अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ৷৷8.24৷৷
अग्रिः-अग्नि; ज्योति:-प्रकाश; अहः-दिन; शुक्ल:-शुक्लपक्ष; षट् मासाः-छह महीने; उत्तर-अयणम्-जब सूर्य उत्तर दिशा की ओर रहता है; तत्र-वहाँ; प्रयाता:-देह त्यागने वाले; गच्छन्ति-जाते हैं; ब्रह्मविदः-ब्रह्म को जानने वाले; जनाः-लोग।
जिस मार्ग में प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्ष का अधिपति देवता, और छः महीनों वाले उत्तरायण का अधिपति देवता है, शरीर छोड़ कर उस मार्ग से गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आते ॥8.24॥
(‘अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्’ – इस भूमण्डल पर शुक्लमार्ग में सबसे पहले अग्निदेवता का अधिकार रहता है। अग्नि रात्रि में प्रकाश करती है , दिन में नहीं क्योंकि दिन के प्रकाश की अपेक्षा अग्नि का प्रकाश सीमित है। अतः अग्नि का प्रकाश थोड़ी दूर तक (थोड़े देश में) तथा थोड़े समय तक रहता है और दिन का प्रकाश बहुत दूर तक तथा बहुत समय तक रहता है। शुक्लपक्ष पंद्रह दिनों का होता है जो कि पितरों की एक रात है। इस शुक्लपक्ष का प्रकाश आकाश में बहुत दूर तक और बहुत दिनों तक रहता है। इसी तरह से जब सूर्य भगवान् उत्तर की तरफ चलते हैं तब उसको उत्तरायण कहते हैं जिसमें दिन का समय बढ़ता है। वह उत्तरायण छः महीनों का होता है जो कि देवताओं का एक दिन है। उस उत्तरायण में प्रकाश बहुत दूर तक और बहुत समय तक रहता है। ‘तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ‘ – जो शुक्लमार्ग में अर्थात् प्रकाश की बहुलता वाले मार्ग में जाने वाले हैं । वे सबसे पहले ‘ज्योतिःस्वरूप ‘ अग्निदेवता के अधिकार में आते हैं। जहाँ तक अग्निदेवता का अधिकार है , वहाँ से पार कराकर अग्निदेवता उन जीवों को दिन के देवता को सौंप देता है। दिन का देवता उन जीवों को अपने अधिकार तक ले जाकर शुक्लपक्ष के अधिपति देवता के समर्पित कर देता है। वह शुक्लपक्ष का अधिपति देवता अपनी सीमा को पार करा कर उन जीवों को उत्तरायण के अधिपति देवता के सुपुर्द कर देता है। फिर वह उत्तरायण का अधिपति देवता उनको ब्रह्मलोक के अधिकारी देवता के समर्पित कर देता है। इस प्रकार वे क्रमपूर्वक ब्रह्मलोक में पहुँच जाते हैं। ब्रह्माजी की आयु तक वे वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्माजी के साथ ही मुक्त हो जाते हैं – सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ ‘ब्रह्मविदः’ पद परमात्मा को परोक्षरूप से जानने वाले मनुष्यों का वाचक है , अपरोक्ष रूप से अनुभव करने वाले ब्रह्मज्ञानियों का नहीं। कारण कि अगर वे अपरोक्ष ब्रह्मज्ञानी होते तो यहाँ ही मुक्त (सद्योमुक्त या जीवन्मुक्त) हो जाते और उनको ब्रह्मलोक में जाना नहीं पड़ता। अब आगे के श्लोक में कृष्णमार्ग का अर्थात् लौटकर आने वालों के मार्ग का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )