अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ৷৷8.5৷৷
अन्तकाले-मृत्यु के समय; च-और; माम्-मुझे; एवं-केवल; स्मरन्-स्मरण करते हुए; मुक्त्वा -त्यागना; कलेवरम्-शरीर को; यः-जो; प्रयाति–जाता है; सः-वह; मत् भावम्-मेरे (भगवान के) स्वभाव को; याति-प्राप्ति करता है; न-नहीं; अस्ति–है; अत्र-यहाँ; संशयः-सन्देह।
जो अंतकाल में शरीर त्यागते समय भी केवल मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे ही साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें निश्चित रूप से कुछ भी संशय नहीं है॥8.5॥
(‘अन्तकाले च मामेव ৷৷. याति नास्त्यत्र संशयः’ – अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है – इसका तात्पर्य हुआ कि इस मनुष्य को जीवन में साधन-भजन करके अपना उद्धार करने का अवसर दिया था पर इसने कुछ किया ही नहीं। अब बेचारा यह मनुष्य अन्तकाल में दूसरा साधन करने में असमर्थ है इसलिये बस मेरे को याद कर ले तो इसको मेरी प्राप्ति हो जायगी। ‘मामेव स्मरन्’ का तात्पर्य है कि सुनने , समझने और मानने में जो कुछ आता है वह सब मेरा समग्ररूप है। अतः जो उसको मेरा ही स्वरूप मानेगा उसको अन्तकाल में भी मेरा ही चिन्तन होगा अर्थात् उसने जब सब कुछ मेरा ही स्वरूप मान लिया तो अन्तकाल में उसको जो कुछ याद आयेगा वह मेरा ही स्वरूप होगा इसलिये वह स्मरण मेरा ही होगा। मेरा स्मरण होने से उसको मेरी ही प्राप्ति होगी। ‘मद्भावम्’ कहने का तात्पर्य है कि साधक ने मेरे को जिस किसी भिन्न अथवा अभिन्न भाव से अर्थात् सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार , द्विभुज-चतुर्भुज तथा नाम , लीला , धाम , रूप आदि से स्वीकार किया है , मेरी उपासना की है ,अन्तसमय के स्मरण के अनुसार वह मेरे उसी भाव को प्राप्त होता है। जो भगवान की उपासना करते हैं वे तो अन्तसमय में उपास्य का स्मरण होने से उसी उपास्य को अर्थात् भगवद्भाव को प्राप्त होते हैं परन्तु जो उपासना नहीं करते उनको भी अन्तसमय में किसी कारणवशात् भगवान के किसी नाम , रूप , लीला , धाम आदि का स्मरण हो जाय तो वे भी उन उपासकों की तरह उसी भगवद्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि जैसे गुणों में स्थित रहने वाले की (गीता 14। 18) और अन्तकाल में जिस किसी गुण के बढ़ने वाले की वैसी ही गति होती है (गीता 14। 14 15) ऐसे ही जिसको अन्त में भगवान याद आ जाते हैं उसकी भी उपासकों की तरह गति होती है अर्थात् भगवान की प्राप्ति होती है।भगवान के सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार आदि अनेक रूपों का और नाम , लीला , धाम आदि का भेद तो साधकों की दृष्टि से है । अन्त में सब एक हो जाते हैं अर्थात् अन्त में सब एक मद्भाव – भगवद्भाव को प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि भगवान का समग्र स्वरूप एक ही है परन्तु गुणों के अनुसार गति को प्राप्त होने वाले अन्त में एक नहीं हो सकते क्योंकि तीनों गुण (सत्त्व , रज , तम) अलग-अलग हैं। अतः गुणों के अनुसार उनकी गतियाँ भी अलग-अलग होती हैं। भगवान का स्मरण करके शरीर छोड़ने वालों का तो भगवान के साथ सम्बन्ध रहता है और गुणों के अनुसार शरीर छोड़ने वालों का गुणों के साथ सम्बन्ध रहता है। इसलिये अन्त में भगवान का स्मरण करने वाले भगवान के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् भगवान को प्राप्त हो जाते हैं और गुणों से सम्बन्ध रखने वाले गुणों के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् गुणों के कार्य जन्म-मरण को प्राप्त हो जाते हैं। भगवान ने एक यह विशेष छूट दी हुई है कि मरणासन्न व्यक्ति के कैसे ही आचरण रहे हों , कैसे ही भाव रहे हों , किसी भी तरह का जीवन बीता हो पर अन्तकाल में वह भगवान को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान ने जीव का कल्याण करने के लिये ही उसको मनुष्यशरीर दिया है और जीव ने उस मनुष्यशरीर को स्वीकार किया है। अतः जीव का कल्याण हो जाय तभी भगवान का इस जीव को मनुष्यशरीर देना और जीव का मनुष्यशरीर लेना सफल होगा परन्तु वह अपना उद्धार किये बिना ही आज दुनिया से विदा हो रहा है । इसके लिये भगवान कहते हैं कि भैया तेरी और मेरी दोनों की इज्जत रह जाय इसलिये अब जाते-जाते (अन्तकाल में ) भी तू मेरे को याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जाय । अतः हरेक मनुष्य के लिये सावधान होने की जरूरत है कि वह सब समय में भगवान का स्मरण करे , कोई समय खाली न जाने दे क्योंकि अन्तकाल का पता नहीं है कि कब आ जाय। वास्तव में सब समय अन्तकाल ही है। यह बात तो है नहीं कि इतने वर्ष , इतने महीने और इतने दिनों के बाद मृत्यु होगी। देखने में तो यही आता है कि गर्भ में ही कई बालक मर जाते हैं , कई जन्मते ही मर जाते हैं कई कुछ दिनों में , महीनों में , वर्षों में मर जाते हैं। इस प्रकार मरने की चाल हरदम चल ही रही है। अतः सब समय में भगवान को याद रखना चाहिये और यही समझना चाहिये कि बस यही अन्तकाल है । नीति में यह बात आती है कि अगर धर्म का आचरण करना हो , कल्याण करना हो तो मृत्यु ने मेरे केश पकड़े हुए हैं । झटका दिया कि खत्म । ऐसा विचार हरदम रहना चाहिये – ‘गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्’। भगवान की उपर्युक्त छूट से मनुष्यमात्र को विशेष लाभ लेना चाहिये। कहीं कोई भी व्याधिग्रस्त मरणासन्न व्यक्ति हो तो उसके इष्ट के चित्र या मूर्ति को उसे दिखाना चाहिये । जैसी उसकी उपासना है और जिस भगवन्नाम में उसकी रुचि हो , जिसका वह जप करता हो वही भगवन्नाम उसको सुनाना चाहिये। जिस स्वरूप में उसकी श्रद्धा और विश्वास हो उसकी याद दिलानी चाहिये । भगवान की महिमा का वर्णन करना चाहिये । गीताके श्लोक सुनाने चाहिये। अगर वह बेहोश हो जाय तो उसके पास भगवन्नाम का जप-कीर्तन करना चाहिये , जिससे उस मरणासन्न व्यक्ति के सामने भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल बना रहे। भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल रहने से वहाँ यमराज के दूत नहीं आ सकते। अजामिल के द्वारा मृत्यु के समय नारायण नाम का उच्चारण करने से,वहाँ भगवान के पार्षद आ गये और यमदूत भागकर यमराज के पास में गये तो यमराज ने अपने दूतों से कहा कि जहाँ भगवन्नाम का जप , कीर्तन , कथा आदि होते हों , वहाँ तुम लोग कभी मत जाना क्योंकि वहाँ हमारा राज्य नहीं है (टिप्पणी प0 455.1)। ऐसा कहकर यमराज ने भगवान का स्मरण करके भगवान से क्षमा माँगी कि मेरे दूतों के द्वारा जो अपराध हुआ है , उसको आप क्षमा करें (टिप्पणी प0 455.2)। अन्तकाल में स्मरणका तात्पर्य है कि उसने भगवान का जो स्वरूप मान रखा है उसकी याद आ जाय अर्थात् उसने पहले राम , कृष्ण , विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश , सूर्य , सर्वव्यापक विश्वरूप परमात्मा आदि में से जिस स्वरूप को मान रखा है उस स्वरूप के नाम , रूप , लीला , धाम , गुण , प्रभाव आदि की याद आ जाय। उसकी याद करते हुए शरीर को छोड़कर जाने से वह भगवान को ही प्राप्त होता है। कारण कि भगवान की याद आने से मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है , इसकी याद नहीं रहती बल्कि केवल भगवान को ही याद करते हुए शरीर छूट जाता है। इसलिये उसके लिये भगवान को प्राप्त होने के अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ शङ्का होती है कि जिस व्यक्ति ने उम्र भर में भजन-स्मरण नहीं किया , कोई साधन नहीं किया , सर्वथा भगवान से विमुख रहा उसको अन्तकाल में भगवान का स्मरण कैसे होगा और उसका कल्याण कैसे होगा ? इसका समाधान है कि अन्तसमय में उस पर भगवान की कोई विशेष कृपा हो जाय अथवा उसको किसी सन्त के दर्शन हो जायँ तो भगवान का स्मरण होकर उसका कल्याण हो जाता है। उसके कल्याणके लिये कोई साधक उसको भगवान का नाम , लीला , चरित्र सुनाये , पद गाये तो भगवान का स्मरण होने से उसका कल्याण हो जाता है। अगर मरणासन्न व्यक्ति को गीता में रुचि हो तो उसको गीता का आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये क्योंकि इस अध्याय में जीव की सद्गति का विशेषता से वर्णन आया है। इसको सुनने से उसको भगवान की स्मृति हो जाती है। कारण कि वास्तव में परमात्मा का ही अंश होने से उसका परमात्मा के साथ स्वतः सम्बन्ध है ही। अगर अयोध्या , मथुरा , हरिद्वार , काशी आदि किसी तीर्थस्थल में उसके प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थ के प्रभाव से उसको भगवान की स्मृति हो जायगी (टिप्पणी प0 456.1)। ऐसे ही जिस जगह भगवान के नाम का जप , कीर्तन कथा सत्संग आदि होता है , उस जगह उसकी मृत्यु हो जाय तो वहाँ के पवित्र वायुमण्डल के प्रभाव से उसको भगवान की स्मृति हो सकती है। अन्तकाल में कोई भयंकर स्थिति आने से , भयभीत होने पर भी भगवान की याद आ सकती है। शरीर छूटते समय शरीर , कुटुम्ब , रुपये आदि की आशा-ममता छूट जाय और यह भाव हो जाय कि हे नाथ ! आपके बिना मेरा कोई नहीं है , केवल आप ही मेरे हैं तो भगवान की स्मृति होने से कल्याण हो जाता है। ऐसे ही किसी कारण से अचानक अपने कल्याण का भाव बन जाय तो भी कल्याण हो सकता है (टिप्पणी प0 456.2)। ऐसे ही कोई साधक किसी प्राणी , जीव-जन्तु के मृत्यु समय में उसका कल्याण हो जाय , इस भाव से उसको भगवन्नाम सुनाता है तो उस भगवन्नाम के प्रभाव से उस प्राणी का कल्याण हो जाता है। शास्त्रों में तो सन्त-महापुरुषों के प्रभाव की विचित्र बातें आती हैं कि यदि सन्त-महापुरुष किसी मरणासन्न व्यक्ति को देख लें अथवा उसके मृत शरीर (मुर्दे) को देख लें अथवा उसकी चिता के धुएँ को देख लें अथवा चिता की भस्म को देख लें तो भी उस जीव का कल्याण हो जाता है (टिप्पणी प0 456.3)मार्मिक बात — इस अध्याय के तीसरे-चौथे श्लोकों में ब्रह्म , अध्यात्म आदि जिन छः बातों का वर्णन किया गया है उसका तात्पर्य समग्ररूप से है और समग्ररूप का तात्पर्य है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ वासुदेव ही है। जिसको समग्ररूप का ज्ञान हो गया है उसके लिये अन्तकाल के स्मरण की बात ही नहीं की जा सकती। कारण कि जिसकी दृष्टि में संसार की स्वतन्त्र सत्ता न होकर सब कुछ वासुदेव ही है , उसके लिये अन्तकाल में भगवान का चिन्तन करें यह कहना ही नहीं बनता। जैसे सामान्य मनुष्य को ‘मैं हूँ ‘ इस अपने होनेपन का किञ्चिन्मात्र भी स्मरण नहीं करना पड़ता । ऐसे ही उस महापुरुष को भगवान का स्मरण नहीं करना पड़ता बल्कि उसको जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में भगवान के होनेपन का स्वाभाविक अटल ज्ञान रहता है। पवित्र से पवित्र अथवा अपवित्र से अपवित्र किसी भी देश में उत्तरायण-दक्षिणायन , शुक्लपक्ष-कृष्णपक्ष , दिन-रात्रि , प्रातः-सायं आदि किसी भी काल में जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति , मूर्च्छा , रुग्णता , नीरोगता आदि किसी भी अवस्था में और पवित्र अथवा अपवित्र कोई भी वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि सामने होने पर भी उस महापुरुष के कल्याण में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता । उपर्युक्त महापुरुषों के सिवाय परमात्मा की उपासना करने वाले जितने भी साधक हैं वे चाहे साकार के उपासक हों अथवा निराकार के उपासक हों , चाहे सगुण के उपासक हों अथवा निर्गुण के उपासक हों , चाहे राम – कृष्ण आदि अवतारों के उपासक हों , भगवान के किसी भी नाम , रूप , लीला , धाम आदि की श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उपासना करने वाले क्यों न हों , उन सबको अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अन्त समय में भगवान के किसी भी स्वरूप , नाम आदि का स्मरण हो जाय तो वह भगवान का ही स्मरण है। साधकों के सिवाय जिन मनुष्यों में भगवान हैं , ऐसा सामान्य आस्तिकभाव है और वे किसी उपासना-विशेष में नहीं लगे हैं , उनको भी अन्तसमय में कई कारणों से भगवान का स्मरण हो सकता है। जैसे जीवन में उसने सुना हुआ है कि दुःखी के दुःख को भगवान मिटाते हैं । इस संस्कार से अन्तसमय की पीड़ा (दुःख) के समय भगवान की याद आ सकती है। अन्तसमय में अगर यमदूत दिखायी दे जायँ तो भय के कारण भगवान का स्मरण हो सकता है। कोई सज्जन उसके सामने भगवान का चित्र रख दे , उसको दिखा दे , उसको भगवन्नाम सुना दे , भगवान की लीला- कथा सुना दे , भक्तों के चरित्र सुना दे , उसके सामने कीर्तन करने लग जाय तो उसको भगवान की याद आ जायगी। इस प्रकार किसी भी कारण से भगवान की तरफ वृत्ति होने से वह स्मरण भगवान का ही स्मरण है। ऐसे साधक और सामान्य मनुष्यों के लिये ही अन्तकाल में भगवत्स्मरण की बात कही जाती है , तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिये नहीं। अन्तकाल में जो मेरा स्मरण करते हैं , वे तो मेरे को ही प्राप्त होते हैं पर जो मेरा स्मरण न करके अन्य किसी का स्मरण करते हैं वे किसको प्राप्त होते हैं ? इसे भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )