अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ৷৷8.10৷৷
प्रयाणकाले-मृत्यु के समय; मनसा-मन; अचलेन-दृढ़ः भक्त्या-श्रद्धा भक्ति से स्मरण; युक्तः-एकीकृत कर; योगबलेन-योग शक्ति के द्वारा; च-भी; एव-निश्चय ही; भ्रुवोः-दोनों भौहों के; मध्ये-मध्य में ; प्राणम्-प्राण को; आवेश्य-स्थित करना; सम्यक्-पूर्णतया; स:-वह; तम्-उसका; परम्-पुरुषोत्तम ; भगवान-दिव्य भगवान; उपैति-प्राप्त करता है; दिव्यम्-दिव्य स्वरूप के स्वामी, भगवान।
मृत्यु के समय जो भक्ति युक्त मनुष्य योग के अभ्यास द्वारा स्थिर मन के साथ अपने प्राणों को भौहों के मध्य स्थित कर लेता है और दृढ़तापूर्वक निश्चल मन से पूर्ण भक्ति से दिव्य भगवान का स्मरण करता है वह निश्चित रूप से उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है॥8.10॥
(‘प्रयाणकाले मनसाचलेन ৷৷. स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्’ – यहाँ भक्ति नाम प्रियता का है क्योंकि उस तत्त्व में प्रियता (आकर्षण ) होने से ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयं से होती है , मन-बुद्धि आदि से नहीं। अन्तकाल में कवि , पुराण , अनुशासिता आदि विशेषणों से (पीछे के श्लोक में) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मा में भक्तियुक्त मनुष्य का मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार स्वरूप में आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मन का अचल होना है। पहले प्राणायाम के द्वारा प्राणों को रोकने का जो अधिकार प्राप्त किया है उसका नाम योगबल है। उस योगबल के द्वारा दोनों भ्रुवों के मध्यभाग में स्थित जो द्विदल चक्र है , उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ी में प्राणों का,अच्छी तरह से प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर 10वें द्वार से होकर) दिव्य परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है। ‘तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्’ पदों का तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्व का पीछे के (नवें ) श्लोक में वर्णन हुआ है उसी दिव्य परम सगुण-निराकार परमात्मा को वह प्राप्त हो जाता है। 8वें श्लोक में जो बात कही गयी थी उसी को 9वें और 10वें श्लोक में विस्तार से कहकर इन तीन श्लोकों के प्रकरण का उपसंहार किया गया है। इस प्रकरण में सगुण-निराकार परमात्मा की उपासना का वर्णन है। इस उपासना में अभ्यास की आवश्यकता है। प्राणायामपूर्वक मन को उस परमात्मा में लगाने का नाम अभ्यास है। यह अभ्यास अणिमा , महिमा आदि सिद्धि प्राप्त करने के लिये नहीं है बल्कि केवल परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने के लिये है। ऐसा अभ्यास करते हुए प्राणों और मन पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर ले कि जब चाहे प्राणों को रोक ले और मन को जब चाहे तभी तथा जहाँ चाहे वहीं लगा ले। जो ऐसा अधिकार प्राप्त कर लेता है वही अन्तकाल में प्राणों को सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट कर सकता है। कारण कि जब अभ्यासकाल में भी मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने में साधक को कठिनता का , असमर्थता का अनुभव होता है , तब अन्तकाल जैसे कठिन समय में मन को लगाना साधारण आदमी का काम नहीं है। जिसके पास पहले से योगबल है वही अन्तसमय में मन को परमात्मा में लगा सकता है और प्राणों का सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश करा सकता है। साधक पहले यह निश्चय कर ले कि अज्ञान से अत्यन्त परे सबसे अतीत जो परमात्मतत्त्व है वह सबका प्रकाशक , सबका आधार और सबको सत्तास्फूर्ति देने वाला निर्विकार तत्त्व है। उस तत्त्व में ही प्रियता होनी चाहिये , मन का आकर्षण होना चाहिये फिर उसमें स्वाभाविक मन लगेगा। अब भगवान आगे के श्लोक में निर्गुण-निराकार की प्राप्ति के उपाय का उपक्रम करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )