अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥8.21॥
अव्यक्त:-अप्रकट; अक्षर:-अविनाशी; इति-इस प्रकार; उक्त:-कहा गया; तम्-उसको; आहुः-कहा जाता है; परमाम्-सर्वोच्च; गतिम्-गन्तव्य; यम्-जिसको; प्राप्य-प्राप्त करके; न-कभी; निवर्तन्ते–वापस आते है; तत्-वह; धाम–लोक; परमम्-सर्वोच्च; मम–मेरा।
जो वह ‘अव्यक्त’ ( अप्रकट ) और ‘अक्षर’ ( अविनाशी ) इस प्रकार कहा गया है, वह अक्षर नामक अव्यक्त भाव परम गन्तव्य है अर्थात सर्वोच्च और श्रेष्ठ गति है। उसी अक्षर या अविनाशी नामक अव्यक्त या अप्रकट भाव को परमगति कहते हैं और इस सनातन परम अव्यक्त भाव को प्राप्त हो कर फिर कोई इस नश्वर संसार में लौट कर नहीं आता। यह मेरा परम धाम है॥8.21॥
(‘अव्यक्तोऽक्षर ৷৷. तद्धाम परमं मम ‘ – भगवान ने 7वें अध्याय के 28वें , 29वें और 30वें श्लोक में जिसको ‘माम्’ कहा है तथा 8वें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘अक्षरं ब्रह्म’ चौथे श्लोक में ‘अधियज्ञः’ 5वें और 7वें श्लोक में ‘माम्’ 8वें श्लोक में ‘परमं पुरुषं दिव्यम्’ 9वें श्लोक में ‘कविं पुराणमनुशासितारम्’ आदि 13वें , 14वें , 15वें और 16वें श्लोक में ‘माम्’ 20वें श्लोक में ‘अव्यक्तः’ और ‘सनातनः’ कहा है उन सबकी एकता करते हुए भगवान कहते हैं कि उसी को अव्यक्त और अक्षर कहते हैं तथा उसी को परमगति अर्थात् सर्वश्रेष्ठ गति कहते हैं और जिसको प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर नहीं आते , वह मेरा परमधाम है अर्थात् मेरा सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। इस प्रकार जिस प्रापणीय वस्तु को अनेक रूपों में कहा गया है उसकी यहाँ एकता की गयी है। ऐसे ही 14वें अध्याय के 27वें श्लोक में भी ब्रह्म अविनाशी अमृत शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ , ऐसा कहकर भगवान ने प्रापणीय वस्तु की एकता की है। लोगों की ऐसी धारणा रहती है कि सगुण उपासना का फल दूसरा है और निर्गुण उपासना का फल दूसरा है। इस धारणा को दूर करने के लिये इस श्लोक में सबकी एकता का वर्णन किया गया है। मनुष्यों की रुचि , विश्वास और योग्यता के अनुसार उपासना के भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं पर उनके अन्तिम फल में कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजन के प्राप्त न होने पर अभाव की और प्राप्त होने पर तृप्ति की एकता होने पर भी भोजन के पदार्थों में भिन्नता रहती है । ऐसे ही परमात्मा के प्राप्त न होने पर अभाव की और प्राप्त होने पर पूर्णता की एकता होने पर भी उपासनाओं में भिन्नता रहती है। तात्पर्य यह हुआ कि उस परमात्मा को चाहे सगुण-निराकार मानकर उपासना करें चाहे निर्गुण-निराकार मानकर उपासना करें और चाहे सगुण-साकार मानकर उपासना करें , अन्त में सबको एक ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। ब्रह्मलोक आदि जितने भी लोक हैं वे सभी पुनरावर्ती हैं अर्थात् वहाँ गये हुए प्राणियों को फिर लौटकर जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ता है क्योंकि वे सभी लोक प्रकृति के राज्य में हैं और विनाशी हैं परन्तु भगवद्धाम प्रकृति से परे और अविनाशी है। वहाँ गये हुए प्राणियों को गुणों के परवश होकर लौटना नहीं पड़ता , जन्म लेना नहीं पड़ता। हाँ , भगवान जैसे स्वेच्छा से अवतार लेते हैं , ऐसे ही वे भगवान की इच्छा से लोगों के उद्धार के लिये कारक पुरुषों के रूप में इस भूमण्डल पर आ सकते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )