अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥8.15॥
माम्-मुझे ; उपेत्य-प्राप्त करके; पुनः-फिर; जन्म-जन्म; दुःख आलयम्-दुखों से भरे संसार में; आशाश्वतम्-अस्थायी; न-कभी नहीं; आप्नुवन्ति–प्राप्त करते हैं; महाआत्मानः-महान पुरूष; संसिद्धिम् – पूर्णता को; परमाम् – परम; गताः-प्राप्त हुए।
मुझे प्राप्त करने के बाद महान आत्माएँ फिर कभी इस अनित्य , क्षणभंगुर और दुखों से भरे हुए संसार में पुनः जन्म नहीं लेतीं है क्योंकि वे पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर चुकी होती हैं॥8.15॥
(‘मामुपेत्य पुनर्जन्म ৷৷. संसिद्धिं परमां गताः ‘ – ‘मामुपेत्य’ का तात्पर्य है कि भगवान के दर्शन कर ले , भगवान को तत्त्व से जान ले अथवा भगवान में प्रविष्ट हो जाय तो फिर पुनर्जन्म नहीं होता। पुनर्जन्म का अर्थ है – फिर शरीर धारण करना। वह शरीर चाहे मनुष्य का हो , चाहे पशु-पक्षी आदि किसी प्राणी का हो पर उसे धारण करने में दुःख ही दुःख है। इसलिये पुनर्जन्म को दुःखालय अर्थात् दुःखों का घर कहा गया है। मरने के बाद यह प्राणी अपने कर्मों के अनुसार जिस योनि में जन्म लेता है वहाँ जन्मकाल में जेर से बाहर आते समय उसको वैसा कष्ट होता है जैसा कष्ट मनुष्य को शरीर की चमड़ी उतारते समय होता है परन्तु उस समय वह अपना कष्ट , दुःख किसी को बता नहीं सकता क्योंकि वह उस अवस्था में महान असमर्थ होता है। जन्म के बाद बालक सर्वथा परतन्त्र होता है। कोई भी कष्ट होनेपर वह रोता रहता है – पर बता नहीं सकता। थोड़ा बड़ा होने पर उसको खाने-पीने की चीजें , खिलौने आदि की इच्छा होती है और उनकी पूर्ति न होने पर बड़ा दुःख होता है। पढ़ाई के समय शासन में रहना पड़ता है। रातों जागकर अभ्यास करना पड़ता है तो कष्ट होता है। विद्या भूल जाती है तथा पूछने पर उत्तर नहीं आता तो दुःख होता है। आपस में ईर्ष्या , द्वेष , डाह , अभिमान आदि के कारण हृदय में जलन होती है। परीक्षा में फेल हो जाय तो मूर्खता के कारण उसको इतना दुःख होता है कि कई आत्महत्या तक कर लेते हैं। जवान होने पर अपनी इच्छा के अनुसार विवाह आदि न होने से दुःख होता है। विवाह हो जाता है तो पत्नी अथवा पति अनुकूल न मिलने से दुःख होता है। बाल-बच्चे हो जाते हैं तो उनका पालन-पोषण करने में कष्ट होता है। लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं तो उनका जल्दी विवाह न होने पर माँ-बाप की नींद उड़ जाती है । खाना-पीना अच्छा नहीं लगता , हरदम बेचैनी रहती है। वृद्धावस्था आने पर शरीर में असमर्थता आ जाती है। अनेक प्रकार के रोगों का आक्रमण होने लगता है। सुख से उठना-बैठना , चलना-फिरना , खाना-पीना आदि भी कठिन हो जाता है। घरवालों के द्वारा तिरस्कार होने लगता है। उनके अपशब्द सुनने पड़ते हैं। रात में खाँसी आती है। नींद नहीं आती। मरने के समय भी बड़े भयंकर कष्ट होते हैं। ऐसे दुःख कहाँ तक कहें , उनका कोई अन्त नहीं। मनुष्य जैसा ही कष्ट पशु-पक्षी आदि को भी होता है। उनको शीत, घाम , वर्षा , हवा आदि से कष्ट होता है। बहुत से जंगली जानवर उनके छोटे बच्चों को खा जाते हैं तो उनको बड़ा दुःख होता है। इस प्रकार सभी योनियों में अनेक तरह के दुःख होते हैं। ऐसे ही नरकों में और चौरासी लाख योनियों में दुःख भोगने पड़ते हैं। इसलिये पुनर्जन्म को दुःखालय कहा गया है। पुनर्जन्म को अशाश्वत कहने का तात्पर्य है कि कोई भी पुनर्जन्म (शरीर) निरन्तर नहीं रहता। उसमें हरदम परिवर्तन होता रहता है। कहीं किसी भी योनि में स्थायी रहना नहीं होता। थोड़ा सुख मिल भी जाता है तो वह भी चला जाता है और शरीर का भी अन्त हो जाता है। नवें अध्याय के तीसरे श्लोक में इसी पुनर्जन्म को मौत का रास्ता कहा है – ‘मृत्युसंसारवर्त्मनि’। यहाँ भगवान को मेरी प्राप्ति होने पर पुनर्जन्म नहीं होता – इतना ही कहना पर्याप्त था । फिर भी पुनर्जन्म के साथ दुःखालय और अशाश्वत – ये दो विशेषण क्यों दिये गये ? ये दो विशेषण देने से यह एक भाव निकलता है कि जैसे भगवान भक्तजनों की रक्षा , दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिये पृथ्वी पर अवतार लेते हैं । ऐसे ही भगवान को प्राप्त हुए भक्तलोग भी साधु पुरुषों की रक्षा , दुष्टों की सेवा और धर्म का अच्छी तरह से पालन करने तथा करवाने के लिये कारक पुरुष के रूप में सन्त के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म ले सकते हैं (टिप्पणी प0 466) अथवा जब भगवान अवतार लेते हैं तब उनके साथ पार्षद के रूप में भी (ग्वालबालों की तरह) वे भक्तजन पृथ्वी पर जन्म ले सकते हैं परन्तु उन भक्तों का यह जन्म दुःखालय और अशाश्वत नहीं होता क्योंकि उनका जन्म कर्मजन्य नहीं होता बल्कि भगवद इच्छा से होता है। जो आरम्भ से ही भक्तिमार्ग पर चलते हैं उन साधकों को भी भगवान ने महात्मा कहा है (9। 13) जो भगवत्तत्त्व से अभिन्न हो जाते हैं उनको भी महात्मा कहा है (7। 19) और जो वास्तविक प्रेम को प्राप्त हो जाते हैं उनको भी महात्मा कहा है (8। 15)। तात्पर्य है कि असत् शरीरसंसार के साथ सम्बन्ध होने से मनुष्य अल्पात्मा होते हैं क्योंकि वे शरीरसंसार के आश्रित होते हैं। अपने स्वरूप में स्थित होने पर वे आत्मा होते हैं क्योंकि उनमें अणुरूप से अहम् की गंध रहने की संभावना होती है। भगवान के साथ अभिन्नता होने पर वे महात्मा होते हैं क्योंकि वे भगवन्निष्ठ होते हैं । उनकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं होती। भगवान ने गीता में कर्मयोग , ज्ञानयोग आदि योगों में महात्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया है। केवल भक्तियोग में ही भगवान ने महात्मा शब्द का प्रयोग किया है। इससे सिद्ध होता है कि गीता में भगवान भक्ति को ही सर्वोपरि मानते हैं। महात्माओं का पुनर्जन्म को प्राप्त न होने का कारण यह है कि वे परम सिद्धि को अर्थात् परम प्रेम को प्राप्त हो गये हैं – ‘संसिद्धिं (टिप्पणी प0 467.1) परमां गताः’। जैसे लोभी व्यक्ति को जितना धन मिलता है उतना ही उसको थोड़ा मालूम देता है और उसकी धन की भूख उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है । ऐसे ही अपने अंशी भगवान को पहचान लेने पर भक्त में प्रेम की भूख बढ़ती रहती है । उसको प्रतिक्षण वर्धमान , असीम , अगाध , अनन्त प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। यह प्रेम भक्ति की अन्तिम सिद्धि है। इसके समान दूसरी कोई सिद्धि है ही नहीं। विशेष बात- गीता का अध्ययन करने से ऐसा असर पड़ता है कि भगवान ने गीता में अपनी भक्ति की बहुत विशेषता से महिमा गायी है। भगवान ने भक्त को सम्पूर्ण योगियों में ‘युक्ततम’ (सबसे श्रेष्ठ) कहा है (गीता 6। 47) और अपने आप को भक्त के लिये सुलभ बताया है (8। 14) परन्तु अपने आग्रह का त्याग करके कोई भी साधक केवल कर्मयोग , केवल ज्ञानयोग अथवा केवल भक्तियोग का अनुष्ठान करे तो अन्त में वह एक ही तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। इसका कारण यह है कि साधकों की दृष्टि में तो कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग – ये तीन भेद हैं पर साध्यतत्त्व एक ही है। साध्यतत्त्वमें भिन्नता नहीं है परन्तु इसमें एक बात विचार करने की है कि जिस दर्शन में ईश्वर , भगवान , परमात्मा सर्वोपरि हैं – ऐसी मान्यता नहीं है उस दर्शन के अनुसार चलने वाले असत् से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके मुक्त तो हो जाते हैं पर अपने अंशी की स्वीकृति के बिना उनको परम प्रेम की प्राप्ति नहीं होती और परम प्रेम की प्राप्ति के बिना उनको प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द नहीं मिलता। उस प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द को , प्रेम को प्राप्त होना ही यहाँ परमसिद्धि को प्राप्त होना है – स्वामी रामसुखदास जी )