्षणों का वर्णन है आगे के श्लोक में आया है – स्वामी रामसुखदास जी
12.14 अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् – अनिष्ट करने वालों के दो भेद हैं – (1) इष्ट की प्राप्ति में अर्थात् धन , मान-बड़ाई , आदर-सत्कार आदि की प्राप्ति में बाधा पैदा करने वाले और (2) अनिष्ट पदार्थ , क्रिया , व्यक्ति , घटना आदि से संयोग कराने वाले। भक्त के शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ और सिद्धान्त के प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही , किसी प्रकार का व्यवहार करे – इष्ट की प्राप्ति में बाधा डाले , किसी प्रकार की आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये पर भक्त के हृदय में उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्र में अपने प्रभु को ही व्याप्त देखता है ऐसी स्थिति में वह विरोध करे तो किससे करे – ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।। (मानस 7। 112 ख)। ‘ इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करने वालों की सब क्रियाओं को भी भगवान का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है । प्राणिमात्र स्वरूप से भगवान का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणी के प्रति थोड़ा भी द्वेष-भाव रहना भगवा के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणी के प्रति द्वेष रहते हुए भगवान से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्र के प्रति द्वेषभाव से रहित होने पर ही भगवान में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्त में प्राणिमात्र के प्रति द्वेष का सर्वथा अभाव होता है। ‘मैत्रः करुण एव च ‘ (टिप्पणी प0 648) – भक्त के अन्तःकरण में प्राणिमात्र के प्रति केवल द्वेष का अत्यन्त अभाव ही नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण प्राणियों में भगवद्भाव होने के नाते उसका सबसे मैत्री और दया का व्यवहार भी होता है। भगवान प्राणिमात्र के सुहृद् हैं – ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता 5। 29)। भगवान का स्वभाव भक्त में अवतरित होने के कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद् होता है – ‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्त का भी सभी प्राणियों के प्रति बिना किसी स्वार्थ के स्वाभाविक ही मैत्री और दया का भाव रहता है – ‘हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।। ‘ (मानस 7। 47। 3) अपना अनिष्ट करने वालों के प्रति भी भक्त के द्वारा मित्रता का व्यवहार होता है क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करने वाले ने अनिष्टरूप में भगवान का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करने वाला (अनिष्ट में निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मों का नाश कर रहा है । अतः वह विशेषरूप से आदर का पात्र है। साधकमात्र के मन में यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करने वाला उसके पिछले पापों का फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधक में भी अनिष्ट करने वाले के प्रति मैत्री और करुणा का भाव रहता है फिर सिद्ध भक्त का तो कहना ही क्या है ? सिद्ध भक्त का तो उसके प्रति ही क्या प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और दया का विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शन में चित्तशुद्धि के चार हेतु बताये गये हैं – ‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।’ (1। 33) सुखियों के प्रति मैत्री , दुःखियों के प्रति करुणा , पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता (प्रसन्नता ) और पापात्माओं के प्रति उपेक्षा के भाव से चित्त में निर्मलता आती है परन्तु भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में विभक्त कर दिया है – ‘मैत्रः च करुणः।’ तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त का सुखियों और पुण्यात्माओं के प्रति मैत्री का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओं के प्रति करुणा का भाव रहता है। दुःख पाने वाले की अपेक्षा दुःख देने वाले पर (उपेक्षा का भाव न होकर ) दया होनी चाहिये क्योंकि दुःख पाने वाला तो (पुराने पापों का फल भोगकर ) पापों से छूट रहा है पर दुःख देने वाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देने वाला दया का विशेष पात्र है।निर्ममः – यद्यपि भक्त का प्राणिमात्र के प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणा का भाव रहता है तथापि उसकी किसी के प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थों में ममता (मेरेपन का भाव ) ही मनुष्य को संसार में बाँधने वाली होती है। भक्त इस ममता से सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि में भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधक से भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थों से तो ममता को हटाने की चेष्टा करता है पर अपने शरीर , मन , बुद्धि और इन्द्रियों से ममता हटाने की ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। निरहंकारः – शरीर , इन्द्रियाँ आदि जडपदार्थों को अपना स्वरूप मानने से अहंकार उत्पन्न होता है। भक्त की अपने शरीरादि के प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होने के कारण तथा केवल भगवान से अपने नित्य सम्बन्ध का अनुभव हो जाने के कारण उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ , दिव्य , अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणों को भी वह अपने गुण नहीं मानता बल्कि (दैवी सम्पत्ति होने से) भगवान के ही मानता है। सत् (परमात्मा )के होने के कारण ही ये गुण सद्गुण कहलाते हैं। ऐसी दशा में भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है ? इसलिये वह अहंकार से सर्वथा रहित होता है।समदुःखसुखः – भक्त सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदय में राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते। गीता में सुख-दुःख पद अनुकूलता-प्रतिकूलता की परिस्थिति (जो सुख-दुःख उत्पन्न करने में हेतु है ) के लिये तथा अन्तःकरण में होने वाले हर्ष-शोकादि विकारों के लिये भी आया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुख-दुःख में सम होने का अर्थ है – अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आने पर अपने में हर्ष-शोकादि विकारों का न होना। भक्त के शरीर , इन्द्रियाँ , मन , सिद्धान्त आदि के अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी , पदार्थ , परिस्थिति , घटना आदि का संयोग या वियोग होने पर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है पर उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोकादि कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थिति का ज्ञान होना अपने आप में कोई दोष नहीं है बल्कि उससे अन्तःकरण में विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकारों से सर्वथा रहित होता है। जैसे प्रारब्धानुसार भक्त के शरीर में कोई रोग होने पर उसे शारीरिक पीड़ा का ज्ञान (अनुभव) तो होगा किन्तु उसके अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार नहीं होगा। क्षमी – अपना किसी तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी प्रकार का दण्ड देने की इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देने वाले को क्षमी कहते हैं। भक्त के लक्षणों में पहले ‘अद्वेष्टा’ पद देकर भगवा ने भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति द्वेष का अभाव बताया । अब यहाँ क्षमी पद से यह बताते हैं कि भक्त में अपना अपराध करने वाले के प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान अथवा अन्य किसी के द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्त की एक विशेषता है। ‘संतुष्टः सततम्’ (टिप्पणी प0 650.1) – जीव को मन के अनुकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि के संयोग में और मन के प्रतिकूल प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि के वियोग में एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थों से होने के कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होने के कारण जीव को नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान को प्राप्त होने पर भक्त नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहता है क्योंकि न तो उसका भगवान से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान संसार की कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोष का कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टि के कारण वह संसार के किसी भी प्राणी-पदार्थ के प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)। ‘संतुष्टः ‘ के साथ ‘सततम्’ पद देकर भगवान ने भक्त के उस नित्य-निरन्तर रहने वाले संतोष की ओर ही लक्ष्य कराया है जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़ने की सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग – किसी भी योगमार्ग से सिद्धि प्राप्त करने वाले महापुरुष में ऐसी संतुष्टि (जो वास्तव में है ) निरन्तर रहती है। योगी – भक्तियोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त (नित्य-निरन्तर परमात्मा से संयुक्त ) पुरुष का नाम यहाँ योगी है। वास्तव में किसी भी मनुष्य का परमात्मा से कभी वियोग हुआ ही नहीं , है नहीं , हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकता का जिसने अनुभव कर लिया है वही योगी है।यतात्मा – जिसका मन-बुद्धि-इन्द्रियों सहित शरीर पर पूर्ण अधिकार है वह ‘यतात्मा’ है। सिद्ध भक्त को मन-बुद्धि आदि वश में करने नहीं पड़ते बल्कि ये स्वाभाविक ही उसके वश में रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकार के इन्द्रियजन्य दुर्गुण-दुराचारी के आने की सम्भावना ही नहीं रहती। वास्तव में मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से सन्मार्ग पर चलने के लिये ही हैं किन्तु संसार से राग-युक्त सम्बन्ध रहने से ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्त का संसार से किञ्चिन्मात्र भी राग-युक्त सम्बन्ध नहीं होता इसलिये उसकी मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ सर्वथा उसके वश में होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों के लिये आदर्श होती है। ऐसा देखा जाता है कि न्यायपथ पर चलने वाले सत्पुरुषों की इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे राजा दुष्यन्त की वृत्ति शकुन्तला की ओर जाने पर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रियकन्या ही है ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदास के कथनानुसार जहाँ सन्देह हो वहाँ सत्पुरुष के अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है – सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः।। (अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21) जब न्यायशील सत्पुरुष की इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्ग की ओर नहीं होती तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्म से कभी किसी अवस्था में च्युत नहीं होता) की मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती हैं ? दृढनिश्चयः – सिद्ध महापुरुष की दृष्टि में संसार की स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धि में एक परमात्मा की ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धि में विपर्ययदोष (प्रतिक्षण बदलने वाले संसार का स्थायी दिखना ) नहीं रहता। उसको एक भगवान के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धि में नहीं बल्कि स्वयं में होता है जिसका आभास बुद्धि में प्रतीत होता है। संसार की स्वतन्त्र सत्ता मानने से अथवा संसार से अपना सम्बन्ध मानने से ही बुद्धि में विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुष की बुद्धि के निश्चय में ही अन्तर होता है । स्वरूप से तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानी की बुद्धि में संसार की सत्ता और उसका महत्त्व रहता है परन्तु सिद्ध भक्त की बुद्धि में एक भगवान के सिवाय न तो संसार की किसी वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोष से सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मा में ही दृढ़ निश्चय होता है। ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ – जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान का ही हो जाता है (जो कि वास्तव में है ) तब उसके मनबुद्धि भी अपने आप भगवान में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्त के मन-बुद्धि भगवान के अर्पित रहें – इसमें तो कहना ही क्या है ? जहाँ प्रेम होता है वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्य का मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्त से श्रेष्ठ समझता है उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्त के लिये भगवान से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धि पर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान में लगे रहते हैं। ‘यः मद्भक्तः स मे प्रियः’ (टिप्पणी प0 651) – भगवान को तो सभी प्रिय हैं परन्तु भक्त का प्रेम भगवान के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशा में ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’ (गीता 4। 11) — इस प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान को भी भक्त प्रिय होता है। सिद्ध भक्त के लक्षणों का दूसरा प्रकरण जिसमें छः लक्षणों का वर्णन है आगे के श्लोक में आया है – स्वामी रामसुखदास जी