अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥8.12॥
सर्वद्वाराणि-समस्त द्वार; संयम्य-नियंत्रित करके; मन:-मन ; हृदि-हृदय में; निरूध्य–अवरोध; च-भी; मूर्ध्नि-सिर पर; आधाय–स्थिर करना; आत्मन:-अपने ; प्राणम्-प्राणवायु को; आस्थितः-स्थित; योगधारणाम् – योग में एकाग्रता।
शरीर के समस्त इन्द्रिय द्वारों को बंद कर या रोक कर मन को हृदय स्थल पर स्थिर करते हुए फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण वायु को सिर पर केन्द्रित करते हुए मनुष्य को दृढ़ यौगिक चिन्तन में स्थित हो जाना चाहिए।।8.12।।
(‘सर्वद्वाराणि संयम्य’ – (अन्त समय में ) सम्पूर्ण इन्द्रियों के द्वारों का संयम कर ले अर्थात् शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – इन पाँचों विषयों से श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और नासिका – इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को तथा बोलना , ग्रहण करना , गमन करना , मूत्रत्याग और मलत्याग – इन पाँचों क्रियाओं से वाणी , हाथ , चरण , उपस्थ और गुदा – इन पाँचों कर्मेन्द्रियों को सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थान में रहेंगी। ‘मनो हृदि निरुध्य च’ – मन का हृदय में ही निरोध कर ले अर्थात् मन को विषयों की तरफ न जाने दे। इससे मन अपने स्थान (हृदय ) में रहेगा। ‘मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणम्’ – प्राणों को मस्तक में धारण कर ले अर्थात् प्राणों पर अपना अधिकार प्राप्त करके 10वें द्वार – ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को रोक ले। ‘आस्थितो योगधारणाम्’ – इस प्रकार योगधारणा में स्थित हो जाय। इन्द्रियों से कुछ भी चेष्टा न करना मन से भी संकल्प-विकल्प न करना और प्राणों पर पूरा अधिकार प्राप्त करना ही योगधारणा में स्थित होना है – स्वामी रामसुखदास जी )