अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ৷৷8.20৷৷
पर:-परे; तस्मात्-उसकी अपेक्षा; तु–लेकिन; भावा:-सृष्टि; अन्य:-दूसरी; अव्यक्त:-अव्यक्त; अव्यक्तात्-अव्यक्त की; सनातनः-शाश्वत; य–जो; सः-वह जो; सर्वेषु-समस्त; भूतेषु-जीवों में; नश्यत्सु-नष्ट होने पर; न-कभी नहीं; विनश्यति–विनष्ट होती है।
व्यक्त और अव्यक्त सृष्टि से परे अन्य अव्यक्त शाश्वत आयाम है। जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है किन्तु उसकी सत्ता का विनाश नहीं होता अर्थात उस व्यक्त से भी अति परे जो दूसरा विलक्षण सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता॥8.20॥
(इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है । यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता ।)
(‘परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः’ – 16वें से 19वें श्लोक तक ब्रह्मलोक तथा उससे नीचे के लोकों को पुनरावर्ती कहा गया है परन्तु परमात्मतत्त्व उनसे अत्यन्त विलक्षण है – यह बताने के लिये यहाँ ”तु पद दिया गया है। यहाँ ‘अव्यक्तात्’ पद ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर का ही वाचक है। कारण कि इससे पहले 18वें , 19वें श्लोकों में सर्ग के आदि में ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर से प्राणियों के पैदा होने की और प्रलय में ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर में प्राणियों के लीन होने की बात कही गयी है। इस श्लोक में आया ‘तस्मात्’ पद भी ब्रह्माजी के उस सूक्ष्मशरीर का द्योतन करता है। ऐसा होने पर भी यहाँ ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर (समष्टि , मन , बुद्धि और अहंकार) से भी पर अर्थात् अत्यन्त विलक्षण जो भावरूप अव्यक्त कहा गया है , वह ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर के साथ-साथ ब्रह्माजी के कारणशरीर (मूल प्रकृति ) से भी अत्यन्त विलक्षण है। ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर से पर दो तत्त्व हैं – मूल प्रकृति और परमात्मा। यहाँ प्रसङ्ग मूल प्रकृति का नहीं है बल्कि परमात्मा का है। अतः इस श्लोक में परमात्मा को ही पर और श्रेष्ठ कहा गया है , जो सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। आगे के श्लोक में भी ‘अव्यक्तोऽक्षर’ आदि पदों से उस परमात्मा का ही वर्णन आया है। गीता में प्राणियों के अप्रकट होने को अव्यक्त कहा गया है – ‘अव्यक्तादीनि भूतानि ‘ (2। 28) ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर को भी अव्यक्त कहा गया है (8। 18) प्रकृति को भी अव्यक्त कहा गया है – ‘अव्यक्तमेव च’ (13। 5) आदि। उन सबसे परमात्मा का स्वरूप विलक्षण श्रेष्ठ है चाहे वह स्वरूप व्यक्त हो चाहे अव्यक्त हो। वह भावरूप है अर्थात् किसी भी काल में उसका अभाव हुआ नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। कारण कि वह सनातन है अर्थात् वह सदा से है और सदा ही रहेगा। इसलिये वह पर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता और होने की सम्भावना भी नहीं है। ‘यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति’ – अब उत्तरार्ध में उसकी विलक्षणता बताते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी अर्थात् उन सम्पूर्ण शरीरों का अभाव होने पर भी उस परमात्मतत्त्व का कभी अभाव नहीं होता – ऐसा वह परमात्मा का अव्यक्त स्वरूप है। ‘न विनश्यति ‘ कहने का तात्पर्य है कि संसार में कार्यरूप से अनेक तरह के परिवर्तन होने पर भी वह परमात्मतत्त्व ज्यों का त्यों ही अपरिवर्तनशील रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन होता ही नहीं। अभी तक जो परमात्मविषयक वर्णन हुआ है उस सबकी एकता करते हुए अनन्यभक्ति के विशेष महत्त्व का वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )