Bhagwad Gita Chapter 12

 

 

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BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह

अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

 

13 – 20  भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण

 

 

Bhagavad Gita chapter 12अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥12.16॥

 

 

अनपेक्ष:-सासांरिक प्रलोभनों से उदासीन, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से रहित ; शुचि:-शुद्ध, पवित्र; दक्षः-कुशल, निपुण ; उदासीन:-चिन्ता रहित; गतव्यथ:-कष्टों से मुक्त, कष्ट रहित , व्यथा रहित ; सर्वारम्भ – सभी प्रकार के कार्य कलाप , समस्त प्रयत्न, नये-नये कर्मों का आरम्भ ; परित्यागी-त्याग करने वाला; यः-जो; मत् भक्त:-मेरा भक्त; सः-वह; मे – मेरा; प्रियः-अति प्रिय।

 

 

वे जो सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन रहते हैं अर्थात आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से रहित , बाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध , निपुण , चिन्ता रहित, कष्ट रहित और सभी प्रकार के आरम्भों अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का या सभी प्रकार के कार्यकलापों और प्रयत्नों का सर्वथा परित्याग करने वाले हैं या उनसे सन्यास लेने वाले हैं , मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।।12.16॥

 

अनपेक्षः – भक्त भगवान को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टि में भगवत्प्राप्ति से बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसार की किसी भी वस्तु में उसका किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव नहीं होता। इतना ही नहीं , अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियों , मन , बुद्धि में भी उसका अपनापन नहीं रहता बल्कि वह उनको भी भगवान का ही मानता है जो कि वास्तव में भगवान के ही हैं। अतः उसको शरीर-निर्वाह की भी चिन्ता नहीं होती। फिर वह और किस बात की अपेक्षा करे अर्थात् फिर उसे किसी भी वस्तु की इच्छा-वासना-स्पृहा नहीं रहती। भक्त पर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाय , आपत्ति का ज्ञान होने पर भी उसके चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर से भयंकर परिस्थिति में भी वह भगवान की लीला का अनुभव करके मस्त रहता है। इसलिये वह किसी प्रकार की अनुकूलता की कामना नहीं करता। नाशवान पदार्थ तो रहते नहीं उनका वियोग अवश्यम्भावी है और अविनाशी परमात्मा से कभी वियोग होता ही नहीं – इस वास्तविकता को जानने के कारण भक्त में स्वाभाविक ही नाशवान पदार्थों की इच्छा पैदा नहीं होती। यह बात खास ध्यान देने की है कि केवल इच्छा करने से शरीर-निर्वाह के पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करने से न मिलते हों – ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तव में शरीर-निर्वाह की आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है क्योंकि जीवमात्र के शरीर-निर्वाह की आवश्यक सामग्री का प्रबन्ध भगवान की ओर से पहले ही हुआ रहता है। इच्छा करने से तो आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति में बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तु को अपने लिये अत्यन्त आवश्यक समझकर वह वस्तु कैसे मिले ? कहाँ मिले ? कब मिले ? ऐसी प्रबल इच्छा को अपने अन्तःकरण में पकड़े रहता है तो उसकी उस इच्छा का विस्तार नहीं हो पाता अर्थात् उसकी वह इच्छा दूसरे लोगों के अन्तःकरण तक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगों के अन्तःकरण में उस आवश्यक वस्तु को देने की इच्छा या प्रेरणा नहीं होती। प्रायः देखा जाता है कि लेने की प्रबल इच्छा रखने वाले (चोर आदि) को कोई देना नहीं चाहता। इसके विपरीत किसी वस्तु की इच्छा न रखने वाले विरक्त त्यागी और बालक की आवश्यकताओं का अनुभव अपने आप दूसरों को होता है और दूसरे उनके शरीरनिर्वाह का अपने आप प्रसन्नतापूर्वक प्रबन्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि इच्छा न करने से जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुएँ बिना माँगे स्वतः मिलती हैं। अतः वस्तुओं की इच्छा करना केवल मूर्खता और अकारण दुःख पाना ही है। सिद्ध भक्त को तो अपने कहे जाने वाले शरीर की भी अपेक्षा नहीं होती इसलिये वह सर्वथा निरपेक्ष होता है। किसी-किसी भक्त को तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान दर्शन दें , भगवान दर्शन दें तो आनन्द , न दें तो आनन्द , वह तो सदा भगवान की प्रसन्नता और कृपा को देखकर मस्त रहता है। ऐसे निरपेक्ष भक्त के पीछे-पीछे भगवान भी घूमा करते हैं भगवान स्वयं कहते हैं – निरेपक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।। (श्रीमद्भा0 11। 14। 16) जो निरपेक्ष (किसी की अपेक्षा न रखने वाला) निरन्तर मेरा मनन करने वाला शान्त , द्वेषरहित और सबके प्रति समान दृष्टि रखने वाला है , उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण रज मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ। किसी वस्तु की इच्छा को लेकर भगवान की भक्ति करने वाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तु का ही भक्त होता है क्योंकि (वस्तु की ओर लक्ष्य रहने से) वह वस्तु के लिये ही भगवान की भक्ति करता है न कि भगवान के लिये परन्तु भगवान की यह उदारता है कि उसको भी अपना भक्त मानते हैं (गीता 7। 16) क्योंकि वह इच्छित वस्तु के लिये किसी दूसरे पर भरोसा न रखकर अर्थात् केवल भगवान पर भरोसा रखकर ही भजन करता है। इतना ही नहीं भगवान् भक्त ध्रुवकी तरह उस (अर्थार्थी भक्त) की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निःस्पृह भी बना देते हैं।शुचिः — शरीरमें अहंताममता (मैंमेरापन) न रहनेसे भक्तका शरीर अत्यन्त पवित्र होता है। अन्तःकरणमें रागद्वेष? हर्षशोक? कामक्रोधादि विकारोंके न रहनेसे उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र होता है। ऐसे (बाहरभीतरसे अत्यन्त पवित्र) भक्तके दर्शन? स्पर्श? वार्तालाप और चिन्तनसे दूसरे लोग भी पवित्र हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगोंको पवित्र करते हैं किन्तु ऐसे भक्त तीर्थोंको भी तीर्थत्व प्रदान करते हैं अर्थात् तीर्थ भी उनके चरणस्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं (पर भक्तोंके मनमें ऐसा अहंकार नहीं होता)। ऐसे भक्त अपने हृदयमें विराजित पवित्राणां पवित्रम् (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले) भगवान्के प्रभावसे तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं — तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता।।(श्रीमद्भा0 1। 13। 10)महाराज भगीरथ गङ्गाजी से कहते हैं – साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः। हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरिः।। (श्रीमद्भा0 9। 9। 6) माता जिन्होंने लोक-परलोक की समस्त कामनाओं का त्याग कर दिया है जो संसार से उपरत होकर अपने आप में शान्त हैं जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी साधु पुरुष हैं वे अपने अङ्ग-स्पर्श से तुम्हारे (पापियों के अङ्गस्पर्श से आये) समस्त पापों को नष्ट कर देंगे क्योंकि उनके हृदय में समस्त पापों का नाश करने वाले भगवान सर्वदा निवास करते हैं। दक्षः – जिसने करने योग्य काम कर लिया है वही दक्ष है। मानव जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इसी के लिये मनुष्यशरीर मिला है। अतः जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया अर्थात् भगवान को प्राप्त कर लिया वही वास्तव में दक्ष अर्थात् चतुर है। भगवान कहते हैं – एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्। यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।(श्रीमद्भा0 11। 29। 22) विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लें। सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तव में दक्षता नहीं है। एक दृष्टि से तो व्यवहार में अधिक दक्षता होना कलङ्क ही है क्योंकि इससे अन्तःकरण में जड पदार्थों का आदर बढ़ता है जो मनुष्य के पतन का कारण होता है। सिद्ध भक्त में व्यावहारिक (सांसारिक ) दक्षता भी होती है परन्तु व्यावहारिक दक्षता को पारमार्थिक स्थिति की कसौटी मानना वस्तुतः सिद्ध भक्त का अपमान ही करना है। उदासीनः – उदासीन शब्द का अर्थ है – उत्आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ , तटस्थ पक्षपात से रहित। विवाद करने वाले दो व्यक्तियों के प्रति जिसका सर्वथा तटस्थ भाव रहता है उसको उदासीन कहा जाता है। उदासीन शब्द निर्लिप्तता का द्योतक है। जैसे ऊँचे पर्वत पर खड़े हुए पुरुष पर नीचे पृथ्वी पर लगी हुई आग या बाढ़ आदि का कोई असर नहीं पड़ता ऐसे ही किसी भी अवस्था , घटना , परिस्थिति आदि का भक्त पर कोई असर नहीं पड़ता , वह सदा निर्लिप्त रहता है। जो मनुष्य भक्त का हित चाहता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है , वह उसका मित्र समझा जाता है और जो मनुष्य भक्त का अहित चाहता है तथा उसके प्रतिकूल आचरण करता है , वह उसका शत्रु समझा जाता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जाने वाले व्यक्ति के साथ भक्त के बाहरी व्यवहार में फरक मालूम दे सकता है परन्तु भक्त के अन्तःकरण में दोनों मनुष्यों के प्रति किञ्चिन्मात्र भी भेदभाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियों में सर्वथा उदासीन अर्थात् निर्लिप्त रहता है। भक्त के अन्तःकरण में अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीर-सहित सम्पूर्ण संसार को परमात्मा का ही मानता है। इसलिये उसका व्यवहार पक्षपात से रहित होता है। गतव्यथः – कुछ मिले या न मिले , कुछ भी आये या चला जाय । जिसके चित्त में दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल कभी होती ही नहीं उस भक्त को यहाँ ‘गतव्यथः’ कहा गया है। यहाँ व्यथा शब्द केवल दुःख का वाचक नहीं है। अनुकूलता की प्राप्ति होने पर चित्त में प्रसन्नता तथा प्रतिकूलता की प्राप्ति होने पर चित्त में खिन्नता की जो हलचल होती है वह भी व्यथा ही है। अतः अनुकूलता तथा प्रतिकूलता से अन्तःकरण में होने वाले राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकारों के सर्वथा अभाव को ही यहाँ ‘गतव्यथः’ पद से कहा गया है। सर्वारम्भपरित्यागी – भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्म करने को आरम्भ कहते हैं जैसे – सुखभोग के उद्देश्य से घर में नयी-नयी चीजें इकट्ठी करना , वस्त्र खरीदना , रुपये बढ़ाने के उद्देश्य से नयी-नयी दुकानें खोलना , नया व्यापार शुरू करना आदि। भक्त , भोग और संग्रह के लिये किये जाने वाले मात्र कर्मों का सर्वथा त्यागी होता है (टिप्पणी प0 656.1)। जिसका उद्देश्य संसार का है और जो वर्ण , आश्रम , विद्या , बुद्धि , योग्यता , पद , अधिकार आदि को लेकर अपने में विशेषता देखता है वह भक्त नहीं होता। भक्त भगवन्निष्ठ होता है। अतः उसके कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , क्रिया , फल आदि सब भगवान के अर्पित होते हैं। वास्तव में इन शरीरादि के मालिक भगवान ही हैं। प्रकृति और प्रकृति का कार्यमात्र भगवान का है। अतः भक्त एक भगवान के सिवाय किसी को भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होने वाले मात्र कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये ही होते हैं। धन-सम्पत्ति , सुख-आराम , मान-बड़ाई आदि के लिये किये जाने वाले कर्म उसके द्वारा कभी होते ही नहीं। जिसके भीतर परमात्मतत्त्व की प्राप्ति की ही सच्ची लगन लगी है वह साधक चाहे किसी भी मार्ग का क्यों न हो , भोग भोगने और संग्रह करने के उद्देश्य से वह कभी कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। यो मद्भक्तः स मे प्रियः – भगवान में स्वाभाविक ही इतना महान आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है उनका प्रेमी हो जाता है। आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।। (श्रीमद्भा0 1। 7। 10) ज्ञान के द्वारा जिनकी चित जड़ ग्रन्थि कट गयी है – ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान की हेतुरहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियों को अपनी ओर खींच लेते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अगर भगवान में इतना महान आकर्षण है तो सभी मनुष्य भगवान की ओर क्यों नहीं खिंच जाते , उनके प्रेमी क्यों नहीं हो जाते – वास्तव में देखा जाय तो जीव भगवान का ही अंश है। अतः उसका भगवान की ओर स्वतः स्वाभाविक आकर्षण होता है परन्तु जो भगवान वास्तव में अपने हैं उनको तो मनुष्य ने अपना माना नहीं और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ-शरीर-कुटुम्बादि अपने नहीं हैं उनको उसने अपना मान लिया। इसीलिये वह शारीरिक निर्वाह और सुख की कामना से सांसारिक भोगोंकी ओर आकृष्ट हो गया तथा अपने अंशी भगवान से दूर (विमुख) हो गया। फिर भी उसकी यह दूरी वास्तविक नहीं माननी चाहिये। कारण कि नाशवान भोगों की ओर आकृष्ट होने से उसकी भगवान से दूरी दिखायी तो देती है पर वास्तव में दूरी है नहीं क्योंकि उन भोगों में भी तो सर्वव्यापी भगवान परिपूर्ण हैं परन्तु इन्द्रियों के विषयों में अर्थात् भोगों में ही आसक्ति होनेके कारण उसको उनमें छिपे भगवान दिखायी नहीं देते। जब इन नाशवान भोगों की ओर उसका आकर्षण नहीं रहता तब वह स्वतः ही भगवान की ओर खिंच जाता है। संसार में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहने से भक्त का एकमात्र भगवान में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्य प्रेमी भक्त को भगवान ‘मद्भक्तः’ कहते हैं। जिस भक्त का भगवान में अनन्य प्रेम है वह भगवान को  प्रिय होता है। सिद्ध भक्त के पाँच लक्षणों वाला चौथा प्रकरण आगे के श्लोक में आया है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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