अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥8.4৷৷
अधिभूतम्-भौतिक अभिव्यक्ति में नित्य परिवर्तन; क्षर:-नाशवान; भावः-प्रकृति; पुरुषः-भौतिक सृष्टि में व्याप्त भगवान का ब्रह्माण्डीय स्वरूप; च-तथा; अधिदैवतम्-स्वर्ग के देवता; अधियज्ञः-सभी यज्ञों के स्वामी; अहम् – मैं (कृष्ण); एव-निश्चय ही; अत्र-इस; देहे-शरीर में; देहभृताम्-देहधारियों में; वर-श्रेष्ठ।
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ ” अधिभूत ” हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) ” अधिदैव ” है और इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से ” अधियज्ञ ” हूँ॥8.4॥
[*निरंतर परिवर्तनशील भौतिक प्रकृति या भौतिक अभिव्यक्ति को ‘अधिभूत’ कहते हैं अर्थात सभी उत्पत्तिशील और नाशवान पदार्थों को अधिभूत कहते हैं । पंचमहाभूत आदि नश्वर वस्तुएं अधिभूत हैं ।
*पुरुष जिससे यह सब जगत् परिपूर्ण है अथवा जो शरीर रूप पुर में रहने वाला होने से पुरुष कहलाता है। वह सब प्राणियोंके इन्द्रियादि कारणों का अनुग्राहक सूर्य लोक में रहने वाला हिरण्यगर्भ ‘अधिदैव’ है। हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) ही अधिदैव है । या भगवान का विश्व रूप या विराट रूप जो इस सृष्टि में सूर्य , चंद्र आदि समस्त देवताओं पर भी शासन करता है उसे अधिदैव कहते हैं।
*सभी प्राणियों या देहधारियों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित मैं ‘अधियज्ञ’ या सभी यज्ञों का स्वामी कहलाता हूँ। [यज्ञ ही विष्णु है इस श्रुति के अनुसार सब यज्ञों के अधिष्ठाता विष्णु हैं वह अधियज्ञ है।] हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन इस देह में जो यज्ञ है उसका अधिष्ठाता वह विष्णु रूप अधियज्ञ मैं ही हूँ। [यज्ञ शरीर से ही सिद्ध होता है । अतः यज्ञ का शरीर से नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह शरीर में रहने वाला माना जाता है।]
(‘अधिभूतं क्षरो भावः’ – पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश – इन पञ्चमहाभूतों से बनी प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान सृष्टि को अधिभूत कहते हैं। ‘पुरुषश्चाधिदैवतम्’ – यहाँ अधिदैवत (अधिदैव) पद आदिपुरुष हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का वाचक है। महासर्ग के आदि में भगवान के संकल्प से सबसे पहले ब्रह्माजी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सर्ग के आदि में सब सृष्टि की रचना करते हैं। ‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर’ – हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! इस देह में अधियज्ञ मैं ही हूँ अर्थात् इस मनुष्यशरीर में अन्तर्यामीरूप से मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 451.1)। भगवान ने गीता में ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ‘ (13। 17) ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (15। 15) ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (18। 61) आदि में अपने को अन्तर्यामीरूप से सबके हृदय में विराजमान बताया है। ‘अहमेव अत्र (टिप्पणी प0 451.2) देहे’ कहने का तात्पर्य है कि दूसरी योनियों में तो पूर्वकृत कर्मों का भोग होता है । नये कर्म नहीं बनते पर इस मनुष्यशरीर में नये कर्म भी बनते हैं। उन कर्मों के प्रेरक अन्तर्यामी भगवान होते हैं (टिप्पणी प0 451.3)। जहाँ मनुष्य राग-द्वेष नहीं करता , उसके सब कर्म भगवान की प्रेरणा के अनुसार शुद्ध होते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते और जहाँ वह राग-द्वेष के कारण भगवान की प्रेरणा के अनुसार कर्म नहीं करता उसके कर्म बन्धनकारक होते हैं। कारण कि राग और द्वेष मनुष्य के महान् शत्रु हैं (गीता 3। 34)। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान की प्रेरणा से कभी निषिद्धकर्म होते ही नहीं। श्रुति और स्मृति भगवान की आज्ञा है – ‘श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे।’ अतः भगवान् श्रुति और स्मृति के विरुद्ध प्रेरणा कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते। निषिद्धकर्म तो मनुष्य कामना के वशीभूत होकर ही करता है (गीता 3। 37)। अगर मनुष्य कामना के वशीभूत न हो तो उसके द्वारा स्वाभाविक ही विहित कर्म होंगे जिनको सहज,स्वभावनियत कर्म नाम से कहा गया है। यहाँ अर्जुन के लिये ‘देहभृतां वर’ कहने का तात्पर्य है कि देहधारियों में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो इस देह में परमात्मा हैं – ऐसा जान लेता है। ऐसा ज्ञान न हो तो भी ऐसा मान ले कि स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर के कण-कण में परमात्मा हैं और उनका अनुभव करना ही मनुष्य जन्म का विशेष ध्येय है। इस ध्येय की सिद्धि के लिये परमात्मा की आज्ञा के अनुसार ही काम करना है। तीसरे और चौथे श्लोक में जो ब्रह्म , अध्यात्म , कर्म , अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ का वर्णन हुआ है उसे समझने मात्र के लिये जल का एक दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे जब आकाश स्वच्छ होता है तब हमारे और सूर्य के मध्य में कोई पदार्थ न दिखने पर भी वास्तव में वहाँ परमाणुरूप से जलतत्त्व रहता है। वही जलतत्त्व भाप बनता है और भाप के घनीभूत होने पर बादल बनता है। बादल में जो जलकण रहते हैं उनके मिलने से बूँदें बन जाती हैं। उन बूँदों में जब ठण्डक के संयोग से घनता आ जाती है तब वे ही बूँदें ओले (बर्फ) बन जाती हैं — यह जलतत्त्व का बहुत स्थूल रूप हुआ। ऐसे ही निर्गुण-निराकार ब्रह्म परमाणुरूप से जलतत्त्व है । अधियज्ञ (व्यापक विष्णु ) भापरूप से जल है । अधिदैव (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ) बादलरूप से जल है । अध्यात्म (अनन्त जीव) बूँदें रूप से जल है । कर्म (सृष्टिरचनारूप कर्म) वर्षा की क्रिया है और अधिभूत (भौतिक सृष्टिमात्र ) बर्फरूप से जल है। इस वर्णन का तात्पर्य यह हुआ कि जैसे एक ही जल परमाणु , भाप , बादल , वर्षा की क्रिया , बूँदें और ओले (बर्फ) के रूप से भिन्न-भिन्न दिखता है पर वास्तव में है एक ही। इसी प्रकार एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म , अध्यात्म , कर्म , अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ के रूप से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्त्वतः एक ही है। इसी को सातवें अध्याय में ‘समग्रम्’ (7। 1) और ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19) कहा गया है।तात्त्विक दृष्टि से तो सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19)। इसमें भी जब विवेक दृष्टि से देखते हैं तब शरीर शरीरी प्रकृति-पुरुष – ऐसे दो भेद हो जाते हैं। उपासना की दृष्टि से देखते हैं तो उपास्य (परमात्मा) , उपासक (जीव) और त्याज्य (प्रकृति का कार्य – संसार) – ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनों को समझने के लिये यहाँ इनके छः भेद किये गये हैं – परमात्मा के दो भेद – ब्रह्म (निर्गुण) और अधियज्ञ (सगुण)। जीव के दो भेद – अध्यात्म (सामान्य जीव जो कि बद्ध हैं) और अधिदैव (कारक पुरुष जो कि मुक्त हैं)। संसार के दो भेद – कर्म (जो कि परिवर्तन का पुञ्ज है) और अधिभूत (जो कि पदार्थ हैं)। 1. ब्रह्म 2. अध्यात्म 3. कर्म 4. अधिभूत 5. अधिदैव 6. अधियज्ञ । विशेष बात — (1) सब संसार में परमात्मा व्याप्त हैं – ‘मया ततमिदं सर्वम् ‘ (9। 4) ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (18। 46) सब संसार परमात्मा में है – ‘मयि सर्वमिदं प्रोतम्’ (7। 7) सब कुछ परमात्मा ही हैं – ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19) सब संसार परमात्मा का है – ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च’ (9। 24) ‘भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्’ (5। 29) – इस प्रकार गीता में भगवान के तरह-तरह के वचन आते हैं। इन सबका सामञ्जस्य कैसे हो ? सबकी संगति कैसे बैठे ? इस पर विचार किया जाता है। संसार में परमात्मप्राप्ति के लिये , अपने कल्याण के लिये साधना करने वाले जितने भी साधक (टिप्पणी प0 452) हैं , वे सभी संसार से छूटना चाहते हैं और परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं। कारण कि संसार के साथ सम्बन्ध रखने से सदा रहने वाली शान्ति और सुख नहीं मिल सकता बल्कि सदा अशान्ति और दुःख ही मिलता रहता है – ऐसा मनुष्यों का प्रत्यक्ष अनुभव है। परमात्मा अनन्त आनन्द के स्वरूप हैं । वहाँ दुःख का लेश भी नहीं है – ऐसा शास्त्रों का कथन है और सन्तों का अनुभव है।अब विचार यह करना है कि साधक को संसार तो प्रत्यक्षरूप से दिखता है और परमात्मा को वह केवल मानता है क्योंकि परमात्मा प्रत्यक्ष दिखते नहीं। शास्त्र और सन्त कहते हैं कि संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है इसको मानकर साधक साधन करता है। उस साधना में जब तक संसार की मुख्यता रहती है तब तक परमात्मा की मान्यता गौण रहती है। साधन करते-करते ज्यों-ज्यों परमात्मा की धारणा (मान्यता) मुख्य होती चली जाती है त्यों ही त्यों संसार की मान्यता गौण होती चली जाती है। परमात्मा की धारणा सर्वथा मुख्य होने पर साधक को यह स्पष्ट दिखने लग जाता है कि संसार पहले नहीं था और फिर बाद में नहीं रहेगा तथा वर्तमान में जो है , रूप से दिखता है , वह भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। जब संसार नहीं था तब भी परमात्मा थे , जब संसार नहीं रहेगा तब भी परमात्मा रहेंगे और वर्तमान में संसार के प्रतिक्षण अभाव में जाते हुए भी परमात्मा ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। तात्पर्य है कि संसार का सदा अभाव है और परमात्मा का सदा भाव है। इस तरह जब संसार की स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा अभाव हो जाता है तब सत्यस्वरूप से सब कुछ परमात्मा ही हैं – ऐसा वास्तविक अनुभव हो जाता है , जिसके होने से साधक सिद्ध कहा जाता है। कारण कि संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है – ऐसी मान्यता संसार की सत्ता मानने से ही होती थी और संसार की सत्ता साधक के राग के कारण ही दिखती थी। तत्त्वतः सब कुछ परमात्मा ही हैं। (2) सत् और असत् सब परमात्मा ही हैं – ‘सदसच्चाहम्’ (9। 19) परमात्मा न सत् कहे जा सकते हैं और न असत् कहे जा सकते हैं – ‘न सत्तन्नासदुच्यते ‘ (13। 12) परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत् – असत दोनों से परे भी हैं – ‘सदसत्तत्परं यत्’ (11। 37)। इस प्रकार गीतामें भिन्न-भिन्न वचन आते हैं। अब उनकी संगति के विषय में विचार किया जाता है। परमात्मतत्त्व अत्यन्त अलौकिक और विलक्षण है। उस तत्त्व का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उस तत्त्व को इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि नहीं पकड़ सकते अर्थात् वह तत्त्व इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि की परिधि में नहीं आता। हाँ ! इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि उसमें विलीन हो सकते हैं। साधक उस तत्त्व में स्वयं लीन हो सकता है , उसको प्राप्त कर सकता है पर उस तत्त्व को अपने कब्जे में , अपने अधिकार में , अपनी सीमा में नहीं ले सकता। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति चाहने वाले साधक दो तरह के होते हैं – एक विवेकप्रधान और एक श्रद्धाप्रधान अर्थात् एक मस्तिष्कप्रधान होता है और एक हृदयप्रधान होता है। विवेकप्रधान साधक के भीतर विवेक की अर्थात् जानने की मुख्यता रहती है और श्रद्धाप्रधान साधक के भीतर मानने की मुख्यता रहती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विवेकप्रधान साधक में श्रद्धा नहीं रहती और श्रद्धाप्रधान साधक में विवेक नहीं रहता बल्कि यह तात्पर्य है कि विवेकप्रधान साधक में विवेक की मुख्यता और साथ में श्रद्धा रहती है तथा श्रद्धाप्रधान साधक में श्रद्धा की मुख्यता और साथ में विवेक रहता है। दूसरे शब्दों में जानने वालों में मानना भी रहता है और माननेवालोंमें जानना भी रहता है। जानने वाले जान कर मान लेते हैं और मानने वाले मान कर जान लेते हैं। अतः किसी भी तरह के साधक में किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रहती। साधक चाहे विवेकप्रधान हो , चाहे श्रद्धाप्रधान हो पर साधन में उसकी अपनी रुचि , श्रद्धा , विश्वास और योग्यता की प्रधानता रहती है। रुचि , श्रद्धा , विश्वास और योग्यता एक साधन में होने से साधक उस तत्त्व को जल्दी समझता है परन्तु रुचि और श्रद्धा-विश्वास होने पर भी वैसी योग्यता न हो अथवा योग्यता होने पर भी वैसी रुचि और श्रद्धा-विश्वास न हो तो साधक को उस साधन में कठिनता पड़ती है। रुचि होने से मन स्वाभाविक लग जाता है , श्रद्धा-विश्वास होने से बुद्धि स्वाभाविक लग जाती है और योग्यता होने से बात ठीक समझ में आ जाती है। विवेकप्रधान साधक निर्गुण-निराकार को पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि निर्गुण-निराकार में होती है। श्रद्धाप्रधान साधक सगुण-साकार को पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि सगुण-साकार में होती है। जो निर्गुण-निराकार को पसंद करता है , वह यह कहता है कि परमात्मतत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है। जो सगुण-साकार को पसंद करता है तो वह कहता है कि परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत – असत से परे भी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि चिन्मयतत्त्व तो हरदम ज्यों का त्यों ही रहता है और जड असत् कहलाने वाला संसार निरन्तर बदलता रहता है। जब यह चेतन जीव बदलते हुए संसार को महत्त्व देता है , उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब यह जन्ममरणके चक्करमें घूमता रहता है परन्तु जब यह जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है तब इसको स्वतःसिद्ध चिन्मयतत्त्व का अनुभव हो जाता है। विवेकप्रधान साधक विवेक-विचार के द्वारा जडता का त्याग करता है। जडता का त्याग होने पर चिन्मयतत्त्व अवशेष रहता है अर्थात् नित्यप्राप्त तत्त्व का अनुभव हो जाता है। श्रद्धाप्रधान साधक केवल भगवान के ही सम्मुख हो जाता है जिससे वह जडता से विमुख होकर भगवान को प्रेमपूर्वक प्राप्त कर लेता है। विवेकप्रधान साधक तो सम , शान्त , सत्घन , चित्घन , आनन्दघन तत्त्व में अटल स्थित होकर अखण्ड आनन्द को प्राप्त होता है पर श्रद्धाप्रधान साधक भगवान के साथ अभिन्न होकर प्रेम के अनन्त प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार दोनों ही साधकों को जडता से सर्वथा सम्बन्धविच्छेदपूर्वक चिन्मयतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है और सत्असत् अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं – ऐसा अनुभव हो जाता है। दूसरे श्लोक में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न था कि अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं ? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )