अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥8.17॥
सहस्त्र-एक हजार; युग-युग; पर्यन्तम्-तक; अहः-एक दिन; यत्-जो; ब्रह्मण-ब्रह्मा का; विदु:-जानना; रात्रिम्-रात्रि; युग-युग; सहस्न्नान्ताम्-एक हजार युग समाप्त होने पर; ते–वे; अहःरात्रविद:-दिन और रात को जानने वाले; जना:-लोग।
जो लोग ये जानते हैं कि ब्रह्मा जी का एक दिन सहस्र युगों का है अर्थात एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा जी का एक दिन बनता है । इसी प्रकार ब्रह्मा जी कि एक रात्रि सहस्र युगो कि है अर्थात एक हजार युग मिलकर उनकी एक रात्रि बनती है । ऐसे लोग वास्तव में दिन और रात को जानने वाले हैं अर्थात इसे वही बुद्धिमान समझ सकते हैं जो दिन और रात्रि की वास्तविकता को जानते हैं या काल के तत्व को जानने वाले हैं ।।8.17।।
(‘सहस्रयुगपर्यन्तम् ৷৷. तेऽहोरात्रविदो जनाः’ – सत्य , त्रेता , द्वापर और कलि – मृत्युलोक के इन चार युगों को एक चतुर्युगी कहते हैं। ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्माजी का एक दिन होता है और एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्माजी की एक रात होती है (टिप्पणी प0 470)। दिन-रात की इसी गणना के अनुसार सौ वर्षों की ब्रह्माजी की आयु होती है। ब्रह्माजी की आयु के सौ वर्ष बीतने पर ब्रह्माजी परमात्मा में लीन हो जाते हैं और उनका ब्रह्मलोक भी प्रकृति में लीन हो जाता है तथा प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है। कितनी ही बड़ी आयु क्यों न हो वह भी काल की अवधि वाली ही है। ऊँचे से ऊँचे कहे जाने वाले जो भोग हैं , वे भी संयोगजन्य होने से दुःखों के ही कारण हैं – ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’ (गीता 5। 22) और काल की अवधि वाले हैं। केवल भगवान ही कालातीत हैं। इस प्रकार काल के तत्त्व को जानने वाले मनुष्य ब्रह्मलोक तक के दिव्य भोगों को किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं देते। ब्रह्माजी के दिन और रात को लेकर जो सर्ग और प्रलय होते हैं उसका वर्णन अब आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )