अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ৷৷8.25৷৷
धूम:-धुआँ; रात्रि:-रात; तथा-और; कृष्ण:-चन्द्रमा का कृष्णपक्ष; षट् मासा:-छह मास की अवधि; दक्षिणअयणम्-जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है; तत्र-वहाँ; चान्द्रमसम् -चन्द्रमा संबंधी; ज्योतिः-प्रकाश; योगी-योगी; प्राप्य–प्राप्त करके; निवर्तते-वापस आता है।
जिस मार्ग में धूम का अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्ग से गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाया गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।॥8.25॥
( ‘धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः ৷৷. प्राप्य निवर्तते’ – देश और काल की दृष्टि से जितना अधिकार अग्नि अर्थात् प्रकाश के देवता का है , उतना ही अधिकार धूम अर्थात् अन्धकार के देवता का है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्ग से जाने वाले जीवों को अपनी सीमा से पार करा कर रात्रि के अधिपति देवता के अधीन कर देता है। रात्रि का अधिपति देवता उस जीव को अपनी सीमा से पार कराकर देशकाल को लेकर बहुत दूर तक अधिकार रखने वाले कृष्ण पक्ष के अधिपति देवता के अधीन कर देता है। वह देवता उस जीव को अपनी सीमा से पार कराकर देश और काल की दृष्टि से बहुत दूर तक अधिकार रखने वाले दक्षिणायन के अधिपति देवता के समर्पित कर देता है। वह देवता उस जीवको चन्द्रलोकके अधिपति देवताको सौंप देता है। इस प्रकार कृष्णमार्गसे जानेवाला वह जीव धूम रात्रि कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के देश को पार करता हुआ चन्द्रमा की ज्योति को अर्थात् जहाँ अमृत का पान होता है , ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकों को प्राप्त हो जाता है। फिर अपने पुण्यों के अनुसार न्यूनाधिक समय तक वहाँ रहकर अर्थात् भोग भोगकर पीछे लौट आता है। यहाँ एक ध्यान देने की बात है कि यह जो चन्द्रमण्डल दिखता है , यह चन्द्रलोक नहीं है। कारण कि यह चन्द्रमण्डल तो पृथ्वी के बहुत नजदीक है जब कि चन्द्रलोक सूर्य से भी बहुत ऊँचा है। उसी चन्द्रलोक से अमृत इस चन्द्रमण्डल में आता है जिससे शुक्लपक्ष में औषधियां पुष्ट होती हैं। अब एक समझने की बात है कि यहाँ जिस कृष्णमार्ग का वर्णन है वह शुक्लमार्ग की अपेक्षा कृष्णमार्ग है। वास्तव में तो यह मार्ग ऊँचे-ऊँचे लोकों में जाने का है। सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोक में जन्म लेते हैं । जो पापी होते हैं वे आसुरी योनियों में जाते हैं और उनसे भी जो अधिक पापी होते हैं वे नरक के कुण्डों में जाते हैं – इन सब मनुष्यों से कृष्णमार्ग से जाने वाले बहुत श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होते हैं – ऐसा कहने का यही तात्पर्य है कि संसार में जन्म-मरण के जितने मार्ग हैं , उन सब मार्गों से यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगति का होने से) श्रेष्ठ है और उनकी अपेक्षा प्रकाशमय है। कृष्णमार्ग से लौटते समय वह जीव पहले आकाश में आता है। फिर वायु के अधीन होकर बादलों में आता है और बादलों में से वर्षा के द्वारा भूमण्डल पर आकर अन्न में प्रवेश करता है। फिर कर्मानुसार प्राप्त होने वाली योनि के पुरुषों में अन्न के द्वारा प्रवेश करता है और पुरुष से स्त्रीजाति में जाकर शरीर धारण करके जन्म लेता है। इस प्रकार वह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। यहाँ सकाम मनुष्यों को भी योगी क्यों कहा गया है ? इसके अनेक कारण हो सकते हैं – जैसे (1) गीता में भगवान ने मरने वाले प्राणियों की तीन गतियाँ बतायी हैं – ऊर्ध्वगति , मध्यगति और अधोगति (गीता 14। 18)। इनमें से ऊर्ध्वगति का वर्णन इस प्रकरण में हुआ है। मध्यगति और अधोगति से ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होने के कारण यहाँ सकाम मनुष्यों को भी योगी कहा गया है। (2) जो केवल भोग भोगने के लिये ही ऊँचे लोकों में जाता है उसने संयमपूर्वक इस लोक के भोगों का त्याग किया है। इस त्याग से उसकी यहाँ के भोगों के मिलने और न मिलने में समता हो गयी है। इस आंशिक समता को लेकर ही उसको यहाँ योगी कहा गया है। (3) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का है पर अन्तकाल में किसी सूक्ष्म भोग-वासना के कारण वे योग से विचलितमना हो जाते हैं तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँ बहुत समय तक रहकर पीछे यहाँ भूमण्डल पर आकर शुद्ध श्रीमानों के घरमें जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्यों का भी जाने का यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होने से यहाँ सकाम मनुष्य को भी योगी कह दिया है। भगवान ने पीछे के (24वें) श्लोक में ब्रह्म को प्राप्त होने वालों के लिये ‘ब्रह्मविदो जनाः’ कहकर बहुवचन का प्रयोग किया है और यहाँ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होने वालों के लिये योगी कहकर एकवचन का प्रयोग किया है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि सभी मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति के अधिकारी हैं और परमात्मा की प्राप्ति सुगम है। कारण कि परमात्मा सबको स्वतः प्राप्त हैं। स्वतः प्राप्त तत्त्व का अनुभव बड़ा सुगम है। इसमें करना कुछ नहीं पड़ता। इसलिये बहुवचन का प्रयोग किया गया है परन्तु स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये विशेष क्रिया करनी पड़ती है , पदार्थों का संग्रह करना पड़ता है , विधि-विधान का पालन करना पड़ता है। इस प्रकार स्वर्गादि को प्राप्त करने में भी कठिनता है तथा प्राप्त करने के बाद पीछे लौटकर भी आना पड़ता है। इसलिये यहाँ एकवचन दिया गया है। विशेष बात (1) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का है परन्तु सुखभोगकी सूक्ष्म वासना सर्वथा नहीं मिटी है वे शरीर छोड़कर ब्रह्मलोक में जाते हैं। ब्रह्मलोक के भोग भोगने पर उनकी वह वासना मिट जाती है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इनका वर्णन यहाँ 24वें श्लोक में हुआ है। जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का ही है और जिनमें न यहाँ के भोगों की वासना है तथा न ब्रह्मलोक के भोगों की परन्तु जो अन्तकाल में निर्गुण के ध्यानसे विचलित हो गये हैं , वे ब्रह्मलोक आदि लोकों में नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियों के कुल में जन्म लेते हैं अर्थात् जहाँ पूर्वजन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरह से हो सके ऐसे योगियों के कुलमें उनका जन्म होता है। वहाँ वे साधन करके मुक्त हो जाते हैं (गीता 6। 42 43)। उपर्युक्त दोनों साधकों का उद्देश्य तो एक ही रहा है पर वासना में अन्तर रहने से एक तो ब्रह्मलोक में जाकर मुक्त होते हैं और एक सीधे ही योगियों के कुल में उत्पन्न होकर साधन करके मुक्त होते हैं। जिनका उद्देश्य ही स्वर्गादि ऊँचे- ऊँचे लोकों के सुख भोगने का है वे यज्ञ आदि शुभकर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँ के दिव्य भोग भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पीछे लौटकर आ जाते हैं अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं (गीता 7। 20 — 23 8। 25 9। 20 21)।जिसका उद्देश्य तो परमात्मप्राप्ति का ही रहा है पर सांसारिक सुखभोग की वासना को वह मिटा नहीं सका। इसलिये अन्तकाल में योग से विचलित होकर वह स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोग भोगता है और फिर लौटकर शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। वहाँ वह जबर्दस्ती पूर्वजन्मकृत साधन में लग जाता है और मुक्त हो जाता है (गीता 6। 41 44 45)। उपर्युक्त दोनों साधकों में एक का तो उद्देश्य ही स्वर्ग के सुखभोग का है । इसलिये वह पुण्यकर्मों के अऩुसार वहाँ के भोग भोगकर पीछे लौटकर आता है परन्तु जिसका उद्देश्य परमात्मा का है और वह विचार द्वारा सांसारिक भोगों का त्याग भी करता है , फिर भी वासना नहीं मिटी तो अन्त में भोगों की याद आने से वह स्वर्गादि लोकों में जाता है। उसने जो सांसारिक भोगों का त्याग किया है उसका बड़ा भारी माहात्म्य है। इसलिये वह उन लोकों में बहुत समय तक भोग भोगकर यहाँ श्रीमानों के घरमें जन्म लेता है। (2) सामान्य मनुष्यों की यह धारणा है कि जो दिन में शुक्लपक्ष में और उत्तरायण में मरते हैं वे तो मुक्त हो जाते हैं पर जो रात में कृष्णपक्ष में और दक्षिणायन में मरते हैं उनकी मुक्ति नहीं होती। यह धारणा ठीक नहीं है। कारण कि यहाँ जो शुक्लमार्ग और कृष्णमार्ग का वर्णन हुआ है वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त करने वालों के लिये ही हुआ है। इसलिये अगर ऐसा ही मान लिया जाय कि दिन आदि में मरने वाले मुक्त होते हैं और रात आदि में मरने वाले मुक्त नहीं होते तो फिर अधोगति वाले कब मरेंगे क्योंकि दिन-रात , शुक्लपक्ष-कृष्णपक्ष और उत्तरायण-दक्षिणायन को छोड़कर दूसरा कोई समय ही नहीं है। वास्तव में मरने वाले अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही ऊँच-नीच गतियों में जाते हैं । वे चाहे दिन में मरें , चाहे रात में , चाहे शुक्लपक्ष में मरें चाहे कृष्णपक्ष में , चाहे उत्तरायण में मरें चाहे दक्षिणायनमें – इसका कोई नियम नहीं है। जो भगवद्भक्त हैं , जो केवल भगवान के ही परायण हैं , जिनके मन में भगवद्दर्शन की ही लालसा है , ऐसे भक्त दिन में या रात में , शुक्लपक्ष में या कृष्णपक्ष में , उत्तरायण में या दक्षिणायन में जब कभी शरीर छोड़ते हैं तो उनको लेने के लिये भगवान के पार्षद आते हैं। पार्षदों के साथ वे सीधे भगवद्धाम में पहुँच जाते हैं। यहाँ एक शङ्का होती है कि जब मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही गति पाता है तो फिर भीष्मजी ने जो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष थे दक्षिणायन में शरीर न छोड़कर उत्तरायण की प्रतीक्षा क्यों की ? इसका समाधान यह है कि भीष्मजी भगवद्धाम नहीं गये थे। वे द्यौ नामक वसु (आजान देवता) थे जो शाप के कारण मृत्युलोक में आये थे। अतः उन्हें देवलोक में जाना था। दक्षिणायन के समय देवलोक में रात रहती है और उसके दरवाजे बंद रहते हैं। अगर भीष्मजी दक्षिणायन के समय शरीर छोड़ते तो उन्हें अपने लोक में प्रवेश करने के लिये बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वे इच्छामृत्यु तो थे ही । अतः उन्होंने सोचा कि वहाँ प्रतीक्षा करने की अपेक्षा यहीं प्रतीक्षा करनी ठीक है क्योंकि यहाँ तो भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होते रहेंगे और सत्सङ्ग भी होता रहेगा । जिससे सभी का हित होगा । वहाँ अकेले पड़े रहकर क्या करेंगे ? ऐसा सोचकर उन्होंने अपना शरीर दक्षिणायन में न छोड़कर उत्तरायणमें ही छोड़ा। 23वें श्लोक से शुक्ल और कृष्णगति का जो प्रकरण आरम्भ किया था उसका आगे के श्लोक में उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )