Bhagwad Gita Chapter 12

 

 

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BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह

अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

 

01 – 12  साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय

 

 

Bhagwad Gita Chapter 12श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥12.12॥

 

 

श्रेयः-उत्तम; हि-निश्चय ही; ज्ञानम्-ज्ञान; अभ्यासात्- शारीरिक अभ्यास से; ज्ञानात्-ज्ञान से; ध्वानम्-ध्यान; विशिष्यते-श्रेष्ठ समझा जाता है; ध्यानात्-ध्यान से; कर्मफलत्यागः-समस्त कर्म फलों का त्याग; त्यागात्-त्याग से; शान्तिः-शान्ति; अनंतरम्- शीघ्र।

 

 

मर्म को न जानकर किए हुए शारीरिक अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान की अपेक्षा मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान की अपेक्षा  सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12.12॥

(केवल भगवान के लिए कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान की अपेक्षा ‘कर्मफल का त्याग’ श्रेष्ठ कहा है)

 

[भगवान ने आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक एक-एक साधन में असमर्थ होने पर क्रमशः समर्पणयोग , अभ्यासयोग , भगवदर्थ कर्म और कर्मफलत्याग – ये चार साधन बताये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमशः पहले साधन की अपेक्षा आगे का साधन नीचे दर्जे का है और अन्त में कहा गया कर्मफलत्यागका साधन सबसे नीचे दर्जे का है। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि पहले के तीन साधनों में भगवत्प्राप्तिरूप फल की बात (निवसिष्यसि मय्येव मामिच्छाप्तुम् तथा सिद्धिमवाप्स्यसि – इन पदों द्वारा ) साथ-साथ कही गयी परन्तु ग्यारहवें श्लोक में जहाँ कर्मफलत्याग करने की आज्ञा दी गयी है वहाँ उसका फल भगवत्प्राप्ति नहीं बताया गया। उपर्युक्त धारणाओं को दूर करने के लिये यह बारहवाँ श्लोक कहा गया है। इसमें भगवान ने कर्मफलत्याग को श्रेष्ठ और तत्काल परमशान्ति देने वाला बताया है? जिससे कि इस चौथे साधन को कोई निम्न श्रेणी का न समझ ले। कारण कि इस साधन में आसक्ति , ममता और फलेच्छा के त्याग की ही प्रधानता होने से जिस तत्त्व की प्राप्ति समर्पणयोग , अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करने से होती है ठीक उसी तत्त्व की प्राप्ति कर्मफलत्याग से भी होती है। वास्तव में उपर्युक्त चारों साधन स्वतन्त्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। साधकों की रुचि , विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण ही भगवान ने आठवें से ग्यारहवें श्लोक तक अलग-अलग साधन कहे हैं। जहाँ तक कर्मफलत्याग के फल (भगवत्प्राप्ति) को अलग से बारहवें श्लोक में कहने का प्रश्न है उसमें यही विचार करना चाहिये कि समर्पणयोग , अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करने से भगवत्प्राप्ति होती है यह तो प्रायः प्रचलित ही है किंतु कर्मफलत्याग से भी भगवत्प्राप्ति होती है यह बात प्रचलित नहीं है। इसीलिये प्रचलित साधनों की अपेक्षा इसकी श्रेष्ठता बताने के लिये बारहवाँ श्लोक कहा गया है और उसी में कर्मफलत्याग का फल कहना उचित प्रतीत होता है।] ‘श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ‘ – महर्षि पतञ्जलि कहते हैं – तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः। (योगदर्शन 1। 13) अर्थात् किसी एक विषय में स्थिति (स्थिरता ) प्राप्त करने के लिये बार-बार प्रयत्न करनेका नाम अभ्यास है। यहाँ (इस श्लोक में) अभ्यास शब्द केवल अभ्यासरूप क्रिया का वाचक है अभ्यासयोग का वाचक नहीं क्योंकि इस (प्राणायाम , मनोनिग्रह आदि ) अभ्यास में शास्त्रज्ञान और ध्यान नहीं है तथा कर्मफल की इच्छा का त्याग भी नहीं है। जडता से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही योग होता है जबकि उपर्युक्त अभ्यास में जडता (शरीर ,इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि ) का आश्रय रहता है। यहाँ ज्ञान शब्द का अर्थ शास्त्रज्ञान है , तत्त्वज्ञान नहीं क्योंकि तत्त्वज्ञान तो सभी साधनोंका फल है। अतः यहाँ जिस ज्ञानकी अभ्याससे तुलना की जा रही है? उस ज्ञानमें न तो अभ्यास है? न ध्यान है और न कर्मफलत्याग ही है। जिस अभ्यास में न ज्ञान है , न ध्यान है और न कर्मफलत्याग ही है – ऐसे अभ्यास की अपेक्षा उपर्युक्त ज्ञान ही श्रेष्ठ है। शास्त्रों के अध्ययन और सत्सङ्ग के द्वारा आध्यात्मिक जानकारी को तो प्राप्त कर ले पर न तो उसके अनुसार वास्तविक तत्त्व का अनुभव करे और न ध्यान , अभ्यास और कर्मफलत्यागरूप किसी साधन का अनुष्ठान ही करे – ऐसी (केवल शास्त्रों की ) जानकारी के लिये यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद आया है। इस ज्ञान को उपर्युक्त अभ्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ कहने का तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक ज्ञान से रहित अभ्यास भगवत्प्राप्ति में उतना सहायक नहीं होता जितना अभ्यास से रहित ज्ञान सहायक होता है। कारण कि ज्ञान से भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत् हो सकती है जिससे संसार से ऊँचा उठना जितना सुगम हो सकता है उतना अभ्यासमात्र से नहीं। ‘ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ‘ – यहाँ ध्यान शब्द केवल मन की एकाग्रतारूप क्रिया का वाचक है ध्यानयोग का वाचक नहीं। इस ध्यान में शास्त्रज्ञान और कर्मफलत्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है जिस ज्ञान में अभ्यास , ध्यान और कर्मफलत्याग नहीं है। कारण कि ध्यान से मन का नियन्त्रण होता है जब कि केवल शास्त्रज्ञान से मन का नियन्त्रण नहीं होता। इसलिये मन नियन्त्रण के कारण ध्यान से जो शक्ति सञ्चित होती है वह शास्त्रज्ञान से नहीं होती। यदि साधक उस शक्ति का सदुपयोग करके परमात्मा की तरफ बढ़ना चाहे तो जितनी सुगमता उसको होगी उतनी शास्त्र ज्ञान वाले को नहीं। इसके साथ-साथ ध्यान करने वाले साधक को (अगर वह शास्त्र का अध्ययन करे तो ) मन की एकाग्रता के कारण वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति बहुत सुगमता से हो सकती है जबकि केवल शास्त्राध्यायी साधक को (चाहने पर भी ) मन की चञ्चलता के कारण ध्यान लगाने में कठनिता होती है। [आजकल भी देखा जाय तो शास्त्र का अध्ययन करने वाले आदमी जितने मिलते हैं उतने मन की एकाग्रता के लिये उद्योग करने वाले नहीं मिलते।] ] ‘ध्यानात्कर्मफलत्यागः’ – ज्ञान और कर्मफलत्याग से रहित ध्यान की अपेक्षा ज्ञान और ध्यान से रहित कर्मफलत्याग श्रेष्ठ है। यहाँ कर्मफलत्याग का अर्थ कर्मों तथा कर्मफलों का स्वरूप से त्याग नहीं है बल्कि कर्मों और उनके फलों में ममता , आसक्ति और कामना का त्याग ही है। उत्पत्तिविनाशशील सब की सब वस्तुएँ कर्मफल हैं। उनकी आसक्ति का त्याग करना ही सम्पूर्ण कर्मों के फलों का त्याग करना है। कर्मों में आसक्ति और फलेच्छा ही संसार में बन्धन का कारण है। आसक्ति और फलेच्छा न रहने से कर्मफलत्यागी पुरुष सुगमतापूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , योग्यता , सामर्थ्य , पदार्थ आदि जो कुछ मनुष्य के पास है वह सब का सब संसार से ही मिला हुआ है , उसका व्यक्तिगत नहीं है। इसलिये कर्मफलत्यागी अर्थात् कर्मयोगी मिली हुई (शरीरादि ) सब सामग्री को अपनी और अपने लिये न मानकर उसको निष्कामभावपूर्वक संसार की ही सेवा में लगा देता है। इस प्रकार मिली हुई साम्रगी (जडता ) का प्रवाह संसार (जडता) की ही तरफ हो जाने से उसका जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मा से अपने स्वाभाविक और नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव हो जाता है। इसलिये कर्मयोगी के लिये अलग से ध्यान लगाने की जरूरत नहीं है। अगर वह ध्यान लगाना भी चाहे तो कोई सांसारिक कामना न होने के कारण वह सुगमतापूर्वक ध्यान लगा सकता है जब कि सकामभाव के कारण सामान्य साधक को ध्यान लगाने में कठिनाई होती है। गीता के छठे अध्याय में (ध्यानयोग के प्रकरण में) भगवान् ने बताया है कि ध्यान का अभ्यास करते-करते अन्त में जब साधक का चित्त एकमात्र परमात्मा में अच्छी तरह से स्थित हो जाता है तब वह सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो जाता है और चित्त के उपराम होने पर वह स्वयं से परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाता है (6। 18 — 20) परन्तु कर्मयोगी सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके तत्काल स्वयं से परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाता है (गीता 2। 55)। कारण यह है कि ध्यान में परमात्मा में चित्त लगाया जाता है , इसलिये उसमें चित्त (जडता ) का आश्रय रहने के कारण चित्त (जडता ) के साथ बहुत दूर तक सम्बन्ध बना रहता है परन्तु कर्मयोग में ममता और कामना का त्याग किया जाता है इसलिये उसमें ममता और कामना (जडता ) का त्याग करने के साथ ही चित्त (जडता ) का भी स्वतः त्याग हो जाता है। इसलिये परिणाम में समानरूप से परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर भी ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक को ध्येय में चित्त लगाने में कठिनाई होती है तथा उसे परमात्मतत्त्व का अनुभव भी देरी से होता है जब कि कर्मयोगी को परमात्मतत्त्व का अनुभव सुगमतापूर्वक तथा शीघ्रता से होता है। इससे सिद्ध होता है कि ध्यान की अपेक्षा कर्मयोग का साधन श्रेष्ठ है।अपना कुछ नहीं , अपने लिये कुछ नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ नहीं करना है – यही कर्मयोग का मूल महामन्त्र है जिसके कारण यह सब साधनों से विलक्षण हो जाता है – कर्मयोगो विशिष्यते (गीता 5। 2)। त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् – यहाँ ‘त्यागात्’ पद कर्मफलत्याग के लिये ही आया है। त्याग के स्वरूप को विशेषरूप से समझने की आवश्यकता है। त्याग न तो उसका हो सकता है जो अपना स्वरूप है और न उसी का हो सकता है जिसके साथ अपना सम्बन्ध नहीं है। जैसे अपना स्वरूप होने के कारण प्रकाश और उष्णता से सूर्य का वियोग नहीं हो सकता और जिससे वियोग नहीं हो सकता उसका त्याग करना असम्भव है। इसके विपरीत अपना स्वरूप न होने के कारण अन्धकार और शीतलता से सूर्य का वियोग भी कहना नहीं बनता क्योंकि अपना स्वरूप न होने के कारण उनका वियोग अथवा त्याग नित्य और स्वतःसिद्ध है। इसलिये वास्तव में त्याग उसी का होता है जो अपना नहीं है पर भूल से अपना मान लिया गया है। जीव स्वयं चेतन और अविनाशी है तथा संसार जड और विनाशी है। जीव भूल से (अपने अंशी परमात्मा को भूलकर) विजातीय संसार को अपना मान लेता है। इसलिये संसारसे माने हुए सम्बन्धका ही त्याग करनेकी आवश्यकता है।त्याग असीम होता है। संसारके सम्बन्धमें तो सीमा होती है? पर संसार के त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद ) में सीमा नहीं होती। तात्पर्य है कि जिन वस्तुओं से हम अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं उन वस्तुओं की तो सीमा होती है पर उन वस्तुओं का त्याग असीम होता है। त्याग करते ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति भी असीम होती है। कारण कि परमात्मतत्त्व देश, काल, वस्तु , व्यक्ति आदि की सीमा से रहित (असीम ) है। सीमित वस्तुओं के मोह के कारण ही उस असीम परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। कर्मफलत्याग में संसार से माने हुए सम्बन्ध का त्याग हो जाता है। इसलिये यहाँ ‘त्यागात् ‘ पद कर्मों और उनके फलों (संसार) के साथ भूल से माने हुए सम्बन्ध का त्याग करने के अर्थ में ही आया है। यही त्याग का वास्तविक स्वरूप है। त्याग के अन्तर्गत जप , भजन , ध्यान , समाधि आदि के फल का त्याग भी समझना चाहिये। कारण कि जब तक जप, भजन , ध्यान, समाधि अपने लिये की जाती है तब तक व्यक्तित्व बना रहने से बन्धन बना रहता है। अतः अपने लिये किया हुआ ध्यान , समाधि आदि भी बन्धन ही है। इसलिये किसी भी क्रिया के साथ अपने लिये कुछ भी चाह न रखना ही त्याग है। वास्तविक त्याग में त्यागवृत्तिसे भी सम्बन्धविच्छेद हो जाता है।यहाँ शान्तिः पदका तात्पर्य परमशान्तिकी प्राप्ति है। इसीको भगवत्प्राप्ति कहते हैं।अभ्यास? ज्ञान और ध्यान – तीनों साधनों से वस्तुतः कर्मफलत्यागरूप साधन श्रेष्ठ है। जब तक साधक में फल की आसक्ति रहती है तब तक वह (जडता का आश्रय रहने से) मुक्त नहीं हो सकता ( गीता 5। 12)। इसलिये फलासक्ति के त्याग की जरूरत अभ्यास , ज्ञान और ध्यान – तीनों ही साधनों में है। जडता अर्थात् उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का सम्बन्ध ही अशान्ति का खास कारण है। कर्मफलत्याग अर्थात् कर्मयोग में आरम्भ से ही कर्मों और उनके फलों में आसक्ति का त्याग किया जाता है (गीता 5। 11)। इसलिये जडता का सम्बन्ध न रहने से कर्मयोगी को शीघ्र परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है (गीता 5। 12)। कर्मफलत्यागसम्बन्धी विशेष बात- कर्मफलत्याग कर्मयोग का ही दूसरा नाम है। कारण कि कर्मयोग में कर्मफलत्याग ही मुख्य है। यह कर्मयोग भगवान श्रीकृष्ण के अवतार से बहुत पहले ही लुप्तप्राय हो गया था (गीता 4। 2)। भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कृपापूर्वक इस कर्मयोग को पुनः प्रकट किया (गीता 4। 3)। भगवान ने इसको प्रकट करके प्रत्येक परिस्थिति में प्रत्येक मनुष्य को कल्याण का अधिकार प्रदान किया अन्यथा अध्यात्ममार्ग के विषय में कभी यह सोचा ही नहीं जा सकता कि एकान्त के बिना कर्मों को छोड़े बिना , वस्तुओं का त्याग किये बिना , स्वजनों के त्यागके बिना – प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है । कर्मयोग में फलासक्ति का त्याग ही मुख्य है। स्वस्थता-अस्वस्थता , धनवत्ता-निर्धनता , मान-अपमान , स्तुति-निन्दा आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ कर्मों के फलरूपमें आती हैं। इनके साथ राग-द्वेष रहने से कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती (गीता 2। 42 — 44)। उत्पन्न होने वाली मात्र वस्तुएँ कर्मफल हैं। जो फलरूप में मिला है? वह सदा रहने वाला नहीं होता क्योंकि जब कर्म सदा नहीं रहता तब उससे उत्पन्न होने वाला फल सदा कैसे रहेगा इसलिये उसमें आसक्ति , ममता करना भूल ही है। जो फल कभी नहीं मिला है? उसकी कामना करना भी भूल है। अतः फलासक्ति का त्याग कर्मयोगका बीज है। कर्मयोग में क्रियाओं की प्रधानता प्रतीत होती है और शरीरादि जड पदार्थोंके बिना क्रियाओं का होना सम्भव नहीं है इसलिये कर्मों एवं फलों से छुटकारा पाना कठिन मालूम देता है परन्तु वास्तव में देखा जाय तो मिली हुई कर्मसामग्री (शरीरादि  जडपदार्थों) को अपनी तथा अपने लिये मानने से ही फलासक्ति का त्याग कठिन मालूम देता है। शरीरादि प्राप्तसामग्री में किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर कर्तव्यकर्म करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है (गीता 3। 19)। वास्तव में क्रियाएँ कभी बन्धनकारक नहीं होतीं। बन्धन का मूल हेतु कामना और फलासक्ति है। कामना और फलासक्ति के मिटने पर सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं ( गीता 4। 19 — 23)। भगवान ने कर्मयोग को कर्मसंन्यास से भी श्रेष्ठ बताया है (गीता 5। 2)। भगवान के मत में स्वरूप से कर्मों का त्याग करने वाला व्यक्ति संन्यासी नहीं है बल्कि कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्तव्यकर्म करने वाला कर्मयोगी ही संन्यासी है (गीता 6। 1)। आसक्तिरहित कर्मयोगी सभी संकल्पों से मुक्त होकर सुगमतापूर्वक योगारूढ़ हो जाता है (गीता 6। 4)। इसके विपरीत जो कर्मों तथा उनके फलों को अपना और अपने लिये मानकर सुखभोग की इच्छा रखते हैं वे वास्तव में पाप का ही भोग करते हैं (गीता 3। 13)। अतः फलासक्ति ही संसार में बन्धन का मुख्य कारण है – फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। इसका त्याग ही वास्तव में त्याग है (गीता 18। 11)। गीता फलासक्ति के त्याग पर जितना जोर देती है उतना और किसी साधन पर नहीं। दूसरे साधनों का वर्णन करते समय भी कर्मफलत्याग को उनके साथ रखा गया है। भगवान के मतानुसार त्याग वही है जिसमें निष्कामभाव से अपने कर्तव्य का पालन हो और फलों में किसी प्रकार की आसक्ति न हो (गीता 18। 6)। उत्तम से उत्तम कर्मों में भी आसक्ति न हो और साधारण से साधारण कर्मों में भी द्वेष न हो क्योंकि कर्म तो उत्पन्न होकर समाप्त हो जायँगे पर उनमें होने वाली आसक्ति (राग ) और द्वेष रह जायगा जो बन्धन का हेतु है। इसके विपरीत अहंभाव तथा राग-द्वेष से रहित मनुष्य के सामने समस्त प्राणियों का संहाररूप कर्तव्यकर्म भी आ जाय तो भी वह बँध नहीं सकता (गीता 18। 17)। इसीलिये भगवान कर्मफलत्याग को तप , ज्ञान , कर्म , अभ्यास , ध्यान आदि साधनों से श्रेष्ठ बताते हैं। दूसरे साधनों में क्रियाएँ तो उत्तम प्रतीत होती हैं पर विशेष लाभ दिखायी नहीं देता तथा श्रम भी करना पड़ता है परन्तु फलासक्ति का त्याग कर देने पर न तो कोई नये कर्म करने पड़ते हैं , न आश्रम , देश आदि का परिवर्तन ही करना पड़ता है बल्कि साधक जहाँ है , जो करता है , जैसी परिस्थिति में है उसी में (फलासक्ति के त्याग से ) बहुत सुगमता से अपना कल्याण कर सकता है। नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति होती है , प्राप्ति नहीं। जहाँ परमात्मा की प्राप्ति कहा जाता है वहाँ उसका अर्थ नित्यप्राप्त की प्राप्ति या अनुभव ही मानना चाहिये। वह प्राप्ति साधनों से नहीं होती बल्कि जडता के त्याग से होती है। ममता , कामना और आसक्ति ही जडता है। शरीर , मन, इन्द्रियाँ , पदार्थ आदि को मैं या मेरा मानना ही जडता है। ज्ञान , अभ्यास , ध्यान , तप आदि साधन करते-करते जब जडता से सम्बन्ध-विच्छेद होता है तभी नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति होती है। इस जडता का त्याग जितना कर्मफलत्याग से अर्थात् कर्मयोग से सुगम होता है उतना ज्ञान , अभ्यास , ध्यान , तप आदि से नहीं। कारण कि ज्ञानादि साधनों में शरीरादि को अपना और साधन को अपने लिये मानते रहने से जडता (शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ ) से विशेष सम्बन्ध बना रहता है। इन साधनों का लक्ष्य परमात्मप्राप्ति होने से आखिर में सफलता तो मिल जाती है किन्तु उसमें देरी और कठिनाई होती है परन्तु कर्मयोग में आरम्भ से ही जडता के त्याग का लक्ष्य रहता है। जडता का सम्बन्ध ही नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति में प्रधान बाधा है – यह बात अन्य साधनों में स्पष्ट प्रतीत नहीं होती। जब साधक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि मेरे को कभी किसी परिस्थिति में मन , वाणी अथवा क्रिया से चोरी , झूठ , व्यभिचार , हिंसा , छल , कपट , अभक्ष्य भक्षण आदि कोई शास्त्रविरुद्ध कर्म नहीं करने हैं तब उसके द्वारा स्वतः विहित कर्म होने लगते हैं। साधक को निषिद्ध कर्मों के त्याग का ही निश्चय करना चाहिये न कि विहित कर्मों को करने का। कारण कि अगर साधक विहित कर्मों को करने का निश्चय करता है तो उसमें विहित कर्म करने का अभिमान आ जायगा जिससे उसका अहम सुरक्षित रहेगा। विहित कर्म करने का अभिमान रहने से निषिद्ध कर्म होते हैं परन्तु मैं निषिद्ध कर्म नहीं करूँगा इस निषेधात्मक निश्चय में किसी योग्यता , सामर्थ्य की अपेक्षा न रहने के कारण साधक में अभिमान नहीं आता। निषिद्ध कर्मों के त्याग में भी मूर्खता से अभिमान आ सकता है। अभिमान आने पर विचार करे कि जो नहीं करना चाहिये वह नहीं किया तो इसमें विशेषता किस बात की ? फल की कामना भी तभी होती है जब कुछ किया जाता है। जब कुछ किया ही नहीं , केवल निषिद्ध कर्म का त्याग ही किया है (टिप्पणी प0 646) तब फल की कामना क्यों होगी ? अतः करने का अभिमान न रहने से फलासक्ति का त्याग स्वतः हो जाता है। फलासक्ति का त्याग होने पर शान्ति स्वतःसिद्ध है। साधनसम्बन्धी विशेष बात- भगवान ने नवें , दसवें और ग्यारहवें श्लोक में क्रमशः जो तीन साधन (अभ्यासयोग भगवदर्थकर्म और कर्मफलत्याग ) बताये हैं । विचारपूर्वक देखा जाय तो उनमें से (कर्मफलत्याग को छोड़कर ) प्रत्येक साधन में शेष दोनों साधन भी आ जाते हैं जैसे – (1) अभ्यासयोग में भगवान के लिये भजन , नामजप आदि क्रियाएँ करने से वह भगवदर्थ है ही और नाशवान फल की कामना न होने से उसमें कर्मफलत्याग भी है (2) भगवदर्थ कर्म में भगवान के लिये कर्म होने से अभ्यासयोग भी है और नाशवान फल की कामना न होने से कर्मफलत्याग भी है। वास्तव में साधक को सबसे पहले अपने लक्ष्य , ध्येय अथवा उद्देश्य को दृढ़ करना चाहिये। इसके बाद उसे यह पहचानना चाहिये कि उसका सम्बन्ध वास्तव में किसके साथ है। फिर चाहे कोई भी साधन करे , अभ्यास करे , भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करे अथवा कर्मफलत्याग करे वही साधन उसके लिये श्रेष्ठ हो जायगा। जब साधक का यह लक्ष्य हो जायगा कि उसे भगवान को ही प्राप्त करना है और वह यह भी पहचान लेगा कि अनादिकाल से उसका भगवान के साथ स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है तब कोई भी साधन उसके लिये छोटा नहीं रह जायगा। किसी साधन का छोटा या बड़ा होना लौकिक दृष्टि से ही है। वास्तव में मुख्यता उद्देश्य की ही है। अतः साधक को चाहिये कि वह अपने उद्देश्य में कभी किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता न आने दे। किसी साधन की सुगमता या कठिनता साधक की रुचि और उद्देश्य पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान का होने से साधन सुगम होता है तथा रुचि संसार की और उद्देश्य भगवान का होने से साधन कठिन हो जाता है।जैसे भूख सबकी एक ही होती है और भोजन करने पर तृप्ति का अनुभव भी सबको एक ही होता है पर भोजन की रुचि सबकी भिन्न-भिन्न होने के कारण भोज्य पदार्थ भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह साधकों की रुचि , विश्वास और योग्यता के अनुसार साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं पर भगवान की अप्राप्ति का दुःख तथा भगवत्प्राप्ति की अभिलाषा (भूख ) सभी साधकों में एक ही होती है। साधक चाहे किसी भी श्रेणी का क्यों न हो , साधन की पूर्णता के बाद भगवत्प्राप्तिरूप आनन्द की अनुभूति (तृप्ति ) भी सबको एक जैसी ही होती है। इस प्रकरण में अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिये चार साधन बताये हैं – (1) समर्पणयोग (2) अभ्यासयोग (3) भगवान के लिये ही सम्पूर्ण कर्मों का अनुष्ठान और (4) सर्वकर्मफलत्याग। यद्यपि चारों साधनों का फल भगवत्प्राप्ति ही है तथापि साधकों में रुचि , श्रद्धाविश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण ही भिन्न-भिन्न साधनों का वर्णन हुआ है। वास्तव में चारों ही साधन समानरूप से स्वतन्त्र और श्रेष्ठ हैं। इसलिये साधक जो भी साधन अपनाये उसे उस साधन को सर्वोपरि मानना चाहिये।अपने साधन को किसी भी तरह हीन (निम्न श्रेणी का) नहीं मानना चाहिये और साधन की सफलता (भगवत्प्राप्ति) के विषय में कभी निराश भी नहीं होना चाहिये क्योंकि कोई भी साधन निम्न श्रेणी का नहीं होता। अगर साधक का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति हो ; साधन उसकी रुचि , विश्वास तथा योग्यताके अनुसार हो ; साधन पूरी सामर्थ्य और तत्परता (लगन ) से किया जाय और भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा भी तीव्र हो तो सभी साधन एक समान हैं। साधक को उद्देश्य , सामर्थ्य और तत्परता के विषय में कभी हतोत्साह नहीं होना चाहिये। भगवान साधक से इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी सामर्थ्य और योग्यता को साधन में लगा दे। साधक चाहे भगवत्तत्त्व को ठीक-ठीक न जाने पर सर्वज्ञ भगवान तो उसके उद्देश्य , भाव , सामर्थ्य , तत्परता आदि को अच्छी तरह जानते ही हैं। यदि साधक अपने उद्देश्य , भाव , चेष्टा , तत्परता , उत्कण्ठा आदि में किसी प्रकार की कमी न आने दे तो भगवान स्वयं उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। वास्तव में अपने उद्योग , बल , ज्ञान आदि की कीमत से भगवान की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। अगर भगवान के दिये हुए बल , ज्ञान आदि को भगवान की प्राप्ति के लिये ही लगा दिया जाय तो वे साधक को कृपापूर्वक अपनी प्राप्ति करा देते हैं। संसार में भगवत्प्राप्ति ही सबसे सुगम है और इसके सभी अधिकारी हैं क्योंकि इसी के लिये मनुष्यशरीर मिला है। सब प्राणियों के कर्म भिन्न-भिन्न होने के कारण किन्हीं दो व्यक्तियों को भी संसार के पदार्थ एक समान नहीं मिल सकते जब कि (भगवान एक होने से) भगवत्प्राप्ति सबको एक समान ही होती है क्योंकि भगवत्प्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। भगवान की प्राप्ति में संसार से वैराग्य और भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा – ये दो बातें ही मुख्य हैं। इन दोनों में से किसी भी एक साधन के तीव्र होने पर भगवत्प्राप्ति हो जाती है। फिर भी भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा में विशेष शक्ति है। ऊपर जो चार साधन बताये गये हैं , उनमें से प्रथम तीन साधन तो मुख्यतः भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा जाग्रत करने वाले हैं और चौथा साधन (कर्मफलत्याग) मुख्यतः संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने वाला है। साधन कोई भी हो जब सांसारिक भोग दुःखदायी प्रतीत होने लगेंगे तथा भोगों का हृदय से त्याग होगा तब (लक्ष्य भगवान होने से) भगवान की ओर स्वतः प्रगति होगी और भगवान की कृपा से ही उनकी प्राप्ति हो जायगी। इसी तरह जब भगवान परमप्रिय लगने लगेंगे , उनके बिना रहा नहीं जायगा , उनके वियोग में व्याकुलता होने लगेगी तब शीघ्र ही भगवान की प्राप्ति हो जायगी। भगवान ने निर्गुण निराकार ब्रह्म और सगुण साकार भगवान की उपासना करने वाले उपासकों में सगुण उपासकों को श्रेष्ठ बताकर अर्जुन को सगुण उपासना करने की आज्ञा दी। सगुण उपासना के अन्तर्गत भगवान ने आठवें से ग्यारहवें श्लोक तक अपनी प्राप्ति के चार साधन बताये। अब 13वें से 19वें श्लोक तक भगवान पाँच प्रकरणों में चारों साधनों से सिद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने प्रिय भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते हैं। पहला प्रकरण 13वें और 14वें दो श्लोकों का है जिसमें सिद्ध भक्त के बारह लक्षण बताये गये हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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