कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
वल्ली २
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधुर्भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥1
श्रेयः = कल्याण का साधन; अन्यत् = अलग है, दूसरा है; उत = तथा; प्रेयः = प्रिय प्रतीत होनेवाले भोगों का साधन; अन्यत् एव = अलग ही है, दूसरा ही है; ते उभे = वे दोनों; नाना अर्थे = भिन्न अर्थों में, भिन्न प्रयोजनों में; पुरुषम् = पुरुष को; सिनीतः = बाँधते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; तयोः= उन दोनों में; श्रेयः = कल्याण के साधन को; आददानस्य= ग्रहण करनेवाले पुरुष का; साधु भवति= कल्याण (शुभ) होता है; उ यः = और जो; प्रेयः वृणीते = प्रेय को स्वीकार करता है; अर्थात् = अर्थ से, यथार्थ से; हीयते = भ्रष्ट हो जाता है।
नचिकेता के आत्मानुराग को देखकर यमराज ने नचिकेता से कहा-
श्रेयमार्ग अन्य है, प्रेयमार्ग अन्य है। ये दोनों मार्ग मनुष्य को भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से आकर्षित करते हैं। इनमें श्रेयमार्ग को ग्रहण करनेवाले मनुष्य का कल्याण होता है और जो प्रेयमार्ग का वरण करता है, वह यथार्थ से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात वह जीवन के लक्ष्य से च्युत हो जाता है ।
(‘जीवन’ मृत्यु का ही एक रूप, और ‘मृत्यु’ जीवन का ही एक रूप होने के नाते एकमात्र सत्य अस्तित्व अनन्त है, दिव्य तथा अमर है।)
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्शेमाद्वृणीते ॥2
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यम् एतः=श्रेय और प्रेय मनुष्य को प्राप्त होते हैं, मनुष्य के सामने आते हैं; धीरः = श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; तौ = उन पर; सम्परीत्य = भली प्रकार विचार करके; विविनक्ति = छानबीन करता है, पृथक्-पृथक् समझता है; धीरः= श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; प्रेयसः = प्रेय की अपेक्षा; श्रेयः हि अभिवृणीते= श्रेय को ही ग्रहण करता है, श्रेय का ही वरण करता है; मन्दः= मन्द मनुष्य; योगक्षेमात्= सांसारिक योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त की रक्षा) से; प्रेयः वृणीते = प्रेय का वरण करता है।
श्रेयमार्ग और प्रेयमार्ग दोनों ही मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (धनादि ही को सुख समझकर) से प्रेय का ग्रहण करता है।
स त्वं प्रियान्प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः।
नैतां सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥3
नचिकेतः = हे नचिकेता; स त्वम् =वह तुम हो; प्रियान् च प्रियरूपान् कामान् = प्रिय (प्रतीत होनेवाले) और प्रिय रूपवाले भोगों को; अभिध्यायन् = सोच-समझकर; अत्यस्त्राक्षीः = छोड़ दिया; एताम् वित्तमयीम् सृडकाम् = इस धनसम्पत्तिस्वरूप सृडका (रत्नमाला एवं बन्धन अथवा मार्ग) को; न अवाप्तः = प्राप्त नहीं किया; यस्याम् = जिसमें; बहवः मनुष्याः मज्जन्ति = बहुत लोग फँस जाते हैं, मुग्ध हो जाते हैं। (सृडका के अन्य अर्थ मार्ग तथा बन्धन हैं। सृडका अर्थात् रत्नमाला, धन-लोभ का मार्ग, धन का बन्धन। )
हे नचिकेता! तुमने काम्य पदार्थों का, प्रिय प्रतीत होने वाले पदार्थों एवं प्रिय रूप वाले समस्त भोगों का गहराई से निरीक्षण करके, सोच समझ कर उनका परित्याग कर दिया है। इस बहुमूल्य रत्नमाला को भी स्वीकार नहीं किया।तुम धन-ऐश्वर्य के उस जाल में / प्रलोभन में नहीं फँसे जिसमें फँस कर बहुत से मनुष्य नष्ट हो जाते हैं।
दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥4
या अविद्या = जो अविद्या; च विद्या इति ज्ञाता = और विद्या नाम से ज्ञात है; एते = ये दोनों; दूरम् विपरीते = अत्यन्त विपरीत (हैं); विषूची = भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं, नचिकेतसम् विद्या अभीप्सितम् मन्ये = (मैं) नचिकेता को विद्या की अभीप्सा (अभिलाषा) वाला मानता हूँ; त्वा = तुम्हें; बहवः कामाः न अलोलुपन्त= बहुत से भोग लोलुप (लुब्ध) न कर सके।
जो अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं, ये परस्पर सर्वथा भिन्न तथा अत्यन्त विपरीत हैं।अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली। ये भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं। परन्तु, हे नचिकेता! मैं तुम्हें विद्या का सच्चा अभिलाषी मानता हूं जिसे बहुत से भोग और काम्य वस्तुएं भी अपने प्रति लोलुप नहीं बना सकीं।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥5
अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानः = अविद्या के भीतर ही रहते हुए; स्वयं धीराः पण्डितम् मन्यमानाः = स्वयं को धीर और पण्डित माननेवाले; मूढ़ाः = मूढ जन; दन्द्रम्यमाणाः = टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलते हुए, ठोकरें खाते हुए, भटकते हुए; परियन्ति = घूमते रहते हैं, स्थिर नहीं होते; यथा- जैसे, अन्धेन एव नीयमानाः अन्धाः = अन्धे से ले जाए हुए अन्धे मनुष्य।
जो लोग अविद्या के भीतर ही रहते हुए, स्वयं को धीर, ज्ञानी , महापण्डित मानते हैं वे मूढ़ होते हैं , तथा ठोकरें खाते हुए चक्करों में उसी प्रकार भटकते और घूमते रहते हैं, जैसे अन्धे मनुष्य द्वारा मार्ग दिखाये जाने पर अन्धे भटकते रहते हैं।
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥6
वित्तमोहेन मूढम् = धन के मोह से मोहित; प्रमाद्यन्तम् बालम् = प्रमाद करनेवाले अज्ञानी को; साम्परायः= परलोक, लोकोत्तर-अवस्था, मुक्ति; न प्रतिभाति = नहीं सूझता; अयं लोक: = यह लोक (ही सत्य है); पर न अस्ति = इससे परे (कुछ) नहीं है; इति मानी = ऐसा माननेवाला, अभिमानी व्यक्ति; पुनः पुनः = बार-बार; मे वशम् = मेरे वश में; आपद्यते = आ जाता है।
धन सम्पत्ति के लोभ से मोहित, प्रमादग्रस्त अज्ञानी को परलोक यात्रा का ज्ञान नहीं होता। यह प्रत्यक्ष दिखने वाला लोक (ही सत्य) है, इससे परे , इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है, अर्थात केवल यही एक लोक है , परलोक होता ही नहीं , ऐसा माननेवाला अभिमानी मनुष्य पुनः पुनः मेरे (यमराज के) वश में आ जाता है अर्थात मृत्यु के वशीभूत होता रहता है ।
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥7
यः बहुभिः श्रवणाय अपि न लभ्यः = जो (आत्मतत्त्व) बहुतों को सनने के लिए भी नहीं मिलता; यम् बहवः श्रृण्वन्तः अपि न विद्युः = जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते; अस्य वक्ता = इसका वक्ता; आश्चर्य = आश्चर्यमय (है)। लब्धा कुशलः = (इसका) ग्रहण करनवाला कुशल (परम बुद्धिमान्); कुशलानुशिष्टः = कुशल (जिसे उपलब्धि हो गई है) से अनुशिष्ट (शिक्षित); ज्ञाता = (आत्मतत्त्व का) जाननेवाला; आश्चर्यः = आश्चर्यमय (है)।
जो परतत्त्व / आत्म तत्व, बहुत से मनुष्यों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता अर्थात जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है , और श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग ‘जिसे’ जान या समझ नहीं पाते। ‘उसका’ ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति या वक्ता मिलना आश्चर्यमय है , तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है अर्थात कुशलता से ‘उसे’ ग्रहण करने वाला व्यक्ति होना भी आश्चर्यमय है जो ज्ञानीजन से ‘उसके’ विषय में उपदेश ग्रहण करके ‘ईश्वर’ को जान सके।
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥8
अवरेण नरेण प्रोक्तः = अवर (अल्पज्ञ, तुच्छ) मनुष्य से कहे जाने पर; बहुधा चिन्त्यमानः = बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी); एष = यह आत्मा, यह आत्मतत्त्व; न सुविज्ञेय: =सुविज्ञेय (भली प्रकार से जानने के योग्य) नहीं है; अनन्यप्रोक्ते = किसी अन्य आत्मज्ञानी के द्वारा न बताये जाने पर; अत्र = यहाँ, इस विषय में; गतिः न अस्ति = पहुँच नहीं है; हि = क्योंकि, अणुप्रमाणात् = अणु के प्रमाण से भी; अणीयान् = छोटा अर्थात् अधिक सूक्ष्म; अतर्क्यम् = तर्क या कल्पना से भी परे।
तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्य से कहे जाने पर, बहुत प्रकार से चिन्तन करने पर भी, यह आत्मतत्त्व समझ में नहीं आता। किसी अन्य ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में प्रवेश नहीं होता, क्योंकि यह (विषय) अणुप्रमाण (सूक्ष्म) से भी अधिक सूक्ष्म है, तर्क से परे है।
(अल्पबुद्धि अथवा ज्ञानहीन व्यक्ति तुम्हें ‘उसके’ विषय में बता नहीं सकता; उसके कथन किये जाने पर भी तुम वस्तुतː ‘उसे’ जान नहीं सकते क्योंकि ‘उसका’ बहुविध रूपों में चिन्तन किया जाता है। तथापि अन्य किसी के द्वारा ‘उसके’ विषय में कथन के बिना तुम ‘उस’ तक पहुँचने का मार्ग भी नहीं पा सकोगे। कारण, ‘वह’ सूक्ष्मता से भी सूक्ष्मतर है तथा तर्क के द्वारा प्राप्य नहीं है।)
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृङ नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥9
प्रेष्ठ = हे परमप्रिय; एषा मतिः याम् त्वम् आपः = यह मति, जिसे तुमने प्राप्त किया है; तर्केण न आपनेया = तर्क से प्राप्त नहीं होती; अन्येन प्रोक्ता एव सुज्ञानाय = अन्य के द्वारा कहे जाने पर सुज्ञान (भली प्रकार ज्ञानप्राप्ति) के लिए; (भवति = होती है); बत = वास्तव में ही; नचिकेतः सत्यधृति असि नचिकेता, तुम सत्यधृति (श्रेष्ठ धैर्यवाला, सत्य में निष्ठावाला) हो; त्वादृक् प्रष्टा नः भूयात् = तुम्हारे जैसै प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।
हे परमप्रिय नचिकेता ! यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है अर्थात यह सत्यज्ञान (ज्ञान प्राप्ति) का साधन बनती है। वास्तव में, तुम सत्यनिष्ठ हो , दृढ निष्ठ हो ; मुझे तुम्हारे सदृश जिज्ञासु और प्रश्नकर्ता सदैव मिलते रहे ।
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ॥10
अहं जानामि = मैं जानता हूँ; शेवधिः = धननिधि, कर्मफलरूप प्राप्त निधि; अनित्यम् इति = अनित्य है; हि अध्रुवैः = क्योंकि अध्रुव (विनाशशील) वस्तुओं से; तत् ध्रुवम् = वह नित्य तत्त्व; हि न प्राप्यते = निश्चय ही प्राप्त नहीं हो सकता; ततः = अतएव, तथापि; मया = मेरे द्वारा; अनित्यैः द्रव्यैः = अनित्य पदार्थों से; नाचिकेतः अग्निः चितः = नाचिकेतनात्मक अग्नि का चयन किया गया; (और उसके द्वारा) नित्यम् प्राप्तवान् अस्मि = मैं नित्य को प्राप्त हो गया हूँ ।
मैं धनकोष के विषय में जानता हूँ कि धन अनित्य है; निश्चित रूप से अनित्य वस्तुओं के द्वारा नित्य वस्तु अर्थात नित्य ‘तत्त्व’ की प्राप्ति नहीं की जा सकती । इसलिए मैंने अनित्य पदार्थों की हवि देकर नचिकेता- अग्नि को संचित किया है ( चयन किया ) तथा मैं नित्यपद को प्राप्त हो गया हूँ अर्थात मैंने ‘नित्य’ तत्त्व को प्राप्त किया है।
कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरानन्त्यमभयस्य पारम्।
स्तोमं अहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ॥11
नचिकेत: = हे नचिकेता; कामस्य आप्तिम् = भोग-विलास की प्राप्ति को; जगत: प्रतिष्ठाम् = संसार की प्रतिष्ठा को, यश को; क्रतो: अनन्त्यम् =यज्ञ के फल की अनन्तता को; अभयस्य पारम् = निर्भीकता की सीमा को; स्तोममहत् = स्तुति के योग्य और महान्; उरुगायम् = वेदों में जिसके गुण गाए गए हैं; (अथवा, स्तोमम् = स्तुति एवं प्रशंसा को; महत् उरुगायम् = महान् स्तुति सहित जयजयकार के गान को); प्रतिष्ठाम् = दीर्घ काल तक स्थिति, स्थिर रहने की स्थिति; दृष्ट्वा = देखकर, सोचकर; धृत्या = धृति से धैर्य से; धीरः = ज्ञानी तुमने; अत्यस्त्राक्षीः= छोड़ दिया।
हे नचिकेता, तुमने भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले स्वर्ग को अर्थात सभी प्रकार के भोग ऐश्वर्यों को , सभी प्रकार की कामनाओं को , यज्ञ के अनन्त फल से प्राप्त स्वर्ग को अर्थात यज्ञ के अनन्त फल को, निर्भीकता की पराकाष्ठा वाले स्वर्ग को अथवा निर्भीकता की पराकाष्ठा को, स्तुति के योग्य एवं महान् तथा वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, स्थिर स्थितिवाले स्वर्ग को , अथवा लोकप्रतिष्ठा को, जय जय कार को विवेकवान और धीर होकर, विचार करके छोड़ दिया है अर्थात तुमने स्वर्ग का मोह छोड़ दिया है।
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥12
तम् दुर्दर्शम् = उस कठिनता से जानने के योग्य; गूढम्=अप्रत्यक्ष, छिपे हुए; अनुप्रविष्टम् =भीतर प्रविष्ट, सर्वत्र विद्यमान, सर्वव्यापी, सबके अन्तर्यामी; गुहाहितम् = (हृदयरूपी) गुहा में स्थित; गव्हरेष्ठम् = गव्हर मॆं रहनेवाला, गहरे प्रदेश में अर्थात् हृदयकमल में रहनेवाला, अथवा संसाररूपी गव्हर में रहनेवाला; पुराणम् = सनातन, पुरातन; अध्यात्मयोग अधिगमेन = अध्यात्मयोग (आत्मज्ञान) की प्राप्ति अथवा उसकी ओर गति होने से, अन्तर्मुखी वृत्ति होने से; देवम् = दिव्यगुणों से संपन्न, द्युतिमान्, परमात्मा को; मत्वा = मनन कर, समझकर; धीर: = ज्ञानी, विद्वान्; हर्षशोकौ जहाति = हर्ष और शोक (सुख-दुःख) को छोड़ देता है।
उस कठिनता से जानने योग्य , गूढ , अदृश्य , जिसका दर्शन दुर्लभ है , सर्वत्र विद्यमान , सर्वव्यापी , अंतर्यामी , बुद्धिरूप गुहा में स्थित, हृदयरूप गुहा में स्थित , सबके ह्रदय कमल में रहने वाले, पुरातन , सनातन देव , परमात्मा को अध्यात्मयोग के द्वारा समझकर ज्ञानी और धीर पुरुष हर्ष और शोक को छोड़ देता है।
एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये ॥13
मर्त्य: = मनुष्य; एतत् धर्म्यम् श्रुत्वा = इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर; सम्परिगृह्यि = भली प्रकार से धारण (ग्रहण) करके; प्रवृह्य = भली प्रकार विचार करके, विवेचना करके; एतम् अणुम् आप्य = इस सूक्ष्म (आत्मतत्त्व) को; आप्य = जानकर; स: = वह; मोदनीयम् लब्ध्वा = आनन्दस्वरूप परमात्मा को पाकर; मोदते हि = निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है; नचिकेतसम् = (तुम) नचिकेता के लिए; विवृतम् सद्म मन्ये =मैं परमधाम (ब्रह्मपुर) का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।
यमराज कहते हैं –
जो मरणधर्मा मनुष्य इस धर्ममय उपदेश को सुनकर, धारण और विवेचना कर तथा इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर इसका अनुभव कर लेता है, वह आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। हे नचिकेता मैं तुम्हारे लिए परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥14
यत् तत् = जिस उस (परमात्मा) को; धर्मात् अन्यत्र अधर्मात् अन्यत्र = धर्म से अतीत (परे), अधर्म से भी अतीत; च = और; अस्मात् कृताकृतात् अन्यत्र = इस कृत और अकृत से भिन्न, कार्य और कारण से भी भिन्न, कृत-क्रिया से संपन्न, अकृत-क्रिया से संपन्न न हो; च भूतात् भव्यात् अन्यत्र =और भूत और भविष्यत् अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों से भी परे, भिन्न अथवा पृथक्; पश्यसि = आप जानते हैं; तत् वद = उसे कहें।
नचिकेता ने कहा-
आप जिस आत्मतत्त्व परमात्मा को धर्म और अधर्म से परे, कृत और अकृत से भिन्न, काय और कारण से परे , भूत और भविष्यत् से परे जानते हैं, उसे कहें।
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥15
सर्वे वेदा: यत् पदम् आमनन्ति = सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं, जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं; च सर्वाणि तपांसि यत् वदन्ति = और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, वे जिसकी प्राप्ति के साधन हैं; यत् इच्छन्त: ब्रह्मचर्यं चरन्ति = जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; तत् पदम् ते संग्रहेण ब्रवीमि = उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप से कहता हूँ; ओम् इति एतत् = ओम् ऐसा यह (अक्षर) है।
यम कहते हैं –
सारे वेद जिस परम पद का प्रतिपादन करते हैं , जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए साधकगण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ। वह परम पद है ॐ ऐसा यह अक्षर है।
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥16
एतत् अक्षरम् एव हि ब्रह्म = अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) ब्रह्म है; एतत् अक्षरम् एव हि परम = यह अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) परब्रह्म है; हि एतत् एव अक्षरम् ज्ञात्वा = इसीलिए इसी अक्षर को जानकर; य: यत् इच्छति तस्य तत् =जो जिसकी इच्छा करता है, उसको वही (मिल जाता है)।
“यही ‘अक्षर’ ही तो ‘ब्रह्म’ है , यही ‘अक्षर’ ही तो परम-तत्त्व ‘परब्रह्म ‘ है। यदि इस ‘अक्षर’ को कोई जान ले, तो वह जिसकी भी इच्छा करता है, वही उसे प्राप्त हो जाता है।
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥17
एतत् श्रेष्ठम् आलम्बनम् = यह श्रेष्ठ आलम्बन है, आश्रय, सहारा है; एतत् परम् आलम्बनम् = यह सर्वोच्च आलम्बन है; एतत् आलम्बनम् ज्ञात्वा = इस आलम्बन को जानकर; ब्रह्मलोके महीयते = ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।
ॐकार ही श्रेष्ठ आलम्बन है, ॐकार ही सर्वोच्च (अन्तिम) आलम्बन अथवा आश्रय है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में महिमामय होता है।
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥18
विपश्चित् = ज्ञानस्वरूप आत्मा (आत्मा , परब्रह्म परमात्मा); न जायते वा न म्रियते = न जन्म लेता है और न मरता है; अयम् न कुतश्चित् बभूत = यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है, न किसी उपादान कारण से उत्पन्न हुआ; (न) कश्चित् (बभूत) = (न) इससे कोई उत्पन्न हुआ है। (अयम् न कुतश्चित् बभूत, कश्चित् न बभूत— यह न किसी से, कहीं से, उत्पन्न हुआ, न यह उत्पन्न हुआ। आत्मा का जन्म नहीं हुआ, उसे दो प्रकार से कहा गया तथा यह भी एक अर्थ किया गया है। ) अयम् = यह आत्मा; अज: नित्य; शाश्वत: पुराण: = अजन्मा (जन्मरहित), नित्य, सदा एकरस रहनेवाला, सनातन (अनादि) है, (पुरातन—पुराना होकर भी नया अर्थात् सनातन); शरीरे हन्यमाने न हन्यते = शरीर को मार दिये जाने पर, नष्ट हो जाने पर, इसकी हत्या नहीं होती, इसका नाश नहीं होता।
ज्ञानस्वरूप आत्मा न तो जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात न तो इसका जन्म होता है न मरण। यह न तो किसी का कार्य है, न तो किसी का कारण है अर्थात यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है, न इस से कोई उत्पन्न हुआ । न तो यह कहीं से आया है, न तो यह कोई व्यक्ति-विशेष है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन, सनातन , अनादि है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥19
चेत् = यदि; हन्ता हन्तुं मन्यते = मारनेवाला (स्वयं को) मारने में समर्थ मानता है; चेत् हत: हतम् मन्यते = यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है; तौ उभौ न विजानीत:= वे दोनों नहीं जानते; अयम् न हन्ति न हन्यते = यह (आत्मा) न मारता है, न मारा जाता है।
यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जाने वाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मार दिया जाता है।
( यदि हन्ता यह मानता है कि वह हनन करता है, यदि हनन किया हुआ (हत) यह मानता है कि उसका हनन किया गया है तो उन दोनों को ही ज्ञान नहीं है; ‘यह’ न हनन करता है न ‘इसका’ हनन होता है।)
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥20
अस्य जन्तो: गुहायाम् निहितः आत्मा = इस जीवात्मा के (अथवा देहधारी मनुष्य के) हृदयरूप गुहा में निहित आत्मा (परमात्मा); अणो: अणीयान् महत: महीयान् = अणु से सूक्ष्म, महान् से भी बड़ा (है); आत्मन: तम् महिमानम् = आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को, उसके स्वरूप को; अक्रतु: = संकल्परहित, कामनारहित; धातुप्रसादात् = मन तथा इन्द्रियों के प्रसाद अर्थात् उनकी शुद्धता होने से; (धाता—विधाता, भगवान्;धातु: प्रसादात्— भगवान् की कृपा से—यह अन्य अर्थ भी किया गया है। ) पश्यति —साक्षात् देख लेता है, स्वयं अनुभव कर लेता है; वीतशोक: = समस्त दुःखों से परे चला जाता है, परम सुखी हो जाता है। (अक्रतु: वीतशोक: धातुप्रसादात् पश्यति—निष्काम शोकरहित होकर इन्द्रियों की शुद्धि से अथवा भगवान् की कृपा से देख लेता है, यह एक भिन्न अन्वय तथा अन्वयार्थ है। )
जीवात्मा की हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। परमात्मा की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर देख लेता है और (समस्त) शोक से पार हो जाता है।
(अर्थात अणु से भी सूक्ष्मतर, महान् से भी महत्तर, ‘आत्मतत्त्व’ प्राणी की ह्रदय -गुहा में निहित है। जब मनुष्य अपने आपको कामादि संकल्पों से मुक्त एवं शोक से रहित कर लेता है तब वह ‘उसका’ दर्शन करता है। मानसिक प्रवृत्तियों की शुद्धि के प्रसाद से वह ‘आत्म-सत्ता’ की महिमा का दर्शन करता है।)
आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति ॥21
आसीन: = बैठा हुआ; दूरम् व्रजति = दूर पहुँच जाता है; शयान:= सोता हुआ; सर्वत: याति = सब ओर चला जाता है; तम् मदामदम् देवम् = उस मद से युक्त होकर भी अमद (अनुन्मत्त) देव को; मदन्य: क: ज्ञातुम् अर्हित = मुझसे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?
परमात्मा बैठा हुआ भी दूर- दूर तक पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, मेरे अतिरिक्त अन्य और कौन है जो उस मद से मदान्वित न होनेवाले आनंद स्वरूप तथा आनन्दातीत ‘देव’ को जानने में समर्थ है ?
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥22
अनवस्थेषु शरीरेषु = स्थिर न रहनेवाले अर्थात् विनश्वर शरीरों में; अशरीरम् = शरीररहित; अवस्थितम् = स्थित; महान्तम् विभुम् = (उस) महान् सर्वव्यापक; आत्मानम् = परमात्मा को; मत्वा = मनन करके, जानकर; धीर: = विवेकशील पुरुष, बुद्धिमान् पुरुष; न शोचति = कोई शोक नहीं करता।
अस्थिर या नश्वर शरीरो में स्थित उस शरीर रहित महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ज्ञानी और धीर पुरुष शोक नहीं करता।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥23
अयम् आत्मा न प्रवचनेन न मेधया न बहुना श्रुतेन लभ्य: = आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है; यम् एष: वृणुते तेन एव लभ्य: = जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त होता है; एष: आत्मा = यह आत्मा; तस्य स्वाम् तनूम् विवृणुते = उसके लिए स्व-स्वरूप को प्रकट कर देता है।
यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह आत्मा जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥24
प्रज्ञानेन अपि = सूक्ष्म बुद्धि से भी, आत्मज्ञान से भी; एनम् = इसे (परमात्मा को); न दुश्चरितात् अविरत: आप्नुयात् = न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो कुत्सित आचरण से (दुष्कर्म से) अविरल अर्थात् निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त: = न अशान्त मनुष्य (प्राप्त कर सकता है); न असमाहित: = न वह प्राप्त कर सकता है, जो असमाहित अर्थात् एकाग्र न हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; न अशान्तमानस: = न अशान्त मनवाला ही (उसे प्राप्त कर सकता है); आप्नुयात् = प्राप्त कर सकता है। (प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्—प्रज्ञान से इसे प्राप्त किया जा सकता है, यह एक अन्य अर्थ है। )
इसे अर्थात परमात्मा को सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो दुराचार से निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकता है, न ही वो जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। (एक अन्य अर्थ है कि प्रज्ञान से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। )
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥25
यस्य = जिस (परमेश्वर) के; ब्रह्म च क्षत्रम् च उभे = ब्रह्म और क्षत्र दोनों अर्थात् बुद्धिबल और बाहुबल दोनों; ओदन: भवत: = पके हुए चावल अर्थात् भोजन हो जाते हैं; मृत्यु: यस्य उपसेचनम् = मृत्यु जिसका उपसेचन (भोजन के साथ खाये जानेवाले व्यंजन, चटनी इत्यादि) (भवति—होता है); स: यत्र इत्था कः वेद = वह परमेश्वर जहाँ (या कहाँ), जैसा (या कैसा), कौन जानता है?
जिस परमात्मा के लिए बुद्धिबल और बाहुबल अर्थात ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों भोजन हो जाते हैं, मृत्यु जिसके महाभोज का एक रसाहार है , वह परमात्मा कहाँ है ? कैसा है? कौन जानता है?
इति: कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली।