अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ৷৷8.16৷৷
आब्रह्मभुवनात्-ब्रह्मा के लोक तक; लोकाः-सारे लोक; पुनः-फिर; आवर्तिनः-पुर्नजन्म लेने वाले; अर्जुन-अर्जुन; माम्-मुझको; उपेत्य-पाकर; तु-लेकिन; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; पुनः जन्म-पुनर्जन्म; न-कभी नहीं; विद्यते-होता है।
हे कौन्तेय ! इस भौतिक सृष्टि में ब्रह्मलोकपर्यंत सभी लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात ब्रह्म लोक तक सभी लोकों में तुम्हें पुनर्जन्म प्राप्त होगा , परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर फिर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ अर्थात काल से परे हूँ । (काल का मेरे ऊपर कोई वश नहीं है , काल मेरे वश में है ) परन्तु ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित और नियंत्रित होने से अनित्य हैं॥8.16॥
(‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ – हे अर्जुन ! ब्रह्माजी के लोक को लेकर सभी लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात् ब्रह्मलोक और उससे नीचे के जितने लोक (सुख-भोग भूमियाँ) हैं , उनमें रहने वाले सभी प्राणियों को उन-उन लोकों के प्रापक पुण्य समाप्त हो जाने पर लौटकर आना ही पड़ता है। जितनी भी भोगभूमियाँ हैं उन सब में ब्रह्मलोक को श्रेष्ठ बताया गया है। मात्र पृथ्वीमण्डल का राजा हो और उसका धन-धान्य से सम्पन्न राज्य हो , स्त्री-पुरुष , परिवार आदि सभी उसके अनुकूल हों , उसकी युवावस्था हो तथा शरीर निरोग हो – यह मृत्युलोक का पूर्ण सुख माना गया है। मृत्युलोक के सुख से सौ गुणा अधिक सुख मर्त्य देवताओं का है। मर्त्य देवता उनको कहते हैं जो पुण्यकर्म करके देवलोक को प्राप्त होते हैं और देवलोक के प्रापक पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं (गीता 9। 21)। इन मर्त्य देवताओं से सौ गुणा अधिक सुख आजान देवताओं का है। आजान देवता वे कहलाते हैं जो कल्प के आदि में देवता बने हैं और कल्प के अन्त तक देवता बने रहेंगे। इन आजान देवताओं से सौ गुणा अधिक सुख इन्द्र का माना गया है। इन्द्र के सुख से सौ गुणा अधिक सुख ब्रह्मलोक का माना गया है। इस ब्रह्मलोक के सुख से भी अनन्त गुणा अधिक सुख भगवत्प्राप्त तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष का माना गया है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमण्डल से लेकर ब्रह्मलोक तक का सुख सीमित , परिवर्तनशील और विनाशी है परन्तु भगवत्प्राप्ति का सुख अनन्त है , अपार है , अगाध है। यह सुख कभी नष्ट नहीं होता। अनन्त ब्रह्मा और अनन्त ब्रह्माण्ड समाप्त हो जायँ तो भी यह परमात्मप्राप्ति का सुख कभी नष्ट नहीं होता , सदा बना रहता है। ‘पुनरावर्तिनः’ का एक भाव यह भी है कि ये प्राणी साक्षात् परमात्मा के अंश होने के कारण नित्य हैं। अतः ये जब तक नित्य तत्त्व परमात्मा को प्राप्त नहीं कर लेते तब तक कितने ही ऊँचे लोकों में जाने पर भी इनको वहाँ से पीछे लौटना ही पड़ता है। अतः ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकों में जाने वाले भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। यहाँ एक शङ्का होती है कि सन्तों , भक्तों , जीवन्मुक्तों और कारक-पुरुषों के दर्शनमात्र से जीव का कल्याण हो जाता है और ब्रह्माजी स्वयं कारकपुरुष हैं तथा भगवान के भक्त भी हैं। ब्रह्मलोक में जाने वाले ब्रह्माजी के दर्शन करते ही हैं , फिर उनकी मुक्ति क्यों नहीं होती ? वे लौटकर क्यों आते हैं ? इसका समाधान यह है कि सन्त , भक्त आदि के दर्शन , सम्भाषण , चिन्तन आदि का माहात्म्य इस मृत्युलोक के मनुष्यों के लिये ही है। कारण कि यह मनुष्यशरीर केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः मनुष्य को भगवत्प्राप्ति का कोई भी और किञ्चिन्मात्र भी मुक्ति का उपाय मिल जाता है तो वे मुक्त हो जाते हैं। ऐसा मुक्ति का अधिकार अन्य लोकों में नहीं है इसलिये वे मुक्त नहीं होते। हाँ, उन लोकों में रहने वालों में किसी की मुक्त होने के लिये तीव्र लालसा हो जाती है तो वह भी मुक्त हो जाता है। ऐसे ही पशु-पक्षियों में भी भक्त हुए हैं पर ये दोनों ही अपवादरूप से हैं अधिकारी रूप से नहीं। अगर वहाँ के लोग भी अधिकारी माने जायँ तो नरकों में जाने वाले सभी की मुक्ति हो जानी चाहिये क्योंकि उन सभी प्राणियों को परम भागवत कारकपुरुष यमराज के दर्शन होते ही हैं पर ऐसा शास्त्रों में न देखा और न सुना ही जाता है। इससे सिद्ध होता है कि उन-उन लोकों में रहने वाले प्राणियों का भक्त आदि के दर्शन से कल्याण नहीं होता।विशेष बात- यह जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है – ‘ममैवांशः’ और जहाँ जाने के बाद फिर लौटकर नहीं आना पड़ता , वह परमात्मा का धाम है – ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’। जैसे कोई अपने घर पर जाता है । ऐसे ही परमात्मा का अंश होने से इस जीव को वहीं (परमधाम में) जाना चाहिये। फिर भी यह जीव मरने के बाद लौटकर क्यों आता है ? जैसे कोई मनुष्य सत्सङ्ग आदि में जाता है और समय पूरा होने पर वहाँ से चल देता है परन्तु चलते समय उसकी कोई वस्तु (चद्दर आदि) भूल से वहाँ रह जाय तो उसको लेने के लिये उसे फिर लौटकर वहाँ आना पड़ता है। ऐसे ही इस जीव ने घर , परिवार , जमीन , धन आदि जिन चीजों में ममता कर ली है , अपनापन कर लिया है , उस ममता (अपनापन) के कारण इस जीव को मरने के बाद फिर लौटकर आना पड़ता है। कारण कि जिस शरीर में रहते हुए संसार में ममता-आसक्ति की थी वह शरीर तो रहता नहीं , न चाहते हुए भी छूट जाता है परन्तु उस ममता (वासना) के कारण दूसरा शरीर धारण करके यहाँ आना पड़ता है। वह मनुष्य बनकर भी आ सकता है और पशुपक्षी आदि बनकर भी आ सकता है। उसको लौटकर आना पड़ता है – यह बात निश्चित है। भगवान ने कहा है कि ऊँच-नीच योनियों में जन्म होने का कारण गुणों का सङ्ग ही है – ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (13। 21) अर्थात् जो संसार में ममता-आसक्ति-कामना करेगा उसको लौटकर संसार में आना ही पड़ेगा। ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ – ब्रह्मलोक तक जाने वाले सभी को पुनर्जन्म लेना पड़ता है परन्तु हे कौन्तेय ! समग्ररूप से मेरी प्राप्ति होने पर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मेरे को प्राप्त होने पर फिर संसार में जन्म-मरण के चक्कर में नहीं आना पड़ता। कारण कि मैं कालातीत हूँ । अतः मेरे को प्राप्त होने पर वे भी कालातीत हो जाते हैं। यहाँ ‘मामुपेत्य’ का अर्थ है कि मेरे दर्शन हो जायँ , मेरे स्वरूप का बोध हो जाय और मेरे में प्रवेश हो जाय (गीता 11। 54)। मेरे को प्राप्त होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता अर्थात् जीव लौटकर संसार में क्यों नहीं आता ? क्योंकि जीव मेरा अंश है और मेरा परमधाम ही इसका वास्तविक घर है। ब्रह्मलोक आदि लोक इसका घर नहीं है इसलिये इसको वहाँसे लौटना पड़ता है। जैसे रेलगाड़ी का जहाँ तक का टिकट होता है , वहाँ तक ही मनुष्य उसमें बैठ सकता है। उसके बाद उसे उतरना ही पड़ता है परन्तु वह अगर अपने घर में बैठा हो तो उसे उतरना नहीं पड़ता। ऐसे ही जो देवताओं के लोक में गया है वह मानो रेलगाड़ी में बैठा हुआ है। इसलिये उसको एक दिन नीचे उतरना ही पड़ेगा परन्तु जो मेरे को प्राप्त हो गया है वह अपने घर में बैठा हुआ है। इसलिये उसको कभी उतरना नहीं पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि भगवान को प्राप्त किये बिना ऊँचे से ऊँचे लोकों में जाने पर भी कल्याण नहीं होता। अतः साधक को ऊँचे लोकों के भोगों की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं करनी चाहिये। ब्रह्मलोक तक जाकर फिर पीछे लौटकर आने वाले अर्थात् जन्म-मरणरूप बन्धन में पड़ने वाले पुरुष आसुरी सम्पत्ति वाले होते हैं क्योंकि आसुरी सम्पत्ति से ही बन्धन होता है – ‘निबन्धायासुरी मता’। इसलिये ब्रह्मलोक तक बन्धन ही बन्धन है परन्तु मेरे शरण होने वाले , मुझे प्राप्त होने वाले पुरुष दैवी सम्पत्तिवाले होते हैं। उनका फिर जन्म-मरण नहीं होता क्योंकि दैवी सम्पत्ति से मोक्ष होता है -‘ दैवी संपद्विमोक्षाय’ (गीता 16। 5)। विशेष बात- ब्रह्मलोक में जाने वाले पुरुष दो तरह के होते हैं – एक तो जो ब्रह्मलोक के सुख का उद्देश्य रखकर यहाँ बड़े-बड़े पुण्यकर्म करते हैं तथा उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोक का सुख भोगने के लिये ब्रह्मलोक में जाते हैं और दूसरे जो परमात्मप्राप्ति के लिये ही तत्परतापूर्वक साधन में लगे हुए हैं परन्तु प्राणों के रहते-रहते परमात्मप्राप्ति हुई नहीं और अन्तकाल में भी किसी कारणविशेष से साधन से विचलित हो गये तो वे ब्रह्मलोक में जाते हैं और वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्माजी के साथ ही मुक्त हो जाते हैं। इन साधकों का ब्रह्मलोक के सुखभोग का उद्देश्य नहीं होता किन्तु अन्तकाल में साधन से विमुख होने से तथा अन्तःकरण में सुखभोग की किञ्चिन्मात्र इच्छा रहने से ही उनको ब्रह्मलोक में जाना पड़ता है। इस प्रकार ब्रह्मलोक का सुख भोगकर ब्रह्माजी के साथ मुक्त होने को क्रममुक्ति कहते हैं परन्तु जिन साधकों को यहीं बोध हो जाता है , वे यहाँ ही मुक्त हो जाते हैं। इसको सद्योमुक्ति कहते हैं। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में अर्जुन का प्रश्न था कि अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं? इसका उत्तर भगवान ने 5वें श्लोक में दिया। फिर छठे श्लोक में अन्तकालीन गति का सामान्य नियम बताया और 7वें श्लोक में अर्जुन को सब समय में स्मरण करने की आज्ञा दी। इस 7वें श्लोक से 14वें श्लोक का सम्बन्ध है। बीच में (8वें से 13वें श्लोक तक) सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार की बात प्रसङ्ग से आ गयी है। 8वें से 16वें श्लोक तक के नौ श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि पूर्ण परमात्मा हैं। वे ही समग्र परमात्मा हैं। उनके अन्तर्गत ही सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार आ जाते हैं। अतः इनका प्रेम प्राप्त करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। ब्रह्मलोक में जाने वाले भी पीछे लौटकर आते हैं – इसका कारण आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )