अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ৷৷8.27৷৷
न-कभी नहीं; एते-इन दोनों; सृती-मार्ग ; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; जानन्-जानते हुए भी; योगी-योगी; मुह्यति–मोहग्रस्त; कश्चन-कोई; तस्मात्-अतः; सर्वेषुकालेषु-सदैव; योगयुक्तः- योग में स्थित; भव-होना; अर्जुन–हे अर्जुन।
हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर अर्थात इन दोनों मार्गों का रहस्य जानने के बाद कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इस कारण तुम सब काल में योग से युक्त हो जाओ अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाले हो जाओ ॥8.27॥
( ‘नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ‘ – शुक्लमार्ग प्रकाशमय है और कृष्णमार्ग अन्धकारमय है। जिनके अन्तःकरण में उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का महत्त्व नहीं है और जिनके उद्देश्य , ध्येय में प्रकाशस्वरूप (ज्ञानस्वरूप) परमात्मा ही हैं , ऐसे वे परमात्मा की तरफ चलने वाले साधक शुक्लमार्गी हैं अर्थात् उनका मार्ग प्रकाशमय है। जो संसार में रचे-पचे हैं और जिनका सांसारिक पदार्थों का संग्रह करना और उनसे सुख भोगना ही ध्येय होता है , ऐसे मनुष्य तो घोर अन्धकार में हैं ही पर जो भोग भोगने के उद्देश्य से यहाँ के भोगों से संयम करके यज्ञ , तप , दान आदि शास्त्रविहित शुभ कर्म करते हैं और मरने के बाद स्वर्गादि ऊँची भोगभूमियों में जाते हैं , वे यद्यपि यहाँ के भोगों में आसक्त मनुष्यों से ऊँचे उठे हुए हैं तो भी आने-जाने वाले (जन्म-मरण के) मार्ग में होने से वे भी अन्धकार में ही हैं। तात्पर्य है कि कृष्णमार्ग वाले ऊँचे-ऊँचे लोकों में जाने पर भी जन्म-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। कहीं जन्म गये तो मरना बाकी रहता है और मर गये तो जन्मना बाकी रहता है – ऐसे जन्म-मरण के चक्कर में पड़े हुए वे कोल्हू के बैल की तरह अनन्त काल तक घूमते ही रहते हैं। इस तरह शुक्ल और कृष्ण दोनों मार्गों के परिणाम को जानने वाला मनुष्य योगी अर्थात् निष्काम हो जाता है भोगी नहीं। कारण कि वह यहाँ के और परलोक के भोगों से ऊँचा उठ जाता है। इसलिये वह मोहित नहीं होता। सांसारिक भोगों के प्राप्त होने में और प्राप्त न होने में जिसका उद्देश्य निर्विकार रहने का ही होता है वह योगी कहलाता है। ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन’ – जिसका ऐसा दृढ़ निश्चय हो गया है कि मुझे तो केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति ही करनी है तो फिर कैसे ही देश , काल , परिस्थिति आदि के प्राप्त हो जाने पर भी वह विचलित नहीं होता अर्थात् उसकी जो साधना है वह किसी देश ,काल , घटना , परिस्थिति आदि के अधीन नहीं होती। उसका लक्ष्य परमात्मा की तरफ अटल रहने के कारण देश-काल आदि का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। अनुकूल-प्रतिकूल देश -काल परिस्थिति आदि में उसकी स्वाभाविक समता हो जाती है। इसलिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू सब समय में अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के प्राप्त होने पर उनसे प्रभावित न होकर , उनका सदुपयोग करते हुए (अनुकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर मात्र संसार की सेवा करते हुए और प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर हृदय से अनुकूलता की इच्छा का त्याग करते हुए ) योगयुक्त हो जा अर्थात् नित्यनिरन्तर समता में स्थित रह। अब भगवान योगी की महिमा का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )