अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन
यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ৷৷8.23৷৷
यत्र-जहाँ; काले-समय; तु–निश्चित रूप से; अनावृत्तिम्-लौटकर न आना; आवृत्तिम्-लौटना; च-भी; एव-निश्चय ही; योगिनः-योगी; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; यान्ति–प्राप्त करते हैं; तम्-उस; कालम्-काल को; यक्ष्यामि-वर्णन करूँगा; भरतऋषभ-भरत कुल श्रेष्ठ।
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! जिस काल अर्थात मार्ग में शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन वापस न लौटने वाली गति को प्राप्त होते हैं अर्थात वे पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आते और जिस काल या मार्ग में गए हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात पुनः इस संसार में लौट कर आते हैं , उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को मैं कहूँगा॥8.23॥
(जीवित अवस्था में ही बन्धन से छूटने को सद्योमुक्ति कहते हैं अर्थात् जिनको यहाँ ही भगवत्प्राप्ति हो गयी । भगवान में अनन्यभक्ति हो गयी , अनन्यप्रेम हो गया , वे यहाँ ही परम संसिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे जो साधक किसी सूक्ष्म वासना के कारण ब्रह्मलोक में जाकर क्रमशः ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं उनकी मुक्ति को क्रममुक्ति कहते हैं। जो केवल सुख भोगने के लिये ब्रह्मलोक आदि लोकों में जाते हैं वे फिर लौटकर आते हैं। इसको पुनरावृत्ति कहते हैं। ‘सद्योमुक्ति’ का वर्णन तो 15वें श्लोक में हो गया पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्ति का वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनों का वर्णन करने के लिये भगवान आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।] ‘यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं ৷৷. वक्ष्यामि भरतर्षभ’ – पीछे छूटे हुए विषय का लक्ष्य कराने के लिये यहाँ ‘तु’ अव्यय का प्रयोग किया गया है।ऊर्ध्वगति वालों को कालाभिमानी देवता जिस मार्ग से ले जाता है , उस मार्ग का वाचक यहाँ काल शब्द लेना चाहिये क्योंकि आगे 26वें और 27वें श्लोक में इसी काल शब्द को मार्ग के पर्यायवाची गति और सृति शब्दों से कहा गया है। ‘अनावृत्तिमावृत्तिम्’ कहने का तात्पर्य है कि अनावृत ज्ञान वाले पुरुष ही अनावृत्तिमें जाते हैं और आवृत ज्ञान वाले पुरुष ही आवृत्ति में जाते हैं। जो सांसारिक पदार्थों और भोगों से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो गये हैं , वे अनावृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक ) ढका हुआ नहीं है बल्कि जाग्रत् है। इसलिये वे अनावृत्ति के मार्ग में जाते हैं जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता। निष्कामभाव होने से उनके मार्ग में प्रकाश अर्थात् विवेक की मुख्यता रहती है। सांसारिक पदार्थों और भोगों में आसक्ति , कामना और ममता रखने वाले जो पुरुष अपने स्वरूप से तथा परमात्मा से विमुख हो गये हैं , वे आवृत ज्ञानवाले हैं अर्थात् उनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है। इसलिये वे आवृत्ति के मार्ग में जाते हैं , जहाँ से फिर लौटकर जन्म-मरण के चक्र में आना पड़ता है। सकामभाव होने से उनके मार्ग में अन्धकार अर्थात् अविवेक की मुख्यता रहती है। जिनका परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य है पर भीतर में आंशिक वासना रहने से जो अन्तकाल में विचलितमना होकर पुण्यकारी लोकों (भोगभूमियों) को प्राप्त करके फिर वहाँ से लौटकर आते हैं , ऐसे योगभ्रष्टों को भी आवृत्तिवालों के मार्ग के अन्तर्गत लेने के लिये यहाँ चैव पद आया है।यहाँ ‘योगिनः’ पद निष्काम और सकाम – दोनों पुरुषों के लिये आया है। अब उन दोनों में से पहले शुक्लमार्ग का अर्थात् लौटकर न आनेवालों के मार्ग का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )