अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञके ॥8.18॥
अव्यक्तात-अव्यक्त अवस्था से; व्यक्तयः-व्यक्तावस्थाः सर्वाः-सारेः प्रभवन्ति–प्रकट होते हैं; अहःआगमे-ब्रह्मा के दिन का शुभारम्भ; रात्रिआगमे-रात्रि होने पर; प्रलीयन्ते-लीन हो जाते हैं; तत्र-उसमें; एव-निश्चय ही; अव्यक्त-अप्रकट; अव्यक्तसंज्ञके-अव्यक्त कहा जाने वाला।
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ पर सभी जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और रात्रि होने पर पुनः सभी जीव अव्यक्त अवस्था में लीन हो जाते हैं अर्थात ब्रह्मा जी के दिन का उदय होने पर सम्पूर्ण प्राणी उनके सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा जी की रात्रि के आगमन पर उसी में लीन हो जाते हैं । अर्थात ब्रह्मा जी के दिन की शुरआत होने पर यह सम्पूर्ण चराचर जगत उन सूक्ष्म शरीर वाले ब्रह्मा जी की अप्रकट या अव्यक्त अवस्था से व्यक्त या प्रकट प्रतीत होता है और रात्रि के होने पर यह व्यक्त या प्रकट जगत पुनः अप्रकट या अव्यक्त हो जाता है ।।८.18।।
(अव्यक्ताद्व्यक्तयः ৷৷. तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके’ – मात्र प्राणियों के जितने शरीर हैं उनको यहाँ ‘व्यक्तयः’ और 14वें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘मूर्तयः’ कहा गया है। जैसे जीवकृत सृष्टि अर्थात् मैं और मेरापन को लेकर जीव की जो सृष्टि है , जीव के नींद से जगने पर वह सृष्टि जीव से ही पैदा होती है और नींद के आ जाने पर वह सृष्टि जीव में ही लीन हो जाती है। ऐसे ही जो यह स्थूल समष्टि सृष्टि दिखती है , वह सब की सब ब्रह्माजी के जगने पर उनके सूक्ष्मशरीर से अर्थात् प्रकृति से पैदा होती है और ब्रह्माजी के सोने पर उनके सूक्ष्मशरीर में ही लीन हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माजी के जगने पर तो सर्ग होता है और ब्रह्माजी के सोने पर प्रलय होता है। जब ब्रह्माजी की सौ वर्ष की आयु बीत जाती है तब महाप्रलय होता है जिसमें ब्रह्माजी भी भगवान में लीन हो जाते हैं। ब्रह्माजी की जितनी आयु होती है , उतना ही महाप्रलय का समय रहता है। महाप्रलय का समय बीतने पर ब्रह्माजी भगवान से प्रकट हो जाते हैं तो महासर्ग का आरम्भ होता है (गीता 9। 7 8) स्वामी रामसुखदास जी )