Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 8वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥8.28॥

 

वेदेष- वेदों के अध्ययन में; यज्ञेषु-यज्ञ का अनुष्ठान करने में; तपःसु-तपस्याएँ करने में; च-भी; एव-निश्चय ही; दानेषु-दान देने में; यत्-जो; पुण्यसफलम्-पुण्यकर्म का फल; प्रदिष्टम् – प्राप्त करना; अत्येति-पार कर जाता है; तत् सर्वम्-वे सब; इदम् – यह; विदित्वा-जानकर; योगी-योगी; परम-परम; स्थानम्-धाम को; उपैति-प्राप्त करता है; च-भी; आद्यम्-सनातन, आदि।

 

जो योगी इस ( दोनों मार्गों शुक्ल और कृष्णमार्ग के रहस्य और तत्व को ) को जान लेते हैं वे वेदाध्ययन, तपस्या, यज्ञों के अनुष्ठान और दान से प्राप्त होने वाले पुण्य फलों से परे उठ जाते हैं अर्थात उन सभी पुण्यफलों का उल्लंघन कर और अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। ऐसे योगियों को भगवान का सनातन परमधाम प्राप्त होता है॥8.28॥

 

  ‘वेदेषु यज्ञेषु तपःसु ৷৷. स्थानमुपैति चाद्यम् ‘ – यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि जितने भी शास्त्रीय उत्तम से उत्तम कार्य हैं और उनका जो फल है वह विनाशी ही होता है। कारण कि जब उत्तम से उत्तम कार्य का भी आरम्भ और समाप्ति होती है तो फिर उस कार्य से उत्पन्न होने वाला फल अविनाशी कैसे हो सकता है ? वह फल चाहे इस लोक का हो , चाहे स्वर्गादि भोगभूमियों का हो उसकी नश्वरता में किञ्चिन्मात्र भी अंतर नहीं है। जीव स्वयं परमात्मा का अविनाशी अंश होकर भी विनाशी पदार्थों में फँसा रहे तो इसमें उसकी अज्ञता ही मुख्य है। अतः जो मनुष्य 23वें श्लोक से लेकर 26वें श्लोक तक वर्णित शुक्ल और कृष्णमार्ग के रहस्य को समझ लेता है ; वह यज्ञ , तप , दान आदि सभी पुण्यफलों का अतिक्रमण कर जाता है। कारण कि वह यह समझ लेता है कि भोगभूमियों की भी आखिरी हद जो ब्रह्मलोक है , वहाँ जाने पर भी लौटकर पीछे आना पड़ता है परन्तु भगवान को प्राप्त होने पर लौटकर नहीं आना पड़ता (8। 16) और साथ-साथ यह भी समझ लेता है कि मैं तो साक्षात् परमात्मा का अंश हूँ तथा ये प्राकृत पदार्थ नित्य-निरन्तर अभाव में नाश में जा रहे हैं तो फिर वह नाशवान पदार्थों में , भोगों में न फँसकर भगवान के ही आश्रित हो जाता है। इसलिये वह आदिस्थान (टिप्पणी प0 480) परमात्मा को प्राप्त हो जाता है , जिसको इसी अध्याय के 21वें श्लोक में परमगति और परमधाम नाम से कहा गया है। नाशवान पदार्थों के संग्रह और भोगों में आसक्त हुआ मनुष्य उस आदिस्थान परमात्मतत्त्व को नहीं जान सकता। न जानने की यह असामर्थ्य न तो भगवान की दी हुई है , न प्रकृति से पैदा हुई है और न किसी कर्म का फल ही है अर्थात् यह असामर्थ्य किसी की देन नहीं है किन्तु स्वयं जीव ने ही परमात्मतत्त्व से विमुख होकर इसको पैदा किया है। इसलिये यह स्वयं ही इसको मिटा सकता है। कारण कि अपने द्वारा की हुई भूल को स्वयं ही मिटा सकता है और इसको मिटाने का दायित्व भी स्वयं पर ही है। इस भूल को मिटाने में यह जीव असमर्थ नहीं है , निर्बल नहीं है , अपात्र नहीं है। केवल संयोगजन्य सुख की लोलुपता के कारण यह अपने में असामर्थ्य का आरोप कर लेता है और इसी से मनुष्य-जन्म के महान लाभ से वञ्चित रह जाता है। अतः मनुष्य को संयोगजन्य सुख की लोलुपता का त्याग करके मनुष्य-जन्म को सार्थक बनाने के लिये नित्य-निरन्तर उद्यत रहना चाहिये। छठे अध्याय के अन्त में भगवान ने पहले योगी की महिमा कही और पीछे अर्जुन को योगी हो जानेकी आज्ञा दी (6। 46) और यहाँ भगवान ने पहले अर्जुन को योगी होने की आज्ञा दी और पीछे योगी की महिमा कही। इसका तात्पर्य है कि छठे अध्याय में योगभ्रष्टका प्रसङ्ग है और उसके विषय में अर्जुन के मन में सन्देह था कि वह कहीं नष्ट-भ्रष्ट तो नहीं हो जाता । इस शङ्का को दूर करने के लिये भगवान ने कहा कि कोई किसी तरह से योग में लग जाय तो उसका पतन नहीं होता। इतना ही नहीं इस योग का जिज्ञासुमात्र भी शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है। इसलिये योगी की महिमा पहले कही और पीछे अर्जुन के लिये योगी होने की आज्ञा दी परन्तु यहाँ अर्जुन का प्रश्न रहा कि नियतात्मा पुरुषों  के द्वारा आप कैसे जाननेमें आते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि जो सांसारिक पदार्थों से सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होता है , उस योगी के लिये मैं सुलभ हूँ । इसलिये पहले तू योगी हो जा ऐसी आज्ञा दी और पीछे योगी की महिमा कही।

इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में अक्षरब्रह्मयोग नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।8।। 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥8॥

 

 

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