BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
13 – 20 भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण
श्रीभगवानुवाच
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥12.15॥
यस्मात्-जिसके द्वारा; न – कभी नहीं; उद्विजते-उत्तेजित, क्रोधित, चिंतित ; लोकः-लोग, व्यक्ति , जीव , प्राणी ; लोकात्-लोगों से; न–कभी नहीं; उद्विजते-विक्षुब्ध होना; च–भी; यः-जो; हर्ष-प्रसन्न; अमर्ष- ईर्ष्या , अप्रसन्नता, दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होना ; भय-भय; उद्वेगैः-चिन्ता से; मुक्त:-मुक्त; यः-जो; सः-वह; च-और; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।
जिस के द्वारा कोई भी जीव , कोई भी व्यक्ति , कोई भी प्राणी उद्वेग ( क्रोध या चिंता ) को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव , प्राणी , व्यक्ति द्वारा उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष या ईर्ष्या , भय और चिंता आदि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है अर्थात वे जो किसी भी प्राणी को उद्विग्न ( क्रोधित या चिंतित ) करने का कारण नहीं होते और न ही किसी के द्वारा व्यथित होते हैं। जो सुख-दुख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं ॥12.15॥
यस्मान्नोद्विजते लोकः – भक्त सर्वत्र और सब में अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन , वाणी और शरीर से होने वाली सम्पूर्ण क्रियाएँ एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिये ही होती है (गीता 6। 31)। ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है ? फिर भी भक्तों के चरित्र में यह देखने में आता है कि उनकी महिमा , आदर-सत्कार तथा कहीं-कहीं उनकी क्रिया यहाँ तक कि उनकी सौम्य आकृतिमात्र से भी कुछ लोग ईर्ष्यावश उद्विग्न हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं। लोगों को भक्त से होने वाले उद्वेग के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो यही पता चलेगा कि भक्त की क्रियाएँ कभी किसी के उद्वेग का कारण नहीं होतीं क्योंकि भक्त प्राणिमात्र में भगवान को ही देखता है — वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। उसकी मात्र क्रियाएँ स्वभावतः प्राणियोंके परमहितके लिये ही होती हैं। उसके द्वारा कभी भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नहीं होती। जिनको उससे उद्वेग होता है वह उनके अपने रागद्वेषयुक्त आसुर स्वभाव के कारण ही होता है। अपने ही दोषयुक्त स्वभाव के कारण उनको भक्त की हितपूर्ण चेष्टाएँ भी उद्वेगजनक प्रतीत होती हैं। इसमें भक्त का क्या दोष है ? भर्तृहरिजी कहते हैं – मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम्। लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति।। (भर्तृहरिनीतिशतक 61) हरिण , मछली और सज्जन क्रमशः तृण , जल और संतोष पर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं (किसी को कुछ नहीं कहते ) परन्तु व्याध , मछुए और दुष्ट लोग अकारण ही इनसे वैर करते हैं। वास्तव में भक्तों द्वारा दूसरे मनुष्यों के उद्विग्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता? बल्कि भक्तों के चरित्र में ऐसे प्रसङ्ग देखने में आते हैं कि उनसे द्वेष रखने वाले लोग भी उनके चिन्तन और सङ्ग-दर्शन- स्पर्श -वार्तालाप के प्रभाव से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गये। ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही हेतु है। उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।(मानस 5। 41। 4) परन्तु भक्तों से द्वेष करने वाले सभी लोगों को लाभ ही होता हो – ऐसा नियम भी नहीं है। अगर ऐसा मान लिया जाय कि भक्त से किसी को उद्वेग होता ही नहीं अथवा दूसरे लोग भक्त के विरुद्ध कोई चेष्टा करते ही नहीं या भक्त के शत्रुमित्र होते ही नहीं तो फिर भक्त के लिये शत्रु-मित्र , मान-अपमान , निन्दा-स्तुति आदि में सम होने की बात (जो आगे 18वें , 19वें श्लोकों में कही गयी है ) नहीं कही जाती। तात्पर्य यह है कि लोगों को अपने आसुर स्वभाव के कारण भक्त की हितकर क्रियाओं से भी उद्वेग हो सकता है और वे बदले की भावना से भक्त के विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपने को उस भक्त का शत्रु मान सकते हैं परन्तु भक्त की दृष्टि में न तो कोई शत्रु होता है और न किसी को उद्विग्न करने का उसका भाव ही होता है। ‘लोकान्नोद्विजते च यः’ – पहले भगवान ने बताया कि भक्त से किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और अब उपर्युक्त पदों से यह बताते हैं कि भक्त को खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं होता। इसके दो कारण हैं (1) भक्त के शरीर , मन , इन्द्रियाँ , सिद्धान्त आदि के विरुद्ध भी अनिच्छा या परेच्छा से क्रियाएँ और घटनाएँ हो सकती हैं परन्तु वास्तविकता का बोध होने तथा भगवान में अत्यन्त प्रेम होने के कारण भक्त भगवत्प्रेम में इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान के ही दर्शन होते हैं। इसलिये प्राणिमात्र की क्रियाओं में (चाहे उनमें कुछ उसके प्रतिकूल ही क्यों न हों ) उसको भगवान की ही लीला दिखायी देती है। अतः उसको किसी भी क्रिया से कभी उद्वेग नहीं होता। (2) मनुष्य को दूसरों से उद्वेग तभी होता है जब उसकी कामना , मान्यता , साधना , धारणा आदि का विरोध होता है। भक्त सर्वथा पूर्णकाम होता है। इसलिये दूसरों से उद्विग्न होने का कोई कारण ही नहीं रहता। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः – यहाँ हर्ष से मुक्त होने का तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त सब प्रकार के हर्षादि विकारों से सर्वथा रहित होता है। पर इसका आशय यह नहीं है कि सिद्ध भक्त सर्वथा हर्षरहित (प्रसन्नताशून्य) होता है बल्कि उसकी प्रसन्नता तो नित्य , एकरस , विलक्षण और अलौकिक होती है। हाँ , उसकी प्रसन्नता सांसारिक पदार्थों के संयोग-वियोग से उत्पन्न क्षणिक , नाशवान तथा घटने-बढ़ने वाली नहीं होती। सर्वत्र भगवद्बुद्धि रहने से एकमात्र अपने इष्टदेव भगवान को और उनकी लीलाओं को देख-देख कर वह सदा ही प्रसन्न रहता है। किसी के उत्कर्ष (उन्नति) को सहन न करना अमर्ष कहलाता है। दूसरे लोगों को अपने समान या अपने से अधिक सुख-सुविधा , धन , विद्या , महिमा , आदर-सत्कार आदि प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्य के अन्तःकरण में उनके प्रति ईर्ष्या होने लगती है क्योंकि उसको दूसरों का उत्कर्ष सहन नहीं होता। कई बार कुछ साधकों के अन्तःकरण में भी दूसरे साधकों की आध्यात्मिक उन्नति और प्रसन्नता देखकर अथवा सुनकर किञ्चित् ईर्ष्या का भाव पैदा हो जाता है। पर भक्त इस विकार से सर्वथा रहित होता है क्योंकि उसकी दृष्टि में अपने प्रिय प्रभु के सिवाय अन्य किसी की स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं। फिर वह किसके प्रति अमर्ष करे और क्यों करे ? अगर साधक के हृदय में दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भाव पैदा होता है कि मेरी भी ऐसी ही आध्यात्मिक उन्नति हो तो यह भाव उसके साधन में सहायक होता है परन्तु अगर साधक के हृदय में ऐसा भाव पैदा हो जाय कि इसकी उन्नति क्यों हो गयी ? तो ऐसे दुर्भाव के कारण उसके हृदय में अमर्ष का भाव पैदा हो जायगा जो उसे पतन की ओर ले जाने वाला होगा।इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग की आशङ्का से होने वाले विकराल को भय कहते हैं। भय दो कारणों से होता है – (1) बाहरी कारणों से जैसे – सिंह , साँप , चोर , डाकू आदि से अनिष्ट होने अथवा किसी प्रकार की सांसारिक हानि पहुँचने की आशङ्का से होने वाला भय और (2) भीतरी कारणों से जैसे – चोरी , झूठ , कपट , व्यभिचार आदि शास्त्रविरुद्ध भावों तथा आचरणों से होने वाला भय। सबसे भड़ा भय मौत का होता है। विवेकशील कहे जाने वाले पुरुषों को भी प्रायः मौत का भय बना रहता है (टिप्पणी प0 653)। साधक को भी प्रायः सत्सङ्ग-भजन-ध्यानादि साधनों से शरीर के कृश होने आदि का भय रहता है। उसको कभी-कभी यह भय भी होता है कि संसार से सर्वथा वैराग्य हो जाने पर मेरे शरीर और परिवार का पालन कैसे होगा ? साधारण मनुष्य को अनुकूल वस्तु की प्राप्ति में बाधा पहुँचाने वाले अपने से बलवान मनुष्य से भय होता है। ये सभी भय केवल शरीर (जडता ) के आश्रय से ही पैदा होते हैं। भक्त सर्वथा भगवच्चरणों के आश्रित रहता है इसलिये वह सदा-सर्वदा भयरहित होता है। साधक को भी तभी तक भय रहता है जब तक वह सर्वथा भगवच्चरणों के आश्रित नहीं हो जाता। सिद्ध भक्त को तो सदा – सर्वत्र अपने प्रिय प्रभु की लीला ही दिखती है। फिर भगवान की लीला उसके हृदय में भय कैसे पैदा कर सकती है ? मन का एकरूप न रहकर हलचलयुक्त हो जाना उद्वेग कहलाता है। इस (पंद्रहवें ) श्लोक में उद्वेग शब्द तीन बार आया है। पहली बार उद्वेग की बात कहकर भगवान ने यह बताया कि भक्त की कोई भी क्रिया उसकी ओर से किसी मनुष्य के उद्वेग का कारण नहीं बनती। दूसरी बार उद्वेग की बात कहकर यह बताया कि दूसरे मनुष्यों की किसी भी क्रिया से भक्त के अन्तःकरण में उद्वेग नहीं होता। इसके सिवाय दूसरे कई कारणों से भी मनुष्य को उद्वेग हो सकता है । जैसे बार-बार कोशिश करने पर भी अपना कार्य पूरा न होना , कार्य का इच्छानुसार फल न मिलना , अनिच्छा से ऋतु-परिवर्तन भूकम्भ , बाढ़ आदि दुःखदायी घटनाएँ घटना अपनी कामना , मान्यता , सिद्धान्त अथवा साधन में विघ्न पड़ना आदि। भक्त इन सभी प्रकार के उद्वेगों से सर्वथा मुक्त होता है – यह बताने के लिये ही तीसरी बार उद्वेग की बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि भक्त के अन्तःकरण में उद्वेग नाम की कोई चीज रहती ही नहीं। उद्वेग के होने में अज्ञानजनित इच्छा और आसुर स्वभाव ही कारण है। भक्त में अज्ञान का सर्वथा अभाव होने से कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं रहती फिर आसुर स्वभाव तो साधना अवस्था में ही नष्ट हो जाता है। भगवान की इच्छा ही भक्त की इच्छा होती है। भक्त अपनी क्रियाओं के फलरूप में अथवा अनिच्छा से प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में भगवान का कृपापूर्ण विधान ही देखता है और निरन्तर आनन्द में मग्न रहता है। अतः भक्त में उद्वेग का सर्वथा अभाव होता है। ‘मुक्तः’ पद का अर्थ है – विकारों से सर्वथा छूटा हुआ। अन्तःकरण में संसार का आदर रहने से अर्थात् परमात्मा में पूर्णतया मनबुद्धि न लगने से ही हर्ष , अमर्ष , भय , उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं परन्तु भक्त की दृष्ट में एक भगवान के सिवाय अन्य किसी की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता न रहने से उसमें ये विकार उत्पन्न ही नहीं होते। उसमें स्वाभाविक ही सद्गुण-सदाचार रहते हैं। इस श्लोक में भगवान ने ‘भक्तः’ पद न देकर ‘मुक्तः’ पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त यावन्मात्र दुर्गुण-दुराचारों से सर्वथा रहित होता है। गुणों का अभिमान होने से दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं। अपने में किसी गुण के आने पर अभिमानरूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाय तो उस गुण को गुण कैसे माना जा सकता है ? दैवी सम्पत्ति (सद्गुण) से कभी आसुरी सम्पत्ति (दुर्गुण) उत्पन्न नहीं हो सकती। अगर दैवी सम्पत्ति से आसुरी सम्पत्ति की उत्पत्ति होती तो ‘दैवी संपद्विमोक्षाय’ (गीता 16। 5) — इन भगवद्वचनों के अनुसार मनुष्य मुक्त कैसे होता ? वास्तव में गुणों के अभिमान में गुण कम तथा दुर्गुण (अभिमान) अधिक होता है। अभिमान से दुर्गुणों की वृद्धि होती है क्योंकि सभी दुर्गुण-दुराचार अभिमान के ही आश्रित रहते हैं। भक्त को तो प्रायः इस बात की जानकारी ही नहीं होती कि मेरे में कोई गुण है। अगर उसको अपने में कभी कोई गुण दिखता भी है तो वह उसको भगवान का ही मानता है , अपना नहीं। इस प्रकार गुणों का अभिमान न होने के कारण भक्त सभी दुर्गुण-दुराचारों , विकारों से मुक्त होता है। भक्त को भगवान प्रिय होते हैं इसलिये भगवान को भी भक्त प्रिय होते हैं । (गीता 7। 17)। सिद्ध भक्त के छः लक्षण बताने वाला तीसरा प्रकरण आगे के श्लोक में आया है – स्वामी रामसुखदास जी