Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 8श्रीभगवान उवाच।

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ॥8.3॥

 

श्रीभगवान् उवाच-आनन्दमयी भगवान ने कहा; अक्षरम्-अविनाशी ब्रह्म; ब्रह्म परमम्-सर्वोच्च; स्वभाव-प्रकृति; अध्यात्मम्-अपनी आत्मा; उच्यते-कहलाता है; भूतभावउद्भवकरः-जीवों की भौतिक संसार से संबंधित गतिविधियाँ और उनका विकास, विसर्गः-सृष्टि; कर्म-सकाम कर्म; सञ्जितः-कहलाता है।

 

परम कृपालु भगवान ने कहाः

*परम अक्षर अविनाशी सत्ता को ‘ ब्रह्म ‘ कहा जाता है।

*किसी मनुष्य की अपनी आत्मा अर्थात अपने स्वरूप ( जीवात्मा ) को  ‘अध्यात्म ‘ कहा जाता है।

* जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि को कर्म या सकाम कर्म कहा जाता है या भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला अर्थात प्राणियों के उद्भव या उनकी सत्ता को प्रकट करनेवाला जो विसर्ग अर्थात यज्ञ रुपी त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है॥8.3॥

 

( प्राणियों / जीवों / भूतों की सत्ता को उत्पन्न या प्रकट करने वाला ऐसा जो विसर्ग अर्थात् देवों के उद्देश्य से चरु पुरोडाश आदि ( हवन करने योग्य ) द्रव्यों का त्याग करना है वह त्याग रूप यज्ञ कर्म नाम से कहा जाता है इस बीज रूप यज्ञ से ही वृष्टि आदि के क्रम से स्थावरजङ्गम समस्त भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं।)

[अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है । जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है । ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य है और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता । किन्तु ब्रह्म से परे परब्रह्म होता है । ब्रह्म का अर्थ है जीव और परब्रह्म का अर्थ भगवान् है । जीव का स्वरूप भौतिक जगत् में उसकी स्थिति से भिन्न होता है । भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प्रभुत्व जताना है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना में उसकी स्थिति परमेश्र्वर की सेवा करना है । जब जीव भौतिक चेतना में होता है तो उसे इस संसार में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं । वैदिक साहित्य में जीव को जीवात्मा तथा ब्रह्म कहा जाता है, किन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता । जीवात्मा विभिन्न स्थितियाँ ग्रहण करता है – कभी वह अन्धकार पूर्ण भौतिक प्रकृति में मिल जाता है और पदार्थ को अपना स्वरूप मान लेता है तो कभी वह परा आध्यात्मिक प्रकृति के साथ मिल जाता है । इसीलिए वह परमेश्र्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है । भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के साथ अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौतिक या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है । भौतिक प्रकृति में वह चौरासी लाख योनियों में से कोई भी शरीर धारण कर सकता है, किन्तु आध्यात्मिक प्रकृति में उसका एक ही शरीर होता है । भौतिक प्रकृति में वह अपने कर्म अनुसार कभी मनुष्य रूप में प्रकट होता है तो कभी देवता, पशु, पक्षी आदि के रूप में प्रकट होता है । स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा वहाँ का सुख भोगने की इच्छा से वह कभी-कभी यज्ञ सम्पन्न करता है, किन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः मनुष्य रूप में पृथ्वी पर वापस आ जाता है । यह प्रक्रिया कर्म कहलाती है । यज्ञ प्रक्रिया में जीव अभीष्ट स्वर्गलोकों की प्राप्ति के लिए विशेष यज्ञ करता है और उन्हें प्राप्त करता है । जब यज्ञ का पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पृथ्वी पर वर्षा के रूप में उतरता है और अन्न का रूप ग्रहण करता है । इस अन्न को मनुष्य खाता है जिससे यह वीर्य में परिणत होता है जो स्त्री के गर्भ में जाकर फिर से मनुष्य का रूप धारण करता है । यह मनुष्य पुनः यज्ञ करता है और पुनः वही चक्र चलता है । इस प्रकार जीव शाश्र्वत रीति से आता और जाता रहता है । किन्तु भक्त ऐसे यज्ञों से दूर रहता है । वह सीधे भक्ति ग्रहण करता है और इस प्रकार ईश्र्वर के पास वापस जाने की तैयारी करता है ।]

 

(‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’ – परम अक्षर का नाम ब्रह्म है। यद्यपि गीता में ब्रह्म शब्द प्रणव , वेद , प्रकृति आदि का वाचक भी आया है तथापि यहाँ ब्रह्म शब्द के साथ परम और अक्षर विशेषण देने से यह शब्द सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन , अविनाशी , निर्गुण , निराकार परमात्मा का वाचक है। ‘स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते’ – अपने भाव अर्थात् होनेपन का नाम स्वभाव है – ‘स्वो भावः स्वभावः’। इसी स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है अर्थात् जीवमात्र के होनेपन का नाम अध्यात्म है। ऐसे तो आत्मा को लेकर जो वर्णन किया जाता है वह भी अध्यात्म है। अध्यात्ममार्ग का जिसमें वर्णन हो वह मार्ग भी अध्यात्म है और इस आत्मा की जो विद्या है उसका नाम भी अध्यात्म है (गीता 10। 32)। परन्तु यहाँ स्वभाव विशेषण के साथ अध्यात्म शब्द आत्मा का अर्थात् जीव के होनेपन का (स्वरूप का) वाचक है। ‘भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः’ – स्थावरजङ्गम जितने भी प्राणी देखने में आते हैं , उनका जो भाव अर्थात् होनापन है उस होनेपन को प्रकट करने के लिये जो विसर्ग अर्थात् त्याग है उसको कर्म कहते हैं। महाप्रलय के समय प्रकृति की अक्रिय अवस्था मानी जाती है तथा महासर्ग के समय प्रकृति की सक्रिय अवस्था मानी जाती है। इस सक्रिय अवस्था का कारण भगवान का संकल्प है कि मैं एक ही बहुत रूपों से हो जाऊँ। इसी संकल्प से सृष्टि की रचना होती है। तात्पर्य है कि महाप्रलय के समय अहंकार और सञ्चित कर्मों के सहित प्राणी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और उन प्राणियों के सहित प्रकृति एक तरह से परमात्मा में लीन हो जाती है। उस लीन हुई प्रकृति को विशेष क्रियाशील करने के लिये भगवान का पूर्वोक्त संकल्प ही विसर्ग अर्थात्,त्याग है। भगवान का यह संकल्प ही कर्मों का आरम्भ है जिससे प्राणियों की कर्मपरम्परा चल पड़ती है। कारण कि महाप्रलय में प्राणियों के कर्म नहीं बनते बल्कि उसमें प्राणियों की सुषुप्त-अवस्था रहती है। महासर्ग के आदि से कर्म शुरू हो जाते हैं। 14वें अध्याय में आया है – परमात्मा की मूल प्रकृति का नाम महद्ब्रह्म है। उस प्रकृति में लीन हुए जीवों का प्रकृति के साथ विशेष सम्बन्ध करा देना अर्थात् जीवों का अपने-अपने कर्मों के फलस्वरूप शरीरों के साथ सम्बन्ध करा देना ही परमात्मा के द्वारा प्रकृति में गर्भस्थापन करना है (गीता 14। 3 4)। उसमें भी अलग-अलग योनियों में तरह-तरह के जितने शरीर पैदा होते हैं उन शरीरों की उत्पत्ति में प्रकृति हेतु है और उनमें जीवरूप से भगवान का अंश है – ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15। 7)। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के अंश से सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं। 13वें अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि स्थावर-जङ्गम जितने भी प्राणी उत्पन्न होते हैं वे सब क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (पुरुष) के संयोग से ही होते हैं। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विशेष संयोग अर्थात् स्थूल शरीर धारण कराने के लिये भगवान का संकल्परूप विशेष सम्बन्ध ही स्थावरजङ्गम प्राणियों के स्थूलशरीर पैदा करने का कारण है। उस संकल्प के होने में भगवान का कोई अभिमान नहीं है बल्कि जीवों के जन्म-जन्मान्तरों के जो कर्मसंस्कार हैं वे महाप्रलय के समय परिपक्व होकर जब फल देने के लिये उन्मुख होते हैं तब भगवान का संकल्प होता है (टिप्पणी प0 450)। इस प्रकार जीवों के कर्मों की प्रेरणा से भगवान में मैं एक ही बहुत रूपों से हो जाऊँ – यह संकल्प होता है। मनुष्यमात्र के द्वारा विहित और निषिद्ध जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सब क्रियाओं का नाम कर्म है। तात्पर्य है कि मुख्य कर्म तो भगवान का संकल्प हुआ और उसके बाद कर्म-परम्परा चलती है – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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