अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ৷৷8.13৷৷
ॐ – निराकार भगवान के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाला मंत्र; इति–इस प्रकार; एक अक्षरम्-एक अक्षर; ब्रह्म-परम सत्य; व्याहरन्-उच्चारण करना; माम्-मुझको; अनुस्मरन्-स्मरण करते हुए; यः-जो; प्रयाति–प्रस्थान करना; त्यजन्–छोड़ते हुए; देहम्-इस शरीर को; सः-वह; याति-प्राप्त करता है; परमाम्-परम; गतिम्-लक्ष्य।
इस प्रकार परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो ‘ॐ’ इस पवित्र एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और देह त्यागते समय मेरा स्मरण और चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥8.13॥
(‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्’ – इसके बाद एक अक्षर ब्रह्म ॐ (प्रणव) का मानसिक उच्चारण करे और मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्म का (जिसका वर्णन इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में हुआ है) स्मरण करे (टिप्पणी प0 464)। सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सत्तारूप से परिपूर्ण हैं – ऐसी धारणा करना ही मेरा स्मरण है। ‘यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्’ – उपर्युक्त प्रकार से निर्गुण-निराकार का स्मरण करते हुए जो देह का त्याग करता है अर्थात् 10वें द्वार से प्राणों को छोड़ता है , वह परमगति को अर्थात् निर्गुण – निराकार परमात्मा को प्राप्त होता है। जिसके पास योग का बल होता है और जिसका प्राणों पर अधिकार होता है उसको तो निर्गुण-निराकार की प्राप्ति हो जाती है परन्तु दीर्घकालीन अभ्यास-साध्य होने से यह बात सबके लिये कठिन पड़ती है। इसलिये भगवान आगे के श्लोक में अपनी अर्थात् सगुण-साकार की सुगमतापूर्वक प्राप्ति की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )