अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥8.8৷৷
अभ्यासयोग–योग के अभ्यास द्वारा; युक्तेन-निरन्तर स्मरण में लीन रहना; चेतसा-मन द्वारा; न अन्यगामिना-बिना विचलित हुए; परमम-परम; पुरुषम्-पुरुषोत्तम भगवान; दिव्यम् – दिव्य; याति – प्राप्त करता है; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; अनुचिन्तयन्–निरन्तर स्मरण करना।
हे पार्थ! अभ्यास के साथ जब मनुष्य बिना विचलित हुए मन को केवल मुझ पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में ही लीन करते हैं अर्थात अभ्यास योगसे युक्त और किसी अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से केवल और केवल मुझ परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करते हुए (शरीर छोड़ने वाले मनुष्य) निश्चित रूप से परम प्रकाश रूप मुझ परमेश्वर को पा लेंगे॥8.8॥
(7वें अध्याय के 28वें श्लोक में जो सगुण-निराकार परमात्मा का वर्णन हुआ था उसी को यहाँ 8वें , 9वें और 10वें श्लोक में विस्तार से कहा गया है।] ‘अभ्यासयोगयुक्तेन’ – इस पद में अभ्यास और योग – ये दो शब्द आये हैं। संसार से मन हटाकर परमात्मा में बार-बार मन लगाने का नाम अभ्यास है और समता का नाम योग है – ‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता 2। 48)। अभ्यास में मन लगने से प्रसन्नता होती है और मन न लगने से खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है पर अभ्यासयोग नहीं है। अभ्यासयोग तभी होगा जब प्रसन्नता और खिन्नता – दोनों ही न हों। अगर चित्त में प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जायँ तो भी उनको महत्त्व न दे , केवल अपने लक्ष्य को ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहना भी योग है। ऐसे योग से युक्त चित्त हो। ‘चेतसा नान्यगामिना’ – चित्त अन्यगामी न हो अर्थात् एक परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य न हो। ‘परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्’ – ऐसे चित्त से परम दिव्य पुरुष का अर्थात् सगुण-निराकार परमात्मा का चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। अब भगवान ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयोगी सगुण-निराकार परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )