अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥8.19॥
भूतग्रामः-असंख्य जीव; सः-ये; एव–निश्चय ही; अयम्-यह; भूत्वा-बारम्बार जन्म लेना; प्रलीयते-विलीन हो जाता है; रात्रिआगमे-रात्रि होने पर; अवशः-असहाय; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन ; प्रभवति-प्रकट होता है; अहः-दिन; आगमे-दिन के आरम्भ में।
ब्रह्मा के दिन के आगमन के साथ असंख्य जीव पुनः जन्म लेते हैं और ब्रह्माण्डीय रात्रि के आने पर अगले ब्रह्माण्डीय दिवस के आगमन पर स्वतः पुनः प्रकट होने के लिए विलीन हो जाते हैं अर्थात वही यह भूतसमुदाय ( प्राणिसमुदाय ) प्रकृति और काल के वश में हुआ बार – बार उत्पन्न हो- हो कर रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है॥8.19॥
[अल्पज्ञानी पुरुष, जो इस भौतिक जगत् में बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उन्हें पुनः इस धरालोक पर आना होता है । वे ब्रह्मा का दिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तथा निम्नतर लोकों में अपने कार्यों का प्रदर्शन करते हैं, किन्तु ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे विनष्ट हो जाते हैं । दिन में उन्हें भौतिक कार्यों के लिए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, किन्तु रात्रि के होते ही उनके शरीर विष्णु के शरीर में विलीन हो जाते हैं। वे पुनः ब्रह्मा का दिन आने पर प्रकट होते हैं । दिन के समय वे प्रकट होते हैं और रात्रि के समय पुनः विनष्ट हो जाते हैं । अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा का जीवन समाप्त होता है, तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ो वर्षों तक अप्रकट रहते हैं । अन्य कल्प में ब्रह्मा का पुनर्जन्म होने पर वे पुनः प्रकट होते हैं । इस प्रकार वे भौतिक जगत् के जादू से मोहित होते रहते हैं किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति भगवान की भक्ति को स्वीकार करते हैं, वे इस मनुष्य जीवन का उपयोग भगवान् की भक्ति करने में समय व्यतीत करते हैं । इस प्रकार वे कृष्ण के धाम को प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्त होकर सतत आनन्द का अनुभव करते हैं ।]
(भूतग्रामः स एवायम्’ – अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ यह प्राणिसमुदाय वही है जो कि साक्षात् मेरा अंश , मेरा स्वरूप है। मेरा सनातन अंश होने से यह नित्य है। सर्ग और प्रलय तथा महासर्ग और महाप्रलय में भी यही था और आगे भी यही रहेगा। इसका न कभी अभाव हुआ है और न आगे कभी इसका अभाव होगा। तात्पर्य है कि यह अविनाशी है इसका कभी विनाश नहीं होता परन्तु भूल से यह प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्राकृत पदार्थ (शरीर आदि) तो बदलते रहते हैं उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं पर यह उनके सम्बन्ध को पकड़े रहता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि सम्बन्धी (सांसारिक पदार्थ) तो नहीं रहते पर उनका सम्बन्ध रहता है क्योंकि उस सम्बन्ध को स्वयं ने पकड़ा है। अतः यह स्वयं जब तक उस सम्बन्ध को नहीं छोड़ता तब तक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। उस सम्बन्ध को छोड़ने में यह स्वतन्त्र है , सबल है। वास्तव में यह उस सम्बन्ध को रखने में सदा परतन्त्र है क्योंकि वे पदार्थ तो हरदम बदलते रहते हैं पर यह नया-नया सम्बन्ध पकड़ता रहता है। जैसे बालकपन को इसने नहीं छोड़ा और न छोड़ना चाहा पर वह छूट गया। ऐसे ही जवानी को इसने नहीं छोड़ा पर वह छूट गयी। और तो क्या यह शरीर को भी छोड़ना नहीं चाहता पर वह भी छूट जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राकृत पदार्थ तो छूटते ही रहते हैं पर यह जीव उन पदार्थों के साथ अपने सम्बन्ध को बनाये रखता है जिससे इसको बार-बार शरीर धारण करने पड़ते हैं , बार-बार जन्मना-मरना पड़ता है। जब तक यह उस माने हुए सम्बन्ध को नहीं छोड़ेगा तब तक यह जन्म-मरण की परम्परा चलती ही रहेगी , कभी मिटेगी नहीं। भगवान के द्वारा अकेले खेल नहीं हुआ (एकाकी न रमते) तो खेल खेलने के लिये अर्थात् प्रेम का आदान-प्रदान करने के लिये भगवान ने इस प्राणिसमुदाय को शरीररूप खिलौने के सहित प्रकट किया। खेल का यह नियम होता है कि खेल के पदार्थ केवल खेलने के लिये ही होते हैं , किसी के व्यक्तिगत नहीं होते परन्तु यह प्राणिसमुदाय खेल खेलना तो भूल गया और खेल के पदार्थों को अर्थात् शरीरों को व्यक्तिगत मानने लग गया। इसी से यह उनसे फँस गया और भगवान से सर्वथा विमुख हो गया। ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ – ये पद शरीरों के लिये कहे गये हैं जो कि उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं अर्थात् जिनमें प्रतिक्षण ही परिवर्तन होता रहता है परन्तु जीव उन शरीरों के परिवर्तन को अपना परिवर्तन और उनके जन्मने-मरने को अपना जन्म-मरण मानता रहता है। इसी मान्यता के कारण उसका जन्म-मरण कहा जाता है। यह स्वयं सत्स्वरूप है -‘भूतग्रामः स एवायम्’ और शरीर उत्पत्तिविनाशशील हैं – ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ इसलिये शरीरों को धारण करना अर्थात् जन्म-मरण का होना परधर्म है और मुक्त होना स्वधर्म है। ‘रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे’ – यहाँ ‘अवशः’ कहने का तात्पर्य है कि अगर यह जीव प्रकृति की वस्तुओं में से किसी भी वस्तु को अपनी मानता रहेगा तो उसको वहम तो यह होगा कि मैं इस वस्तु का मालिक हूँ पर हो जायगा उस वस्तु के परवश पराधीन। प्राकृत पदार्थों को यह जितना ही अधिक ग्रहण करेगा उतना ही यह महान् परतन्त्र बनता चला जायगा। फिर इसकी परतन्त्रता कभी छूटेगी ही नहीं। ब्रह्माजी के जगने और सोने पर अर्थात् सर्ग और प्रलय के होने पर ( 8। 18) ब्रह्माजी के प्रकट और लीन होने पर अर्थात् महासर्ग और महाप्रलय के होनेपर (9। 7 8) तथा वर्तमान में प्रकृति के परवश होकर कर्म करते रहने पर (3। 5) भी यह जीव जन्मना और मरना तथा कर्म करना और उसका फल भोगना – इस आफतसे कभी छूटेगा ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती , बोध नहीं होता और यह प्रकृति के सम्बन्ध को नहीं छोड़ता तब तक परतन्त्र होने के कारण यह दुःखरूप जन्म-मरण के चक्कर से छूट नहीं सकता परन्तु जब इसकी प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थों की परवशता मिट जाती है अर्थात् इसको प्रकृति के सम्बन्ध से सर्वथा रहित अपने शुद्ध स्वरूप का बोध हो जाता है तो फिर यह महासर्ग में भी उत्पन्न नहीं होता और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होता – ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ‘(गीता 14। 2)। मूल में परवशता प्रकृतिजन्य पदार्थों को महत्त्व देने उनको स्वीकार करने में ही है। इस परवशता को ही कहीं काल की कहीं स्वभाव की , कहीं कर्म की और कहीं गुणों की परवशता के नाम से कहा गया है। इस प्राणिसमुदाय की यह परवशता तभी तक रहती है जब तक यह प्राकृत पदार्थों के संयोग से सुख लेना चाहता है। इस संयोगजन्य सुख की इच्छा से ही यह पराधीनता भोगता रहता है और ऐसा मानता रहता है कि यह पराधीनता छूटती नहीं इसको छो़ड़ना बड़ा कठिन है परन्तु यह परवशता इसकी ही बनायी हुई है स्वतः नहीं है। अतः इसको छोड़ने की जिम्मेवारी इसी पर है। इसको यह जब चाहे तभी छोड़ सकता है। अनित्य संसार का वर्णन करके अब आगे के श्लोक में जीवों के प्रापणीय परमात्मा की महिमा का विशेष वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )