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कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली

 

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वल्ली ३

 

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥

 

अपने किए हुए कर्म के फल को भोगने वाले और अपनी शक्ति से जीवात्मा को फल भुगवाने वालेबुद्धि के गुप्त प्रदेश में रहने वालेऔर मोक्ष धाम में अर्थात ‘परमोच्च’ उच्च के उच्चतम धाम में निवास करने वाले सत्य स्वरूप वाले जीवात्मा और परमात्मा को ब्रह्म ज्ञानी लोग , गृहस्थ लोग , वानप्रस्थ लोग,  पञ्चाग्नि का सेवन करने वाले, तीन नचिकेता-अग्नि वाले  छाया और प्रकाश के समान अलग-अलग कहते हैं।

अर्थात जीवात्मा के रूप में परमात्मा ही गुप्त रूप से शरीर में विद्यमान हैं और दोनों ही मोक्षावस्था में सत्य स्वरूप हैं यानी ईश्वर नित्य मुक्त है और जीव मोक्ष प्राप्त करता है इस लिये ब्रह्म ज्ञानी इन दोनों को भिन्न ही मानते हैं।

( पञ्चाग्नि शब्द से आशय उन गृहस्थों से हैजो मातापिताअतिथिगुरू और परमात्मा इन पाँचों की सेवा करते हैं ) 

 

यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्‌।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥2

 

जो परमात्मा यज्ञभजनकरने वाले मनुष्यों के लिये संसार को पार करने वाले पुल के समान है। वह विनाश रहित परम ब्रह्म है जिसमें भय का लेश नहीं हैऔर संसार के दुःखों से तरने की इच्छा करने वालों का जो तट हैउस ईश्वर को हम जान सकें।

( हम उस ‘नचिकेता-अग्नि’ को प्रदीप्त करने में समर्थ बनें जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु है तथा जो परम एवं अक्षर ‘ब्रह्म’ है और जो इस सागर को पार करने के इच्छुकों के लिए निर्भय-सुरक्षित तट है।)

 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥3

 

यमराज बोले –

हे नचिकेता ! तुम इस शरीर को रथ समझो और इस जीवात्मा को रथी अर्थात रथ का स्वामी समझो, बुद्धि को सारथि और मन को केवल घोड़ों को लगाम लगाने वाली रस्सी समझो।

 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्‌।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥4

 

इस शरीर के अन्दर जो इन्द्रियां हैं उन्हीं को घोड़े समझो और इन्द्रियगोचर विषयों ( इन्द्रियों के विषयों ) को उन घोड़ों के विचरण के मार्ग। मन और इन्द्रियों से युक्त उस आत्मा को ही विद्वान् लोग भोक्ता बताते हैं।

( जिस प्रकार घोड़े बिना लगाम कैसे किसी भी दिशा में विचरण करने को तत्पर रहते है वैसे ही इन्द्रियां भी बिना लगाम लगाए अपने अपने विषयों में लिप्त रहने के लिए उत्सुक रहती हैं । इसलिए हमें मन रुपी रस्सी से ही इन्द्रिय विषयों रुपी घोड़ों को रोकने का प्रयास करना होगा । जरा भी लगाम ढीली हुई तो घोड़े गलत दिशा में जाने का प्रयास करेंगे। अतः बुद्धि रूपी सारथि के हाथ में जब मन रुपी लगाम होती है तो इन्द्रिय विषय रुपी अश्व सही दिशा में आगे बढ़ते हैं । )

 

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥5

 

यम आगे समझाते हैं –

परन्तु जो मनुष्य अज्ञानी हैंजिनका मन स्थिर नहीं हैउनकी इन्द्रियां उनके वश में नहीं रहतीं। जैसे दुष्ट घोड़े सारथी के वश में नहीं रहते।

 

यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥6

 

परन्तु जो मनुष्य बुद्धिमान हैं और जिनका मन वश में है उनकी इन्द्रियां भी उनके वश में उसी प्रकार रहती हैं जैसे उत्तम घोड़े सारथी के वश में रहते हैं।

 

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥7

 

जो मनुष्य बुद्धिमान नहीं हैजिसका मन वश में नहीं रहता और जो छल-कपट आदि दोषों से युक्त होने से अपवित्र रहता हैवह उस ब्रह्म के परम पद को नहीं प्राप्त कर पाता और सदा जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है।

 

यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥8

 

परन्तु जो मनुष्य ज्ञानी हैशुद्ध मन वाला हैऔर सदा पवित्र आचरण करता हैवह प्रभु के परम पद को प्राप्त कर लेता है। जिससे वह पुन: दुःख को प्राप्त नहीं होता और न ही संसार में दुःख रूप जन्म-मरण को प्राप्त होता है।

 

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ॥9

 

जिस मनुष्य की बुद्धि उसकी सारथी है और मन लगाम है यानी वश में है वह अपने मार्ग का पार पा जाता है जो कि उस व्यापक ब्रह्म का सर्वोत्तम स्थान है।

(जो मनुष्य मन को लगाम की तरह प्रयोग करता है तथा विज्ञान (गहन ज्ञान) को सारथी बनाता है, वह अपने मार्ग के अन्त को, विष्णु के परम-पद को प्राप्त करता है।)

 

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥10

 

अब यमराज, स्थूल और सूक्ष्म इन्द्रिय आदि पदार्थों के क्रम का वर्णन करते हैं:

इन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों के रूप आदि विषय अति सूक्ष्म है और विषयों की अपेक्षा मन अधिक सूक्ष्म है, मन की अपेक्षा बुद्धि अधिक सूक्ष्म है, और बुद्धि से अधिक सूक्ष्म है महान आत्मा ।

 

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥11

 

उस’ महान् आत्मा’ से उच्चतर या सूक्ष्मतर महत्तत्व है । महत् तत्व से अति सूक्ष्म या परे है  ‘अव्यक्त’ अर्थात ‘ अव्यक्त प्रकृति ‘ , अव्यक्त प्रकृति से उच्चतर ‘पुरुष’ है अर्थात पूर्ण परमात्मा; ‘पुरुष’ से अर्थात परमात्मा से सूक्ष्मतर कुछ भी नहीं ː ‘ वही ‘ सत्ता की पराकाष्ठा है, वही यात्रा का परम लक्ष्य है । वही सीमा हैं और वही परम गति हैं । उससे आगे किसी की गति नहीं है। परमात्मा से सूक्ष्मतर इस संसार में कुछ भी नहीं है। वह अन्तिम मार्ग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। वह सबसे सूक्ष्म हैं उनके पश्चात् न तो किसी का ज्ञान होता है और न उनसे आगे कहीं जाया जा सकता है।

 

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥12

 

यह सर्व नियन्ता परमात्मा जो समस्त प्राणियों के हृदय में छिपा हुआ है। मलिन बुद्धि वाले मनुष्यों से नहीं जाना जाताकिन्तु तीव्र और सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा सूक्ष्मदर्शी लोग उसे देख सकते हैं।

(समस्त भूतों में गूढ ‘आत्म तत्त्व’ ‘स्वयं’ को दृष्टिगोचर नहीं बनाताː तो भी ‘वह’ सूक्ष्मदर्शी द्रष्टाओं के द्वारा सूक्ष्म एवं कुशाग्र बुद्धि से देखा जाता है।)

 

यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥13

 

सूक्ष्म बुद्धि से वह किस प्रकार जाने जाते हैंयमराज आगे इसका वर्णन करते हैं-

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह वाणी को मन में डुबो दें ( स्थिर करे ) , मन को बुद्धि में , बुद्धि को महत अर्थात महान आत्मा में डुबो दें और महान आत्मा को शांतिपूर्ण आत्मा (परमात्मा) में डुबो दें या जोड़ दे ।

 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥14

 

यमराज ने कहा:

हे मनुष्यों ! उस परमात्मा के जानने के लिये अविद्या की नींद से उठ जाओजागोऔर श्रेष्ठ संत जनों के सत् सङ्ग से ईश्वर को समझो। हे मनुष्यों ! यह रास्ता सुगम नहीं हैतत्व दर्शी विद्वान तलवार की तेज धार के समानलांघने में कठिनइस मार्ग को भी दुर्गम बताते हैं।

 

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्‌।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्‌ प्रमुच्यते ॥15

 

ब्रह्म का कोई विषय नहीं हैवह स्पर्श रहित हैरूप और विकार से भी रहित हैअनादि अनन्त हैप्रकृति से भी सूक्ष्म हैनिश्चल हैउस को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता हैऔर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

(वह ‘परतत्त्व’ जिसमें न शब्द है, न स्पर्श और न रूप है, जो अव्यय है, जिसमें न कोई रस है, न कोई गन्ध है, जो नित्य है, अनादि तथा अनन्त है, ‘महान् आत्मतत्त्व’ से भी उच्चतर (परे) है, ध्रुव (स्थिर) है । उसका दर्शन करके मृत्यु के मुख से मुक्ति मिल जाती है।)

 

नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्‌।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥16

 

यमराज द्वारा वर्णितइस नचिकेता नामक सनातन कथा को कह कर और सुन कर मेधावी मनुष्य ब्रह्म धाम ( ब्रह्म लोक ) में महिमा को प्राप्त होता है ( महिमान्वित होता है)।

 

य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद्‌ ब्रह्मसंसदि।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।
तदानन्त्याय कल्पत इति ॥17

 

जो विद्वान मनुष्य शुद्धचित्त होकर इस परम रहस्य भेद को ब्रह्म की सभा ( ब्राह्मणों की सभा ) में सुनाता है अथवा पवित्र होकर अतिथियों के सत्कार के समय सुनाता है तो इस कथा का फल अनन्त हो जाता है। इस कथा के सुनने से अनन्त पुरुषों को फल मिलता है।

 

 

॥ इति: कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली समाप्त ॥

 

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