Chapter 18 Bhagvadgita

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

 

 

Chapter 18 Bhagvadgita

 

 

 

01-12 त्याग का विषय

13-18 कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन

19-40 तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता,बुद्धि,धृतिऔर सुख के पृथक-पृथक भेद

41-48 फल सहित वर्ण धर्म का विषय

49-55 ज्ञाननिष्ठा का विषय

56-66 भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

67-78 श्री गीताजी का माहात्म्य

 

मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

 

अर्जुन उवाच

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।

त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।

 

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; संन्यासस्य-कर्मों का त्याग; महाबाहो-बलिष्ट भुजाओं वाला; तत्त्वम्-सत्य को; इच्छामि – चाहता हूँ; वेदितुम-जानना; त्यागस्य-कर्मफल के भोग की इच्छा का त्याग; च-भी; हृषीकेश-इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण; पृथक्-भिन्न रूप से; केशिनिषूदन-केशी असुर के संहार करने वाले, श्रीकृष्ण।

 

अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु! मैं संन्यास और त्याग की प्रकृति अथवा उसके तत्व के संबंध में जानना चाहता हूँ। हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं दोनों के बीच का भेद जानने का भी इच्छुक हूँ अर्थात मैं  संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।

 

श्री भगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।

 

श्री भगवान् उवाच-परम भगवान ने कहा; काम्यानाम्-कामना युक्त; कर्मणाम् – कर्मो का; न्यासम्-त्याग करना; संन्यासम्-संन्यासः कवयः-विद्वान जन; विदुः-जानना; सर्व-सब; कर्म-कर्म; फल-कर्मों के फल; त्यागम् – कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्यागः प्राहुः-कहते हैं; त्यागम्-कर्म फलों के भोग की इच्छा का त्याग; विचक्षणा:-बुद्धिमान।

 

श्रीभगवान् बोले — कई विद्वान् और पंडित जन कामना युक्त कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् समस्त कर्मों के फल के त्याग को अथवा कर्मफलों के भोग की इच्छा के त्याग को त्याग कहते हैं। 

(जो भी कर्म किसी कामना , अभिलाषा , आकांक्षा , इच्छा से अथवा उस कर्म का निश्चित फल मिलने की अभिलाषा मन में रखते हुए या कर्म के बदले फल मिलने के उद्देश्य से ही संपन्न किये जाते हैं उन्हें कामना युक्त कर्म कहते हैं । )

 

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।

 

त्यागम्-त्याग देना चाहिए; दोषवत्-बुराई के समान; इति-इस प्रकार; एके-कुछ; कर्म-कर्म; प्राहुः-कहते हैं; मनीषिणः-महान विद्वान; यज्ञ-यज्ञ; दान-दान; तपः-तप; कर्म-कर्म; न-कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागना चाहिए; इति-इस प्रकार; च-और; अपरे-अन्य।।

 

कुछ विद्वान् जन घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए किन्तु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए अर्थात  कुछ विद्वान् जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य अथवा त्यागने के योग्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य अथवा त्यागने योग्य नहीं हैं।।

 

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।18.4।।

 

निश्चयम् – निष्कर्ष; शृणु-सुनो; मे – मेरे; तत्र-वहाँ; त्यागे-कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्याग; भरतसत्तम ( भरत-सत्-तम ) -भरतश्रेष्ठ; त्यागः – कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्याग; हि-वास्तव में; पुरुषव्याघ्र-मनुष्यों में बाघ; त्रिविधा:-तीन प्रकार का; सम्प्रकीर्तितः-घोषित किया जाता है।

 

हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा अंतिम निर्णय सुनो। हे मनुष्यों में सिंह! वह त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।।

 

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।

 

यज्ञ-यज्ञ, दान-दान; तपः-तपः कर्म-कर्म; न कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागने चाहिए; कार्यमेव ( कार्यम्-एव ) – निश्चित रूप से संपन्न करना चाहिए; तत्-उसे; यज्ञः-यज्ञ; दानम्-दान; तपः-तप; च-और; एव-वास्तव में; पावनानि-शुद्ध करने वाले; मनीषिणाम् – महात्माओं , ज्ञानियों अथवा साधकों के लिए भी।

 

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिये, बल्कि इन कर्मों को तो निश्चित रूप से कर्त्तव्य कर्म मान कर संपन्न करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कर्म महात्माओं और ज्ञानी जनों को पवित्र अथवा शुद्ध करनेवाले हैं।

 

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।18.6।।

 

एतानि – ये सब; अपि-निश्चय ही; तु-लेकिन; कर्माणि-कार्य; सङ्गं-आसक्ति को, मोह को ; त्यक्त्वा-त्यागकर; फलानि-फलों को; च-भी; कर्तव्यानि- कर्त्तव्य समझ कर करने चाहिए; इति-इस प्रकार; मे-मेरा; पार्थ-हे पृथापुत्र अर्जुन; निश्चितम-निश्चित; मतम्-मत; उत्तमम्-श्रेष्ठ।

 

किन्तु ये सब कर्म आसक्ति और फल की कामना से रहित होकर अथवा फलों को त्यागकर अपना कर्त्तव्य समझ कर संपन्न करने चाहिए। हे पार्थ ! इस प्रकार यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है अर्थात स्पष्ट और अंतिम निर्णय है।

 

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।18.7।।

 

नियतस्य-नियत कार्य; तु-लेकिन; संन्यासः- त्याग; कर्मणः-कर्मो का; न-कभी नहीं; उपपद्यते-उचित; मोहात्-मोहवश; तस्य-उसका; परित्यागः-त्याग देना; तामसः-तमोगुणी; परिकीर्तितः-घोषित किया जाता है।

 

नियत कर्त्तव्यों को कभी त्यागना नहीं चाहिए। मोहवश होकर निश्चित कार्यों के त्याग को तमोगुणी कहा जाता है अर्थात नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है; मोहवश उसका त्याग करना “तामस त्याग” कहा गया है।।

 

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।

 

दुःखम् – कष्टदायक; इति-इस प्रकार; एव-निश्चय ही; यत्-जो; कर्म-कार्य; काय-शरीर के लिए; क्लेश -कष्टपूर्ण; भयात्-भय से; त्यजेत्-त्याग देता है; सः-वह; कृत्वा-करके; राजसम्-रजोगुण में; त्यागम्-त्याग; न – कभी नहीं; एव-निश्चय ही; त्याग-त्यागः फलम्-फल को; लभेत्–प्राप्त करता है।

 

नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद और शरीर को कष्ट देने का कारण समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक और उन्नत करने वाला नहीं होता अर्थात जो मनुष्य, नियत कर्तव्यों और कर्मों को दु:ख रूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, वह मनुष्य इस प्रकार किये गए उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।

 

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।

सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।

 

कार्यम्-कर्त्तव्य के रूप में; इति-इस प्रकार; एव-निःसन्देह; यत्-जो ; कर्म-कर्म; नियतम् – निश्चित ; क्रियते-किया जाता है; अर्जुन – हे अर्जुन; सङ्गं-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; फलम्-फल; च-भी; एव-निश्चय ही; सः-वह; त्यागः-त्याग; सात्त्विकः-सत्वगुणी; मतः-मेरे मत से।

 

हे अर्जुन ! जब कोई मनुष्य कर्मों का निर्वाह कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्वगुणी कहलाता है अर्थात ‘केवल कर्तव्य मात्र करना है’ अथवा “कर्म करना कर्तव्य है” – ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।

 

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।18.10।।

 

न-नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है; अकुशलम्-अप्रिय; कर्म-कर्म; कुशले-प्रिय; न – न तो; अनुषज्जते-आसक्त होता है; त्यागी-त्यागी; सत्त्व-सत्वगुण में; समाविष्ट:-लीन; मेधावी -बुद्धिमान ; छिन्नसंशयः-वे जिन्हें कोई संदेह न हो।

 

वे जो न तो अप्रिय कर्म से द्वेष या घृणा करते है और न ही कर्म को प्रिय जानकर उसमें लिप्त होते हैं ऐसे मनुष्य वास्तव में त्यागी , बुद्धिमान्, सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित होते हैं। वे सात्विक गुणों से संपन्न होते हैं और कर्म की प्रकृति के संबंध में उनमें कोई संशय नहीं होता।

 

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।।

 

न-नहीं; हि-वास्तव में; देहभृता-देहधारी जीवों के लिए; शक्यम्-सम्भव है; त्यक्तुम्-त्यागना; कर्माणि-कर्म; अशेषतः-पूर्णतया; यः-जो; तु-लेकिन; कर्मफल-कर्मो के फल; त्यागी – कर्मफलों को भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; सः – वे; त्यागी – कर्म फलो का भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; इति-इस प्रकार; अभिधीयते-कहलाता है।

 

देहधारी जीवों के लिए वास्तव में पूर्ण रूप से कर्मों का परित्याग करना अथवा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना असंभव है लेकिन जो कर्मफलों का और कर्मफलों को भोगने की इच्छा का परित्याग करते हैं, वे वास्तव में त्यागी कहलाते हैं।

 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।18.12।।

 

अनिष्टम् – दुखद; इष्टम्-सुखद; मिश्रम्-मिश्रित; च – और; त्रिविधम् – तीन प्रकार के; कर्मणःफलम् – कर्मों के फल; भवति-होता है; अत्यागिनाम्-वे जो निजी पारितोषिक में आसक्त रहते हैं; प्रेत्य-मृत्यु के पश्चात; न-नहीं; तु-लेकिन; संन्यासिनाम्-कर्मों का त्याग करने वालों के लिए; क्वचित्-किसी समय।

 

जो निजी पारितोषिक के प्रति आसक्त होते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात भी सुखद, दुखद और मिश्रित अथवा शुभ , अशुभ और मिश्रित ये तीन प्रकार के कर्मफल प्राप्त होते हैं लेकिन जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं उन्हें न तो इस लोक में और न ही मरणोपरांत ऐसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं अर्थात कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित – ऐसे तीन प्रकार का फल मरनेके बाद भी होता है; परन्तु कर्म फल का त्याग करने वालों को कहीं भीनहीं होता।

 

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।

सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।

 

पञच-पाँच; एतानि-ये; महाबाहो-बलिष्ट भुजाओं वाला; कारणानि-कारण; निबोध – सुनो; मे-मुझसे; सांख्ये-सांख्य दर्शन के; कृतान्ते ( कृत-अन्ते ) – कर्मों की प्रतिक्रियाओं को रोकना; प्रोक्तानि-व्याख्या करना; सिद्धये-उपलब्धियों के लिए; सर्व-समस्त; कर्मणाम्- कर्मों का।

 

हे महाबाहो ! अब तुम मुझसे कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य दर्शन के सिद्धांत में वर्णित समस्त कर्मों को संपूर्ण करने हेतु अथवा समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारकों या कारणों को भलीभांति समझो जो यह बोध कराते हैं कि कर्मों की प्रतिक्रियाओं को कैसे रोका जाए।

 

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।

 

अधिष्ठानम्-शरीर; तथा-भी; कर्ता – करने वाला (जीवात्मा); करणम् – इन्द्रियाँ; च – और; पृथग्विधम् ( पृथक्-विधाम् ) – विभिन्न प्रकार के; विविधाः-अनेक; च-और; पृथक-अलग; चेष्टा:-प्रयास; दैवम्-भगवान का विधान; चैवात्र ( च-एव- अत्र ) – निश्चित रूप से ये (कारक); पञ्चमम् – पाँचवा।

 

( कर्मों की सिद्धि में अथवा कर्म को पूर्ण करने में ) शरीर , कर्ता या जीवात्मा , विभिन्न इन्द्रियां , अलग-अलग चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान – निश्चित रूप से ये पाँच कर्म के कारक हैं।

 

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।18.15।।

 

शरीर-शरीर ; वाक्-वाणी से; मनोभिः-मन से; यत्-जो; कर्म-कर्म; प्रारभते-संपन्न करता है; नरः-व्यक्ति; न्याय्य्-उचित, वा-अथवा; विपरीतम्-अनुचित; वा-अथवा; पञ्च-पाँच; एते-ये सब; तस्य-उसके; हेतवः-कारण।

 

मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो भी उचित ( शास्त्रविहित ) या अनुचित ( शास्त्रविरुद्ध ) कर्म आरम्भ या संपन्न करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।।

 

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।18.16।।

 

तत्र-वहाँ, एवम्-इस प्रकार; सति-होकर; कर्तारम्-कर्ता; आत्मानम्-स्वयं का; केवलम्-केवल; तु-लेकिन; यः-जो; पश्यति-देखता है; अकृतबुद्धित्वात्-कुबुद्धि के कारण; न – कभी नहीं; सः-वह; पश्यति-देखता है; दुर्मतिः-मूर्ख।

 

किन्तु जो मनुष्य अपनी कुबुद्धि के कारण इसे नहीं समझते और ऐसे पाँच कारणों के उपस्थित होने पर भी जो केवल शुद्ध आत्मा को ही उन समस्त कर्मों का कर्ता मानते हैं, वे दुर्मति मनुष्य अपनी दूषित बुद्धि के कारण वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।

 

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।18.17।।

 

यस्य – जिसके; न-नहीं; अहंकृतः-कर्तापन के अहंकार से मुक्त; भावः-प्रकृति; बुद्धिः-बुद्धि; यस्य-जिसकी; न लिप्यते – अनासक्त; हत्वा-मारकर; अपि – भी; सः-वे; इमान् – इस; लोकान् – जीवों को; न – कभी नहीं; हन्ति – मारता है; न – कभी नहीं; निबध्यते – बंधन में पड़ता है।

 

जो कर्तापन के अहंकार से मुक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, यद्यपि वे जीवों को मारते हैं तथापि वे न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं अर्थात जिस मनुष्य में अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि किसी गुण दोष से लिप्त नहीं होती, वह मनुष्य इन समस्त प्राणियों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।।

( मनुष्य का शरीर जिस वर्ण और आश्रम में रहता है उसके अनुसार उसके सामने जो परिस्थिति आ जाती है उसमें प्रवृत्त होने पर उसे पाप नहीं लगता। जैसे किसी जीवन्मुक्त क्षत्रिय के लिये स्वतः युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो वह उसके अनुसार सबको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। कारण कि उसमें अभिमान और स्वार्थभाव नहीं है। यहाँ अर्जुन के सामने भी युद्ध का प्रसङ्ग है। इसलिये भगवान ने अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरणा दी है। वास्तव में यह अहंभाव (व्यक्तित्व) ही मनुष्य में भिन्नता करने वाला है। अहंभाव न रहने से परमात्मा के साथ भिन्नता का कोई कारण ही नहीं है। वह न तो क्रिया का कर्ता बनता है और न फल का भोक्ता ही बनता है। क्रियाओं का कर्ता और फल का भोक्ता तो वह पहले भी नहीं था। केवल नाशवान् शरीर के साथ सम्बन्ध मानकर जिस अहंभाव को स्वीकार किया है उसी अहंभाव से उसमें कर्तापन और भोक्तापन आया है। अहम् दो प्रकार का होता है – अहंस्फूर्ति और अहंकृति। गाढ़ नींद से उठते ही सबसे पहले मनुष्य को अपने होनेपन (सत्तामात्र) का भान होता है इसको अहंस्फूर्ति कहते हैं। इसके बाद वह अपने में मैं अमुक नाम, वर्ण, आश्रम आदि का हूँ – ऐसा आरोप करता है यही असत् का सम्बन्ध है। असत् के सम्बन्ध से अर्थात् शरीर के साथ तादात्म्य मानने से शरीर की क्रिया को लेकर मैं करता हूँ – ऐसा भाव उत्पन्न होता है इसको अहंकृति कहते हैं – स्वामी रामसुखदासजी )

 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।

 

ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषयः परिज्ञाता-जानने वाला; त्रिविधा-तीन प्रकार के कारक; कर्मचोदना-कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व; करणम्-कर्म के उपादान; कर्म-कर्म; कर्ता-कर्ता ; इति-इस प्रकार; त्रिविधः – तीन प्रकार के ; कर्म-कर्म के; संग्रहः-संग्रह।

 

ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता-ये कर्म को प्रेरित करने वाले तीन कारक हैं। करण , स्वयं कर्म और कर्ता-इन तीनों से कर्मसंग्रह होता है अथवा ये त्रिविध कर्म संग्रह हैं । यदि इन तीनों में से एक भी न हो तो कर्म करने की प्रेरणा नहीं होती।

( प्रत्येक मनुष्य की कुछ प्रवृत्ति होती है । उस प्रवृत्ति से पहले उसे उसका ज्ञान होता है। जैसे भोजन पाने की प्रवृत्ति से पहले भूख का ज्ञान होता है फिर वह भोजन से भूख मिटाता है। भोजन आदि विषय का ज्ञान ज्ञेय कहलाता है और जिसको ज्ञान होता है वह परिज्ञाता कहलाता है। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – इन तीनों के होने से ही कर्म करने की प्रेरणा होती है। यदि इन तीनों में से एक भी न हो तो कर्म करने की प्रेरणा नहीं होती। ज्ञाता उसको कहते हैं जो सब तरह की क्रियाओं की चेष्टा का ज्ञाता है। वह केवल ज्ञाता मात्र है अर्थात् उसे क्रियाओं की चेष्टा मात्र का ज्ञान होता है। उसमें अपने लिये कुछ चाहने का अथवा उस क्रिया को करने का अभिमान आदि बिलकुल नहीं होता। कोई भी क्रिया करने की चेष्टा एक व्यक्ति विशेष में ही होती है। इसलिये शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन विषयों को लेकर सुनने वाला, स्पर्श करने वाला, देखने वाला, चखने वाला और सूँघने वाला – इस तरह अनेक कर्ता हो सकते हैं परन्तु उन सबको जानने वाला एक ही रहता है। उसे ही यहाँ परिज्ञाता कहा है। करण, कर्म, कर्ता ये त्रिविध कर्मसंग्रह के तीन कारण हैं। इन तीनों के सहयोग से कर्म पूरा होता है। जिन साधनों से कर्ता कर्म करता है उन क्रियाओं को करने के साधनों (इन्द्रियों आदि) को करण कहते हैं। जैसे खाना -पीना , उठना-बैठना, चलना-फिरना, आना-जाना आदि जो चेष्टाएँ की जाती हैं उनको कर्म कहते हैं। करण और क्रिया से अपना सम्बन्ध जोड़कर कर्म करने वाले को कर्ता कहते हैं। इस प्रकार इन तीनों के मिलने से ही कर्म बनता है। कर्म संग्रह कैसे होता है अर्थात् कर्म बाँधने वाला कैसे होता है ? कर्म बनने के तीन कारण बताते हुए मूल कारण कर्ता है क्योंकि कर्म संग्रह का खास सम्बन्ध कर्ता से है। यदि कर्तापन न हो तो कर्मसंग्रह नहीं होता? केवल क्रिया मात्र होती है। कर्मसंग्रह में करण हेतु नहीं है क्योंकि करण कर्ता के अधीन होता है। कर्ता जैसा कर्म करना चाहता है वैसा ही कर्म होता है।  इसलिये कर्म भी कर्म संग्रह में विशेष कारण नहीं है। सांख्य सिद्धान्त के अनुसार विशेष बंधन में बाँधने वाला है – अहं भाव । इसी अहम् भाव से कर्मसंग्रह होता है। अहंभाव न रहने से कर्म संग्रह नहीं होता अर्थात् कर्म फल उत्पन्न नहीं होता। इस मूल भाव का ज्ञान कराने के लिये ही भगवान ने करण और कर्म को पहले रखकर कर्ता को कर्मसंग्रह के पास में रखा है। कर्म के स्वरूप का युक्ति युक्त विवेचन करते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म के सम्पादन के पाँच कारणों का वर्णन किया है तथा उनसे भिन्न अकर्ता आत्मा का भी निर्देश किया है – स्वामी रामसुखदासजी )

 

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।

 

ज्ञानम्-ज्ञान; कर्म-कर्म; च-और; कर्ता-कर्ता; च-भी; त्रिधा-तीन प्रकार का; एव-निश्चय ही; गुणभेदतः-प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अंतर करना; प्रोच्यते-कहे जाते हैं; गुणसंख्याने-सांख्य दर्शन, जो प्रकृति के गुणों का वर्णन करता हैं; यथावत्-जिस रूप में हैं उसी में; शृणु-सुनो; तानि-उन सबों को; अपि-भी।

 

सांख्य दर्शन अर्थात गुणसंख्यान शास्त्र ( गुणों के सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना करने वाले ) में तीनों गुणों के भेद के अनुसार ज्ञान , कर्म तथा कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है अर्थात वे तीन-तीन प्रकार से ही कहे जाते हैं, उनको भी तुम यथार्थ रूप से सुनो । मैं तुम्हें इनका भेद बताता हूँ।

 

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।

 

सर्वभूतेषु-समस्त जीवों में; येन-जिससे; एकम्-एक; भावम् – प्रकृति; अव्ययम्-अविनाशी; ईक्षते-कोई देखता है; अविभक्तम्-अविभाजित; विभक्तेषु – विभिन्न प्रकार से विभक्त; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानों; सात्त्विकम्-सत्वगुण।

 

 जिस ज्ञान के द्वारा कोई नाना प्रकार के सभी जीवों में विभिन्न प्रकार से विभक्त एक ही अविभाजित अविनाशी सत्य अर्थात अविनाशी स्वरूप या अविनाशी सत्ता को देखता है उसे सत्वगुण प्रकृति का ज्ञान कहते हैं अर्थात उस ज्ञान को तुम सात्विक समझो ।

( किसी भी व्यक्ति को किसी व्यक्ति, वस्तु आदि में जो अपनापन , जो सत्ता दिखती है , जो अधिकार दिखता है कि यह मेरा है , यह मेरी है वह वस्तुतः उस व्यक्ति का नहीं है प्रत्युत इस जगत की समस्त वस्तुओं और सम्पूर्ण जीवों में परिपूर्ण परमात्मा का ही है। इस संसार में किसी भी व्यक्ति, वस्तु आदि की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु आदि ऐसी नहीं है जिसमें परिवर्तन न होता हो परन्तु केवल अज्ञानतावश उनकी सत्ता प्रतीत होती है। जब अज्ञानता मिट जाती है और ज्ञान हो जाता है तब ज्ञानी साधक की दृष्टि उस अविनाशी तत्त्व की ओर ही जाती है जिसकी सत्ता से यह सब सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। ज्ञान होने पर साधक की दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओं को भेदकर परिवर्तन रहित तत्त्व की ओर ही जाती है। फिर वह विभक्त अर्थात् अलग अलग वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति और घटना आदि में विभाग रहित एक ही तत्त्व को देखता है। तात्पर्य यह है कि अलग अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का अलग अलग ज्ञान और यथायोग्य अलग अलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओं में उस स्वतः सिद्ध निर्विकार एक अविनाशी तत्त्व को देखता है। उसके देखने की यही पहचान है कि उसके अन्तःकरण में राग द्वेष नहीं होते- स्वामी रामसुखदासजी )

 

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।18.21।।

 

पृथक्त्वेन-असंबद्ध; तु-लेकिन; यत्-जो; ज्ञानम्-ज्ञान; नानाभावान् – अनेक प्रकार के अस्तित्त्वों को; पृथग्विधान ( पृथक्-विधान ) -विभिन्न; वेत्ति-जानता है; सर्वेषु – समस्त; भूतेषु-जीवों में; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानो; राजसम्-राजसी।

 

परन्तु जिस ज्ञान के द्वारा कोई मनुष्य भिन्न-भिन्न शरीरों में अनेक जीवित प्राणियों को पृथक-पृथक और असंबद्ध रूप में देखता है उसे राजसी माना जाता है अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में नाना भावों या अनेक भावों को पृथक्-पृथक् या अलग-अलग रूप से जानता है, उस ज्ञानको तुम राजस समझो।

( राजस ज्ञान में राग की मुख्यता होती है । राग का यह नियम है कि वह जिसमें आ जाता है उसमें किसी के प्रति आसक्ति , मोह अथवा प्रेम उत्पन्न करा देता है और किसी के प्रति द्वेष या घृणा उत्पन्न करा देता है। इस राग के कारण ही मनुष्य, देवता, यक्ष , राक्षस, पशु ,पक्षी, कीट ,पतङ्ग,  वृक्ष , लता आदि जितने भी चर – अचर प्राणी हैं उन प्राणियों की विभिन्न आकृति, स्वभाव, नाम, रूप, गुण आदि को लेकर राजस ज्ञान वाला मनुष्य उनमें रहने वाली एक ही अविनाशी आत्मा या अविनाशी सत्ता को तत्त्व से अलग-अलग मानता है। )

 

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।18.22।।

 

यत्-जो; तु-लेकिन; कृत्स्नवत्-जैसे कि वह पूर्ण सम्मिलित हो; एकस्मिन्–एक; कार्ये – कार्य; सक्तम्-तल्लीन; अहैतुकम्-अकारण; अतत्त्व-अर्थवत्-जो सत्य पर आधारित न हो; अल्पम्-अणु अंश; च-और; तत्-वह; तामसम्-तमोगुणी; उदाहृतम्-कहा जाता है।

 

वह ज्ञान जिसमें कोई मनुष्य ऐसी विखंडित या असत्य अवधारणा में तल्लीन होता है जैसे कि वह संपूर्ण के सदृश हो और जो न तो किसी कारण और न ही सत्य पर आधारित है उसे तामसिक ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण की तरह आसक्त है तथा जो युक्तिरहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य रूप शरीर में ही आसक्त हो जाता है, मानो वह (कार्य ही) पूर्ण वस्तु हो तथा जो (ज्ञान) हेतुरहित (अयुक्तिक), तत्त्वार्थ से रहित तथा संकुचित (अल्प) है, वह (ज्ञान) तामस है।।

( तामस मनुष्य एक ही शरीर में सम्पूर्ण की तरह आसक्त रहता है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाले इस पाञ्चभौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। वह मानता है कि मैं ही छोटा बच्चा था, मैं ही जवान हूँ और मैं ही बूढ़ा हो जाऊँगा । मैं भोगी हूँ , मैं बलवान हूँ , मैं  सुखी हूँ , मैं धनी हूँ , मैं बड़े कुटुम्बवाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है इत्यादि इत्यादि। ऐसी मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है । तामस मनुष्य की मान्यता युक्ति और शास्त्रप्रमाण के विरुद्ध होती है। यह शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। शरीर आदि वस्तुमात्र अभाव में परिवर्तित हो रही है , दृश्यमात्र अदृश्य हो रहा है और इनमें तू ( आत्मा ) सदा ज्यों का त्यों रहता है अतः यह शरीर और तू एक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार की युक्तियों को वह स्वीकार नहीं करता। यह शरीर और मैं दोनों अलग – अलग हैं । इस वास्तविक ज्ञान या विवेक से वह रहित है। उसकी समझ अत्यन्त तुच्छ है अर्थात् तुच्छता की प्राप्ति कराने वाली है कारण कि तामस पुरुष में मूढ़ता की प्रधानता होती है। मूढ़ता और ज्ञान का आपस में विरोध है । युक्तिरहित , अल्प और अत्यन्त तुच्छ समझ को ही तामस कहा गया है। )

 

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।

 

नियतम् – शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार; संगरहितम् – आसक्ति रहित; अरागद्वेषतः-राग द्वेष से मुक्त; कृतम्-किया गया; अफलप्रेप्सुना – कर्मफल की इच्छा से रहित; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; सात्त्विकम्-सत्वगुण; उच्चये-कहा जाता है।

 

जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ अर्थात जो कर्म शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार है और कर्तव्याभिमान से रहित हो ( मैं कर्ता हूँ अथवा मैं ही सब करने वाला हूँ इस अभिमान से रहित हो ) तथा फल की इच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा बिना राग-द्वेष के किया हुआ हो, वह सात्त्विक या सत्वगुण प्रकृति का कहा जाता है।

 

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।18.24।।

 

यत्-जो; तु-लेकिन; कामेप्सुना ( काम-ईप्सुना ) – स्वार्थ और इच्छा से प्रेरित होकर; कर्म-कर्म; साहङ्कारेण ( स-अहङ्कारेण ) – अहंकार सहित; वा-अथवा; पुनः-फिर; क्रियते-किया जाता है; बहुलायासं ( बहुल-आयासम् ) – कठिन परिश्रम से; तत्-वह; राजसम्-राजसिक प्रकृति; उदाहृतम्-कहा जाता;

 

जो कार्य स्वार्थ की पूर्ति से प्रेरित होकर मिथ्या, अभिमान और तनाव ग्रस्त होकर किए जाते हैं वे रजोगुणी प्रकृति के होते हैं अर्थात जो कर्म भोगों को चाहने वाले मनुष्य के द्वारा अहंकार और कठिन परिश्रम पूर्वक किया जाता है अर्थात जो कर्म स्वार्थ और इच्छा की पूर्ति से प्रेरित होता है , बहुत परिश्रम से युक्त है , फल की कामना वाला है और अहंकारयुक्त पुरुष के द्वारा किया जाता है ऐसा कर्म  राजस या रजोगुणी प्रकृति का कहा गया है।

 

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।

 

अनुबन्धाम्-फलस्वरूप; क्षयम्-क्षति; हिंसाम्-कष्ट; अनपेक्ष्य-उपेक्षा करना; च-और; पौरुषम् – मनुष्य का सामर्थ्य; मोहात्-मोह से; आरभ्यते-प्रारम्भ होता है; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; तामसम्-तमोगुण; उच्यते-कहा जाता है। 

 

जो कर्म अथवा कार्य मोहवश होकर, अपनी क्षमता का आंकलन , कर्म का परिणाम , कर्म के परिणामस्वरूप होने वाली हानि और दूसरों की क्षति अथवा उस कर्म के फलस्वरूप दूसरों को होने पर कष्ट पर विचार किए बिना आरम्भ किए जाते हैं वे तमोगुणी या तामस कहलाते हैं।

 

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।

 

मुक्तसङ्ग: – सांसारिक आसक्ति से मुक्त; ऽनहंवादी ( अनहम्-वादी ) – अहं से मुक्त; धृति-दृढ़संकल्प; उत्साह – उत्साह सहित; समन्वितः – सम्पन्न; सिद्ध्यसिद्ध्यो ( सिद्धि असिद्धयोः ) – सफलता तथा विफलता; निर्विकारः – अप्रभावित; कर्ता – कर्ता; सात्त्विकः-सत्वगुणी; उच्यते – कहा जाता है।

 

जो कर्ता सांसारिक आसक्ति से रहित और अहंकार से मुक्त होकर , धैर्य , दृढ – संकल्प और उत्साह से युक्त , कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (विफलता) में निर्विकार रहता है , वह कर्ता सात्त्विक अथवा सतोगुणी कहा जाता है।।

 

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।18.27।।

 

रागी – अत्यधिक लालायितः कर्मफल-कर्म का फल अथवा परिणाम : प्रेप्सुः-लोभ ; लुब्धः-लोभी; हिंसात्मकः ( हिंसा-आत्मक: ) – हिंसक प्रवृत्ति; अशुचिः-अपवित्र; हर्षशोकान्वितः ( हर्ष-शोक-अन्वितः ) – हर्ष तथा शोक से प्रेरित; कर्ता – कर्ता; राजसः – रजोगुणी; परिकीर्तितः – घोषित किया जाता है।

 

जो कर्ता कर्मफल की लालसा से अत्यधिक लालायित होकर , लोभ के वश हो कर , हिंसक स्वभाव से पूर्ण हो कर , अशुद्धता से , हर्ष एवं शोक से प्रेरित होकर कार्य करता है, उसे रजोगुणी या राजस कहा जाता है।

 

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।18.28।।

 

अयुक्तः-अनुशासनहीन; प्राकृतः-अशिष्ट; स्तब्धाः-हठी; शठः-धूर्त; नैष्कृतिक:-कुटिल या नीच; अलसः-आलसी; विषादी-अप्रसन्न और निराश; दीर्घसूत्री-टाल मटोल करने वाला; च-और; कर्ता-कर्ता; तामसः-तमोगुण; उच्यते-कहलाता है।।

 

जो कर्ता अनुशासनहीन, अशिष्ट, हठी, कपटी, धूर्त , कुटिल , नीच , आलसी , निराश , अप्रसन्न और टाल मटोल करने वाला होता है वह तमोगुणी या तामस कहलाता है।

 

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।

प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।18.29।।

 

बुद्धेः-बुद्धि का; भेदम् – अन्तर; धृतेः – दृढ़ संकल्प, दृढ निश्चय , धैर्य , धारण शक्ति ; च – और; एव – निश्चय ही; गुणत: – गुणों के द्वारा; त्रिविधाम् – प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार; शृणु – सुनो; प्रोच्यमानम् – वर्णन; अशेषेण – विस्तार से; पृथक्त्वेन – भिन्न प्रकार से; धनञ्जय – धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

 

हे धनञ्जय ! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि और दृढ संकल्प के विषय में विस्तार से बता रहा हूँ। अर्थात अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, जो कि मेरे द्वारा पूर्ण रूप से कहे जा रहे हैं। तुम उसे सुनो।

( बुद्धि के निश्चय को और विचार को दृढ़ता से ठीक तरह रखने वाली और अपने लक्ष्य से विचलित न होने देने वाली धारणशक्ति का नाम धृति है। धारणशक्ति अर्थात् धृति के बिना बुद्धि अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिये बुद्धि के साथ ही साथ धृति के भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गये । मनुष्य जो कुछ भी करता है बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात् ठीक से सोच समझ कर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। उस कार्य में प्रवृत्त होने पर भी उसको धैर्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है। उसकी बुद्धि में विचार शक्ति तेज है और उसे धारण करने वाली शक्ति अर्थात धृति श्रेष्ठ है तो उसकी बुद्धि अपने निश्चित किये हुए लक्ष्य से विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहती है तब मनुष्य का कार्य सिद्ध हो जाता है। कर्मसंग्रह में ज्ञान, कर्म और कर्ता की ही विशेष  आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधना में दृढ़तापूर्वक लगा रहे । इसके लिये बुद्धि और धृति के भेद को जानने की विशेष आवश्यकता है क्योंकि उनके भेद को ठीक जानकर ही वह संसार से ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकार की बुद्धि और धृति को धारण करके साधक संसार से ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकार की बुद्धि और धृति के रहने से उसे ऊँचा उठने में बाधा हो सकती है – यही बताने के लिए भगवान ने उन दोनों के भेद बताये हैं- स्वामी रामसुखदासजी  )

 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।

 

प्रवृत्तिम् – संसार की ओर प्रवृत्त करने वाले कर्म ; च – और; निवृत्तिम् – कर्म से वैराग्य; च – और; कार्य – उचित कार्य: अकार्य – अनुचित कार्य; भय – भय; अभये – भय रहित; बन्धम् – बंधन क्या है; मोक्षम् – मोक्ष क्या है; च – और; या – जो; वेत्ति – जानता है; बुद्धिः – बुद्धि; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी – सत्वगुणी।

 

हे पृथानन्दन ! वह बुद्धि सत्वगुणी या सात्विकी है जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि क्या प्रवृत्ति है और क्या निवृत्ति है अर्थात कौन से कर्म संसार में लगाने वाले हैं और कौन से कर्म वैराग्य की ओर ले जाने वाले हैं , क्या उचित है और क्या अनुचित है, क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्तव्य या अकरणीय है अर्थात न करने योग्य है , किससे भयभीत होना चाहिए और किससे भयभीत नहीं होना चाहिए और क्या बंधन में डालने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है अर्थात जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, उचित कार्य और अनुचित कार्य, भय और अभय तथा बंधन और मोक्ष को तत्व से जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।।

( मनुष्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो अवस्थाएँ होती हैं। जब वह संसार का काम-धंधा करता है और सांसारिक गतिविधियों में व्यस्त रहता है तो यह प्रवृत्ति की अवस्था है और जब संसार का काम-धंधा छोड़कर एकान्त में भजन -ध्यान करता है तो यह निवृत्ति की अवस्था है किन्तु इन दोनों में सांसारिक कामना सहित प्रवृत्ति और वासना सहित निवृत्ति ये दोनों ही अवस्थाएँ प्रवृत्ति हैं अर्थात् संसार में लगाने वाली हैं तथा सांसारिक कामना रहित प्रवृत्ति और वासना रहित निवृत्ति ये दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्ति हैं अर्थात् परमात्मा की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिये साधक इनको ठीक – ठीक जानकर,कामना और वासना रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही ग्रहण करें। वास्तव में गहरी दृष्टि से देखा जाय तो कामना और वासना रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति भी यदि अपने सुख , आराम आदि के लिये की जाएँ तो वे दोनों ही प्रवृत्ति हैं क्योंकि वे दोनों ही बाँधने वाली हैं अर्थात् उनसे अपना व्यक्तित्व नहीं मिटता किन्तु यदि कामना और वासना रहित प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों केवल दूसरों के सुख , आराम और हित के लिये ही की जायँ तो वे दोनों ही निवृत्ति हैं क्योंकि उन दोनों से ही अपना व्यक्तित्व नहीं रहता। प्रवृत्ति की जाय तो केवल प्राणिमात्र की सेवा के लिये और निवृत्ति की जाय परम विश्राम अर्थात् स्वरूप स्थितिके लिये। इसी प्रकार शास्त्र , वर्ण , आश्रम की मर्यादा के अनुसार जो काम किया जाता है वह कार्य है और शास्त्र आदि की मर्यादा से विरुद्ध जो काम किया जाता है वह अकार्य है। जिसको हम कर सकते हैं , जिसको जरूर करना चाहिये और जिसको करने से जीव का जरूर कल्याण होता है वह कार्य अर्थात् कर्तव्य कहलाता है और जिसको हमें नहीं करना चाहिये तथा जिससे जीव का बन्धन होता है वह अकार्य अर्थात् अकर्तव्य कहलाता है। इसी क्रम में भय और अभय के कारण को देखना चाहिये। जिस कर्म से अभी तथा परिणाम में अपना और दुनिया का अनिष्ट होने की सम्भावना है वह कर्म भय अर्थात् भयदायक है और जिस कर्म से अभी तथा परिणाम में अपना और दुनिया का हित होने की सम्भावना है वह कर्म अभय अर्थात् सबको अभय करनेवाला है। मनुष्य जब करने योग्य कर्म अथवा कार्य से च्युत होकर अथवा विचलित होकर अकार्य में प्रवृत्त होता है तब उसके मन में अपने मान – सम्मान की हानि और निन्दा – अपमान होने की आशङ्का से भय पैदा होता है परन्तु जो अपनी मर्यादा से कभी विचलित नहीं होता , अपने मन से किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहता और केवल परमात्मा में ही लगा रहता है उसके मन में सदा अभय बना रहता है। यह अभय ही मनुष्य को सर्वथा अभयपद अर्थात परमात्मा की प्राप्ति करा देता है। इसी प्रकार जो बाहर से तो यज्ञ , दान , तीर्थ , व्रत आदि उत्तम से उत्तम कार्य करता है परन्तु भीतर से असत् , जड , नाशवान् पदार्थों को और स्वर्ग आदि लोकों को चाहता है उसके लिये वे सभी कर्म बंधन अर्थात् बन्धनकारक ही हैं। केवल परमात्मा से ही सम्बन्ध रखना , परमात्मा के सिवाय कभी किसी अवस्था में असत् संसार के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध न रखना मोक्ष अर्थात् मोक्षदायक है।अपने को जो वस्तुएँ नहीं मिली हैं उनकी कामना होने से मनुष्य उनके अभाव का अनुभव करता है। वह अपने को उन वस्तुओं के परतन्त्र मानता है और वस्तुओं के मिलने पर अपने को स्वतन्त्र मानता है। वह समझता तो यह है कि मेरे पास वस्तुएँ होने से मैं स्वतन्त्र हो गया हूँ पर वास्तव में वह उन वस्तुओं के परतन्त्र हो जाता है परन्तु हैं ये दोनों ही परतन्त्रता और परतन्त्रता ही बन्धन है। परतन्त्रता विष के समान है और विष तो मारने वाला ही होता है अर्थात सांसारिक वस्तुओं की कामना से ही बन्धन होता है और परमात्मा के सिवाय किसी वस्तु, व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , देश , काल आदि की कामना न होने से मुक्ति होती है । यदि मन में कामना है तो वस्तु पास में हो तो बन्धन और पास में न हो तो बन्धन । यदि मन में कामना नहीं है तो वस्तु पास में हो तो मुक्त और पास में न हो तो भी मुक्त । इस प्रकार जो प्रवृत्ति – निवृत्ति , कार्य – अकार्य , भय – अभय और बंधन – मोक्ष के वास्तविक तत्त्व को जानती है वह बुद्धि सात्त्विकी है। उस संसार के साथ सम्बन्ध न मानना और जिसके साथ हमारा स्वतः सिद्ध सम्बन्ध है ऐसे (प्रवृत्तिनिवृत्ति आदिके आश्रय तथा प्रकाशक) परमात्मा को तत्त्व से ठीक – ठीक जानना यही सात्त्विकी बुद्धिके द्वारा वास्तविक तत्त्व को ठीक – ठीक जानना है- स्वामी रामसुखदासजी  )

 

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।18.31।।

 

यया – जिसके द्वारा; धर्मम्-धर्म को; अधर्मम्-अधर्म को; च और; कार्यम्-उचित आचरण; च-और; अकार्यम्-अनुचित आचरण; एव–निश्चय ही; च-और; अयथावत्-विचलित; प्रजानाति-भेद करना; बुद्धिः-बुद्धि; सा-वह; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; राजसी-रजोगुण।

 

हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म – अधर्म तथा  कर्तव्य – अकर्तव्य अर्थात उचित और अनुचित आचरण को यथावत् नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।।

 

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।18.32।।

 

अधर्मम् – अधर्म; धर्मम् – धर्म; इति – इस प्रकार; या – जो; मन्यते – कल्पना करते हैं; तमसा – अंधकार से; आवृता – आच्छादित, ; सर्वअर्थान् – सभी वस्तुएँ; विपरीतान् – विपरीत दिशा में; च-और; बुद्धिः – बुद्धि; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी – तमोगुण।

 

हे पार्थ ! जो बुद्धि तमोगुण या अज्ञान के अंधकार से ढकी रहती है और सभी बातों को विपरीत दिशा में ही मानती है । ऐसी बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है और असत्य में सत्य की कल्पना करती है । ऐसी बुद्धि तामसी अथवा तामसिक प्रकृति की या तमोगुणी होती है।

 

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।

योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.33।।

 

धृत्या – संकल्प द्वारा; यया-जिससे; धारयते – धारण करता है; मन:-मन का; प्राण-जीवन शक्ति; इन्द्रिय-इन्द्रियों के ; क्रिया:-क्रिया कलापों को; योगेन – योगाभ्यास द्वारा; अव्यभिचारिण्या-दृढ़ संकल्प के साथ; धृतिः-दृढ़ निश्चय; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी-सत्वगुणी।

 

जो धृति या धारण शक्ति अथवा दृढ संकल्प शक्ति योग या योगाभ्यास से विकसित होती है और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों की क्रियाओं को स्थिर रखती है उसे सात्विक धृति या संकल्प कहते हैं अर्थात समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है।

( जिस अव्यभिचारिणी अर्थात इधर – उधर न भटकने वाली स्थिर धृति के द्वारा अर्थात् सदा समाधि में लगी हुई जिस धारणा के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की सब क्रियाएँ धारण की जाती हैं अर्थात् मन, प्राण और इन्द्रियों की सब चेष्टाएँ जिसके द्वारा शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति से रोकी जाती हैं वह धृति सात्त्विकी है। सात्त्विकी धृति द्वारा धारण की हुई इन्द्रियाँ ही शास्त्रविरुद्ध विषय में प्रवृत्त नहीं होतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि धारण करने वाला मनुष्य जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा समाधि योग से मन। प्राण और इन्द्रियों की चेष्टाओं को धारण करता है वह इस प्रकार की धृति सात्त्विकी है। )

 

यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।18.34।।

 

यया – जिसके द्वारा; तु – लेकिन; धर्मकामार्थान् ( धर्म – काम – अर्थान्) – कर्त्तव्य, सुख और धन; धृत्या – दृढ़ इच्छा द्वारा; धारयते – धारण करता है; अर्जुन – अर्जुनः प्रसङ्गेन – आसक्ति के कारण; फलाकाङ्क्षी ( फल-आकाङ्क्षी ) – फल की इच्छा; धृतिः – दृढ़ संकल्प; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; राजसी – रजोगुण।

 

हे पार्थ ! वह धृति जिसके द्वारा कोई मनुष्य आसक्ति और कर्म फल की इच्छा से कर्तव्य पालन करता है, सुख और धन प्राप्ति में लिप्त रहता है, वह राजसी धृति कहलाती है अर्थात कर्मफल का इच्छुक पुरुष अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और काम (इन तीन पुरुषार्थों) को धारण करता है, वह धृति राजसी है।।

 

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।

 

यया-जिससे; स्वप्नम्-स्वप्न; भयम्-भय; शोकम् – शोक; विषादम्-दुख; मदम्-मोह; एव – वास्तव में; च-और; न – कभी नहीं; विमुञ्चति-त्यागती है; दुर्मेधा-दुर्बुद्धि;धृतिः – संकल्प; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी-तमोगुणी।

 

जिस धृति या दर्बद्धिपूर्ण संकल्प के द्वारा मनुष्य स्वप्न , निद्रा , भय , त्रास , शोक , दुःख और मद को नहीं छोड़ता अर्थात् विषय सेवन को ही अपने लिये बहुत बड़ा पुरुषार्थ मानकर उन्मत्त या पागल की भाँति मद या मोह को ही मन में सदा कर्तव्य रूप से समझता हुआ जो दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य इन सबको नहीं छोड़ता यानी धारण ही किये रहता है उसकी जो धृति है वह तामसी मानी गयी है।

 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।

 

सुखम्-सुख; तु–लेकिन; इदानीम्-अब; त्रि-विधम् तीन प्रकार का; शृणु–सुनो; मे मुझसे; भरत-ऋषभ-भरतश्रेष्ठ, अर्जुन, अभ्यासात्-अभ्यास से; रमते-भोगता है; यत्र-जहाँ; दुःख-अन्तम्-सभी प्रकार के दुखों का अन्त; च-और; निगच्छति-पहुंचता है।

 

हे अर्जुन! अब तुम मुझसे तीन प्रकार के त्रिविध सुख भी तुम मुझसे सुनो जिनसे देहधारी आत्मा आनन्द प्राप्त करती है और सभी दुखों के अंत तक भी पहुँच सकती है अर्थात जिसमें साधक मनुष्य अभ्यास से रमता है और जिससे उसके दुःखों का अन्त हो जाता है। 

 

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।

 

यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – आरम्भ में; विषमिव ( विषम्-इव ) – विष के समान; परिणामे-अन्त में; ऽमृतोपमम् (अमृत-उपमम् ) -अमृत के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; सात्त्विकम्-सत्वगुणी; प्रोक्तम्-कहा जाता है; आत्मबुद्धि-आत्म ज्ञान में स्थित; प्रसादजम्-शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न।

 

हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! ऐसा वह परमात्मविषयक , बुद्धि की प्रसन्नता से अथवा शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह अनुभव होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।

( तुम राजस और तामस सुखों से मोहित होने वाले नहीं हो क्योंकि तुम्हारे लिये राजस और तामस सुख पर विजय प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है। स्वर्ग की उर्वशी जैसी सुन्दर अप्सरा को ठुकरा कर तुमने राजस सुख पर विजय प्राप्त कर ली है। इसी प्रकार प्राणिमात्र के लिये आवश्यक निद्रा नामक तामस सुख पर भी तुमने विजय प्राप्त कर ली है । इसी से तुम्हारा नाम गुडाकेश हुआ है। जिस प्रकार ज्ञान, कर्म , कर्ता , बुद्धि और धृति के तीन – तीन भेद होते हैं उसी प्रकार सुख भी तीन तरह का होता है। पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले साधक यदि ऊँची स्थिति में नहीं पहुँच पाते या उनको परमात्म तत्त्व का अनुभव होने में कोई विघ्नबाधा आती है तो वह बाधा होती है सुख की इच्छा।सात्त्विक सुख भी आसक्ति के कारण बन्धन कारक हो जाता है। यदि ध्यान और एकाग्रता का सुख भी लिया जाय तो वह भी बन्धनकारक हो जाता है। इतना ही नहीं अगर समाधि का सुख भी लिया जाय तो वह भी परमात्म तत्त्व की प्राप्ति में बाधक हो जाता है । इस सम्बन्ध में यदि कोई यह कहे कि क्या परमात्म तत्त्व का सुख भी हम न लें तो वास्तव में परमात्म तत्त्व का सुख लिया नहीं जाता बल्कि उस अक्षय सुख का अनुभव तो अपने आप होता है । अर्जुन संन्यास और त्याग के तत्त्व को जानना चाहते है अतः उनकी जिज्ञासा के उत्तर में भगवान ने त्याग , ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि और धृति के तीन – तीन भेद बताये किन्तु इन सब में लक्ष्य तो सुख का ही होता है। अतः भगवान् कहते हैं कि तुम उसी ध्येय की सिद्धि के लिये सुख के भेद सुनो। लोग रात – दिन राजस और तामस सुख में लगे रहते हैं और उसी को वास्तविक सुख मानते हैं। इस कारण सांसारिक भोगों से ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है , प्राणों के मोह से ऊँचा उठकर भी कोई सुख मिल सकता है , राजस और तामस सुख से आगे भी कोई सात्त्विक सुख हो सकता है , वे इन बातों को समझ ही नहीं सकते। इसलिये भगवान् कहते हैं कि वह सुख तीन प्रकार का होता है। उन सुखों में से तुम सात्त्विक सुख को ग्रहण करो और राजस तथा तामस सुखों का त्याग करो क्योंकि सात्त्विक सुख परमात्मा की ओर ले चलने में सहायता करने वाला होता है और राजस तथा तामस सुख संसार में फँसाकर पतन करने वाले होते हैं। सात्त्विक सुख में रमने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। साधारण मनुष्यों को अभ्यास के बिना इस सुख का अनुभव नहीं होता किन्तु राजस और तामस सुख में अभ्यास नहीं करना पड़ता। उसमें तो प्राणिमात्र का अपने आप ही स्वाभाविक आकर्षण होता है। राजस तथा तामस सुख में इन्द्रियों का विषयों की ओर , मन और बुद्धि का भोग संग्रह की ओर तथा थकावट होने पर निद्रा आदि तामस सुखों की ओर स्वतः ही आकर्षण होता है। विषयजन्य , अभिमानजन्य , प्रशंसाजन्य और निद्राजन्य सुख सभी प्राणियों को स्वतः ही अच्छे लगते हैं। कुत्ते , बिल्ली आदि जो प्राणी हैं यदि कोई उनका आदर करता है तो वे खुश होते हैं और यदि कोई उनका निरादर करता है तो वे नाराज हो जाते हैं , दुःखी हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि राजस और तामस सुख में अभ्यास की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस सुख को सभी प्राणी अन्य योनियों में भी अनुभव करते हैं। सात्त्विक सुख में अभ्यास किस प्रकार का होता है । श्रवण – मनन करना , शास्त्रों को समझना और राजसी तथा तामसी वृत्तियों को हटाना भी अभ्यास है। जिस राजस और तामस सुख में प्राणिमात्र की स्वतः ही स्वाभाविक प्रवृत्ति हो रही है उससे भिन्न नयी प्रवृत्ति करने का नाम अभ्यास है। सात्त्विक सुख में अभ्यास करना तो आवश्यक है पर उस सुख में भी बहुत अधिक रम जाना बाधक होता है। सात्विक सुख में रमण करने का अर्थ यह नहीं है कि  सात्त्विक सुख का भोग किया जाय बल्कि सात्त्विक सुख में अभ्यास से ही रुचि, प्रेम और प्रवृत्ति हो जाने को ही यहाँ रमण करना कहा गया है। उस सात्त्विक सुख में अभ्यास से ज्यों – ज्यों रुचि और प्रेम बढ़ता जाता है त्यों – त्यों परिणाम में दुःखों का नाश होता जाता है और प्रसन्नता , सुख तथा आनन्द बढ़ते जाते हैं । जब तक सात्त्विक सुख में रमण होता है अथवा मन लगता है अर्थात् साधक सात्त्विक सुख लेता रहेगा तब तक दुःखों का अंत नहीं होगा अर्थात दुःख बने रहेंगे क्योंकि सात्त्विक सुख भी परमात्म विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न  हुआ है । जो उत्पन्न होने वाला होता है वह नष्ट अवश्य होता है। ऐसे सुख से दुःखों का अन्त कैसे होगा इसलिये सात्त्विक सुख में भी अत्यंत आसक्ति नहीं होनी चाहिये। सात्त्विक सुख से भी ऊँचा उठने पर अर्थात सात्विक सुख से भी परे जा कर मनुष्य दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है। वह गुणातीत हो जाता है। जिस बुद्धि में सांसारिक मान, बड़ाई, आदर, धनसंग्रह और विषयजन्य सुख आदि का महत्त्व नहीं रहता, केवल परमात्म विषय का ही विचार रहता है उस बुद्धि की प्रसन्नता अर्थात् पवित्रता से यह सात्त्विक सुख पैदा होता है। तात्पर्य है कि सांसारिक सुख से पूरी तरह से हट कर परमात्मा में बुद्धि के विलीन होने पर जो सुख प्राप्त होता है वह सुख सात्त्विक होता है। जो सात्त्विक सुख है वह परोक्ष है अर्थात् अभी उस सुख का अनुभव नहीं हुआ है। अभी तो उस सुख को केवल उद्देश्य बनाया गया है जबकि राजस और तामस सुख का अभी अनुभव होता है। इसलिये अनुभवजन्य राजस और तामस सुख का त्याग करने में कठिनता आती है और लक्ष्य रूप सात्त्विक सुख की प्राप्ति के लिये किया हुआ रसहीन परिश्रम या अभ्यास आरम्भ में विष की तरह लगता है । तात्पर्य यह है कि अनुभवजन्य राजस और तामस सुख का तो त्याग कर दिया और लक्ष्य रूप सात्त्विक सुख मिला नहीं , उस सुख का रस अभी मिला नहीं । इसलिये वह सात्त्विक सुख आरम्भ में जहर की तरह प्रतीत होता है। राजस और तामस सुख को प्राणी अनेक योनियों में भोगते आये हैं और उसे इस जन्म में भी भोगा है। उस भोगे हुए सुख की स्मृति आने से राजस और तामस सुख में स्वाभाविक ही मन लग जाता है परन्तु सात्त्विक सुख उतना भोगा हुआ नहीं है इसलिये इसमें जल्दी मन नहीं लगता। इस कारण सात्त्विक सुख आरम्भ में विष की तरह लगता है। वास्तव में सात्त्विक सुख विष की तरह नहीं है बल्कि राजस और तामस सुख का त्याग विष की तरह होता है। जैसे बालक को खेलकूद छोड़कर पढ़ाई में लगाया जाय तो उसको पढ़ाई में कैदी की तरह अभ्यास करना पड़ता है। पढ़ाई में मन नहीं लगता तथा इधर खेलकूद छूट जाता है तो उसको पढ़ाई विष की तरह अनुभव होती है परन्तु वही बालक यदि पढ़ता रहे और कुछ परीक्षाओं में पास हो जाय तो उसका पढ़ाई में मन लगने लग जाता है अर्थात् उसको पढ़ाई अच्छी लगने लग जाती है। तब उसकी पढ़ाई के अभ्यास में रुचि होने लगती है। वास्तव में देखा जाय तो सात्त्विक सुख आरम्भ में विष की तरह उन्हीं लोगों के लिये होता है जिनका राजस और तामस सुख में राग और आसक्ति है परन्तु जिनको सांसारिक भोगों से स्वाभाविक वैराग्य है, जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन, सत्सङ्ग ,कथा-कीर्तन, साधन-भजन आदि में स्वाभाविक रुचि है और जिनके ज्ञान, कर्म , बुद्धि और धृति सात्त्विक हैं उन साधकों को यह सात्त्विक सुख आरम्भ से ही अमृत की तरह आनन्द देने वाला होता है। उनको इसमें कष्ट ,परिश्रम, कठिनता आदि  जान ही नहीं पड़ते । साधन करने से साधक में सत्त्वगुण आता है। सत्त्वगुण के आने पर इन्द्रियों और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता , ज्ञान का प्रकाश , शान्ति , निर्विकारता आदि सद्भाव और सद्गुण प्रकट हो जाते हैं । इन सद्गुणों का प्रकट होना ही परिणाम में सात्त्विक सुख का अमृत की तरह लगना है। इसका उपभोग न करने से अर्थात् इसमें रस न लेने से वास्तविक अक्षय सुख की प्राप्ति हो जाती है । परिणाम में सात्त्विक सुख राजस और तामस सुख से ऊँचा उठाकर जडता या मूर्खता से सम्बन्ध – विच्छेद करा देता है और इसमें आसक्ति न होने से अन्त में परमात्मा की प्राप्ति करा देता है। इसलिये यह परिणाम में अमृत की तरह है। सत्सङ्ग , स्वाध्याय , संकीर्तन, जप , ध्यान , चिन्तन आदि से जो सुख होता है वह मान, बड़ाई, आराम, धन – संपत्ति , भोग आदि विषयेन्द्रिय सम्बन्ध का नहीं है और प्रमाद , आलस्य , निद्रा का भी नहीं है। वह तो परमात्मा के सम्बन्ध का है। इसलिये वह सुख सात्त्विक कहा गया है- स्वामी रामसुखदास जी )

 

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।18.38।।

 

विषय-इन्द्रिय विषयों के साथ; इन्द्रिय-इन्द्रियों के; संयोगत्-संपर्क से; यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – प्रारम्भ में; ( ऽमृतोपमम् ) अमृत-उपमम्-अमृत के समान; परिणामे- अन्त में; विषमिव ( विषम्-इव ) -विष के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; राजसम्-राजसी; स्मृतम्-माना जाता है।

 

जो सुख विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह आरम्भ में तो अमृत के समान लगता है परन्तु परिणाम में विष तुल्य लगता  है, वह सुख राजस कहा गया है।।

( विषयों और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला जो सुख है उसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता क्योंकि यह प्राणी किसी भी योनि में जाता है वहाँ उसको विषयों और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला सुख मिलता ही है। शब्द , स्पर्श आदि पाँचों विषयों का सुख पशु-पक्षी , कीट – पतङ्ग आदि सभी प्राणियों को मिलता है। अतः उस सुख में प्राणिमात्र का स्वाभाविक अभ्यास रहता है। मनुष्य जीवन में भी बचपन से ही  अनुकूलता में खुश होना और प्रतिकूलता में नाराज होना स्वाभाविक रूप से देखा जाता है। इसलिये इस राजस सुख में अभ्यास की जरूरत नहीं है। सांसारिक विषयों की प्राप्ति की सम्भावना के समय मन में जितना सुख होता है उतना सुख , मस्ती और मन के अनुकूल विषयों के मिलने पर नहीं रहता। मिलने पर भी आरम्भ में जैसा सुख होता है कुछ समय के बाद वैसा सुख नहीं रहता और उस विषय को भोगते – भोगते जब भोगने की शक्ति क्षीण हो जाती है उस समय सुख नहीं होता बल्कि विषय – भोग से अरुचि हो जाती है। भोग भोगने की शक्ति क्षीण होने के बाद भी अगर विषयों को भोगा जाय तो दुःख और जलन पैदा हो जाती है , चित्त में सुख नहीं रहता । इसलिये यह राजस सुख आरम्भ में अमृत की तरह दिखता है। अमृत की तरह कहने का दूसरा भाव यह है कि जब मन विषयों में खींचता है तब मन को वे विषय बड़े प्रिय और अच्छे लगते हैं। विषयों और भोगों की बातें सुनने में जितना रस आता है उतना भोगों में नहीं आता। जब राजस पुरुष स्वर्ग के भोगों का सुख सुनते हैं तो उनको वह सुख बड़ा प्रिय लगता है और वे उसके लिये ललचा उठते हैं किन्तु वे स्वर्ग के सुख दूर से सुनकर ही बड़े प्रिय लगते हैं परन्तु स्वर्ग में जाकर सुख भोगने से उनको उतना सुख नहीं मिलता और वह उतना प्रिय भी नहीं लगता । आरम्भ में विषय बड़े सुन्दर लगते हैं , उनमें बड़ा सुख मालूम पड़ता है परन्तु उनको भोगते – भोगते जब परिणाम में वह सुख नीरसता में परिणत हो जाता है तो उस सुख में बिलकुल अरुचि हो जाती है। तब वही सुख विष के समान जान पड़ता है । संसार में जितने प्राणी कैद में पड़े हैं, जितने चौरासी लाख योनियों और नरकों में पड़े हैं , उसका कारण है कि उन्होंने विषयों का भोग किया है ,  उनसे सुख लिया है ,  इसी कारण वे कैद , नरक आदि में दुःख पा रहे हैं क्योंकि राजस सुख का परिणाम दुःख ही होता है ।आज भी जो लोग घबरा रहे हैं , दुःखी हो रहे हैं , वे सब पदार्थों में राग और मोह के कारण ही दुःख पा रहे हैं। जो धनी होकर फिर निर्धन हो गया है , वह जितना दुःखी और संतप्त है, उतना दुःख और सन्ताप स्वाभाविक निर्धन को नहीं है क्योंकि उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक नहीं पड़े हैं। परन्तु धनी ने राजस सुख अधिक भोगा है, उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक पड़े हैं , इसलिये उसको धन के अभाव का दुःख ज्यादा है। जैसे जो मनुष्य तरह – तरह के पदार्थों का भोजन करने वाला होता है , उसके भोजन में कभी यदि थोड़ी सी भी कमी रह जाय तो उसको वह कमी बड़ी खटकती है कि आज भोजन में चटनी नहीं है , खटाई नहीं है , मिठाई नहीं है , नमक नहीं है , मिर्च नहीं है , ये नहीं है , वो नहीं है । इस प्रकार नहीं – नहीं का ही ढेर लगा रहता है। परन्तु साधारण आदमी बाजरे की रूखी – सूखी रोटी खाकर भी मौज से रहता है । उसको भोजन में किसी चीज की कमी खटकती ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थों के संयोग से जितना ज्यादा सुख लिया है उतना ही उसके अभाव का अनुभव होता है। अभाव के अनुभव में दुःख ही होता है। जिस पदार्थ की कामना होती है उसकी प्राप्ति के लिये मनुष्य उद्योग करते हैं , परिश्रम करते हैं । उद्योग करने पर भी वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी इसमें संदेह रहता है। वस्तु न मिले तो उसके अभाव का दुःख होता है और वस्तु मिल जाय तो उस वस्तु को और भी अधिक प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है। इस प्रकार इच्छापूर्ति नयी इच्छा का कारण बन जाती है और इच्छापूर्ति तथा फिर इच्छा की उत्पत्ति यह चक्कर चलता ही रहता है । इसका कभी अन्त नहीं आता। तात्पर्य यह है कि इच्छा कभी मिटती नहीं और इच्छा के रहते हुए अभाव खटकता रहता है। यह अभाव ही विष के समान है अर्थात् दुःखदायी है। जब राजस सुख परिणाम में विषकी तरह है तो फिर राजस सुख लेने वाले जितने लोग हैं उन सबको सुख भोग के अन्त में मर जाना चाहिये परन्तु राजस सुख विष की तरह मारता नहीं बल्कि विष की तरह अरुचिकारक हो जाता है। उसमें पहले जैसी रुचि होती है वैसी रुचि अन्त में नहीं रहती अर्थात् वह सुख विष के समान हो जाता है साक्षात् विष नहीं होता।राजस सुख विष की तरह क्यों होता है कारण कि विष तो एक जन्म में ही मारता है पर राजस सुख कई जन्मों तक मारता रहता है। राजस सुख लेने वाला रागी पुरुष शुभ कर्म करके यदि स्वर्ग में भी चला जाता है तो वहाँ भी उसको सुख – शान्ति नहीं मिलती। स्वर्ग में भी अपने से ऊँची श्रेणी वालों को देखकर ईर्ष्या होती है कि ये हमारे से ऊँचे क्यों हो गये । समान पद वालों को देखकर दुःख होता है कि ये हमारे समान पद पर आकर क्यों बैठ गये और नीची श्रेणी वालों को देखकर अभिमान आता है कि हम इनसे ऊँचे हैं । इस प्रकार उसके मनमें ईर्ष्या , दुःख और अभिमान होते ही रहते हैं । फिर उसके मन में सुख कहाँ और शान्ति कहाँ । इतना ही नहीं पुण्यों के क्षीण हो जाने पर उसको पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है । यहाँ आकर फिर शुभ कर्म करता है और फिर स्वर्ग में जाता है। इस प्रकार जन्म – मरण के चक्कर में पड़ा ही रहता है । यदि वह राग और मोह के कारण पाप कर्मों में लग जाता है तो परिणाम में चौरासी लाख योनियों और नरकों में पड़ता हुआ न जाने कितने जन्मों तक जन्मता – मरता रहता है , जिसका कोई अन्त नहीं आता। इसलिये इस सुख को विष की तरह कहा गया है। मनुष्य ने सदैव राजस सुख का फल दुःख ही पाया है परन्तु राग और मोह के कारण वह उन सुखों को प्राप्त करने के लिए पुनः ललचा उठता है। कारण कि उन सुखों का प्रभाव उस पर पड़ा हुआ है और परिणाम के प्रभाव को वह स्वीकार नहीं करता। अगर वह परिणाम के प्रभाव को स्वीकार कर ले तो फिर वह राजस सुख में फँसेगा नहीं। स्मृति , शास्त्र , पुराण आदि में ऐसे बहुत से इतिहास आते हैं जिनमें मनुष्यों के द्वारा राजस सुख के कारण बहुत दुःख पाने की बात आयी है। जिसकी वृत्ति जितनी सात्त्विक होती है वह उतना ही प्रत्येक विषय के परिणाम की ओर देखता है। अभी के तात्कालिक और क्षणिक सुख की ओर वह ध्यान नहीं देता परंतु राजसी वृत्ति वाला परिणामकी तरफ देखता ही नहीं । उसकी वृत्ति तात्कालिक और क्षणिक सुख की ओर ही जाती है। इसलिये वह संसार में फँसा ही रहता है। राजस पुरुष को संसार का सम्बन्ध वर्तमान में तो अच्छा दिखाई देता है परन्तु परिणाम में यह हानिकारक होता है । इसलिये साधक को संसार से विरक्त हो जाना चाहिये और राजस सुख में नहीं फँसना चाहिये। – स्वामी रामसुखदास जी ) 

 

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।18.39।।

 

यत्-जो; अग्रे – प्रारम्भ में; च-और; अनुबन्धे-अंत में; च-और; सुखम्-सुख; मोहनम्-मोह; आत्मन:-अपना; निद्रा-नींद; आलस्य-आलस्य; प्रमाद-मोह से; उत्थम्-उत्पन्न; तत्-वह; तामसम्–तामसी; उदाहृतम्-कहलाता है।

 

निद्रा, आलस्य और मोह से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में आत्मा को या स्वयं को मोहित करनेवाला है, वह सुख तामस कहा गया है अर्थात जो सुख आदि से अंत तक आत्मा की प्रकृति को ढक देता है और जो निद्रा, आलस्य और असावधानी से उत्पन्न होता है वह तामसिक सुख कहलाता है।

 (जब राग अत्यधिक बढ़ जाता है तब वह तमोगुण का रूप धारण कर लेता है। इसी को मोह कहते हैं। इस मोह अथवा मूढता के कारण मनुष्य को अधिक सोना अच्छा लगता है। अधिक सोने वाले मनुष्य को गहरी नींद नहीं आती। गहरी निद्रा न आने से तन्द्रा ज्यादा आती है और स्वप्न भी ज्यादा आते हैं। तन्द्रा और स्वप्न में तामस मनुष्य का बहुत समय बरबाद हो जाता है। परन्तु तामस मनुष्य को इसी से ही सुख मिलता है । इसलिये इस सुख को निद्रा से उत्पन्न बताया है। जब तमोगुण अधिक बढ़ जाता है तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर वह आलस्य में समय बरबाद कर देता है। आवश्यक काम सामने आने पर वह कह देता है कि फिर कर लेंगे , अभी तो आराम कर रहे हैं। इस प्रकार आलस्य की अवस्था में उसको सुख दिखाई देता है परन्तु निकम्मा रहने के कारण उसकी इन्द्रियों और अन्तःकरण में शिथिलता आ जाती है । मन में अशान्ति , शोक , विषाद , चिन्ता , दुःख होते रहते हैं और संसार का अनावश्यक चिंतन चलता रहता है । जब इससे भी अधिक तमोगुण बढ़ जाता है तब मनुष्य प्रमाद करने लग जाता है। वह प्रमाद दो प्रकार का होता है — अक्रिय प्रमाद और सक्रिय प्रमाद। घर , परिवार , शरीर आदि के आवश्यक कामों को न करना और निठल्ले बैठे रहना अक्रिय प्रमाद है। व्यर्थ क्रियाएँ करना जैसे व्यर्थ की चीज़ें देखना , सुनना, सोचना आदि ; बीड़ी , सिगरेट , शराब , भाँग , तम्बाकू , सिनेमा  खेल  – तमाशा आदि दुर्व्यसनों में लगना और चोरी , डकैती , झूठ , कपट , बेईमानी , व्यभिचार , अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण , जीव हत्या , हिंसा करना , पशु – पक्षियों को मारना और उनको खाना आदि दुराचारों में लगना सक्रिय प्रमाद है। प्रमाद के कारण तामस पुरुषों को निरर्थक समय बरबाद करने में तथा झूठ , कपट , बेईमानी आदि करने में सुख मिलता है। जैसे काम-धंधा करने वाले धन अर्थात मजदूरी या वेतन तो वे पूरे ले लेते हैं पर काम पूरा और ठीक ढंग से नहीं करते। चिकित्सक लोग रोगियों का ठीक ढंग से इलाज नहीं करते जिससे रोगी लोग बार – बार आते रहें और पैसे देते रहें। दूध बेचने वाले धन के लोभ में दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं। पैसे अधिक देनेपर भी वे पानी मिलाना नहीं छोड़ते। ऐसे पापरूप प्रमाद से उनको घोर नरकों की प्राप्ति होती है। जब तमोगुणी प्रमादवृत्ति आती है तब वह सत्त्वगुण के विवेक-ज्ञान को ढक देती है और जब तमोगुणी निद्रा और आलस्यवृत्ति आती है तब वह सत्त्वगुण के प्रकाश को ढक देती है। विवेक और ज्ञान के ढकने पर प्रमाद होता है तथा प्रकाश के ढकने पर आलस्य और निद्रा आती है। तामस पुरुष को निद्रा , आलस्य और प्रमाद – तीनों से सुख मिलता है इसलिये तामस सुख को इन तीनों से उत्पन्न बताया गया है। निद्रा दो प्रकार की होती है – युक्तनिद्रा और अतिनिद्रा । युक्तनिद्रा में एक विश्राम मिलता है। विश्राम से शरीर , मन , बुद्धि ,अन्तःकरण में निरोगता , स्फूर्ति , पवित्रता , निर्मलता और ताजगी आती है। ताजगी आने से साधन -भजन करने में और सांसारिक काम करने में भी शक्ति मिलती है और उत्साह रहता है। इसलिये युक्तनिद्रा दोषी नहीं है बल्कि सबके लिये आवश्यक है। भगवान ने भी युक्तनिद्रा को आवश्यक बताया है । ताजगीमात्र के लिये निद्रा साधक के लिये आवश्यक है। जिस साधक के रागपूर्वक सांसारिक संकल्प नहीं होते उसको नींद बहुत जल्दी आ जाती है और जो ज्यादा संकल्पशील है उसको नींद जल्दी नहीं आती। इससे यह सिद्ध हुआ कि संसार का जो सम्बन्ध है वह निद्रा का सुख भी नहीं लेने देता। निद्रा आवश्यक क्यों है कारण कि निद्रा में जो स्थिर तत्त्व है वह साधक को साधन में प्रवृत्त करने में  और सांसारिक कार्य करने में बल देता है इसलिये निद्रा आवश्यक है। यद्यपि निद्रा तामसी है फिर भी जो नींद का बेहोशीपना है अर्थात जो लोग एकदम बेहोश हो के सो जाते हैं या अत्यंत गहन निद्रा में सोते हैं ऐसी निद्रा त्याज्य है अर्थात त्यागने के योग्य है और जो नींद का विश्रामपना है अर्थात जो नींद केवल विश्राम लेने के उद्देश्य से ली जाती है वह ग्राह्य है अर्थात वह मान्य है परन्तु साधारण मनुष्य बेहोशी के बिना अथवा गहन निद्रा के बिना विश्रामपना ग्रहण नहीं कर सकता अतः उनके लिये नींद का बेहोशीपना भी ग्राह्य है या मान्य है किन्तु जो लोग साधना करके ऊँचे उठ गये हैं , उनको नींद के बेहोशी भाग के बिना भी जाग्रत – सुषुप्ति अवस्था में विश्राम मिल जाता है। कारण कि जाग्रत अवस्था में संसार के चिन्तन का सर्वथा त्याग होकर परमात्म तत्त्व में स्थिति हो जाती है तो महान् विश्राम और सुख की प्राप्ति होती है । इस स्थिति से भी आगे बढ़ने पर वास्तविक तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। जो साधक हैं उनको विश्राम के लिये नहीं सोना चाहिये। उनका तो यही भाव होना चाहिये कि पहले काम-धंधा करते हुए भगवान का भजन करते थे अब लेटे-लेटे भजन करना है। समय पर सोना और समय पर जागना युक्तनिद्रा है और अधिक सोना अतिनिद्रा है। अतिनिद्रा के आदि और अन्त में शरीर में आलस्य भरा रहता है। शरीर में भारीपन रहता है। अधिक नींद लेने का स्वभाव होने से प्रत्येक कार्य में नींद आती रहती है। भगवान ने चौदहवे अध्याय में प्रथम स्थान पर प्रमाद को , दूसरे स्थान पर आलस्य को और तीसरे स्थान पर निद्रा को रखा है परन्तु यहाँ पहले स्थान पर निद्रा को , दूसरे स्थान पर आलस्य को और तीसरे स्थान पर प्रमाद को रखा है । कारण यह है कि वहाँ इन तीनों के द्वारा मनुष्य को बाँधने का प्रसङ्ग है अर्थात ये तीनो तमोगुण मनुष्य को बाँध लेते हैं और यहाँ मनुष्य का पतन होने का प्रसङ्ग है अर्थात इन तीनों तमोगुणों के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है। बाँधने के विषय में प्रमाद सबसे अधिक बन्धनकारक है अतः इसको सबसे पहले रखा है। कारण कि प्रमाद निषिद्ध आचरणों में प्रवृत्त करता है अर्थात जो न करने योग्य आचरण हैं उसमे लगाता है जिससे अधोगति होती है। आलस्य केवल अच्छी प्रवृत्ति को रोकने वाला होता है अतः इसको द्वितीय स्थान पर रखा है। निद्रा आवश्यक होने से बन्धनकारक नहीं है बल्कि  अतिनिद्रा ही बन्धनकारक है अतः इसको तृतीया स्थान पर रखा है। यहाँ उससे उलटा क्रम रखने का अर्थ यह है कि सबके लिये आवश्यक होने से निद्रा इतना पतन करने वाली नहीं है। निद्रा से अधिक आलस्य पतन करता है और आलस्य से भी अधिक प्रमाद पतन करता है। कारण कि मनुष्य अधिक नींद लेगा तो वृक्ष आदि मूढ़ योनियों की प्राप्ति होगी परन्तु आलस्य और प्रमाद करेगा तो कर्तव्यच्युत होकर दुराचार करने से नरक में जाना पड़ेगा । निद्रा , आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न हुआ सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है। इस सुख में न तो आरम्भ में विवेक रहता है और न परिणाम में विवेक रहता है अर्थात् यह सुख विवेक को जाग्रत् नहीं होने देता। पशु-पक्षी , कीट-पतंग आदि में भी विवेक शक्ति जाग्रत् न रहने से वे क्रिया के आरम्भ और परिणाम को सोच नहीं पाते। ऐसे ही जिस सुख के कारण मनुष्य यह सोच ही नहीं सकता कि इस निद्रा आदि से उत्पन्न हुए सुख का परिणाम हमारे लिये क्या होगा ।प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं और ये दो हैं । इस प्रकार इनकी पृथकता का विवेक भी अनादि है। यह विवेक पुरुष में ही रहता है , प्रकृति में नहीं। जब यह पुरुष इस विवेक का अनादर करके अविवेक के कारण प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब इस सम्बन्ध के कारण पुरुष में राग पैदा हो जाता है । जब राग बहुत सूक्ष्म रहता है तब विवेक प्रबल रहता है। जब राग बढ़ जाता है तब विवेक दब जाता है किन्तु मिटता नहीं पर यदि विवेक ठीक प्रकार से जाग्रत् हो जाय तो फिर राग टिकता नहीं अर्थात् राग का अभाव हो जाता है और उस समय पुरुष मुक्त कहलाता है। उस राग के कारण मनुष्य की प्रकृतिजन्य सुख में आसक्ति हो जाती है। उस आसक्ति के रहते हुए जब मनुष्य किसी कारणवश सात्त्विक सुख को प्राप्त करना चाहता है तब राजस और तामस सुख का त्याग करने में उसे कठिनता प्रतीत होती है परन्तु जब राग मिट जाता है तब वह सुख अमृत की तरह हो जाता है । राग के कारण ही रजोगुणी सुख आरम्भ में अमृत की तरह प्रतीत होता है परन्तु वह सुख परिणाम में प्राणी के लिये जहर के समान अनिष्टकारक अर्थात् महान दुःखरूप हो जाता है। प्रकृतिजन्य सुख की आसक्ति होने पर दुःखी रहने की परम्परा का अर्थात दुःख का कोई अन्त नहीं आता। जब वही राग तमोगुण का रूप धारण कर लेता है तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर मनुष्य नींद और आलस्य में समय बरबाद कर देता है तथा आवश्यक कर्तव्य से विमुख होकर अकर्तव्य में लग जाता है परन्तु तामस पुरुष को इन्हीं में सुख दिखाई पड़ता है। इसलिये यह तामस सुख आदि और अन्त में मोहित करनेवाला है। जो प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है या काम हो रहा है वह वास्तव में नहीं है अर्थात उसका कोई अस्तित्व नहीं है  परन्तु जो उस ‘ नहीं ‘ को प्रकाशित करने वाला तथा उसका आधार है वह वास्तव में तत्त्व है। उसी तत्त्व को सच्चिदानन्द कहते हैं। निरन्तर सत्तारूप से रहने के कारण उसे सत् कहते हैं । ज्ञानस्वरूप होने के कारण उसे चित् कहते हैं और आनन्दस्वरूप होने के कारण उसे आनन्द कहते हैं। उस सच्चिदानन्द परमात्मा का ही अंश होने से यह प्राणी भी सच्चिदानन्दस्वरूप है परन्तु जब प्राणी असत् वस्तु की इच्छा करता है कि अमुक वस्तु मुझे मिले तब उस इच्छा से स्वतः स्वाभाविक आनन्द का सुख ढक जाता है। जब असत् वस्तु की इच्छा मिट जाती है तब उस इच्छा के मिटते ही वह स्वतः स्वाभाविक सुख प्रकट हो जाता है। नित्य – निरन्तर रहने वाला जो सुखरूप तत्त्व है उसमें जब सात्त्विकी बुद्धि तल्लीन हो जाती है तब बुद्धि में स्वच्छता और निर्मलता आ जाती है। उस स्वच्छ और निर्मल बुद्धि से अनुभव में आने वाला यह स्वाभाविक सुख ही सात्त्विक कहलाता है। बुद्धि से भी जब सम्बन्ध छूट जाता है तब वास्तविक सुख रह जाता है। सात्त्विकी बुद्धि के सम्बन्ध से ही उस सुख की सात्त्विक संज्ञा होती है। बुद्धि से सम्बन्ध छूटते ही उसकी सात्त्विक संज्ञा नहीं रहती।मन में जब किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होती है तब वह वस्तु मन में बस जाती है अर्थात् मन और बुद्धि का उसके साथ सम्बन्ध हो जाता है। जब वह मनोवाञ्छित वस्तु मिल जाती है? तब वह वस्तु मन से निकल जाती है अर्थात् वस्तु के प्रति मन में जो खिंचाव या आकर्षण था वह निकल जाता है। उसके निकलते ही अर्थात् वस्तु से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही वस्तु के अभाव का जो दुःख था वह निवृत्त हो जाता है अर्थात उस से मुक्ति मिल जाती है और नित्य रहने वाले स्वतःसिद्ध सुख का तात्कालिक अनुभव हो जाता है। वास्तव में यह सुख वस्तु के मिलने से नहीं हुआ है बल्कि राग या मोह के तात्कालिक या क्षणिक रूप से मिटने के कारण हुआ है पर राजस पुरुष भूल से उस सुख को वस्तु के मिलने से होने वाला सुख मान लेता है। वास्तव में देखा जाय तो वस्तु का संयोग बाहर से होता है और प्रसन्नता भीतर से होती है। भीतर से जो प्रसन्नता होती है वह बाहर के संयोग से पैदा नहीं होती बल्कि भीतर या मन में बसी हुई वस्तु के साथ जो सम्बन्ध था उस वस्तु से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर पैदा होती है। तात्पर्य यह है कि वस्तु के मिलते ही अर्थात् बाहर से वस्तु का संयोग होते ही भीतर से उस वस्तु से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्य रहनेवाले स्वाभाविक सुख का आभास हो जाता है। जब नींद में बुद्धि तमोगुण में लीन हो जाती है तब बुद्धि की स्थिरता को लेकर वह सुख प्रकट हो जाता है। कारण कि तमोगुण के प्रभाव से नींद में जाग्रत् और स्वप्न के पदार्थों की विस्मृति हो जाती है अर्थात मनुष्य नींद में सभी पदार्थों को भूल जाता है। पदार्थों की स्मृति ही दुःखों का कारण है अर्थात जब तक पदार्थ याद रहते हैं दुःख बना रहता है । पदार्थों की विस्मृति होने से , उनको भूल जाने से निद्रावस्था में पदार्थों का वियोग हो जाता है तो उस वियोग के कारण स्वाभाविक सुख का आभास होता है। इसी को निद्रा का सुख कहते हैं परन्तु बुद्धि की मलिनता से वह स्वाभाविक सुख जैसा है वैसा अनुभव में नहीं आता। तात्पर्य है कि बुद्धि के तमोगुणी होने से बुद्धि में स्वच्छता नहीं रहती और स्वच्छता न रहने से वह सुख स्पष्ट अनुभव में नहीं आता। इसलिये निद्रा के सुख को तामस कहा गया है । सात्त्विक मनुष्य को संसार से विमुख होकर तत्त्व में बुद्धि के तल्लीन होने से सुख होता है । राजस मनुष्य को राग के कारण अन्तःकरण में बसी हुई वस्तु के बाहर निकलने से सुख होता है और तामस मनुष्य को वस्तुओं के लिये किये जाने वाले कर्तव्यकर्मों की विस्मृति से और निरर्थक क्रियाओं में लगने से सुख होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो नित्य-निरन्तर रहने वाला सुखरूप तत्त्व है वह असत के सम्बन्ध से आच्छादित रहता है या ढका रहता है । विवेकपूर्वक असत् से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर , राग वाली वस्तुओं के मन से निकल जानेपर और बुद्धि के तमोगुण में लीन हो जाने पर जो सुख होता है वह उसी सुख का आभास है। तात्पर्य यह हुआ कि संसार से विवेकपूर्वक विमुख होने पर सात्त्विक सुख, भीतर से वस्तुओं के निकलने पर राजस सुख और मूढ़ता से निद्रा और आलस्य में संसार को भूलने पर तामस सुख होता है परन्तु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद से ही होता है। इन सुखों में जो प्रेम , आकर्षण और सुख का भोग है वही पारमार्थिक उन्नति में बाधा देने वाला और पतन करने वाला है। इसलिये पारमार्थिक उन्नति चाहने वाले साधकों को इन तीनों सुखों से सम्बन्ध-विच्छेद करना अत्यन्त आवश्यक है। — स्वामी रामसुख दास जी )

 

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः।।18.40।।

 

न-नहीं; तत्-वह; अस्ति – है; पृथिव्यां – पृथ्वी पर; वा-या; दिवि-स्वर्ग के उच्च लोक; देवेषु-स्वर्ग के देवताओं में; वा-या ; पुनः-फिर; सत्वम-अस्तित्त्व; प्रकृति-जे-प्रकृति से उत्पन्न; मुक्तम-मुक्त होना; यत्-जो; एभि – इनके प्रभाव से; स्यात-है; त्रिभिः-तीन; गुणैः-प्रकृति के गुण।

 

पृथ्वी पर या स्वर्ग के उच्च लोकों में रहने वाला कोई भी जीव अथवा स्वर्ग के देवताओं में तथा इनके अतिरिक्त और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो या इन तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो ।

(इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन के द्वारा संन्यास और त्याग का तत्त्व पूछने पर भगवान ने पहले त्याग अथवा कर्मयोग का वर्णन किया। तत्पश्चात उन्होंने कहा कि जो त्यागी नहीं हैं उनको अनिष्ट, इष्ट और मिश्र इन तीन प्रकार के कर्मों का फल मिलता है और जो संन्यासी हैं उनको इस प्रकार का फल कभी नहीं मिलता। फिर तेरहवें श्लोक से संन्यास -सांख्य योग के विषय में बता कर पहले कर्मों के होने में अधिष्ठान आदि पाँच कारण बताये। सोलहवें और सत्रहवें श्लोकों में कर्तृत्व मानने वालों की निन्दा और कर्तृत्व का त्याग करने वालों की प्रशंसा की। अठारहवें श्लोक में कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह का वर्णन किया परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है वह न कर्मप्रेरक है और न कर्मसंग्राहक। कर्मप्रेरणा और कर्मसंग्रह तो प्रकृति के गुणों के साथ सम्बन्ध रखने से ही होते हैं। फिर गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म , कर्ता , बुद्धि , धृति और सुख के तीन – तीन भेदों का वर्णन किया। सुख के विषय में बताया कि प्रकृति के साथ थोड़ा बहुत सम्बन्ध रखते हुए जो ऊँचे से ऊंचा सुख होता है वह सात्त्विक होता है परंतु जो उस शुद्ध स्वरूप का वास्तविक सुख है वह गुणातीत है, विलक्षण है , अलौकिक है। सात्त्विक सुख को भगवन ने जन्य अर्थात उत्पन्न होने वाला बताया। जन्य वस्तु नित्य नहीं होती अर्थात उत्पन्न होने वाली या जन्म लेने वाली वस्तुएं सदा के लिए नहीं होतीं अपितु कुछ समय पश्चात् नष्ट होने वाली ही होती हैं । इसलिये उस जन्य सुख से भी ऊपर उठना है अर्थात् प्रकृति और प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमात्म तत्त्व को प्राप्त करना है जो कि सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। इसलिये कहते हैं मृत्युलोक और पृथ्वी के नीचे के अतल , वितल आदि सभी लोक , स्वर्ग आदि लोक , अनन्त ब्रह्माण्ड और उन-उन स्थानों में रहने वाले मनुष्य, देवता, असुर, राक्षस , नाग , पशु , पक्षी , कीट, पतंग , वृक्ष आदि सभी चर-अचर प्राणियों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो प्रकृति के इन तीन गुणों से रहित हो अर्थात त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्ड तथा उनमें रहने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से मुक्त हो अर्थात् सब के सब त्रिगुणात्मक हैं । प्रकृति और प्रकृति का कार्य – यह सबका सब ही त्रिगुणात्मक और परिवर्तनशील है। इनसे सम्बन्ध जोड़ने से ही बन्धन होता है और इनसे सम्बन्ध-विच्छेद करने से ही मुक्ति होती है क्योंकि स्वरूप असङ्ग है, स्वतन्त्र है। मुक्त है । स्वरूप स्व है अर्थात अपना है और प्रकृति पर है अर्थात दूसरी या पराई है । प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है । प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार पैदा हो जाता है जो कि पराधीनता को पैदा करने वाला है। यह एक विचित्र बात है कि अहंकार में स्वाधीनता या स्वतंत्रता महसूस होती है पर वो है वास्तवमें पराधीनता या बंधन । कारण कि अहंकार से प्रकृतिजन्य पदार्थों में आसक्ति, कामना आदि पैदा हो जाती है जिससे पराधीनता में भी स्वाधीनता दिखने लग जाती है। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणों से रहित होना आवश्यक है। प्रकृतिजन्य गुणों में रजोगुण और तमोगुण का त्याग करके सत्त्वगुण बढ़ाने की आवश्यकता है। सत्त्वगुण में भी प्रसन्नता और विवेक तो आवश्यक है परन्तु सात्त्विक सुख और ज्ञान की आसक्ति नहीं होनी चाहिये क्योंकि सुख और ज्ञान की आसक्ति बाँधने वाली है। इसलिये इनकी आसक्ति का त्याग करके सत्त्वगुण से ऊँचा उठें । इससे ऊँचा उठने के लिये ही यहाँ गुणों का व्याख्यान  आया है। साधक को तो सात्त्विक ज्ञान , कर्म? ,कर्ता , बुद्धि , धृति और सुख – इन पर ध्यान देकर इनके अनुरूप अपना जीवन बनाना चाहिये और सावधानी से राजस तथा तामस का त्याग करना चाहिये। इनका त्याग करने में सावधानी ही साधन है। सावधानी से सब साधन स्वतः प्रकट होते हैं। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद करने में सात्त्विकता बहुत आवश्यक है। कारण कि इसमें प्रकाश अर्थात् विवेक जाग्रत् रहता है जिससे प्रकृति से मुक्त होने में बड़ी सहायता मिलती है। वास्तव में तो इससे भी असङ्ग होना है। सम्बन्ध त्याग के प्रकरण में भगवान ने यह बताया कि नियत कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है। उनका मूढ़तापूर्वक त्याग करने से वह त्याग तामस हो जाता है। शारीरिक क्लेश के भय से नियत कर्मों का त्याग करने से वह त्याग राजस हो जाता है और फल एवं आसक्ति का त्याग करके नियत कर्मों को करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है । सांख्ययोग की दृष्टि से सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच कारण होते हैं । नियत कर्म को कर्त्तव्य के अभिमान से रहित , राग-द्वेष से रहित और फल की इच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले कर्म सात्विक कर्म हैं । उन कर्मों में किस वर्ण के लिये कौन से कर्म नियत कर्म हैं और उन नियत कर्मों को कैसे किया जाय ये बताने के लिये और साथ ही भक्तियोग की बात बताने के लिये भगवान् आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।–स्वामी रामसुख दास जी )

 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।

 

ब्राह्मण-पुरोहित वर्गः क्षत्रिय – युद्ध और शासन करने वाला वर्ग; विशां- व्यापार और कषि करने वाला वर्ग; शूद्राणाम्-श्रमिक वर्ग; च-और; परन्तप-शत्रुओं का विजेता, अर्जुन; कर्माणि-कर्त्तव्य; प्रविभक्तानि-विभाजित; स्वभावप्रभवैर्गुणैः (स्वभाव-प्रभवैः-गुणैः ) – किसी के स्वभाव और गुणों पर आधारित कर्म।

 

हे परन्तप ! ब्राह्मणों, श्रत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के कर्तव्यों अथवा कर्मों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप विभक्त किया गया है, न कि इनके जन्म के अनुसार।

(यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – इन तीनोंके लिये एक पद और शूद्रों के लिये अलग एक पद देने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये द्विजाति हैं और शूद्र द्विजाति नहीं है। इसलिये इनके कर्मों का विभाग अलग-अलग है और कर्मों के अनुसार शास्त्रीय अधिकार भी अलग-अलग हैं। मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है उसके अन्तःकरण में उस कर्म के संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारों के अनुसार उसका स्वभाव बनता है। इस प्रकार पहले के अनेक जन्मों में किये हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है उसी के अनुसार उसमें सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती है। इन गुणवृत्तियों के तारतम्य के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है कारण कि मनुष्य में जैसी गुणवृत्तियाँ होती हैं वैसा ही वह कर्म करता है। कर्म दो तरह के होते हैं -जन्मारम्भक कर्म और भोगदायक कर्म। जिन कर्मों से ऊँच-नीच योनियों में जन्म होता है वे जन्मारम्भक कर्म कहलाते हैं और जिन कर्मों से सुख-दुःख का भोग होता है वे भोगदायक कर्म कहलाते हैं। भोगदायक कर्म अनुकूल – प्रतिकूल परिस्थिति को पैदा करते हैं जिसको गीता में अनिष्ट , इष्ट और मिश्र नाम से कहा गया है । कर्म भोगदायक होते हैं अर्थात् जन्मारम्भक कर्मों से भी भोग होता है और भोगदायक कर्मों से भी भोग होता है। जैसे जिसका उत्तम कुल में जन्म होता है उसका आदर होता है, सत्कार होता है और जिसका नीच कुल में जन्म होता है उसका निरादर होता है, तिरस्कार होता है। ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति वाले का आदर होता है और प्रतिकूल परिस्थिति वाले का निरादर होता है अर्थात आदर और निरादर रूप से भोग तो जन्मारम्भक और भोगदायक दोनों कर्मों का होता है परन्तु जन्मारम्भक कर्मों से जो जन्म होता है उसमें आदर-निरादर रूप भोग गौण या निम्न  होता है क्योंकि आदर-निरादर कभी-कभी हुआ करते हैं, हर समय नहीं हुआ करते और भोगदायक कर्मों से जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है उसमें परिस्थिति का भोग मुख्य होता है क्योंकि परिस्थिति हर समय आती रहती है।भोगदायक कर्मों का सदुपयोग-दुरुपयोग करने में मनुष्यमात्र स्वतन्त्र है अर्थात् वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी भी हो सकता है और उसको साधन सामग्री भी बना सकता है। जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी होते हैं , वे मूर्ख होते हैं और जो उसको साधन सामग्री बनाते हैं वे बुद्धिमान् साधक होते हैं। कारण कि मनुष्य जन्म परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही मिला है अतः इसमें जो भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब साधन-सामग्री ही है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को साधन सामग्री बनाना क्या है । अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो उसको दूसरों की सेवा में , दूसरों के सुख – आराम में लगा दे और प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुख की इच्छा का त्याग कर दे। दूसरों की सेवा करना और सुख की इच्छा का त्याग करना – ये दोनों साधन हैं। शास्त्रों में वर्णन है कि पुण्यों की अधिकता होने से जीव स्वर्ग में जाता है और पापों की अधिकता होने से नरकों में जाता है तथा पुण्य-पाप समान होने से मनुष्य बनता है। इस दृष्टि से किसी भी वर्ण ,आश्रम , देश , वेश आदि का कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं हो सकता। पुण्य-पाप समान होने पर जो मनुष्य बनता है उसमें भी अगर देखा जाय तो पुण्य-पापों का तारतम्य रहता है अर्थात् किसी के पुण्य अधिक होते हैं और किसी के पाप अधिक होते हैं । ऐसे ही गुणों का विभाग भी है। कुल मिलाकर सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ऊर्ध्वलोक में जाते हैं , रजोगुण की प्रधानता वाले मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक में आते हैं और तमोगुण की प्रधानता वाले अधोगति में जाते हैं । इन तीनों में भी गुणों के तारतम्य से अनेक तरह के भेद होते हैं। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण , रजोगुण की प्रधानता और सत्त्वगुण की गौणता से क्षत्रिय , रजोगुण की प्रधानता और तमोगुण की गौणता से वैश्य तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र होता है। रजोगुणप्रधान मनुष्यों में सत्त्वगुण की प्रधानता वाले ब्राह्मण हुए। इन ब्राह्मणों में भी जन्म के भेद से ऊँच-नीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थिति रूप से कर्मों का फल भी कई तरह का आता है अर्थात् सब ब्राह्मणों की एक समान अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति नहीं आती। इस दृष्टि से ब्राह्मण योनि में भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे। ऐसे ही क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र भी जन्म से ऊँच-नीच माने जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी कई तरह की आती है। इसलिये गीता में कहा गया है कि तीनों लोकों में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो तीनों गुणोंसे रहित हो । जो मनुष्येतर योनि वाले पशु-पक्षी आदि हैं उनमें भी ऊँच-नीच माने जाते हैं जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता, गधा, सूअर आदि नीच माने जाते हैं। कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कौआ , चील आदि नीच माने जाते हैं। इन सबको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भी एक समान नहीं मिलती। ऊर्ध्वगति , मध्यगति और अधोगति वालों में भी कई तरह के जातिभेद और परिस्थिति भेद होते हैं।– स्वामी रामसुखदास जी )

 

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।

 

शमः-शान्ति; दमः-संयम; तपः-तपस्या; शौचम्-पवित्रता; क्षान्तिः-धैर्य; आर्जवम्-सत्यनिष्ठा; एव-निश्चय ही; च-और; ज्ञानम्-ज्ञान, विज्ञानम्-विवेक; अस्तिक्यम्-परलोक में विश्वास; ब्रह्म-ब्राह्मण, पुरोहित वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न।

 

मनका निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना – ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं अर्थात शान्ति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तप, शौच तथा परलोक में विश्वास- ये सब ब्राह्मणों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं और स्वाभाविक कर्म हैं।

( मन को जहाँ लगाना चाहें वहाँ लग जाय और जहाँ से हटाना चाहें वहाँ से हट जाय – इस प्रकार मन के निग्रह को शम कहते हैं। जिस इन्द्रिय से जब जो काम करना चाहें तब वह काम कर लें और जिस इन्द्रिय को जब जहाँ से हटाना चाहें तब वहाँ से हटा लें इस प्रकार इन्द्रियों को वश में करना दम है। गीता में शरीर, वाणी और मन के तप का वर्णन आता है । उस तप को लेते हुए भी यहाँ वास्तव में तप का अर्थ है अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट हो अथवा कष्ट आ जाय उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना अर्थात् कष्ट के आने पर चित्त में प्रसन्नता का होना। अपने मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर आदि को पवित्र रखना तथा अपने खान-पान, व्यवहार आदि की पवित्रता रखना  इस प्रकार शौचाचार-सदाचार का ठीक पालन करने का नाम शौच है। कोई कितना ही अपमान करे, निन्दा करे, दुःख दे और अपने में उसको दण्ड देने की योग्यता, बल और अधिकार भी हो फिर भी उसको दण्ड न देकर उसके क्षमा माँगे बिना ही उसको प्रसन्नतापूर्वक क्षमा कर देने का नाम क्षान्ति है। शरीर, वाणी आदि के व्यवहार में सरलता हो और मन में छल, कपट, छिपाव आदि दुर्भाव न हों अर्थात् सीधा-सादापन हो उसका नाम आर्जव है। वेद , शास्त्र , पुराण , इतिहास आदि का अच्छी तरह अध्ययन होना और उनके भावों का ठीक तरह से बोध होना तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होना ज्ञान है। यज्ञ में स्रुक् , स्रुवा आदि वस्तुओं का किस अवसर पर किस विधि से प्रयोग करना चाहिये अर्थात् यज्ञ विधि का तथा अनुष्ठान आदि की विधि का अनुभव कर लेने का नाम विज्ञान है। परमात्मा, वेदादि शास्त्र, परलोक आदि का हृदय में आदर हो, श्रद्धा हो और उनकी सत्यता में कभी सन्देह न हो तथा उनके अनुसार अपना आचरण हो इसका नाम आस्तिक्य है। ये शम, दम आदि ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म या गुण हैं अर्थात् इन कर्मों या गुणों को धारण करने में ब्राह्मण को परिश्रम नहीं पड़ता। जिन ब्राह्मणों में सत्त्वगुण की प्रधानता है, जिनकी वंश परम्परा परम शुद्ध है और जिनके पूर्वजन्मकृत कर्म भी शुद्ध हैं ऐसे ब्राह्मणों के लिये ही शम, दम आदि गुण स्वाभाविक होते हैं और उनमें किसी गुण के न होने पर अथवा किसी गुण में कमी होने पर भी उसकी पूर्ति करना उन ब्राह्मणों के लिये सहज होता है। चारों वर्णों की रचना गुणों के तारतम्य से की गयी है। इसलिये गुणों के अनुसार उस – उस वर्ण में वे – वे कर्म स्वाभाविक प्रकट हो जाते हैं और दूसरे कर्म गौण हो जाते हैं। जैसे ब्राह्मण में सत्त्वगुण की प्रधानता होने से उसमें शम, दम आदि कर्म या गुण स्वाभाविक आते हैं तथा जीविका के कर्म गौण हो जाते हैं और दूसरे वर्णों में रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता होने से उन वर्णों के जीविका के कर्म भी स्वाभाविक कर्मों में सम्मिलित हो जाते हैं। इसी दृष्टि से गीता में ब्राह्मण के स्वभावज कर्मों में जीविका के कर्म न कह करके शम, दम आदि कर्म या गुण ही कहे गये हैं। जो लोग शास्त्र के गहरे रहस्य को नहीं जानते वे कह देते हैं कि ब्राह्मणों के हाथ में कलम रही इसलिये उन्होंने ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है ऐसा लिखकर ब्राह्मणों को सर्वोच्च कह दिया। जिनके पास राज्य था उन्होंने ब्राह्मणों से कहा क्यों महाराज हम लोग कुछ नहीं हैं क्या तो ब्राह्मणों ने कह दिया नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं। आप लोग भी हैं । आप लोग दो नम्बर में हैं। वैश्यों ने ब्राह्मणों से कहा क्यों महाराज हमारे बिना कैसे जीविका चलेगी आपकी ब्राह्मणों ने कहा – हाँ ! हाँ ! आप लोग तीसरे नम्बर में हैं। जिनके पास न राज्य था , न धन था , वे ऊँचे उठने लगे तो ब्राह्मणों ने कह दिया  आपके भाग्य में राज्य और धन लिखा नहीं है। आप लोग तो इन ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा करो। इसलिये चौथे नम्बर में आप लोग हैं। इस तरह सबको भुलावे में डालकर विद्या , राज्य और धन के प्रभाव से अपनी एकता करके चौथे वर्ण को पद दलित कर दिया । यह लिखने वालों का अपना स्वार्थ और अभिमान ही है। इसका समाधान यह है कि ब्राह्मणों ने कहीं भी अपने ब्राह्मण धर्म के लिये ऐसा नहीं लिखा है कि ब्राह्मण सर्वोपरि हैं इसलिये उनको बड़े आराम से रहना चाहिये। धन-सम्पत्ति से युक्त होकर मौज करनी चाहिये इत्यादि बल्कि ब्राह्मणों के लिये ऐसा लिखा है कि उनको त्याग करना चाहिये , कष्ट सहना चाहिये , तपश्चर्या करनी चाहिये। गृहस्थ में रहते हुए भी उनको धनसंग्रह नहीं करना चाहिये , अन्न का संग्रह भी थोड़ा ही होना चाहिये , कुम्भी धान्य अर्थात् एक घड़ा भरा हुआ अनाज हो , लौकिक भोगों में आसक्ति नहीं होनी चाहिये और जीवन निर्वाह के लिये किसी से दान भी लिया जाय तो उसका काम करके अर्थात् यज्ञ , होम , जप , पाठ आदि करके ही लेना चाहिये। गोदान आदि लिया जाय तो उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि कोई ब्राह्मण को श्राद्ध का निमन्त्रण देना चाहे तो वह श्राद्ध के पहले दिन दे जिससे ब्राह्मण उसके पितरों का अपने में आवाहन करके रात्रि में ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके। दूसरे दिन वह यजमान के पितरों का पिण्डदान , तर्पण ठीक विधि-विधानसे करवाये। उसके बाद वहाँ भोजन करे। निमन्त्रण भी एक ही यजमान का स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घर का करे। श्राद्ध का अन्न खाने के बाद गायत्री जप आदि करके शुद्ध होना चाहिये। दान लेना, श्राद्ध का भोजन करना ब्राह्मण के लिये ऊँचा दर्जा नहीं है। ब्राह्मण का ऊँचा दर्जा त्यागमें है। वे केवल यजमान के पितरों का कल्याण भावना से ही श्राद्ध का भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं स्वार्थ की भावना से नहीं अतः यह भी उनका त्याग ही है। ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये ऋत, अमृत ,मृत , सत्यानृत और प्रमृत -ये पाँच वृत्तियाँ बतायी हैं । ऋतवृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है। इसको शिलोञ्छ या कपोतवृत्ति भी कहते हैं। खेती करने वाले खेत में से धान काटकर ले जाएं उसके बाद वहाँ जो अन्न (ऊमी? सिट्टा आदि) पृथ्वी पर गिरा पड़ा हो वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है अतः उनको चुनकर अपना निर्वाह करना शिलोञ्छवृत्ति है अथवा धान्यमण्डीमें जहाँ धान्य तौला जाता है वहाँ पृथ्वी पर गिरे हुए दाने भूदेवों के होते हैं अतः उनको चुनकर जीवन निर्वाह करना कपोतवृत्ति है। बिना याचना किये और बिना इशारा किये कोई यजमान आकर देता है तो निर्वाह मात्र की वस्तु लेना अमृतवृत्ति है। इसको अयाचितवृत्ति भी कहते हैं। सुबह भिक्षा के लिये गाँव में जाना और लोगों को वार , तिथि , मुहूर्त आदि बताकर भिक्षा में जो कुछ मिल जाय उसी से अपना जीवन निर्वाह करना मृतवृत्ति है। व्यापार करके जीवन निर्वाह करना सत्यानृतवृत्ति है। उपर्युक्त चारों वृत्तियों से जीवन निर्वाह न हो तो खेती करे पर वह भी कठोर विधि-विधान से करे जैसे एक बैल से हल न चलाये धूप के समय हल न चलाये आदि यह प्रमृतवृत्ति है। उपर्युक्त वृत्तियों में से किसी भी वृत्ति से निर्वाह किया जाय, उसमें पञ्चमहायज्ञ , अतिथि सेवा करके यज्ञ शेष भोजन करना चाहिये । श्रीमद्भगवद्गीता पर विचार करते हैं तो ब्राह्मण के लिये पालनीय जो नौ स्वाभाविक धर्म बताये गये हैं उनमें जीविका पैदा करने वाला एक भी धर्म नहीं है। क्षत्रिय के लिये सात स्वाभाविक धर्म बताये हैं। उनमें युद्ध करना और शासन करना ये दो धर्म कुछ जीविका पैदा करनेवाले हैं। वैश्य के लिये तीन धर्म बताये हैं – खेती , गोरक्षा और व्यापार ये तीनों ही जीविका पैदा करनेवाले हैं। शूद्र के लिये एक सेवा ही धर्म बताया है जिसमें पैदा ही पैदा होती है। शूद्र के लिये खानपान , जीवन निर्वाह आदिमें भी बहुत छूट दी गयी है। शम , दम आदि नौ धर्मों के पालन से ब्राह्मण का जो कल्याण होता है वही कल्याण शौर्य, तेज आदि सात धर्मों के पालन से क्षत्रिय का होता है वही कल्याण खेती, गोरक्षा और व्यापार के पालन से वैश्य होता है और वही कल्याण केवल सेवा करने से शूद्र का हो जाता है। आगे भगवान ने एक विलक्षण बात बतायी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने वर्णोचित कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन करके परम सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं । वास्तव में कल्याण वर्णोचित कर्मों से नहीं होता बल्कि निष्काम भावपूर्वक पूजन से ही होता है। शूद्र का तो स्वाभाविक कर्म ही परिचर्यात्मक अर्थात् पूजनरूप है अतः उसका पूजन के द्वारा पूजन होता है अर्थात् उसके द्वारा दुगुनी पूजा होती है इसलिये उसका कल्याण जितनी जल्दी होगा उतनी जल्दी ब्राह्मण आदि का नहीं होगा।यहाँ एक और बात सोचने की है कि जो अपने स्वार्थ का काम करता है वह समाज में और संसार में आदर का पात्र नहीं होता। समाज में ही नहीं घर में भी जो व्यक्ति पेटू और चट्टू होता है उसकी दूसरे निन्दा करते हैं। ब्राह्मणों ने स्वार्थ दृष्टिसे अपने ही मुँह से अपनी (ब्राह्मणोंकी) प्रशंसा, श्रेष्ठता की बात नहीं कही है। उन्होंने ब्राह्मणों के लिये त्याग ही बताया है। सात्त्विक मनुष्य अपनी प्रशंसा नहीं करते बल्कि दूसरों की प्रशंसा, दूसरोंका आदर करते हैं। तात्पर्य है कि ब्राह्मणों ने कभी अपने स्वार्थ और अभिमान की बात नहीं कही। यदि वे स्वार्थ और अभिमान की बात कहते तो वे इतने आदरणीय नहीं होते ,संसार में और शास्त्रों में आदर न पाते। वे जो आदर पाते हैं , वह त्याग से ही पाते हैं। इस प्रकार मनुष्य को शास्त्रों का गहरा अध्ययन करके उपर्युक्त सभी बातों को समझना चाहिये और ऋषि-मुनियों पर शास्त्रकारों पर झूठा आक्षेप नहीं करना चाहिये। — स्वामी रामसुख दास जी )

 

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।

 

शौयम्-शौर्य; तेजः-शक्ति; धृतिः-धैर्य; दाक्ष्यम् युद्धे-रण कौशल; च -और; अपि-भी; अपलायनम्-विमुख न होना; दानम्-उदार हृदय; ईश्वर-नेतृत्व; भावः-गुणः च-और; क्षात्रम् – योद्धा और शासक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-स्वभाव से उत्पन्न गुण।

 

शूरवीरता , शौर्य, शक्ति, तेज , धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प अथवा युद्धमें कभी पीठ न दिखाना, दान देने में उदारता, नेतृत्व क्षमता, दक्षता, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता-ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण या कर्म हैं।

( मन में अपने धर्म का पालन करने की तत्परता हो , धर्ममय युद्ध प्राप्त होने पर , युद्ध में चोट लगने, अङ्ग कट जाने, मर जाने आदि का जरा भी भय न हो, घाव होने पर भी मन में प्रसन्नता और उत्साह बना रहे तथा सिर कटने पर भी पहले जैसे ही अस्त्र-शस्त्र चलाता रहे इसका नाम शौर्य है। जिस प्रभाव या शक्ति के सामने पापी और दुराचारी मनुष्य भी पाप और दुराचार करने में हिचकते हैं , जिसके सामने लोगों की मर्यादा विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं होती अर्थात् लोग स्वाभाविक ही मर्यादा में चलते हैं उसका नाम तेज है। विपरीत से विपरीत अवस्था में भी अपने धर्म से विचलित न होने और शत्रुओं के द्वारा धर्म तथा नीति से विरुद्ध अनुचित व्यवहार से सताये जाने पर भी धर्म तथा नीति विरुद्ध कार्य न करके धैर्यपूर्वक उसी मर्यादा में चलने का नाम धृति है। प्रजा पर शासन करने की , प्रजा को यथायोग्य व्यवस्थित रखने की और उसका संचालन करने की विशेष योग्यता और चतुराई का नाम दाक्ष्य है। युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, मन में कभी हार स्वीकार न करना, युद्ध छोड़कर कभी न भागना यह युद्ध में अपलायन है। क्षत्रिय लोग दान करते हैं तो देने में कमी नहीं रखते,  बड़ी उदारतापूर्वक देते हैं। वर्तमान में दान-पुण्य करने का स्वभाव वैश्यों में देखने में आता है परन्तु वैश्य लोग देने में कसाकसी करते हैं अर्थात् इतने से ही काम चल जाय तो अधिक क्यों दिया जाय ऐसा धन का लोभ उनमें रहता है। द्रव्य या धन का लोभ रहने से धर्म का पालन करने में बाधा आ जाती है, कमी आ जाती है। जिससे सात्त्विक दान देने में कठिनता पड़ती है परन्तु क्षत्रियों में दानवीरता होती है। इसलिये यहाँ दान शब्द क्षत्रियों के स्वभाव में आया है। क्षत्रियों में स्वाभाविक ही शासन करने की प्रवृत्ति होती है। लोगों के नीति, धर्म और मर्यादा – विरुद्ध आचरण देखने पर उनके मन में स्वाभाविक ही ऐसी बात आती है कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहें हैं और उनको नीति तथा धर्म के अनुसार चलाने की इच्छा होती है। अपने शासन द्वारा सबको अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार चलाने का भाव रहता है। इस ईश्वरभाव में अभिमान नहीं होता क्योंकि क्षत्रिय जाति में नम्रता, सरलता आदि गुण देखने में आते हैं। जो मात्र प्रजा की दुःखों से रक्षा करे उसका नाम क्षत्रिय है । उस क्षत्रिय के जो स्वाभाविक कर्म हैं वे क्षात्रकर्म कहलाते हैं।– स्वामी रामसुखदास जी )

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।18.44।।

 

कृषि-खेतीबाडी; गौरक्ष्य-गोपालन और दुग्ध उत्पादन; वाणिज्यम्-व्यापार; वैश्य-व्यापारी और कृषक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण; परिचर्या- सेवा ; आत्मकम्-स्वाभाविक; कर्म-कर्त्तव्य; शूद्रस्य-कर्मचारी वर्ग; अपि-भी; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण;।

 

कृषि या खेती – बाड़ी , गोपालन अथवा गायों की रक्षा करना , दुग्ध उत्पादन तथा वाणिज्य या शुद्ध व्यापार करना – ये सब वैश्यों के या वैश्य गुणों से संपन्न लोगों के स्वाभाविक कार्य या कर्म हैं या जन्म से ही उनमें अन्तर्निहित गुण हैं वहीं शूद्र अथवा शूद्रता के गुणों से युक्त लोगो का स्वाभाविक कर्म या जन्मजात गुण हैं – परिश्रम पूर्वक चारों वर्णों की सेवा सुश्रुषा करना 

( खेती करना, गायों की रक्षा करना, उनकी वंशवृद्धि करना और शुद्ध व्यापार करना – ये कर्म वैश्य में स्वाभाविक होते हैं। शुद्ध व्यापार करने का तात्पर्य है कि जिस देश में , जिस समय , जिस वस्तु की आवश्यकता हो लोगों के हित की भावना से उस वस्तु को जहाँ वह मिलती हो वहाँ से ला कर के उसी देश में पहुँचाना । प्रजा की आवश्यक वस्तुओं के अभाव की पूर्ति कैसे हो? वस्तुओं के अभाव में कोई कष्ट न पाये । इस भाव से सच्चाई के साथ वस्तुओं का वितरण करना । मनुस्मृति में पशुओं की रक्षा करने को वैश्यवृत्ति कहा है पर यहाँ भगवान वैश्य जाति से मानो यह कहते हैं कि तुम लोग सब पशुओं का पालन, उनकी रक्षा न कर सको तो कम से कम गायों का पालन और उनकी रक्षा जरूर करना। गायों की वृद्धि न कर सको तो कोई बात नहीं परन्तु उनकी रक्षा जरूर करना जिससे हमारा गोधन घट न जाय। इसलिये वैश्य समाज को चाहिये कि वह गायों की रक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दे। उनकी रक्षा करने में अपनी शक्ति बचाकर न रखे। मनुष्यों के लिये गाय सभी दृष्टि से पालनीय और पूजनीय है। गाय से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है। आज के अर्थ प्रधान युग में तो गाय अत्यन्त ही उपयोगी है। गोपालन से, गाय के दूध , घी , गोबर आदि से धन की वृद्धि होती है। इसी प्रकार शूद्र का स्वाभाविक कर्म है – चारों वर्णों की सेवा करना , सेवा की सामग्री तैयार करना और चारों वर्णों के कार्यों में कोई बाधा – अड़चन न आये, सबको सुख और आराम हो इस भाव से अपनी बुद्धि , योग्यता और बल के द्वारा सब की सेवा करना । यहाँ एक शङ्का पैदा होती है कि भगवान ने चारों वर्णों की उत्पत्ति में सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को कारण बताया। उसमें तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति बतायी और गीता में जहाँ तमोगुण का वर्णन हुआ है वहाँ पर उसके अज्ञान , प्रमाद , आलस्य , निद्रा , अप्रकाश , अप्रवृत्ति और मोह ये सात अवगुण बताये हैं । अतः ऐसे तमोगुण की प्रधानता वाले शूद्र से सेवा कैसे होगी क्योंकि वह आलस्य , प्रमाद आदि में पड़ा रहेगा तो सेवा कैसे कर सकेगा क्योंकि सेवा बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है। ऐसे ऊँचे कर्म का भगवान ने शूद्र के लिये कैसे विधान किया । यदि इस शङ्का पर गुणों की दृष्टि से विचार किया जाय तो गीता में आया है कि सत्त्वगुण वाले ऊँचे लोकों में जाते हैं , रजोगुण वाले मरकर मध्यलोक अर्थात् मृत्युलोक में जाते हैं और तमोगुण वाले अधोगति में जाते हैं । इसमें भी वास्तव में न देखा जाय तो रजोगुण के बढ़ने पर जो मरता है वह कर्मप्रधान मनुष्य योनि में जन्म लेता है । मनुष्य रजोगुण की प्रधानता वाला है। रजःप्रधान वालों में जो सात्त्विक, राजस और तामस तीन गुण होते हैं उन तीनों गुणों से ही चारों वर्णों की रचना की गयी है। इसलिये कर्म करना सबमें मुख्य होता है और इसी को लेकर मनुष्यों को कर्मयोनि कहा गया है तथा गीता में भी चारों वर्णों के कर्मों के लिये स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म आदि पद आये हैं। अतः शूद्र का परिचर्या अर्थात् सेवा करना स्वभावज कर्म है जिसमें उसे परिश्रम नहीं होता। मनुष्य मात्र कर्म योनि होने पर भी ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य में विवेक विचार का विशेष तारतम्य रहता है और शुद्धि भी रहती है परन्तु शूद्र में मोह की प्रधानता रहने से उसमें विवेक बहुत दब जाता है। इस दृष्टि से शूद्र के सेवा कर्म में विवेक की प्रधानता न होकर आज्ञापालन की प्रधानता रहती है इसलिये चारों वर्णों की आज्ञा के अनुसार सेवा करना , सुख-सुविधा जुटा देना शूद्र के लिये स्वाभाविक होता है। शूद्रों के कर्म परिचर्यात्मक अर्थात् सेवास्वरूप होते हैं। उनके शारीरिक , सामाजिक आदि सब कर्म ठीक तरह से सम्पन्न होते हैं जिनसे चारों ही वर्णों के जीवन निर्वाह के लिये सुख-सुविधा , अनुकूलता और आवश्यकता की पूर्ति होती है। स्वाभाविक कर्मों का तात्पर्य चेतन जीवात्मा और जड प्रकृति दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। चेतन स्वाभाविक रूप से ही निर्विकार अर्थात् परिवर्तनरहित है और प्रकृति स्वाभाविक रूप से ही विकारी अर्थात् परिवर्तनशील है। अतः इन दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने से इनका सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं है किंतु चेतन ने प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मानकर उस सम्बन्ध की सद्भावना कर ली है अर्थात् सम्बन्ध है ऐसा मान लिया है। इसी को गुणों का सङ्ग कहते हैं जो जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है । इस सङ्ग के कारण गुणों के तारतम्य से जीव का ब्राह्मण आदि वर्ण में जन्म होता है। गुणों के तारतम्य से जिस वर्ण में जन्म होता है उन गुणों के अनुसार ही उस वर्ण के कर्म स्वाभाविक रूप से सहज होते हैं जैसे ब्राह्मण के लिये शम – दम आदि , क्षत्रिय के लिये शौर्य – तेज आदि , वैश्य के लिये खेती – गौरक्षा आदि और शूद्र के लिये सेवा – ये कर्म स्वतः ही स्वाभाविक होते हैं। तात्पर्य है कि चारों वर्णों को इन कर्मों को करने में परिश्रम नहीं होता क्योंकि गुणों के अनुसार स्वभाव और स्वभाव के अनुसार उनके लिये कर्मों का विधान है। इसलिये इन कर्मों में उनकी स्वाभाविक ही रुचि होती है। मनुष्य इन स्वाभाविक कर्मों को जब अपने लिये अर्थात् अपने स्वार्थ , भोग और आराम के लिये करता है तब वह उन कर्मों से बँध जाता है। जब उन्हीं कर्मों को स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके निष्काम भाव से संसार के हित के लिये करता है तब कर्मयोग हो जाता है और उन्हीं कर्मों से सब संसार में व्यापक परमात्मा का पूजन करता है अथवा भगवत्परायण होकर केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म ( जप, ध्यान, सत्सङ्ग ,स्वाध्याय आदि ) करता है तब वह भक्तियोग हो जाता है। फिर प्रकृति के गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर केवल एक परमात्म तत्त्व ही रह जाता है जिसमें सिद्ध महापुरुष के स्वरूप की स्वतः सिद्ध स्वतन्त्रता, अखण्डता, निर्विकारता की अनुभूति रह जाती है। ऐसा होने पर भी उसके शरीर, मन , बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा अपने-अपने वर्ण – आश्रम की मर्यादा के अनुसार निर्लिप्तता पूर्वक शास्त्रविहित कर्म स्वाभाविक होते हैं जो कि संसार मात्र के लिये आदर्श होते हैं। प्रभु की तरफ आकृष्ट होने से प्रतिक्षण प्रेम बढ़ता रहता है जो अनन्त आनन्दस्वरूप है। जाति जन्म से मानी जाय या कर्म से मानी जाए , ऊँच-नीच योनियों में जितने भी शरीर मिलते हैं वे सब गुण और कर्म के अनुसार ही मिलते हैं। गुण और कर्म के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है इसलिये मनुष्य की जाति जन्म से ही मानी जाती है। अतः स्थूल शरीर की दृष्टि से विवाह , भोजन आदि कर्म जन्म की प्रधानता से ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्ण के अनुसार ही भोजन, विवाह आदि कर्म होने चाहिये। दूसरी बात जिस प्राणी का सांसारिक भोग , धन , मान , आराम , सुख आदि का उद्देश्य रहता है उसके लिये वर्ण के अनुसार कर्तव्य कर्म करना और वर्ण की मर्यादा में चलना आवश्यक हो जाता है। यदि वह वर्ण की मर्यादा में नहीं चलता तो उसका पतन हो जाता है परन्तु जिसका उद्देश्य केवल परमात्मा ही है संसार के भोग आदि नहीं उसके लिये सत्सङ्ग, स्वाध्याय , जप , ध्यान , कथा , कीर्तन , परस्पर विचार – विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति में प्राणी के पारमार्थिक भाव , आचरण आदि की मुख्यता है  जाति या वर्ण की नहीं। तीसरी बात जिसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति का है वह भगवत्सम्बन्धी कार्यों को मुख्यता से करते हुए भी वर्ण आश्रम के अनुसार अपने कर्तव्य कर्मों को पूजन बुद्धि से केवल भगवन की प्रसन्नता के लिए ही करता है। जिससे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है उस परमात्मा का ही लक्ष्य रखकर , उसकी प्रसन्नता के लिए ही पूजा समझ कर अपने-अपने वर्ण के अनुसार कर्म किये जाएँ । इसमें मनुष्य मात्र का अधिकार है। देवता, असुर, पशु, पक्षी आदि का स्वतः अधिकार नहीं है परन्तु उनके लिये भी परमात्मा की तरफ से निषेध नहीं है। कारण कि सभी लोग परमात्मा का अंश होने से परमात्मा की प्राप्ति के अधिकारी हैं। प्राणिमात्र का भगवान पर पूरा अधिकार है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि आपस के व्यवहार में अर्थात् रोटी और शरीर आदि के साथ बर्ताव करने में तो जन्म की प्रधानता है और परमात्मा की प्राप्ति में भाव , विवेक और कर्म की प्रधानता है। जिस मनुष्य के वर्ण को बताने वाला जो लक्षण कहा गया है वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझ लेना चाहिये । अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण के शम-दम आदि जितने लक्षण हैं वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसी में हों तो जन्ममात्र से नीचा होने पर भी उसको नीचा नहीं मानना चाहिये। ऐसे ही महाभारत में युधिष्ठिर और नहुष के संवाद में आया है कि जो शूद्र आचरणों में श्रेष्ठ है उस शूद्र को शूद्र नहीं मानना चाहिये और जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित है उस ब्राह्मण को ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये अर्थात् वहाँ कर्मों की ही प्रधानता ली गयी है जन्म की नहीं। शास्त्रों में जो ऐसे वचन आते हैं उन सबका तात्पर्य है कि कोई भी नीच वर्ण वाला साधारण से साधारण मनुष्य अपनी पारमार्थिक उन्नति कर सकता है इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। इतना ही नहीं वह उसी वर्ण में रहता हुआ शम – दम आदि जो सामान्य धर्म हैं उनका साङ्गोपाङ्ग पालन करता हुआ अपनी श्रेष्ठता को प्रकट कर सकता है। जन्म तो पूर्वकर्मों के अनुसार हुआ है इसमें वह बेचारा क्या कर सकता है परन्तु वहीं नीच वर्ण में रहकर भी वह अपनी नयी उन्नति कर सकता है। उस नयी उन्नति में प्रोत्साहित करने के लिये ही शास्त्र वचनों का आशय मालूम देता है कि नीच वर्ण वाला भी नयी उन्नति करने में हिम्मत न हारे। जो ऊँचे वर्ण वाला होकर भी वर्णोचित काम नहीं करता उसको भी अपने वर्णोचित काम करने के लिये शास्त्रों में प्रोत्साहित किया है जैसे जिन ब्राह्मणों का खान-पान , आचरण पूरी तरह भ्रष्ट है उन ब्राह्मणों का वचन मात्र से भी आदर नहीं करना चाहिये ऐसा स्मृति में आया है परन्तु जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं जो भगवान के भक्त हैं उन ब्राह्मणों की भागवत आदि पुराणों में और महाभारत , रामायण आदि इतिहास ग्रन्थों में बहुत महिमा गायी गयी है। भगवान का भक्त चाहे कितनी ही नीची जाति का क्यों न हो वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मण से श्रेष्ठ है । ब्राह्मण को विराट रूप  भगवान का मुख , क्षत्रिय को हाथ , वैश्य को ऊरु (मध्यभाग) और शूद्र को पैर बताया गया है। ब्राह्मण को मुख बताने का तात्पर्य है कि उनके पास ज्ञान का संग्रह है इसलिये चारों वर्णों को पढ़ाना, अच्छी शिक्षा देना और उपदेश सुनाना – यह मुख का ही काम है। इस दृष्टि से ब्राह्मण ऊँचे माने गये। क्षत्रिय को हाथ बताने का तात्पर्य है कि वे चारों वर्णों की शत्रुओं से रक्षा करते हैं। रक्षा करना मुख्य रूप से हाथों का ही काम है जैसे – शरीर में फोड़ा-फुंसी आदि हो जाय तो हाथों से ही रक्षा की जाती है , शरीर पर चोट आती हो तो रक्षा के लिये हाथ ही आड़ देते हैं और अपनी रक्षा के लिये दूसरों पर हाथोंसे ही चोट पहुँचायी जाती है आदमी कहीं गिरता है तो पहले हाथ ही टिकते हैं। इसलिये क्षत्रिय हाथ हो गये। अराजकता फैल जानेपर तो जन, धन आदि की रक्षा करना चारों वर्णों का धर्म हो जाता है। वैश्य को मध्य भाग कहने का तात्पर्य है कि जैसे पेट में अन्न , जल , औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीर के सम्पूर्ण अवयवों को खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं ऐसे ही वस्तुओं का संग्रह करना, उनका यातायात करना , जहाँ जिस चीज की कमी हो वहाँ पहुँचाना , प्रजा को किसी चीज का अभाव न होने देना वैश्य का काम है। पेट में अन्न जल का संग्रह सब शरीर के लिये होता है और साथ में पेट को भी पुष्टि मिल जाती है क्योंकि मनुष्य केवल पेट के लिये पेट नहीं भरता। ऐसे ही वैश्य केवल दूसरों के लिये ही संग्रह करे , केवल अपने लिये नहीं। वह ब्राह्मण आदि को दान देता है, क्षत्रियों को टैक्स देता है , अपना पालन करता है और शूद्रों को मेहनताना देता है। इस प्रकार वह सबका पालन करता है। यदि वह संग्रह नहीं करेगा , कृषि , गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा ? शूद्र को चरण बताने का तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीर को उठाये फिरते हैं और पूरे शरीर की सेवा चरणों से ही होती है ऐसे ही सेवा के आधार पर ही चारों वर्ण चलते हैं। शूद्र अपने सेवा कर्म के द्वारा सबके आवश्यक कार्यों की पूर्ति करता है। उपर्युक्त विवेचन में एक ध्यान देने की बात है कि गीता में चारों वर्णों के उन स्वाभाविक कर्मों का वर्णन है , जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात् उनको करने में अधिक परिश्रम नहीं पड़ता। चारों वर्णों के लिये और भी दूसरे कर्म का विधान है उनको स्मृतिग्रन्थों में देखना चाहिये और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिये ।वर्तमान में चारों वर्णों में गड़बड़ी आ जाने पर भी यदि चारों वर्णों के समुदायों को इकट्ठा करके अलग-अलग समुदाय में देखा जाय तो ब्राह्मण समुदायमें शम, दम आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। क्षत्रिय समुदाय में शौर्य तेज आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने ब्राह्मण , वैश्य और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। वैश्य समुदाय में व्यापार करना धन का उपार्जन करना , धन को पचाना अर्थात  ऊपर से धन का पता न लगने देना आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे उतने ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र समुदाय में नहीं मिलेंगे। शूद्र समुदाय में सेवा करने की प्रवृत्ति जितनी अधिक मिलेगी उतनी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समुदाय में नहीं मिलेगी। तात्पर्य यह है कि आज सभी वर्ण मर्यादा रहित और उच्छृङ्खल होने पर भी उनके स्वभावज कर्म उनके समुदायों में विशेषता से देखने में आते हैं अर्थात् यह चीज व्यक्तिगत न दिख कर समुदायगत देखने में आती है। श्रीमद्भगवद्गीता पर विचार करते हैं तो ब्राह्मण के लिये पालनीय जो नौ स्वाभाविक धर्म बताये गये हैं उनमें जीविका पैदा करने वाला एक भी धर्म नहीं है। क्षत्रिय के लिये सात स्वाभाविक धर्म बताये हैं। उनमें युद्ध करना और शासन करना ये दो धर्म कुछ जीविका पैदा करनेवाले हैं। वैश्य के लिये तीन धर्म बताये हैं – खेती , गोरक्षा और व्यापार ये तीनों ही जीविका पैदा करनेवाले हैं। शूद्र के लिये एक सेवा ही धर्म बताया है जिसमें पैदा ही पैदा होती है। शूद्र के लिये खानपान , जीवन निर्वाह आदिमें भी बहुत छूट दी गयी है। शम , दम आदि नौ धर्मों के पालन से ब्राह्मण का जो कल्याण होता है वही कल्याण शौर्य, तेज आदि सात धर्मों के पालन से क्षत्रिय का होता है वही कल्याण खेती, गोरक्षा और व्यापार के पालन से वैश्य होता है और वही कल्याण केवल सेवा करने से शूद्र का हो जाता है। आगे भगवान ने एक विलक्षण बात बतायी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने वर्णोचित कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन करके परम सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं । वास्तव में कल्याण वर्णोचित कर्मों से नहीं होता बल्कि निष्काम भावपूर्वक पूजन से ही होता है। शूद्र का तो स्वाभाविक कर्म ही परिचर्यात्मक अर्थात् पूजनरूप है अतः उसका पूजन के द्वारा पूजन होता है अर्थात् उसके द्वारा दुगुनी पूजा होती है इसलिये उसका कल्याण जितनी जल्दी होगा उतनी जल्दी ब्राह्मण आदि का नहीं होगा। शास्त्रकारों ने उद्धार करने में छोटे को ज्यादा प्यार दिया है क्योंकि छोटा प्यार का पात्र होता है और बड़ा अधिकार का पात्र होता है। बड़े पर चिन्ता – फिक्र ज्यादा रहती है , छोटे पर कुछ भी भार नहीं रहता। शूद्र को भार रहित करके उसकी जीविका बतायी गयी है और प्यार भी दिया गया है। वास्तव में देखा जाय तो जो वर्णआश्रम में जितना ऊँचा होता है उसके लिये शास्त्रों के अनुसार उतने ही कठिन नियम होते हैं। उन नियमों का पालन करने में कठिनता अधिक मालूम देती है परन्तु जो वर्ण आश्रम में नीचा होता है उसका कल्याण सुगमता से हो जाता है। इस विषय में विष्णु पुराण में एक कथा आती है – एक बार बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर श्रेष्ठता का निर्णय करने के लिये भगवान् वेदव्यासजी के पास गये। व्यासजी ने सबको आदरपूर्वक बिठाया और स्वयं गङ्गा में स्नान करने चले गये। गङ्गा में स्नान करते हुए उन्होंने कहा – कलियुग तुम धन्य हो ! स्त्रियों तुम धन्य हो ! शूद्रों तुम धन्य हो ! जब व्यासजी स्नान करके ऋषियों के पास आये तो ऋषियों ने कहा – महाराज , आपने कलियुग , स्त्रियों और शूद्रों को धन्यवाद कैसे दिया तो उन्होंने कहा कि कलियुग में अपने धर्म का पालन करने से स्त्रियाँ और शूद्रों का कल्याण जल्दी और सुगमतापूर्वक हो जाता है। ऊँच-नीच वर्णों में प्राणियों का जन्म मुख्य रूप से गुणों और कर्मों के अनुसार होता है परन्तु ऋणानुबन्ध, शाप , वरदान , सङ्ग आदि किसी कारण विशेष से भी ऊँच-नीच वर्णों में जन्म हो जाता है। उन वर्णोंमें जन्म होनेपर भी वे अपने पूर्वस्वभावके अनुसार ही आचरण करते हैं। यही कारण है कि ऊँचे वर्णमें उत्पन्न होने पर भी उनके नीच आचरण देखे जाते हैं जैसे धुन्धुकारी आदि और नीच वर्ण में उत्पन्न होने पर भी वे महापुरुष होते हैं जैसे विदुर, कबीर , रैदास आदि। आज जिस समुदाय में जातिगत, कुलपरम्परागत , समाजगत और व्यक्तिगत जो भी शास्त्रविपरीत दोष आये हैं उनको अपने विवेकविचार, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि के द्वारा दूर करके अपने में स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता लानी चाहिये जिससे अपने मनुष्य जन्म का ध्येय सिद्ध हो सके।– स्वामी रामसुख दास जी )

 

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18.45।।

 

स्वे स्वे-अपने अपने स्वाभाविक कर्म; कर्मणि-कर्म में; अभिरत:-पूरा करना; संसिद्धिम् – पूर्णता को; लभते-प्राप्त करना; नरः-मनुष्य; स्वकर्म-मनुष्य के निर्धारित कर्त्तव्य; निरतः-संलग्न; सिद्धिम् – पूर्णता को; यथा-जैसे; विन्दति-प्राप्त करता है; तत्-वह; शृणु-सुनो।

 

अपने जन्मजात गुणों से उत्पन्न अपने कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है अर्थात अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में रत मनुष्य अथवा अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य पूर्ण सिद्धि ( परमात्मा ) को प्राप्त कर लेता है । अब मुझसे सुनो कि कोई निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए कैसे पूर्णता प्राप्त करता है अर्थात स्वकर्म में या अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है?

( मनुष्य की जैसी स्वतः सिद्ध स्वाभाविक प्रकृति या स्वभाव है उसमें अगर वह कोई नयी अड़चन या व्यवधान न लाये , राग-द्वेष इत्यादि अवगुण न उत्पन्न करे तो वह प्रकृति उसका स्वाभाविक ही कल्याण कर दे। प्रकृति के द्वारा अपने आप होने वाले जो स्वाभाविक कर्म हैं उनका स्वार्थ रहित और त्याग पूर्वक पालन करे परन्तु कर्मों के प्रवाह के साथ न राग हो, न द्वेष हो और न कर्मों के फल की इच्छा हो। राग-द्वेष और फल की इच्छा से रहित होकर क्रिया या कर्म करने से कर्म करने का वेग शान्त हो जाता है और कर्म में आसक्ति न होने से नया वेग पैदा नहीं होता। इससे प्रकृति के पदार्थों और क्रियाओं के साथ निर्लिप्तता (असंगता) आ जाती है। निर्लिप्तता होने से प्रकृति की क्रियाओं का प्रवाह स्वाभाविक ही चलता रहता है और उनके साथ अपना कोई सम्बन्ध न रहने से साधक की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है जो कि प्राणिमात्र की स्वतः स्वाभिवक है। अपने स्वरूप में स्थिति होने पर उसका परमात्मा की तरफ स्वाभाविक आकर्षण हो जाता है परन्तु यह सब होता है कर्मों में अभिरति होने से , न कि कर्मों में आसक्ति होने से। कर्मों में एक तो अभिरति होती है और एक आसक्ति होती है। अपने स्वाभाविक कर्मों को केवल दूसरों के हित के लिये तत्परता और उत्साहपूर्वक करने से अर्थात् केवल देने के लिये कर्म करने से मन में जो प्रसन्नता होती है उसका नाम अभिरति है। फल की इच्छा से कुछ करना अर्थात् कुछ पाने के लिये कर्म करना आसक्ति है। कर्मों में अभिरति से कल्याण होता है और आसक्ति से बन्धन होता है। मनुष्य प्रीति और तत्परतापूर्वक चाहे एक कर्म करे, चाहे अनेक कर्म करे , उसका उद्देश्य केवल परमात्म प्राप्ति होने से उसकी कर्तव्यनिष्ठा एक ही होती है। परमात्म प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर मनुष्य जितने भी कर्म करता है वे सब कर्म अन्त में उसी उद्देश्य में ही लीन हो जाते हैं अर्थात् उसी उद्देश्य की पूर्ति करने वाले हो जाते हैं। जैसे गङ्गाजी हिमालय से निकलकर गङ्गा सागर तक जाती हैं तो नदियाँ, झरने , सरोवर , वर्षा का जल – ये सभी उसकी धारा में मिलकर गङ्गा से एक हो जाते हैं । ऐसे ही उद्देश्य वाले के सभी कर्म उसके उद्देश्य में मिल जाते हैं परन्तु जिसकी कर्मों में आसक्ति है वह एक कर्म कर के अनेक फल चाहता है अथवा अनेक कर्म करके एक फल चाहता है अतः उसका उद्देश्य एक परमात्मा की प्राप्ति का न होने से उसकी कर्तव्य निष्ठा एक नहीं होती ।अपने कर्मों में प्रीतिपूर्वक तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परमात्मा को जैसे प्राप्त होता है वह सुनो अर्थात् कर्म मात्र परमात्म प्राप्ति का साधन है। इस बात को सुनो और सुन कर के ठीक तरह से समझो। मालिक की सुख सुविधा की सामग्री जुटा देना , मालिक के दैनिक कार्यों में अनुकूलता उपस्थित कर देना आदि कार्य तो वेतन लेने वाला नौकर भी कर सकता है और करता भी है परन्तु उसमें क्रिया की कि इतना काम करना है और समय की कि इतने घंटे काम करना है की प्रधानता रहती है। इसलिये वह काम-धंधा सेवा नहीं बन सकता। यदि मालिक का वह काम-धन्धा आदरपूर्वक सेव्य-बुद्धिसे, महत्त्वबुद्धि से किया जाय तो वह सेवा हो जाता है। सेव्यबुद्धि, महत्त्वबुद्धि चाहे जन्म के सम्बन्ध से हो, चाहे विद्या के सम्बन्ध से , चाहे वर्ण आश्रम के सम्बन्ध से हो , चाहे योग्यता अधिकार, सद्गुण सदाचार के सम्बन्ध से। जहाँ महत्त्वबुद्धि हो जाती है वहाँ सेव्य को सुख-आराम कैसे मिले , सेव्य की प्रसन्नता किस बात में है , सेव्य का क्या रुख है , क्या रुचि है – ऐसे भाव होने से जो भी काम किया जाय, वह सेवा हो जाता है। सेव्य का वही काम पूजाबुद्धि , भगवद्बुद्धि , गुरुबुद्धि आदि से किया जाय और पूज्य भाव से चन्दन लगाया जाय , पुष्प चढ़ाये जायँ , माला पहनायी जाय , आरती की जाय तो वह काम पूजन हो जाता है। इससे सेव्य के चरणस्पर्श अथवा दर्शन मात्र से चित्त की प्रसन्नता, हृदय की गद्गदता , शरीर का रोमाञ्चित होना आदि होते हैं और सेव्य के प्रति विशेष भाव प्रकट होते हैं। उससे सेव्य की सेवा में कुछ शिथिलता आ सकती है परन्तु भावों के बढ़ने पर अन्तःकरण शुद्धि, भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि हो जाते हैं। मालिक का समय- समय पर काम-धंधा करने से नौकर को पैसे मिल जाते हैं और सेव्य की सेवा करने से सेवक को अन्तःकरण शुद्धिपूर्वक भगवत्प्राप्ति हो जाती है परन्तु पूजा भाव के बढ़ने से तो पूजक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य है कि चरण चाँपी तो नौकर भी करता है पर उसको सेवा का आनन्द नहीं मिलता क्योंकि उसकी दृष्टि पैसों पर रहती है परन्तु जो सेवाबुद्धि से चरणचाँपी करता है उसको सेवा में विशेष आनन्द मिलता है क्योंकि उसकी दृष्टि सेव्य के सुख पर रहती है। पूजा में तो चरण छूने मात्र से शरीर रोमाञ्चित हो जाता है और अन्तःकरण में एक पारमार्थिक आनन्द होता है। उसकी दृष्टि पूज्य की महत्ता पर और अपनी लघुता पर रहती है। ऐसे देखा जाय तो नौकर के काम-धंधे से मालिक को आराम मिलता है । सेवा में सेव्य को विशेष आराम तथा सुख मिलता है और पूजा में पूजक के भाव से पूज्य को प्रसन्नता होती है। पूजा में शरीर के सुख-आराम की प्रधानता नहीं होती। अपने स्वभावज कर्मों के द्वारा पूजा करने से पूजक का भाव बढ़ जाता है तो उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से होने वाली (चेष्टा, चिन्तन , समाधि आदि) सभी छोटी-बड़ी क्रियाएँ सब प्राणियोंमें व्यापक परमात्मा की पूजन सामग्री बन जाती है। उसकी दैनिकचर्या अर्थात् खानापीना आदि सब क्रियाएँ भी पूजन-सामग्री बन जाती हैं। जैसे ज्ञान योगी का मैं कुछ भी नहीं करता हूँ यह भाव हरदम बना रहता है। ऐसे ही अनेक प्रकार की क्रियाएँ करने पर भी भक्त के भीतर एक भगवद्भाव हरदम बना रहता है। उस भाव की गाढ़ता में उसका अहंभाव भी छूट जाता है। — स्वामी रामसुख दास जी )

 

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

 

यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-अस्तित्त्व में आना; भूतानाम्-सभी जीवित प्राणी; येन-जिसके द्वारा; सर्वम्-सब; इदम् यह; ततम्-व्याप्त; स्वकर्मणा किसी की स्वाभाविक वृत्तियाँ; तम्-उसको; अभ्यर्च्य-पूजा करके; सिद्धिम् – सिद्धि को; विन्दति-प्राप्त करता है; मानवः-मनुष्य।

 

अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्मांड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

( जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है; जिससे सम्पूर्ण संसार का संचालन होता है; जो सबका उत्पादक, आधार और प्रकाशक है और जो सबमें परिपूर्ण है अर्थात् जो परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, जो अनन्त ब्रह्माण्डों के लीन होने पर भी रहेगा और अनन्त ब्रह्माण्डों के रहते हुए भी जो रहता है तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिये। मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिये छः कर्म बताये गये हैं – स्वयं पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना, स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरों को दान देना ( इनमें पढ़ाना , यज्ञ कराना और दान लेना – ये तीन कर्म जीविका के हैं और पढ़ना, यज्ञ करना और दान देना – ये तीन कर्तव्य कर्म हैं )। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शम-दम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खाना-पीना , उठना-बैठना आदि जितने भी कर्म हैं उन कर्मों के द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णों में व्याप्त परमात्मा का पूजन करें। परमात्मा की आज्ञा से, उनकी प्रसन्नता के लिये ही भगवद्बुद्धि से निष्काम भाव पूर्वक सबकी सेवा करें। ऐसे ही क्षत्रियों के लिये पाँच कर्म बताये गये हैं – प्रजा की रक्षा करना, दान देना , यज्ञ करना , अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना । इन पाँच कर्मों , शौर्य , तेज आदि सात स्वभावज कर्मों के द्वारा और खाना – पीना आदि सभी कर्मों के द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें। वैश्य यज्ञ करना, अध्ययन करना, दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य । इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मों के द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवा के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित, स्वभावज, खाना-पीना , सोना-जागना आदि सभी कर्मों के द्वारा भगवन की आज्ञा से भगवान की  प्रसन्नता के लिये भगवद्बुद्धि से निष्काम भावपूर्वक सबकी सेवा करें। शास्त्रों में मनुष्य के लिये अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जो-जो कर्तव्य कर्म बताये गये हैं वे सब संसार रूप परमात्मा की पूजा के लिये ही हैं। अगर साधक अपने कर्मों के द्वारा भाव से उस परमात्मा का पूजन करता है तो उसकी मात्र क्रियाएँ परमात्मा की पूजा हो जाती है। जैसे पितामह भीष्म ने अर्जुन के साथ युद्ध करते हुए अर्जुन के सारथि बने हुए भगवान की अपने युद्धरूप कर्म के द्वारा अर्थात बाणों से पूजा की। भीष्म के बाणों से भगवान का कवच टूट गया, जिससे भगवान के शरीर में घाव हो गये और हाथ की अंगुलियों में छोटे-छोटे बाण लगने से अंगुलियों से लगाम पकड़ना कठिन हो गया। ऐसी पूजा करके अन्त समय में शर-शय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणों द्वारा पूजित भगवान का ध्यान करते हैं । युद्ध में मेरे तीखे बाणों से जिनका कवच टूट गया है, जिनकी त्वचा विच्छिन्न हो गयी है, परिश्रम के कारण जिनके मुख पर स्वेद कण सुशोभित हो रहे हैं , घोड़ों की टापों से उड़ी हुई रज जिनकी सुन्दर अलकावलि में लगी हुई है। इस प्रकार बाणों से अलंकृत भगवान कृष्ण में मेरे मनबुद्धि लग जाएं , लौकिक और पारमार्थिक कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिये पर उन कर्मों में और उनको करने के करणों – उपकरणों में ममता नहीं रखनी चाहिये। कारण कि जिन वस्तुओं , क्रियाओं आदि में ममता हो जाती है। वे सभी चीजें अपवित्र हो जाने से पूजा सामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल , फूल आदि भगवान पर नहीं चढ़ते)। इसलिये मेरे पास जो कुछ है वह सब उस सर्वव्यापक परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है – इस भाव से जो कुछ किया जाय वह सब का सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत उन क्रियाओं, वस्तुओं आदि को मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ , वस्तुएँ (अपवित्र होनेसे) परमात्मा के पूजन से वञ्चित रह जाती हैं।  सिद्धि को प्राप्त होने का तात्पर्य है कि अपने कर्मों से परमात्मा का पूजन करने वाला मनुष्य प्रकृति के सम्बन्ध से रहित होकर स्वतः अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। स्वरूप में स्थित होने पर पहले जो परमात्मा के समर्पण किया था, उस संस्कार के कारण उसका प्रभु में अनन्य प्रेम जाग्रत् हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता। यहाँ मानवः पद का तात्पर्य केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , शूद्र और ब्रह्मचारी, गृहस्थ , वानप्रस्थ , संन्यास – इन वर्णों और आश्रमों आदिसे ही नहीं है बल्कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई , बौद्ध , पारसी , यहूदी आदि सभी जातियों और सम्प्रदायों से है। किसी भी जाति, सम्प्रदाय आदि के कोई भी व्यक्ति क्यों न हों सब के सब ही परमात्मा के पूजन के अधिकारी हैं क्योंकि सभी परमात्मा के अपने हैं। जैसे घर में स्वभाव आदि के भेद से अनेक तरह के बालक होते हैं पर उन सबकी माँ एक ही होती है और उन बालकों की तरह-तरह की जितनी भी क्रियाएँ होती हैं उन सब क्रियाओं से माँ प्रसन्न होती रहती है क्योंकि उन बालकों में माँ का अपनापन होता है। ऐसे ही भगवान के सम्मुख हुए मनुष्यों की सभी क्रियाओं को भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं और प्रसन्न होते हैं। भगवान ने अर्जुन से कहा है कि कोई भी मनुष्य हम दोनों के संवाद का अध्ययन करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित हो जाऊँगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई गीता का पाठ करे, अध्ययन करे तो उसको भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं। ऐसे ही जो उत्पत्ति विनाशशील वस्तुओं से विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाता है उसकी क्रियाओं को भगवान् अपना पूजन मान लेते हैं। विशेष बात कर्मयोग में कर्मों के द्वारा जडता से असङ्गता होती है और भक्तियोग में संसार से असङ्गतापूर्वक परमात्मा के प्रति पूज्यभाव होने से परमात्मा की सम्मुखता रहती है। कर्मयोगी तो अपने पास शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जो कुछ संसार का जड अंश है उसको स्वार्थ, अभिमान , कामना का त्याग करके संसार की सेवा में लगा देता है। इससे अपनी मानी हुई चीजों से अपनापन छूटकर उनसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और जो स्वतःस्वाभाविक असङ्गता है वह प्रकट हो जाती है। भक्त अपने वर्णोचित स्वाभाविक कर्मों और समय-समय पर किये गये पारमार्थिक कर्मों जैसे जप , ध्यान आदि के द्वारा सम्पूर्ण संसार में व्याप्त परमात्मा का पूजन करता है। इन दोनों में भाव की भिन्नता होने से इतना ही अन्तर हुआ कि कर्मयोगी की सम्पूर्ण क्रियाओं का प्रवाह सबको सुख पहुँचाने में लग जाता है तो क्रियाओं को करने का वेग मिटकर स्वयं में असङ्गता आ जाती है और भक्त की सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्मा की पूजन सामग्री बन जाने से जडता से विमुखता होकर भगवान की सम्मुखता आ जाती है और प्रेम बढ़ जाता है। भक्त तो पहले से ही भगवान के सम्मुख होकर अपने आपको भगवान के अर्पित कर देता है। स्वयं को अनन्यतापूर्वक भगवान को समर्पित कर देने से खाना-पीना, काम-धंधा आदि लौकिक और जप, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि पारमार्थिक क्रियाएँ भी भगवान के अर्पण हो जाती हैं। उसकी लौकिक-पारमार्थिक क्रियाओं में केवल बाहर से भेद देखने में आता है परन्तु वास्तव में कोई भेद नहीं रहता। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी – ये दोनों अन्त में एक हो जाते हैं। जैसे कर्मयोगी कर्मों के द्वारा जडता का त्याग करता है अर्थात् सेवा के द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ संसार के अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है और ज्ञानयोगी विचार के द्वारा जडता का त्याग करता है अर्थात् विचार के द्वारा उसकी सभी क्रियाएँ प्रकृति के अर्पण हो जाती हैं और स्वयं असङ्ग हो जाता है। दोनों के अर्पण करने के प्रकार में अन्तर है पर असङ्गता में दोनों एक हो जाते हैं । इस असङ्गता में कर्मयोगी और ज्ञानयोगी दोनों स्वतन्त्र हो जाते हैं। उनके लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्मों का बन्धन नहीं रहता। केवल कर्तव्यपालन के लिये ही कर्तव्यकर्म करने से कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं और ज्ञानरूप अग्नि से ज्ञानयोगी के सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं परन्तु इस स्वतन्त्रता में भी जिसको संतोष नहीं होता अर्थात् स्वतन्त्रता से जिसको उपरति हो जाती है उसमें भगवत्कृपा से प्रेम प्रकट हो सकता है। स्वभावज या सहज कर्मों को , निष्कामभाव पूर्वक और पूजाबुद्धि से करते हुए उसमें कोई कमी रह भी जाय तो भी उसमें साधक को हताश नहीं होना चाहिये । —स्वामी रामसुख दास जी )

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।

 

श्रेयान् – श्रेष्ठ; स्वधर्मः-अपने निश्चित व्यवसायी कार्य; विगुणः-त्रुटिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना; परधार्मात्-दूसरों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात्-कुशलतापूर्वक; स्वभावनियतम्-जन्म जात स्वभाव के अनुसार; कर्मकुर्वन् – करने से; न – कभी नहीं; आप्नोति-प्राप्त करता है; किल्बिषम्- पाप को।

 

 अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता अर्थात स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।

( यदि कोई अपने को मनुष्य मानता है तो मनुष्यता का पालन करना उसके लिये स्वधर्म है। ऐसे ही कर्मों के अनुसार अपने को कोई विद्यार्थी या अध्यापक मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपने को साधक मानता है तो साधन करना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपने को भक्त , जिज्ञासु और सेवक मानता है तो भक्ति , जिज्ञासा और सेवा उसका स्वधर्म हो जायगा। इस प्रकार जिसकी जिस कार्यमें नियुक्ति हुई है और जिसने जिस कार्य को स्वीकार किया है उसके लिये उस कार्य को उसी प्रकार करना स्वधर्म है। ऐसे ही मनुष्य जन्म और कर्म के अनुसार अपने को जिस वर्ण और आश्रम का मानता है उसके लिये उसी वर्ण और आश्रम का धर्म स्वधर्म हो जायगा। ब्राह्मण वर्ण में उत्पन्न हुआ अपने को ब्राह्मण मानता है तो यज्ञ कराना, दान लेना, पढ़ाना आदि जीविका सम्बन्धी कर्म उसके लिये स्वधर्म हैं। क्षत्रिय के लिये युद्ध करना, ईश्वरभाव आदि वैश्य के लिये कृषि, गौरक्षा, व्यापार आदि और शूद्र के लिये सेवा -ये जीविका सम्बन्धी कर्म स्वधर्म हैं। ऐसा अपना स्वधर्म अगर दूसरों के धर्म की अपेक्षा गुणरहित है अर्थात् अपने स्वधर्म में गुणों की कमी है उसका अनुष्ठान करने में कमी रहती है तथा उसको कठिनता से किया जाता है परन्तु दूसरे का धर्म गुणों से परिपूर्ण है, दूसरे के धर्म का अनुष्ठान करने में बहुत सुगम है तो भी अपने स्वधर्म का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्र ने जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों का विधान किया है उस वर्ण के लिये वे कर्म स्वधर्म हैं और उन्हीं कर्मों का जिस वर्ण के लिये निषेध किया है उस वर्ण के लिये वे कर्म परधर्म हैं। जैसे यज्ञ कराना, दान लेना आदि कर्म ब्राह्मण के लिये शास्त्र की आज्ञा होने में स्वधर्म हैं परन्तु वे ही कर्म क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिये शास्त्र का निषेध होने से परधर्म हैं परन्तु आपातकाल को लेकर शास्त्रों ने जीविका सम्बन्धी जिन कर्मों का निषेध नहीं किया है वे कर्म सभी वर्णों के लिये स्वधर्म हो जाते हैं। जैसे आपातकाल में अर्थात् आपत्ति के समय वैश्य के खेती, व्यापार आदि जीविका सम्बन्धी कर्म ब्राह्मण के लिये भी स्वधर्म हो जाते हैं । ब्राह्मण के शम , दम आदि जितने भी स्वभावज कर्म हैं वे सामान्य धर्म होने से चारों वर्णों के लिये स्वधर्म हैं। कारण कि उनका पालन करने के लिये सभी को शास्त्र की आज्ञा है। उनका किसीके लिये भी निषेध नहीं है। मनुष्य शरीर केवल परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। इस दृष्टि से समस्त मनुष्यमात्र साधक है। अतः दैवी सम्पत्ति के जितने भी सद्गुण और सदाचार हैं वे सभी के अपने होने से मनुष्यमात्र के लिये स्वधर्म हैं परन्तु आसुरी सम्पत्ति के जितने भी दुर्गुण और दुराचार हैं वे मनुष्यमात्र के लिये न तो स्वधर्म हैं और न परधर्म ही हैं । वे तो सभी के लिये निषिद्ध हैं, त्याज्य हैं क्योंकि वे अधर्म हैं। दैवीसम्पत्ति के गुणों को धारण करने में और आसुरी सम्पत्ति के पापकर्मों का त्याग करने में सभी स्वतन्त्र हैं , सभी सबल हैं , सभी अधिकारी हैं । कोई भी परतन्त्र , निर्बल तथा अनधिकारी नहीं है। कोई सद्गुण किसी के स्वभाव के अनुकूल होता है और कोई सद्गुण किसी के स्वभाव के अनुकूल होता है। जैसे किसी के स्वभाव में दया मुख्य होती है और किसी के स्वभाव में उपेक्षा मुख्य होती है , किसी का स्वभाव स्वतः क्षमा करने का होता है और किसीका स्वभाव माँगने पर क्षमा करने का होता है , किसी के स्वभाव में उदारता स्वाभाविक होती है और किसी के स्वभाव में उदारता विचारपूर्वक होती है आदि। ऐसा भेद रह सकता है। शास्त्रों में विहित और निषिद्ध – दो तरह के वचन आते हैं। उनमें विहित कर्म करने की आज्ञा है और निषिद्ध कर्म करने का निषेध है। उन विहित कर्मों में भी शास्त्रों ने जिस वर्ण , आश्रम , देश , काल , घटना , परिस्थिति , वस्तु , संयोग , वियोग आदि को लेकर अलग-अलग जो कर्म नियुक्त किये हैं उस वर्ण-आश्रम आदि के लिये वे नियत कर्म कहलाते हैं। सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं वे स्वभावनियत कर्म कहलाते हैं। उन्हीं को स्वभावज, स्वधर्म, स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। जिस वर्ण और जाति में जन्म लेने से पहले इस जीव के जैसे गुण और कर्म रहे हैं उन्हीं गुणों और कर्मों के अनुसार उस वर्ण में उसका जन्म हुआ है। कर्म तो करने पर समाप्त हो जाते हैं पर गुणरूप से उनके संस्कार रहते हैं। जन्म होने पर उन गुणों के अनुसार ही उसमें गुण और पालनीय आचरण स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् उनको न तो कहीं से लाना पड़ता है और न उनके लिये परिश्रम ही करना पड़ता है। इसलिये उनको स्वभावज और स्वभावनियत कहा है। स्वभाव के अनुसार शास्त्र ने जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों की आज्ञा दी है उन कर्मों को अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से किया जाय तो उस वर्ण के व्यक्ति को उन कर्मों का दोष (पाप) नहीं लगता। ऐसे ही जो केवल शरीर निर्वाह के लिये कर्म करता है उसको भी पाप नहीं लगता । यहाँ एक बड़ी भारी शङ्का पैदा होती है कि एक आदमी कसाई के घर पैदा होता है तो उसके लिये कसाई का कर्म सहज अर्थात जन्म के साथ ही पैदा हुआ है अर्थात स्वाभाविक है। स्वभावनियत कर्म करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता तो क्या कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये । अगर उसको कसाई के कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये तो फिर निषिद्ध आचरण कैसे छूटेगा , कल्याण कैसे होगा ? इसका समाधान है कि स्वभावनियत कर्म वह होता है जो विहित हो, किसी रीति से निषिद्ध नहीं हो अर्थात् उससे किसी का भी अहित न होता हो। जो कर्म किसी के लिये भी अहितकारक होते हैं वे सहज कर्म में नहीं लिये जाते। वे कर्म आसक्ति और कामना के कारण पैदा होते हैं। निषिद्ध कर्म चाहे इस जन्म में बना हो , चाहे पूर्वजन्म में बना हो , है वह दोषवाला ही। दोष भाग त्याज्य अर्थात त्यागने योग्य होता है क्योंकि दोष आसुरीसम्पत्ति है और गुण दैवीसम्पत्ति है। पहले जन्म के संस्कारों से भी दुर्गुण और दुराचारों में रुचि हो सकती है पर वह रुचि दुर्गुण और दुराचार करने में बाध्य नहीं करती। विवेक , सद्विचार , सत्सङ्ग , शास्त्र आदि के द्वारा उस रुचि को मिटाया जा सकता है। युक्ति से भी देखा जाय तो कोई भी प्राणी अपना अहित नहीं चाहता, अपनी हत्या नहीं चाहता। अतः किसी का अहित करने का , हत्या करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मनुष्य अपने लिये अच्छा काम चाहता है तो उसे दूसरों के लिये भी अच्छा काम करना चाहिये। शास्त्रों में भी देखा जाय तो यही बात है कि जिसमें दोष होते हैं, पाप होते हैं, अन्याय होते हैं, वे कर्म वैकृत हैं प्राकृत नहीं हैं अर्थात् वे विकारसे पैदा हुए हैं स्वभावसे नहीं। तीसरे अध्याय में अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापकर्म करता है तो भगवान ने कहा कि कामना के वश में होकर भी मनुष्य पाप करता है । कामना को लेकर , क्रोध को लेकर , स्वार्थ और अभिमान को लेकर जो कर्म किये जाते हैं वे कर्म शुद्ध नहीं होते अशुद्ध होते हैं। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से जो कर्म किये जाते हैं उन कर्मों में भिन्नता तो रहती है पर वे दोषी नहीं होते। ब्राह्मण के घर जन्म होगा तो ब्राह्मणोचित कर्म होंगे, शूद्र के घर जन्म होगा तो शूद्रोचित कर्म होंगे पर दोषी भाग किसी में भी नहीं होगा। दोषीभाग सहज नहीं है स्वभावनियत नहीं है। दोषयुक्त कर्म स्वाभाविक हो सकते हैं पर स्वभावनियत नहीं हो सकते। एक ब्राह्मण को परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाय तो प्राप्ति होने के बाद भी वह वैसी ही पवित्रता से भोजन बनायेगा जैसी पवित्रता से ब्राह्मण को रहना चाहिये वैसी ही पवित्रतासे रहेगा। ऐसे ही एक अन्त्यज को परमात्मा की प्राप्ति हो जाय तो वह जूठन भी खा लेगा जैसे पहले रहता था वैसे ही रहेगा परन्तु ब्राह्मण ऐसा नहीं करेगा क्योंकि पवित्रता से भोजन करना उसका स्वभावनियत कर्म है जबकि अन्त्यज के लिये जूठन खाना दोषी नहीं बताया गया है। इसलिये सिद्ध महापुरुषों में एक से एक विचित्र कर्म होते हैं पर वे दोषी नहीं होते। उनका स्वभाव राग-द्वेष से रहित होने के कारण शुद्ध होता है। पहले के किसी पापकर्म से कसाई के घर जन्म हो गया तो वह जन्म पाप का फल भोगने के लिये हुआ है पाप करने के लिये नहीं। पाप का फल जाति, आयु और भोग बताया गया है नया कर्म नहीं बताया गया। कर्म करने में वह स्वतन्त्र है। यदि उसका चित्त शुद्ध हो जाय तो वह कसाई आदि का कर्म कर नहीं सकेगा। एक सन्त से किसी ने कहा कि अगर कोई अपना धर्म पशुओं को मारना ही मानता है तो वह क्या करे तो उन सन्त ने बड़ी दृढ़तासे कहा कि यदि वह अपने धर्म के अनुसार ही लगातार तीन वर्ष तक पवित्रता पूर्वक भगवान के नाम का , अपने इष्ट के नाम का जप करे तो फिर वह मार नहीं सकेगा। कारण कि उसका पूर्वजन्म का अथवा यहाँ का जो स्वभाव पड़ा हुआ है वह स्वभाव दोषी है। यदि सच्चे हृदय से ठीक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति चाहेगा तो वह कसाई का काम नहीं कर सकेगा। उससे अपने आप ग्लानि होगी , उपरति होगी। बिना कहे-सुने उसमें सद्गुण स्वाभाविक आयेंगे। रामचरितमानसमें शबरीके प्रसङ्गमें आता है – भगवान राम ने शबरी से कहा — नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। फिर नौ प्रकार की भक्ति कहकर अन्त में भगवान ने  कहा – सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें । तात्पर्य यह है कि भक्ति नौ प्रकारकी होती है। इसका शबरी को पता ही नहीं है परन्तु शबरी में सब प्रकार की भक्ति स्वाभाविक ही थी। सत्सङ्ग , भजन , ध्यान आदि करने से जिन गुणों का हमें ज्ञान नहीं है वे गुण भी आ जाते हैं। जो केवल दूसरों को सुनाने के लिये याद करते हैं, वे दूसरों को तो बता देंगे पर आचरण में वे गुण तभी आयेंगे जब अपना स्वभाव शुद्ध करके परमात्मा की ओर चलेंगे। इसलिये मनुष्य को अपना स्वभाव और अपने कर्म शुद्ध तथा निर्मल बनाने चाहिये। इसमें कोई परतन्त्र नहीं है , कोई निर्बल नहीं है , कोई अयोग्य नहीं है , कोई अपात्र नहीं है। मनुष्य के मन में ऐसा आता है कि मैं कर्तव्य का पालन करने में और सद्गुणों को लाने में असमर्थ हूँ परन्तु वास्तव में वह असमर्थ नहीं है। सांसारिक भोगों की आदत और पदार्थों के संग्रह की रुचि होने से ही असमर्थता का अनुभव होता है। उद्धार के योग्य समझकर ही भगवान ने मनुष्य शरीर दिया है। इसलिये अपने स्वभाव का सुधार करके अपना उद्धार करने में प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र है, सबल है , योग्य है, समर्थ है। स्वभाव का सुधार करना असम्भव तो है ही नहीं , कठिन भी नहीं है। मनुष्य को मुक्ति या मोक्ष का द्वार कहा गया है । यदि स्वभाव का सुधार करना असम्भव होता तो इसे मुक्ति का द्वार कैसे कहा जा सकता । अगर मनुष्य अपने स्वभाव का सुधार न कर सके तो फिर मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या हुई ? स्वामी रामसुखदास जी )

 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

 

सहजम्-किसी की प्रकृति से उत्पन्न; कर्म-कर्त्तव्य; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; सदोषम् दोषयुक्त; अपि – यद्यपि; न-त्यजेत्-त्यागना नहीं चाहिए; सर्वआरम्भाः – सभी प्रयासों को; हि-वास्तव में; दोषेण-बुराई के साथ; धूमेन-धुएँ से; अग्निः -अग्नि; इव-सदृश; आवृताः-आच्छादित।

 

हे कौन्तेय !  किसी को भी अपनी प्रकृति से उत्पन्न कर्त्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए चाहे कोई उनमें दोष भी क्यों न देखता हो। हे कुन्ती पुत्र! वास्तव में सभी प्रकार के उद्योग कुछ न कुछ बुराई से ढके रहते हैं जैसे आग धुंए से ढकी रहती है अर्थात दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।

[पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने जो कर्म नियत किये हैं उन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि स्वभाव नियत कर्मों में भी पाप क्रिया होती है। अगर पापक्रिया न होती तो पाप को प्राप्त नहीं होता यह कहना नहीं बनता। अतः यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो सहज कर्म हैं उनमें कोई दोष भी आ जाय तो भी उनका त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सब के सब कर्म धुएँ से अग्नि की तरह दोष से आवृत हैं। स्वभाव नियत कर्म सहज कर्म कहलाते हैं जैसे – ब्राह्मण के शम – दम आदि, क्षत्रिय के शौर्य-तेज आदि , वैश्य के कृषि-गौरक्ष्य आदि और शूद्र के सेवा कर्म – ये सभी सहजकर्म हैं। जन्म के बाद शास्त्रों ने पूर्व के गुण और कर्मों के अनुसार जिस वर्ण के लिये जिन कर्मों की आज्ञा दी है वे शास्त्रनियत कर्म भी सहज कर्म कहलाते हैं जैसे ब्राह्मण के लिये यज्ञ करना और कराना, पढ़ना और पढ़ाना आदि ; क्षत्रिय के लिये यज्ञ करना दान करना आदि वैश्यके लिये यज्ञ करना आदि और शूद्रके लिये सेवा। सहज कर्म में ये दोष हैं – परमात्मा और परमात्मा का अंश – ये दोनों ही स्व हैं तथा प्रकृति और प्रकृति का कार्य शरीर आदि – ये दोनों ही पर हैं। परन्तु परमात्मा का अंश स्वयं प्रकृति के वश होकर परतन्त्र हो जाता है अर्थात् क्रियामात्र प्रकृति में होती है और उस क्रिया को यह अपने में मान लेता है तो परतन्त्र हो जाता है। यह प्रकृति के परतन्त्र होना ही महान् दोष है। प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ अनिवार्य हिंसा आदि दोष होते ही हैं। कोई भी कर्म किया जाय वह कर्म किसी के अनुकूल और किसी के प्रतिकूल होता ही है। किसी के प्रतिकूल होना भी दोष है। प्रमाद आदि दोषों के कारण कर्म के करने में कमी रह जाना अथवा करने की विधि में भूल हो जाना भी दोष है। अपने सहज कर्म में दोष भी हो तो भी उसको नहीं छोड़ना चाहिये। इसका तात्पर्य है कि जैसे ब्राह्मण के कर्म जितने सौम्य हैं उतने ब्राह्मणेतर वर्णों के कर्म सौम्य नहीं हैं परन्तु सौम्य न होने पर भी वे कर्म दोषी नहीं माने जाते अर्थात् ब्राह्मण के सहज कर्मों की अपेक्षा क्षत्रिय, वैश्य आदि के सहज कर्मों में गुणों की कमी होने पर भी उस कमी का दोष नहीं लगता और अनिवार्य हिंसा आदि भी नहीं लगते बल्कि उनका पालन करने से लाभ होता है। कारण कि वे कर्म उनके स्वभाव के अनुकूल होने से करने में सुगम हैं और शास्त्रविहित हैं। ब्राह्मण के लिये भिक्षा बतायी गयी है। देखने में भिक्षा निर्दोष दिखती है पर उसमें भी दोष आ जाते हैं। जैसे किसी गृहस्थ के घर पर कोई भिक्षुक खड़ा है और उसी समय दूसरा भिक्षुक वहाँ आ जाता है तो गृहस्थ को भार लगता है। भिक्षुकों में परस्पर ईर्ष्या होने की सम्भावना रहती है। भिक्षा देने वाले के घर में पूरी तैयारी नहीं है तो उसको भी दुःख होता है। यदि कोई गृहस्थ भिक्षा देना नहीं चाहता और उसके घर पर भिक्षुक चला जाय तो उसको बड़ा कष्ट होता है। अगर वह भिक्षा देता है तो खर्चा होता है और नहीं देता है तो भिक्षुक निराश होकर चला जाता है। इससे उस गृहस्थ को पाप लगता है और बेचारा उसमें फँस जाता है। इस प्रकार यद्यपि भिक्षा में भी दोष होते हैं तथापि ब्राह्मण को उसे छोड़ना नहीं चाहिये। क्षत्रिय के लिये न्याययुक्त युद्ध प्राप्त हो जाय तो उसको करने से क्षत्रिय को पाप नहीं लगता। यद्यपि युद्धरूप कर्म में दोष हैं क्योंकि उसमें मनुष्यों को मारना पड़ता है तथापि क्षत्रिय के लिये सहज और शास्त्रविहित होने से दोष नहीं लगता। ऐसे ही वैश्य के लिये खेती करना बताया गया है। खेती करने में बहुत से जन्तुओं की हिंसा होती है परन्तु वैश्य के लिये सहज और शास्त्रविहित होने से हिंसा का इतना दोष नहीं लगता। इसलिये सहज कर्मों को छोड़ना नहीं चाहिये।सहज कर्मों को करने में दोष या पाप नहीं लगता यह बात ठीक है परन्तु इन साधारण सहज कर्मों से मुक्ति कैसे हो जायगी । वास्तव में मुक्ति होने में सहज कर्म बाधक नहीं हैं। कामना, आसक्ति, स्वार्थ, अभिमान आदि से ही बन्धन होता है और पाप भी इन कामना आदि के कारण से ही होते हैं। इसलिये मनुष्य को निष्काम भावपूर्वक भगवत्प्रीत्यर्थ सहज कर्मों को करना चाहिये तभी बन्धन छूटेगा। जितने भी कर्म हैं वे सब के सब सदोष ही हैं जैसे आग सुलगायी जाय तो आरम्भ में धुआँ होता ही है। कर्म करने में देश , काल , घटना , परिस्थिति आदि की परतन्त्रता और दूसरों की प्रतिकूलता भी दोष है परन्तु स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने आज्ञा दी है। उस आज्ञा के अनुसार निष्काम भाव पूर्वक कर्म करता हुआ मनुष्य पाप का भागी नहीं होता। इसी से भगवान् अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि तू जिस युद्धरूप क्रिया को घोर कर्म मान रहा है वह तेरा धर्म है क्योंकि न्याय से प्राप्त हुए युद्ध को करना क्षत्रियों का धर्म है इसके सिवाय क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई श्रेय का साधन नहीं है । — स्वामी रामसुख दास जी )

 

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।

 

असक्तबुद्धिः-आसक्ति रहित बुद्धि; सर्वत्र-सभी स्थानों पर; जितात्मा ( जित-आत्मा ) -अपने मन को वश में करने वाला; विगतस्पृहः-इच्छाओं से रहित; नैष्कर्म्यसिद्धिम – अकर्मण्यता की स्थिति; परमाम्-सर्वोच्च; संन्यासेन-वैराग्य के अभ्यास द्वारा; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

 

वे जिनकी बुद्धि सदैव सभी स्थानों पर अनासक्त रहती है, जो इच्चकों से रहित हैं , जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है , जिसने अपने शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लिया है , जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं अर्थात वह मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा या सन्यास के द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

( संन्यास या सांख्य योग का अधिकारी होने से ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिये – १) असक्त बुद्धिः सर्वत्र अर्थात जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्ति रहित है अर्थात् देश, काल , घटना , परिस्थिति , वस्तु , व्यक्ति , क्रिया , पदार्थ आदि किसी में भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती। 2) जितात्मा अर्थात जिसने अपने मन पर अधिकार कर लिया है अर्थात् जो आलस्य प्रमाद आदि से मन के वशीभूत नहीं होता बल्कि इसको अपने वशीभूत रखता है। यदि वह किसी कार्य को अपने सिद्धान्तपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्य में मन तत्परता से लग जाता है और किसी क्रिया, घटना आदि से हटना चाहता है तो वह वहाँ से हट जाता है। इस प्रकार जिसने मन पर विजय कर ली है वह जितात्मा कहलाता है। 3) विगतस्पृहः – जीवन धारण मात्र के लिये जिनकी विशेष जरूरत होती है उन चीजों की सूक्ष्म इच्छा का नाम स्पृहा है जैसे – सागपत्ती कुछ मिल जाय, रूखी-सूखी रोटी ही मिल जाय , कुछ न कुछ खाये बिना हम कैसे जी सकते हैं , जल पिए बिना हम कैसे रह सकते हैं , ठण्ड के दिनों में कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं,  सांख्ययोग का साधक इन जीवन निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकताओं की भी परवाह नहीं करता। सांख्ययोग में चलने वाले को जडता का त्याग करना पड़ता है। असक्त बुद्धि होने से वह जितात्मा हो जाता है और जितात्मा होने से वह विगतस्पृह हो जाता है तब वह सांख्ययोगका अधिकारी हो जाता है। ऐसा असक्तबुद्धि, जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोग के द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धि को अर्थात् नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृति में होती है और जब स्वयं का उस क्रिया के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता तब कोई भी क्रिया और उसका फल उस पर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक, स्वतःसिद्ध निष्कर्मता , निर्लिप्तता है वह प्रकट हो जाती है। )

 

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।

 

सिद्धिम् – पूर्णता को प्राप्त करना; यथा-कैसे; ब्रह्म-ब्रह्म; तथा – भी; आप्नोति-प्राप्त करता है; निबोध-सुनो; मे-मुझसे; समासेन-संक्षेप में; एव-वास्तव में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; निष्ठा-दृढ़ता से स्थित; ज्ञानस्य-ज्ञान की; या-जो; परा-दिव्य।

 

हे कौन्तेय ! अब मुझसे संक्षेप में सुनो कि जो सिद्धि या पूर्णता को प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है अर्थात अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की पराकाष्ठा है, किस प्रकार से प्राप्त होता है, उस प्रकार को तुम मुझसे संक्षेपमें ही समझो।

( यहाँ सिद्धि नाम अन्तःकरण की शुद्धि का है जिसका वर्णन पूर्वश्लोक में आये असक्तबुद्धि , जितात्मा और विगतस्पृहः पदों से हुआ है। जिसका अन्तःकरण इतना शुद्ध हो गया है कि उसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार की कामना, ममता और आसक्ति नहीं रही उसके लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि की जरूरत नहीं पड़ती अर्थात् उसके लिये कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। इसलिये इसको सिद्धि कहा है। लोक में तो ऐसा कहा जाता है कि मनचाही चीज मिल गयी तो सिद्धि हो गयी, अणिमा आदि सिद्धियाँ मिल गयीं तो सिद्धि हो गयी पर वास्तव में यह सिद्धि नहीं है क्योंकि इसमें पराधीनता होती है , किसी बात की कमी रहती है और किसी वस्तु या परिस्थिति आदि की जरूरत पड़ती है। अतः जिस सिद्धि में किञ्चिन्मात्र भी कामना पैदा न हो वही वास्तव में सिद्धि है। जिस सिद्धि के मिलने पर कामना बढ़े वह सिद्धि वास्तव में सिद्धि नहीं है बल्कि एक बन्धन ही है।अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक ही ब्रह्म को प्राप्त होता है। वह जिस क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होता है उसको मुझसे समझ । कारण कि सांख्ययोग की जो सार-सार बातें हैं वे सांख्ययोगी के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं और उन बातों को समझने की बहुत जरूरत है। निबोध पद का तात्पर्य है कि सांख्ययोग में क्रिया और सामग्री की प्रधानता नहीं है किन्तु उस तत्त्व को समझने की प्रधानता है। सांख्ययोगी की जो आखिरी स्थिति है जिससे बढ़कर साधक की कोई स्थिति नहीं हो सकती वही ज्ञान की परा निष्ठा कही जाती है। उस परा निष्ठा को अर्थात् ब्रह्म को सांख्ययोग का साधक जिस प्रकार से प्राप्त होता है उसको मैं संक्षेप से कहूँगा अर्थात् उसकी सार-सार बातें कहूँगा।– स्वामी रामसुखदास जी )

 

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।

शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।18.51।।

 

बुद्धया – बुद्धि; विशुद्धया-शुद्ध; युक्तः – युक्त होना; धृत्या-दृढ़ संकल्प के साथ; आत्मानम् – बुद्धि को; नियम्य-रोकना; च-और; शब्द आदीन् विषयान्–शब्द और इन्द्रियों के विषय को; त्यक्त्वा -त्यागकर; रागद्वेषौ-अनुराग और द्वेष; व्युदस्य-एक ओर रख कर; च-और;

 

कोई भी मनुष्य ब्रह्म को पाने की पात्रता प्राप्त कर सकता है । जब वह विशुद्ध या सात्विकी बुद्धि से युक्त होकर , दृढ़ता से या दृढ संकल्प से इन्द्रियों को संयत रखता है, शब्द और अन्य इन्द्रिय विषयों का परित्याग करता है, राग और द्वेष का परित्याग कर अपने से अलग कर लेता है।

 

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।

 

विविक्तसेवी-एकान्त स्थान पर निवास करना; लघ्वाशी ( लघुआशी ) -कम भोजन करने वाला; यत-नियंत्रण करके; वाक्-वाणी; काय-शरीर; मानसः-मन; ध्यानयोगपरो – ध्यान में लीन; नित्यम्-सदैव; वैराग्यम्-उदासीनता; समुपाश्रितः-शरण लेकर;

 

जो एकांत वास करता है, अल्प भोजन करता है, शरीर मन और वाणी पर नियंत्रण रखता है, सदैव ध्यान में लीन रहता है, वैराग्य का अभ्यास करता है,

 

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

 

अहड्.कारम्-अहंकार; बलम्- बल ; दर्पम्-घमंड को; कामम्-इच्छा; क्रोधम्-क्रोध; परिग्रहम्-स्वार्थ मुक्त; विमुच्य–मुक्त होकर; निर्ममः-स्वामित्व की भावना से रहित; शान्तः-शान्तिप्रियब्रह्म-भूयाय-ब्रह्म के साथ एकीकृत होना; कल्पते योग्य हो जाता है।

 

जो अहंकार, बल , अभिमान, कामनाओं , क्रोध, संपत्ति के स्वामित्व और स्वार्थ से मुक्त रहता है , जो ममता से रहित और जो शांति में स्थित है वह ब्रह्म के साथ एकरस होने का अधिकारी है अर्थात वह ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है ।

 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।

 

ब्रह्मभूतः – ब्रह्म में स्थित ; प्रसन्नात्मा (प्रसन्न-आत्मा) – मानसिक रूप से शांत; न – न तो; शोचति-शोक करना; न-न ही; काङ्क्षति-कामना करता है; समः-समभाव से; सर्वेषु-सब के प्रति; भूतेषु-जीवों पर; मद्भक्तिं ( मत्-भक्तिम् ) – मेरी भक्ति को; लभते-प्राप्त करता है; पराम्-परम।

 

परम ब्रह्म की अनुभूति में स्थित मनुष्य मानसिक शांति प्राप्त करता है, वह न तो शोक करता है और न ही कोई कामना करता है। क्योंकि वह सभी के प्रति समभाव रखता है, ऐसा परम योगी मेरी भक्ति को प्राप्त करता है अर्थात वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त , प्रसन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।

 

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।

 

भक्त्या-प्रेममयी भक्ति; माम्-मुझे अभिजानाति-कोई जान सकता है; यावान्–जितना; यः-च-अस्मि-जैसा मैं हूँ; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ततः-तत्पश्चात; माम्-मुझे; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ज्ञात्वा-जानकर; विशते-प्रवेश करता है; तत्-अनन्तरम् तत्पश्चात।

 

मेरी प्रेममयी भक्ति से अथवा परा भक्ति के द्वारा कोई विरला ही मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। मैं जितना हूँ और जो हूँ इसको तत्व से या सत्य रूप में जान लेता है तब यथावत मुझे सत्य रूप में तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप या मेरा ही स्वरूप बन जाता है।।

 

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।

 

सर्व-सब; कर्माणि-कर्म; अपि-यद्यपि; सदा-सदैव; कुर्वाणः-निष्पादित करते हुए; मद्व्यपाश्रयः ( मत्-व्यपाश्रयः ) – मेरी पूर्ण शरणागति में; मत्प्रसादाद ( मत्-प्रसादात् ) – मेरी कृपा से; अवाप्नोति–प्राप्त करता है; शाश्वतम्-नित्य; पदम्-धाम; अव्ययम्-अविनाशी।

 

यदि मेरे भक्त सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए मेरी पूर्ण शरण ग्रहण करते हैं। तब वे मेरी कृपा से मेरा नित्य एवं अविनाशी धाम प्राप्त करते हैं अर्थात मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा और अनुग्रह से शाश्वत और अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

 

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।18.57।।

 

चेतसा – चेतना द्वारा; सर्वकर्माणि – समस्त कर्म; मयि-मुझको; संन्यस्य-सम्पर्ण; मत्परः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; बुद्धियोगम् – बुद्धि को भगवान में एकीकृत करते हुए; उपाश्रित्य-शरण लेकर; मत्चित्-मेरी चेतना में लीन; सततम्-सदैव; भव-होना।

 

अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना लक्ष्य मानो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो अर्थात चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके, मेरे परायण होकर तथा समता का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा।

 

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।

 

मत्चित्त:-सदैव मेरा स्मरण करना; सर्व-सब; दुर्गाणि-बाधाओं को; मत्प्रसादात्-मेरी कृपा से; तरिष्यसि -तुम पार कर सकोगे; अथ-लेकिन; चेत् – यदि; त्वम्-तुम; अहङ्कारात्-अभिमान के कारण; नश्रोष्यसि-नहीं सुनते हो; विनश्यसि – तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

 

मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा अर्थात यदि तुम सदैव मेरा स्मरण करते हो तब मेरी कृपा से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

( भगवान् कहते हैं कि मेरे में चित्त वाला होने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न, बाधा, शोक, दुःख आदि को पार कर जायेगा , तर जायगा अर्थात् उनको दूर करने के लिये तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा। भगवद्भक्त ने अपनी तरफ से सब कर्म भगवान के अर्पण कर दिये । स्वयं भगवान के अर्पित हो गया। समता के आश्रय से संसार की संयोगजन्य लोलुपता से सर्वथा विमुख हो गया और भगवान के  साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया। यह सब कुछ हो जाने पर भी वास्तविक तत्त्व की प्राप्ति में यदि कुछ कमी रह जाय या सांसारिक लोगों की अपेक्षा अपने में कुछ विशेषता देखकर अभिमान आ जाय अथवा इस प्रकार के कोई सूक्ष्म दोष रह जाएँ तो उन दोषों को दूर करने की साधक पर कोई जिम्मेवारी नहीं रहती बल्कि उन दोषों को, विघ्न – बाधाओं को दूर करने की पूरी जिम्मेवारी भगवान की हो जाती है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न बाधाओं को तर जायगा। इसका तात्पर्य यह निकला कि भक्त अपनी ओर से  उसको जितना समझ में आ जाय उतना पूरी सावधानी के साथ कर ले उसके बाद जो कुछ कमी रह जायगी वह भगवान की कृपा से पूरी हो जायगी। मनुष्य का अगर कुछ अपराध हुआ है तो वह यही हुआ है कि उसने संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान से  विमुख हो गया। अब उस अपराध को दूर करने के लिये वह अपनी ओर से संसार का सम्बन्ध तोड़कर भगवान के सम्मुख हो जाय। सम्मुख हो जाने पर जो कुछ कमी रह जायगी वह भगवान की कृपा से पूरी हो जायगी। अब आगे का सब काम भगवान् कर लेंगे। तात्पर्य यह हुआ कि भगवत्कृपा प्राप्त करने में संसार के साथ किञ्चित् भी सम्बन्ध मानना और भगवान से विमुख हो जाना , यही बाधा थी। वह बाधा उसने मिटा दी तो अब पूर्णता की प्राप्ति भगवत्कृपा अपने आप करा देगी। जिसका प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीर आदि के साथ सम्बन्ध है उस पर ही शास्त्रों का विधि-निषेध अपने वर्ण – आश्रम के अनुसार कर्तव्य का पालन आदि नियम लागू होते हैं और उसको उन-उन नियमों का पालन जरूर करना चाहिये। कारण कि प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीर आदि के सम्बन्ध को लेकर ही पाप-पुण्य होते हैं और उनका फल सुख-दुःख भी भोगना पड़ता है। इसलिये उस पर शास्त्रीय मर्यादा और नियम विशेषता से लागू होते हैं परन्तु जो प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा ही विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाता है वह शास्त्रीय विधि-निषेध और वर्णआश्रमों की मर्यादा का दास नहीं रहता। वह विधि-निषेध से भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उस पर विधि निषेध लागू नहीं होते क्योंकि विधि-निषेध की मुख्यता प्रकृति के राज्य में ही रहती है। प्रभु के राज्य में तो शरणागति  की ही मुख्यता रहती है।जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है। यदि वह केवल अपने अंशी परमात्मा की ही तरफ चलता है तो उस पर देव, ऋषि, प्राणी, मातापिता आदि और दादा – परदादा आदि पितरों का भी कोई ऋण नहीं रहता क्योंकि शुद्ध चेतन अंश ने इनसे कभी कुछ लिया ही नहीं। लेना तभी बनता है जब वह जड शरीर के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और सम्बन्ध जोड़ने से ही कमी आती है, नहीं तो उसमें कभी कमी आती ही नहीं । जब उसमें कभी कमी आती ही नहीं तो फिर वह उनका ऋणी कैसे बन सकता है । यही सम्पूर्ण विघ्नों को तरना है – साधनकाल में जीवननिर्वाह की समस्या , शरीरमें रोग आदि अनेक विघ्नबाधाएँ आती हैं परन्तु उनके आनेपर भी भगवान की कृपा का सहारा रहने से साधक विचलित नहीं होता। उसे तो उन विघ्नबाधाओं में भगवान की विशेष कृपा ही दिखती है। इसलिये उसे विघ्नबाधाएँ बाधारूप से दिखती ही नहीं बल्कि कृपारूप से ही दिखती हैं। पारमार्थिक साधन में विघ्नबाधाओं के आने की तथा भगवत्प्राप्ति में आड़ लगने की सम्भावना रहती है। इसके लिये भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेने वाले के दोनों काम मैं कर दूँगा अर्थात् अपनी कृपा से साधन की सम्पूर्ण विघ्नबाधाओं को भी दूर कर दूँगा और उस साधन के द्वारा अपनी प्राप्ति भी करा दूँगा। भगवान् अत्यधिक कृपालुता के कारण आत्मीयता पूर्वक अर्जुन से कह रहे हैं कि  मैंने जो कुछ कहा है उसे न मानकर अगर अहंकार के कारण अर्थात् मैं भी कुछ जानता हूँ , करता हूँ तथा मैं कुछ समझ सकता हूँ , कुछ कर सकता हूँ आदि भावों के कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा , मेरे कहने के अनुसार नहीं चलेगा , मेरा कहना नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा । यद्यपि अर्जुन के लिये यह किञ्चिन्मात्र भी सम्भव नहीं है कि वह भगवान की बात न सुने अथवा न माने तथापि भगवान् कहते हैं कि अगर तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि अगर तू अनजाने में मेरी बात न सुने अथवा किसी भूल के कारण न सुने तो यह सब क्षम्य है परन्तु यदि तू अहंकार से मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा क्योंकि अहंकार के कारण मेरी बात न सुनने से तेरा अभिमान बढ़ जायगा जो सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का मूल है। पहले चौथे अध्यायमें भगवान् स्वयं अपने श्रीमुखसे कहकर आये हैं कि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है और फिर नवें अध्याय में उन्होंने कहा है कि हे अर्जुन तू प्रतिज्ञा कर कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता । इससे सिद्ध हुआ कि अर्जुन भगवान के भक्त हैं अतः वे कभी भगवान से विमुख नहीं हो सकते और उनका पतन भी कभी नहीं हो सकता परन्तु वे अर्जुन भी यदि भगवान की बात नहीं सुनेंगे तो भगवान से विमुख हो जायँगे और भगवान से विमुख होने के कारण उनका भी पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि भगवान से विमुख होने के कारण ही प्राणि का पतन होता है अर्थात् वह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता है । इसी अध्याय के छप्पनवें श्लोक में भगवान ने सामान्य रीति से सबके लिये कहा कि मेरी कृपा से परमपदकी प्राप्ति हो जाती है और यहाँ अर्जुन के लिये कहते हैं कि मेरी कृपा से तू विघ्न-बाधाओं को तर जायगा। इन दोनों बातों का तात्पर्य यह है कि भगवान की कृपा में जो शक्ति है वह शक्ति किसी साधन में नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि साधन न करें बल्कि परमात्म प्राप्ति के लिये साधन करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म होना चाहिये क्योंकि मनुष्य जन्म केवल परमात्म प्राप्ति के लिये ही मिला है। मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी जो परमात्मा को प्राप्त नहीं करता वह यदि ऊँचे से ऊँचे लोकों में भी चला जाय तो भी उसे लौटकर संसार (जन्म-मरण) में आना ही पड़ेगा । इसलिये जब यह मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है तो फिर मनुष्य को जीते जी ही भगवत्प्राप्ति कर लेनी चाहिये और जन्म-मरण से रहित हो जाना चाहिये। कर्मयोगी के लिये भी भगवान ने कहा है कि समतायुक्त पुरुष इस जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप  दोनों से रहित हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मबन्धन से सर्वथा रहित होना अर्थात् जन्म-मरण से रहित होना मनुष्यमात्र का परम ध्येय है। दसवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं अपनी कृपा से भक्तों के अन्तःकरण में ज्ञान प्रकाशित कर देता हूँ और ग्यारहवें अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में भगवन ने कहा कि मैंने अपनी कृपा से ही विराट रूप दिखाया है। उसी कृपा को लेकर भगवान् यहाँ कहते हैं कि मेरी कृपा से परमपद की प्राप्ति हो जायगी और मेरी कृपा से ही सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा । परमपद को प्राप्त होने पर किसी प्रकार की विघ्नबाधा सामने आने की सम्भावना ही नहीं रहती। फिर भी सम्पूर्ण विघ्न बाधाओं को तरने की बात कहने का तात्पर्य यह है कि अर्जुन के मन में यह भय बैठा था कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा । युद्ध के कारण कुल परम्परा के नष्ट होनेसे पितरों का पतन हो जायगा और इस प्रकार अनर्थ परम्परा बढ़ती ही जायगी । हम लोग राज्य के लोभ में आकर इस महान् पाप को करने के लिये तैयार हो गये हैं । इसलिये मैं शस्त्र छोड़कर बैठ जाऊँ और धृतराष्ट्र के पक्ष के लोग मेरे को मार भी दें तो भी मेरा कल्याण ही होगा । इन सभी बातों को लेकर और अनेक जन्मों के दोषों को भी लेकर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मेरी कृपा से तू सब विघ्नों को, पापों को तर जायगा । मेरी कृपा से तेरा किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं रहेगा कोई भी बन्धन नहीं रहेगा और मेरी कृपा से सर्वथा शुद्ध होकर तू परम पद को प्राप्त हो जायगा — स्वामी रामसुखदास जी )

 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।

 

यत्-यदि; अहङ्कारम् अहंकार से प्रेरित; आश्रित्य–शरण लेकर; न-योत्स्ये-मैं नहीं लडूंगा; इति इस प्रकार; मन्यसे-तुम सोचते हो; मिथ्याएष-यह सब झूठ है; व्यवसायः-दृढ़ संकल्प; ते तुम्हारा; प्रकृतिः-भौतिक प्रकृति; त्वाम्-तुमको; नियोक्ष्यति–विवश करेगी।

 

यदि तुम अहंकार से प्रेरित होकर सोचते हो कि “मैं युद्ध नहीं लडूंगा “, तुम्हारा यह निर्णय, यह निश्चय झूठा और निरर्थक है । तुम्हारा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म , तुम्हारी स्वाभाविक क्षात्र प्रकृति , क्षात्र स्वभाव तुम्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश करेगा , तुम्हें बल पूर्वक युद्ध में लगा देगा ।।

( प्रकृति से ही महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार पैदा हुआ है। उस अहंकार का ही एक विकृत अंश है कि मैं शरीर हूँ। इस विकृत अहंकार का आश्रय लेने वाला पुरुष कभी भी क्रियारहित नहीं हो सकता। कारण कि प्रकृति हर समय क्रियाशील है , बदलनेवाली है । इसलिये उसके आश्रित रहने वाला कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता। जब मनुष्य अहंकार पूर्वक क्रियाशील प्रकृति के वश में हो जाता है तो फिर वह यह कैसे कह सकता है कि मैं अमक कर्म करूँगा और अमुक कर्म नहीं करूँगा अर्थात् प्रकृति के परवश हुआ मनुष्य करना और न करना इन दोनों से छूटेगा ही नहीं। कारण कि प्रकृति के वश में हुए मनुष्य का तो करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है परन्तु जब मनुष्य प्रकृति के परवश नहीं रहता , उससे निर्लिप्त हो जाता है जो कि इसका वास्तविक स्वरूप है तो फिर उसके लिये करना और न करना ऐसा कहना ही नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि जो प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखे और कर्म न करना चाहे ऐसा उसके लिये सम्भव नहीं है परन्तु जिसने प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है अथवा जो पूर्ण रूप से भगवन की शरण हो गया है उसको कर्म करने के लिये बाध्य नहीं होना पड़ता। दूसरे अध्याय में अर्जुनने भगवान की शरण होकर शिक्षा की प्रार्थना की और उसके बाद अर्जुन ने साफ-साफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा । यह बात भगवान को अच्छी नहीं लगी। भगवान मन में सोचते हैं कि यह पहले तो मेरे शरण हो गया और फिर इसने मेरे कुछ कहे बिना ही अपनी तरफ से साफ-साफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो फिर यह मेरी शरणागति कहाँ रही । यह तो अहंकार की शरणागति हो गयी कारण कि वास्तविक शरणागत होने पर मैं यह करूँगा , यह नहीं करूँगा ऐसा कहना ही नहीं बनता। भगवान के शरणागत होने पर तो भगवान् जैसा करायेंगे , वैसा ही करना होगा। इसी बात को लेकर भगवान को हँसी आ गयी परन्तु अर्जुन पर अत्यधिक कृपा और स्नेह होने के कारण भगवान ने उपदेश देना आरम्भ कर दिया नहीं तो भगवान् वहीं पर यह कह देते कि जैसा चाहता है वैसा कर । परन्तु अर्जुन की यह बात कि मैं युद्ध नहीं करूँगा भगवान के भीतर खटक गयी। इसलिये भगवान ने यहाँ अर्जुन के उन्हीं शब्दों का प्रयोग करके यह कहा है कि तू अहंकार के ही शरण है मेरी शरण नहीं। अगर तू मेरी शरण हो गया होता तो युद्ध नहीं करूँगा ऐसा कहना बन ही नहीं सकता था। मेरी शरण होता तो मैं क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा इसकी जिम्मेवारी मेरे पर होती। इसके अलावा मेरे शरणागत होने पर यह प्रकृति भी तुझे बाध्य नहीं कर पाती। यह त्रिगुणमयी माया अर्थात् प्रकृति उसी को बाध्य करती है जो मेरी शरण नहीं हुआ है क्योंकि यह नियम है कि प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ प्राणी प्रकृति के गुणों के द्वारा सदा ही परवश होता है। यह एक बड़ी मार्मिक बात है कि मनुष्य जिन प्राकृत पदार्थों को अपना मान लेते हैं उन पदार्थों के सदा ही परवश या पराधीन हो जाते हैं। वे ग़लतफ़हमी तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थों के मालिक हैं पर हो जाते हैं उनके गुलाम परन्तु जिन पदार्थों को अपना नहीं मानते उन पदार्थों के परवश नहीं होते। इसलिये मनुष्य को किसी भी प्राकृत पदार्थ को अपना नहीं मानना चाहिये क्योंकि वे वास्तव में अपने हैं ही नहीं। अपने तो वास्तव में केवल भगवान् ही हैं। उन भगवान को अपना मानने से मनुष्य की परवशता सदा के लिये समाप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य पदार्थों और क्रियाओं को अपनी मानता है तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है और भगवा को अपना मानता है और उनके अनन्य शरण होता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है। प्रभु के शरणागत होने पर परतन्त्रता लेशमात्र भी नहीं रहती यह शरणागति की महिमा है परन्तु जो प्रभु की शरण न लेकर अहंकार की शरण लेते हैं वे मृत्यु के मार्ग अर्थात संसार में बह जाते हैं । इसी बात की चेतावनी देते हुए भगवान् अर्जुन से कह रहे हैं कि तू जो यह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो तेरा यह कहना तेरी यह हेकड़ी चलेगी नहीं। तुझे क्षात्रप्रकृति के परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। व्यवसाय अर्थात् निश्चय दो तरह का होता है – वास्तविक और अवास्तविक। परमात्मा के साथ अपना जो नित्य सम्बन्ध है उसका निश्चय करना तो वास्तविक है और प्रकृति के साथ मिलकर प्राकृत पदार्थों का निश्चय करना अवास्तविक है। जो निश्चय परमात्मा को लेकर होता है उसमें स्वयं की प्रधानता रहती है और जो निश्चय प्रकृति को लेकर होता है उसमें अन्तःकरणकी प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान् यहाँ अर्जुन से कहते हैं कि अहंकार का अर्थात् प्रकृति का आश्रय लेकर तू जो यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा ऐसा तेरा क्षात्र प्रकृति के विरुद्ध निश्चय अवास्तविक अर्थात् मिथ्या है, झूठा है। आश्रय परमात्मा का ही होना चाहिये, प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार का नहीं। यदि प्राणी यह निश्चय कर लेता है कि मैं परमात्मा का ही हूँ और मुझे केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है तो उसका यह निश्चय वास्तविक अर्थात् सत्य है, नित्य है। इस निश्चय की महिमा भगवान ने नवें अध्याय के तीसवें श्लोक में की है कि अगर दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी अनन्य भाव से मेरा भजन करता है तो उसको दुराचारी नहीं मानना चाहिये बल्कि साधु ही मानना चाहिये क्योंकि वह वास्तविक निश्चय कर चुका है कि मैं भगवान का ही हूँ और भगवन का ही भजन करूँगा। भगवान् कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा। क्षत्रिय का स्वभाव है – शूरवीरता , युद्ध में पीठ न दिखाना। अतः धर्ममय युद्ध का अवसर सामने आने पर तू युद्ध किये बिना रह नहीं सकेगा- स्वामी रामसुखदास जी )

 

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।18.60।।

 

स्वभावजेन – अपने प्राकृतिक गुण से उत्पन्न; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र,अर्जुन; निबद्धः-बद्ध; स्वेन-अपनी प्रवृत्ति द्वारा; कर्मणा-कर्मों द्वारा; कर्तुम् – करने के लिए; न-नहीं; इच्छसि-इच्छा करते हो; यत्-जिसे; मोहात्-मोह के कारण; करिष्यसि-तुम करोगे; अवश:-असहाय होकर; अपि-भी; तत्-वह।

 

हे कौन्तेय ! मोहवश जिस कर्म को तुम नहीं करना चाहते उसे तुम अपनी प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न प्रवृत्ति से बाध्य होकर करोगे अर्थात तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, अत: मोह के वश हो कर जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम अपनी क्षात्र प्रकृति से  विवश होकर करोगे।।

( पूर्वजन्म में जैसे कर्म और गुणों की वृत्तियाँ रही हैं इस जन्म में जैसे माता-पिता से पैदा हुए हैं अर्थात् माता-पिता के जैसे संस्कार रहे हैं जन्म के बाद जैसा देखा-सुना है , जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं  उन सबके मिलने से अपनी जो कर्म करने की एक आदत बनी है उसका नाम स्वभाव है। इसको भगवान ने स्वभाव जन्य स्वकीय कर्म कहा है। इसी को स्वधर्म भी कहते हैं । स्वभावजन्य क्षात्रप्रकृति से बँधा हुआ तू मोह के कारण जो नहीं करना चाहता उसको तू परवश होकर करेगा। स्वभाव के अनुसार ही शास्त्रों ने कर्तव्यपालन की आज्ञा दी है। उस आज्ञा में यदि दूसरों के कर्मों की अपेक्षा अपने कर्मों में कमियाँ अथवा दोष दिखते हों तो भी वे दोष बाधक या पापजनक नहीं होते । उस स्वभावज कर्म अर्थात क्षात्रधर्म के अनुसार तू युद्ध करने के लिये परवश है। युद्धरूप कर्तव्य को न करने का तेरा विचार मूढ़तापूर्वक किया गया है। जो जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं उनका स्वभाव सर्वथा शुद्ध होता है। अतः उन पर स्वभाव का आधिपत्य नहीं रहता अर्थात् वे स्वभाव के परवश नहीं होते फिर भी वे किसी काम में प्रवृत्त होते हैं तो अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार ही काम करते हैं परन्तु साधारण मनुष्य प्रकृति के परवश होते हैं इसलिये उनका स्वभाव उनको जबर्दस्ती कर्म में लगा देता है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव भी तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा परन्तु उसका फल तेरे लिये बढ़िया नहीं होगा। यदि तू शास्त्र या सन्त महापुरुषों की आज्ञा से अथवा मेरी आज्ञा से युद्धरूप कर्म करेगा तो वही कर्म तेरे लिये कल्याणकारी हो जायगा। कारण कि शास्त्र अथवा मेरी आज्ञा से कर्मों को करने से उन कर्मों में जो रागद्वेष हैं वे स्वाभाविक ही मिटते चले जायँगे क्योंकि तेरी दृष्टि आज्ञा की तरफ रहेगी रागद्वेष की तरफ नहीं। अतः वे कर्म बन्धनकारक न होकर कल्याणकारक ही होंगे। गीता में प्रकृति की परवशता की बात सामान्य रूप से कई जगह आयी है । इससे स्वभाव की प्रबलता ही सिद्ध होती है क्योंकि कोई भी प्राणी जिस किसी योनि में भी जन्म लेता है उसकी प्रकृति अर्थात् स्वभाव उसके साथ में रहता है। अगर उसका स्वभाव परम शुद्ध हो अर्थात् स्वभाव में सर्वथा असङ्गता हो तो उसका जन्म ही क्यों होगा यदि उसका जन्म होगा तो उसमें स्वभाव की मुख्यता रहेगी । जब स्वभाव की ही मुख्यता अथवा परवशता रहेगी और प्रत्येक क्रिया स्वभाव के अनुसार ही होगी तो फिर शास्त्रों का विधि-निषेध किस पर लागू होगा गुरुजनों की शिक्षा किस के काम आयेगी और मनुष्य दुर्गुण और दुराचारों का त्याग करके सद्गुण और सदाचारों में कैसे प्रवृत्त होगा ? जैसे मनुष्य गङ्गाजी के प्रवाह को रोक तो नहीं सकता पर उसके प्रवाह को मोड़ सकता है , घुमा सकता है। ऐसे ही मनुष्य अपने वर्णोचित स्वभाव को छोड़ तो नहीं सकता पर भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रखकर उसको राग-द्वेष से रहित परम शुद्ध और निर्मल बना सकता है। स्वभाव को शुद्ध बनाने में मनुष्यमात्र सर्वथा सबल और स्वतन्त्र है, निर्बल और परतन्त्र नहीं है। निर्बलता और परतन्त्रता तो केवल राग-द्वेष होने से प्रतीत होती है। अब इस स्वभाव को सुधारने के लिये भगवान ने गीता में कर्मयोग और भक्तियोग की दृष्टि से दो उपाय बताये हैं – (1) कर्मयोग की दृष्टि से -तीसरे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में भगवान ने बताया है कि मनुष्य के विशेष शत्रु राग-द्वेष ही हैं। अतः राग द्वेष के वश में नहीं होना चाहिये अर्थात् राग-द्वेष को लेकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये बल्कि शास्त्र की आज्ञा के अनुसार ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। शास्त्र के आज्ञानुसार अर्थात् शिष्य गुरु की , पुत्र माता-पिता की, पत्नी पति की और नौकर मालिक की आज्ञा के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक सब कर्म करता है तो उसमें राग-द्वेष नहीं रहते। कारण कि अपने मन के अनुसार कर्म करने से ही राग – द्वेष पुष्ट होते हैं। शास्त्र आदि की आज्ञा के अनुसार कार्य करने से और कभी दूसरा नया कार्य करने की मन में आ जानेपर भी शास्त्र की आज्ञा न होने से हम वह कार्य नहीं करते तो उससे हमारा राग मिट जायगा और कभी कार्य को न करने की मन में आ जाने पर भी शास्त्र की आज्ञा होने से हम वह कार्य प्रसन्नतापूर्वक करते हैं तो उससे हमारा द्वेष मिट जाता है। (2) भक्तियोग की दृष्टि से जब मनुष्य ममता वाली वस्तुओं के सहित स्वयं भगवान के शरण हो जाता है तब उसके पास अपना करके कुछ नहीं रहता। वह भगवान के हाथ की कठपुतली बन जाता है। फिर भगवान की आज्ञा के अनुसार उनकी इच्छा के अनुसार ही उसके द्वारा सब कार्य होते हैं जिससे उसके स्वभाव में रहने वाले रागद्वेष मिट जाते हैं। कर्मयोग में राग-द्वेष के वशीभूत न होकर कार्य करने से स्वभाव शुद्ध हो जाता है और भक्तियोग में भगवान के सर्वथा अर्पित होने से स्वभाव शुद्ध हो जाता है ।स्वभाव शुद्ध होने से बन्धन का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। मनुष्य जो कुछ कर्म करता है वह कभी रागद्वेष के वशीभूत होकर करता है और कभी सिद्धान्त के अनुसार करता है। रागद्वेषपूर्वक कर्म करने से रागद्वेष दृढ़ हो जाते हैं और फिर मनुष्य का वैसा ही स्वभाव बन जाता है। सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने से उसका सिद्धान्त के अनुसार ही करने का स्वभाव बन जाता है। जो मनुष्य परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखकर शास्त्र और महापुरुषों के सिद्धान्त के अनुसार कर्म करते हैं और जो परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं – उन दोनों (साधकों और सिद्ध महापुरुषों) के कर्म दुनिया के लिये आदर्श होते हैं, अनुकरणीय होते हैं । जीव स्वयं परमात्मा का अंश है और स्वभाव स्वयं स्वतः सिद्ध है। स्वभाव स्वयं का बनाया हुआ है , स्वयं चेतन है और स्वभाव जड है- स्वामी रामसुखदासजी )

 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

 

ईश्वर:-परमेश्वर; सर्वभूतानाम्-सभी जीवों में; हृत्देशे-हृदय में; अर्जुन-अर्जुन; तिष्ठति-वास करता है; भ्रामयन्-भटकने का कारण; सर्वभूतानि-समस्त जीवों को; यन्त्रआरूढानि-यंत्र पर सवार, मायया – भौतिक शक्ति से निर्मित।

 

हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देशित करता है जो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार होती है अर्थात ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयमें रहता है और अपनी माया से शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता रहता है।

 

( इसका तात्पर्य यह है कि जो ईश्वर सबका शासक, नियामक , सबका भरण-पोषण करने वाला और निरपेक्ष रूप से सबका संचालक है वह अपनी शक्ति से उन प्राणियों को घुमाता है जिन्होंने शरीर को मैं और मेरा मान रखा है। जैसे विद्युत शक्ति से संचालित यन्त्र – रेल पर कोई आरूढ़ हो जाता है ,चढ़ जाता है तो उसको परवशता से रेल के अनुसार ही जाना पड़ता है। परन्तु जब वह रेल पर आरूढ़ नहीं रहता, नीचे उतर जाता है तब उसको रेल के अनुसार नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही जब तक मनुष्य शरीर रूपी यन्त्र के साथ मैं और मेरेपन का सम्बन्ध रखता है तब तक ईश्वर उसको उसके स्वभाव के अनुसार संचालित करता रहता है और वह मनुष्य जन्म-मरण रूप संसार के चक्र में घूमता रहता है। शरीर के साथ मैं मेरेपन का सम्बन्ध होने से ही राग-द्वेष पैदा होते हैं जिससे स्वभाव अशुद्ध हो जाता है। स्वभाव के अशुद्ध होने पर मनुष्य प्रकृति अर्थात् स्वभाव के परवश हो जाता है परन्तु शरीर से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर जब स्वभाव राग-द्वेष से रहित अर्थात् शुद्ध हो जाता है तब प्रकृति की परवशता नहीं रहती। प्रकृति (स्वभाव) की परवशता न रहने से ईश्वर की माया उसको संचालित नहीं करती।अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब ईश्वर ही हमारे को भ्रमण करवाता है, क्रिया करवाता है , तब यह काम करना चाहिये और यह काम नहीं करना चाहिये – ऐसी स्वतंन्त्रता कहाँ रही क्योंकि यन्त्रारूढ़ होने के कारण हम यन्त्र के और यन्त्र के संचालक ईश्वर के अधीन हो गये, परतन्त्र हो गये , फिर यन्त्र का संचालक (प्रेरक) जैसा करायेगा वैसा ही होगा इसका समाधान इस प्रकार इस प्रकार है – जैसे बिजली से संचालित होने वाले यन्त्र अनेक तरह के होते हैं। एक ही बिजली से संचालित होने पर भी किसी यन्त्र में बर्फ जम जाती है और किसी यन्त्र में अग्नि जल जाती है अर्थात् उनमें एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध काम होता है। परन्तु बिजली का यह आग्रह नहीं रहता कि मैं तो केवल बर्फ ही जमाऊँगी अथवा केवल अग्नि ही जलाऊँगी। यन्त्रों का भी ऐसा आग्रह नहीं रहता कि हम तो केवल बर्फ ही जमायेंगे अथवा केवल अग्नि ही जलायेंगे बल्कि यन्त्र बनाने वाले कारीगर ने यन्त्रों को जैसा बना दिया है उसके अनुसार उनमें स्वाभाविक ही बर्फ जमती है और अग्नि जलती है। ऐसे ही मनुष्य, पशु, पक्षी , देवता , यक्ष , राक्षस आदि जितने भी प्राणी हैं सब शरीर रूपी यन्त्रों पर चढ़े हुए हैं और उन सभी यन्त्रों को ईश्वर संचालित करता है। उन अलग-अलग शरीरों में भी जिस शरीर में जैसा स्वभाव है, उस स्वभाव के अनुसार वे ईश्वर से प्रेरणा पाते हैं और कार्य करते हैं। तात्पर्य यह है कि उन शरीरों से मैं मेरेपन का सम्बन्ध मानने वाले का जैसा (अच्छा या मन्दा) स्वभाव होता है उससे वैसी ही क्रियाएँ होती हैं। अच्छे स्वभाव वाले (सज्जन) मनुष्य के द्वारा श्रेष्ठ क्रियाएँ होती हैं और मन्दे स्वभाववाले (दुष्ट) मनुष्य के द्वारा खराब क्रियाएँ होती हैं। इसलिये अच्छी या मन्दी क्रियाओं को कराने में ईश्वर का हाथ नहीं है बल्कि खुद के बनाये हुए अच्छे या मन्दे स्वभाव का ही हाथ है। जैसे बिजली यन्त्र के स्वभाव के अनुसार ही उसका संचालन करती है ऐसे ही ईश्वर प्राणी के (शरीर में स्थित) स्वभाव के अनुसार उसका संचालन करते हैं। जैसा स्वभाव होगा वैसे ही कर्म होंगे। इसमें एक बात विशेष ध्यान देने की है कि स्वभाव को सुधारने में और बिगाड़ने में सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं, कोई भी परतन्त्र नहीं है। परन्तु पशु, पक्षी, देवता आदि जितने भी मनुष्येतर प्राणी हैं उनमें अपने स्वभाव को सुधारने का न अधिकार है और न स्वतन्त्रता ही है। मनुष्य शरीर अपना उद्धार करने के लिये ही मिला है इसलिये इसमें अपने स्वभाव को सुधारने का पूरा अधिकार, पूरी स्वतन्त्रता है। उस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके स्वभाव सुधारने में और स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके स्वभाव बिगाड़ने में मनुष्य स्वयं ही हेतु है। ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय देश में रहता है – यह कहने का तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी में सब जगह जल रहने पर भी जहाँ कुआँ होता है वहीं से जल प्राप्त होता है ऐसे ही परमात्मा सब जगह समान रीति से परिपूर्ण होते हुए भी हृदय में प्राप्त होते हैं अर्थात् हृदय सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का विशेष स्थान है। ऐसे ही तीसरे अध्याय में सर्वव्यापी परमात्मा को यज्ञ (निष्काम कर्म ) में स्थित बताया गया है । साधक की प्रायः यह भूल होती है कि वह भजन, कीर्तन , ध्यान आदि करते हुए भी भगवान दूर हैं वे अभी नहीं मिलेंगे यहाँ नहीं मिलेंगे अभी मैं योग्य नहीं हूँ भगवान की कृपा नहीं है आदि भावनाएँ बनाकर भगवान की दूरी की मान्यता ही दृढ़ करता रहता है। इस जगह साधक को यह सावधानी रखनी चाहिये कि जब भगवान् सभी प्राणियों में मौजूद हैं तो मेरे में भी हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जप में भी भगवान हैं , मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वास में भी भगवान हैं , मेरे मन में भी भगवान हैं, बुद्धि में भी भगवान हैं , मैं जो मैं – मैं कहता हूँ उस मैं में भी भगवान हैं। उस मैं का जो आधार है वह अपना स्वरूप भगवान से अभिन्न है अर्थात् मैं पन तो दूर है पर भगवान मैं पन से भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपने में भगवान को मानते हुए ही भजन, जप, ध्यान आदि करने चाहिये। अब शङ्का यह होती है कि अपने में परमात्मा को मानने से मैं और परमात्मा दो (अलग-अलग) हैं – यह द्वैत आपत्ति होगी। इसका समाधान यह है कि परमात्मा को अपने में मानने से द्वैतापत्ति नहीं होती बल्कि अहंकार ( मैं पन ) को स्वीकार करने से जो अपनी अलग सत्ता प्रतीत होती है उसी से द्वैत की उत्पत्ति होती है। परमात्मा को अपना और और अपने में मानने से तो परमात्मा से अभिन्नता होती है जिससे प्रेम प्रकट होता है। जैसे गङ्गाजी में बाढ़ आ जाने से उसका जल बहुत बढ़ जाता है और फिर बाद में वर्षा न होने से उसका जल पुनः कम हो जाता है परन्तु उसका जो जल गड्ढे में रह जाता है अर्थात् गङ्गाजी से अलग हो जाता है उसको गङ्गोज्झ कहते हैं। उस गङ्गोज्झ को मदिरा के समान महान अपवित्र माना गया है। गङ्गाजी से अलग होने के कारण वह गंदा हो जाता है और उसमें अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं जो कि रोगों के कारण हैं परन्तु फिर कभी जोर की बाढ़ आ जाती है तो वह गङ्गोज्झ वापस गङ्गाजी में मिल जाता है। गङ्गाजी में मिलते ही उसकी एकदेशीयता, अपवित्रता , अशुद्धि आदि सभी दोष जाते हैं और वह पुनः महान् पवित्र गङ्गाजल बन जाता है। ऐसे ही यह मनुष्य जब अहंकारको स्वीकार करके परमात्मा से विमुख हो जाता है तब इसमें परिच्छिन्नता, पराधीनता, जडता, विषमता, अभाव, अशान्ति, अपवित्रता आदि सभी दोष या विकार आ जाते हैं परन्तु जब यह अपने अंशी परमात्मा के सम्मुख हो जाता है उन्हीं की शरण में चला जाता है अर्थात् अपना अलग कोई व्यक्तित्व नहीं रखता तब उसमें आये हुए भिन्नता, पराधीनता आदि सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं चेतन स्वरूप में दोष नहीं हैं दोष तो अहंता या मैंपन को स्वीकार करने से ही आते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।

 

तम्-उस पर; एव-केवल; शरणम् गच्छ-शरण ग्रहण करो; सर्वभावेन – विशाल हृदय से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; तत्प्रसादात्-उसकी कृपा से; पराम्-परम; शान्तिम्-शान्ति; स्थानम्-धाम को ; प्राप्सयसि-प्राप्त करोगे; शाश्वतम्-नित्य।

 

हे भारत! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे अर्थात तुम सर्वभाव या सम्पूर्ण भाव से उस ईश्वर की ही शरण में चले जाओ । उसकी कृपा से तुम परमशान्ति अर्थात इस संसार से सम्पूर्ण वैराग्य को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाओगे।

( मनुष्य में प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने संत महापुरुष विद्यमान रहते हैं तब उसका उन पर श्रद्धा-विश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती परन्तु जब वे चले जाते हैं तब बाद में वह रोता है , पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही भगवान् अर्जुन के रथ के घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। वे ही भगवान जब अर्जुन से कहते हैं कि शरणागत भक्त मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त हो जाता है और तू भी मेरे में चित्त वाला होकर मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा। तब अर्जुन कुछ बोले ही नहीं। इससे यह सम्भावना भी हो सकती है कि भगवान के वचनों पर अर्जुन को पूरा विश्वास न हुआ हो। इसी दृष्टि से भगवान को यहाँ अर्जुन के लिये अन्तर्यामी ईश्वर की शरण में जाने की बात कहनी पड़ी। भगवान् कहते हैं कि जो सर्वव्यापक ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है और सबका संचालक है । तू उसी की शरण में चला जा। तात्पर्य है कि सांसारिक उत्पत्ति विनाशशील पदार्थ, वस्तु , व्यक्ति , घटना, परिस्थिति आदि किसी का किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल अविनाशी परमात्मा का ही आश्रय ले ले। पूर्वश्लोक में यह कहा गया कि मनुष्य जब तक शरीर रूपी यन्त्र के साथ मैं – मेरापन का सम्बन्ध रखता है तब तक ईश्वर अपनी माया से उसको घुमाता रहता है। भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि शरीर रूपी यन्त्र के साथ किञ्चिन्मात्र भी मैं – मेरापन का सम्बन्ध न रखकर तू केवल उस ईश्वर की शरण में चला जा। सर्वभाव से शरण में जाने का तात्पर्य यह हुआ कि मन से उसी परमात्मा का चिन्तन हो, शारीरिक क्रियाओं से उसी का पूजन हो, उसी का प्रेमपूर्वक भजन हो और उसके प्रत्येक विधान में परम प्रसन्नता हो। वह विधान चाहे शरीर ,इन्द्रियाँ, मन आदि के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल हो उसे भगवान का   ही किया हुआ मानकर खूब प्रसन्न हो जाय कि अहो भगवान की मुझ पर कितनी कृपा है कि मेरे से बिना पूछे ही मेरे मन, बुद्धि आदि के विपरीत जानते हुए भी केवल मेरे हित की भावना से मेरा परम कल्याण करने के लिये उन्होंने ऐसा विधान किया है । भगवान ने पहले यह कह दिया था कि मेरी कृपा से शाश्वत पद की प्राप्ति हो जाती है और मेरी कृपा से तू सम्पूर्ण विघ्नों से तर जायगा । वही बात यहाँ कहते हैं कि उस अन्तर्यामी परमात्मा की कृपा से तू परमशान्ति और शाश्वत स्थान और पद को प्राप्त कर लेगा। गीता में अविनाशी परमपद को ही परा शान्ति नाम से कहा गया है। परन्तु यहाँ भवगान ने परा शान्ति और शाश्वत स्थान और परमपद – दोनों का प्रयोग एक साथ किया है। अतः यहाँ परा शान्ति का अर्थ संसार से सर्वथा उपरति और शाश्वत स्थान का अर्थ परमपद लेना चाहिये। भगवान ने अर्जुन को सर्वव्यापी ईश्वर की शरण में जाने के लिये कहा है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या भगवान श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हैं क्योंकि अगर भगवान श्रीकृष्ण ईश्वर होते तो अर्जुन को उसी की शरण में जा – ऐसा (परोक्ष रीति से ) नहीं कहते। इसका समाधान यह है कि भगवान ने सर्वव्यापक ईश्वर की शरणागति को तो गुह्य से गुह्यतर कहा है पर अपनी शरणागति को सर्वगुह्यतमम् अर्थात् सबसे गुह्यतम कहा है। इससे सर्वव्यापक ईश्वर की अपेक्षा भगवान् श्रीकृष्ण बड़े ही सिद्ध हुए। भगवान ने पहले कहा है कि मैं अजन्मा, अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ । मैं सम्पूर्ण यज्ञों और तपों का भोक्ता हूँ। सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद हूँ – ऐसा मुझे मानने से शान्ति की प्राप्ति होती है परन्तु जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और सबका मालिक नहीं मानते उनका पतन होता है । इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण का ईश्वरत्व सिद्धि हो जाता है। इस अध्याय में ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (18। 61) पदों से अन्तर्यामी ईश्वर को सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित बताया है और पंद्रहवें अध्याय में सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः (15। 15) पदों से अपने को सबके हृदय में स्थित बताया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण दो नहीं हैं , एक ही हैं। जब अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान् श्रीकृष्ण एक ही हैं तो फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तमेंव शरणं गच्छ क्यों कहा इसका कारण यह है कि पहले छप्पनवें श्लोक में भगवान ने अपनी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद की प्राप्ति होने की बात कही और सत्तावनवें और अट्ठावनवें श्लोकों में अर्जुन को अपने परायण होने की आज्ञा देकर मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा -यह बात कही परन्तु अर्जुन कुछ बोले नहीं अर्थात् उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इस पर भगवान ने अर्जुन को धमकाया कि यदि अहंकार के कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। उनसठवें और साठवें श्लोक में कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – इस प्रकार अहंकार का आश्रय लेकर किया हुआ तेरा निश्चय भी नहीं टिकेगा और तुझे स्वभावज कर्मों के परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। भगवान के इतना कहने पर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं। अतः अन्त में भगवान को यह कहना पड़ा कि यदि तू मेरी शरण में नहीं आना चाहता तो सबके हृदय में स्थित जो अन्तर्यामी परमात्मा हैं उसी की शरण में तू चला जा। वास्तवमें अन्तर्यामी ईश्वर और भगवान् श्रीकृष्ण सर्वथा अभिन्न हैं अर्थात् सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूप से विराजमान ईश्वर ही भगवान् श्रीकृष्ण हैं और भगवान् श्रीकृष्ण ही सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान ईश्वर हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा कि तू उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण में चला जा। ऐसा कहने पर भी अर्जुन कुछ नहीं बोले। इसलिये भगवान् आगे के श्लोक में अर्जुन को चेताने के लिये उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।

 

इति-इस प्रकार; ते – तुमको; ज्ञानम्-ज्ञान; आख्यातम् – समझाना; गुह्यात्-गूढ़ से अधिक; गुह्यतरम्-और अधिक गुह्य अर्थात गुह्यतर; मया – मेरे द्वारा; विमृश्य-विचार करके; एतत्-इस; अशेषेण-पूर्णतया; यथा-जैसी; इच्छसि-इच्छा हो; तथा-वैसा ही; कुरु-करो

 

इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गोपनीय ज्ञान , गूढ़ से भो अधिक गूढ़ ( शरणागति रूप ) ज्ञान मैंने तुमसे कहा; इस पर गहनता पूर्ण अच्छी प्रकार से विचार करने के पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा तुम करो।।

( भगवान् कहते हैं कि यह गुह्य से भी गुह्यतर शरणागति रूप ज्ञान मैंने तेरे लिये कह दिया है। कर्मयोग गुह्य है और अन्तर्यामी निराकार परमात्मा की शरणागति गुह्यतर है । गुह्य से गुह्यतर शरणागति रूप ज्ञान बताकर भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि मैंने पहले जो भक्ति की बातें कही हैं उन पर तुम अच्छी तरह से विचार कर लेना। विमृश्यैतदशेषेण कहने में भगवान की अत्यधिक कृपालुता की एक गूढ़ संधि है कि कहीं अर्जुन मुझसे विमुख न हो जाय इसलिये यदि यह मेरी कही हुई बातों की तरफ विशेषता से खयाल करेगा तो असली बात अवश्य ही इसकी समझ में आ जायगी और फिर यह मेरे से विमुख नहीं होगा। यथेच्छसि तथा कुरु – पहले कही सब बातों पर पूरा-पूरा विचार करके फिर तेरी जैसी इच्छा हो वैसा कर। तू जैसा करना चाहता है वैसा कर ऐसा कहने में भी भगवान की आत्मीयता, कृपालुता और हितैषिता ही प्रत्यक्ष दिख रही है। पहले वक्ष्याम्यशेषतः (7। 2) , इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे (9। 1) वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1) आदि श्लोकों में भगवान अर्जुन के हित की बात कहते आये हैं पर इन वाक्यों में भगवान की अर्जुन पर सामान्य कृपा है। न श्रोष्यति विनङ्क्ष्यसि (18। 58) इस श्लोक में अर्जुन को धमकाने में भगवान की विशेष कृपा और अपनेपन का भाव टपकता है। यहाँ यथेच्छसि तथा कुरु कहकर भगवान् जो अपनेपन का त्याग कर रहे हैं इसमें तो भगवान की अत्यधिक कृपा और आत्मीयता भरी हुई है। कारण कि भक्त भगवान का  धमकाया जाना तो सह सकता है पर भगवान का त्याग नहीं सह सकता। इसलिये न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि आदि कहने पर भी अर्जुन पर इतना असर नहीं पड़ा जितना यथेच्छसि तथा कुरु कहने पर पड़ा। इसे सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान् तो मेरा त्याग कर रहे हैं क्योंकि मैंने यह बड़ी भारी गलती की कि भगवान के द्वारा प्यार से समझाने, अपनेपन से धमकाने और अन्तर्यामी की शरणागति की बात कहने पर भी मैं कुछ बोला नहीं जिससे भगवान को जैसी मरजी आये वैसा कर – यह कहना पड़ा। अब तो मैं कुछ भी कहने के लायक नहीं हूँ ऐसा सोचकर अर्जुन बड़े दुःखी हो जाते हैं तब भगवान् अर्जुन के बिना पूछे ही सर्वगुह्यतम वचनों को कहते हैं जिसका वर्णन आगे के श्लोक में है। पूर्वश्लोक में भगवान् विमृश्यैतदेषेण पद से अर्जुन को कहा कि मेरे इस पूरे उपदेश का सार निकाल लेना। परन्तु भगवान के सम्पूर्ण उपदेश का सार निकाल लेना अर्जुन के वश की बात नहीं थी क्योंकि अपने उपदेश का सार निकालना जितना वक्ता जानता है उतना श्रोता नहीं जानता । दूसरी बात जैसी मरजी आये वैसा कर – इस प्रकार भगवान के मुख से अपने त्याग की बात सुनकर अर्जुन बहुत डर गये इसलिये आगे के दो श्लोकों में भगवान अपने प्रिय सखा अर्जुन को आश्वासन देते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।

 

सर्वगुह्यतमम्-सब गोपनीयों में से गोपनीय; भूयः-पुनः ; शृणु-सुनो; मे-मुझसे; परमम्-परम; वचः-आदेश; इष्ट:असि-अतिशय प्रिय हो; मे-मुझे ; दृढम्-अत्यन्तः इति -इस प्रकार; ततः-क्योंकि; वक्ष्यामि – कह रहा हूँ; ते – तुम्हारे; हितम्-लाभ के लिए;

 

पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम अथवा गोपनीयों से भी गोपनीय परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा अर्थात मेरा परम उपदेश सुनो जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।

 

यहाँ अर्जुन की घबराहट को देखकर भगवान कहते हैं कि मैं सर्वगुह्यतम अर्थात् सबसे अत्यन्त गोपनीय बात फिर कहूँगा। तू मेरे परम सर्वश्रेष्ठ वचनों को सुन। इस श्लोक में सर्वगुह्यतमम पद से भगवान ने बताया कि यह हर एक के सामने प्रकट करने की बात नहीं है और  इस बात को असहिष्णु और अभक्त से कभी मत कहना। अर्जुन अपने को धर्म का निर्णय करने में अयोग्य समझते हुए भगवान से पूछते हैं, उनके शिष्य बनते हैं और उनसे शिक्षा देने के लिये कहते हैं। अतः भगवान् यहाँ कहते हैं कि तू धर्म के निर्णय का भार अपने ऊपर मत ले । वह भार मेरे पर छोड़ दे – मेरे ही अर्पण कर दे और अनन्य भाव से केवल मेरी शरण में आ जा। फिर तेरे को जो पाप आदि का डर है उन सब पापों से मैं तुझे मुक्त कर दूँगा। तू सब चिन्ताओं को छोड़ दे। इससे पहले भगवान ने कहा था कि जैसी मरजी आये वैसा कर। जो अनुयायी है , आज्ञापालक है, शरणागत है, उसके लिये ऐसी बात कहने के समान दूसरा क्या दण्ड दिया जा सकता है अतः इस बात को सुनकर अर्जुन के मन में भय पैदा हो गया कि भगवान मेरा त्याग कर रहे हैं। उस भय को दूर करने के लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो। यदि अर्जुन के मन में भय या संदेह न होता तो भगवान को तुम मेरे अत्यन्त प्यारे मित्र हो – यह कहकर सफाई देने की क्या आवश्यकता थी। सफाई देना तभी बनता है जब दूसरे के मन में भय हो, सन्देह हो, हलचल हो। इष्टः कहने का दूसरा भाव यह है कि भगवान अपने शरणागत भक्त को अपना ईष्टदेव मान लेते हैं। भक्त सब कुछ छोड़कर केवल भगवान को अपना इष्ट मानता है तो भगवान भी उसको अपना इष्ट मान लेते हैं क्योंकि भक्ति के विषय में भगवान का यह कानून है जो भक्त जैसे मेरे शरण होते हैं मैं भी उनको वैसे ही आश्रय देता हूँ। भगवान की दृष्टि में भक्त के समान और कोई श्रेष्ठ नहीं है। भागवत में भगवान् उद्धवजी से कहते हैं तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त मुझे जितने प्यारे हैं उतने प्यारे न ब्रह्माजी हैं, न शंकरजी हैं , न बलरामजी हैं और तो क्या मेरे शरीर में निवास करने वाली लक्ष्मीजी और मेरी आत्मा भी उतनी प्यारी नहीं है ।  जब तुमने एक बार कह दिया कि मैं आपके शरण हूँ तो अब तुम्हें बिलकुल भी भय नहीं करना चाहिये। कारण कि जो मेरी शरण में आकर एक बार भी सच्चे हृदय से कह देता है कि मैं आपका ही हूँ उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय या सुरक्षित कर देता हूँ । यह मेरा व्रत है । तू मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र है इसलिये अपने हृदय की अत्यन्त गोपनीय और अपने दरबार की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बात तुझे कहूँगा। दूसरी बात मैं जो आगे शरणागति की बात कहूँगा उसका यह तात्पर्य नहीं है कि मेरी शरण में आने से मुझे कोई लाभ हो जायगा बल्कि इसमें केवल तेरा ही हित होगा। इससे सिद्ध होता है कि प्राणिमात्र का हित केवल इसी बात में है कि वह किसी दूसरे का सहारा न लेकर केवल भगवान की ही शरण ले। भगवान की शरण होने के सिवाय जीव का कहीं भी, किंचितमात्र भी हित नहीं है। कारण यह है कि जीव साक्षात परमात्मा का अंश है। इसलिये वह परमात्मा को छोड़कर किसी का भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं। जब संसार की कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि स्थिर नहीं है तो फिर उनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है ।उनका सहारा तो रहेगा नहीं पर चिन्ता, शोक, दुःख आदि रह जायँगे जैसे अग्नि से अङ्गार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है ।कोयला होय नहीं उजला सौ मन साबुन लगाय। पर वही कोयला जब पुनः अग्नि से मिल जाता है तब वह अङ्गार (अग्निरूप) बन जाता है और चमक उठता है। ऐसे ही यह जीव भगवान से विमुख हो जाता है तो बार-बार जन्मता-मरता और दुःख पाता रहता है पर जब यह भगवान के सम्मुख हो जाता है अर्थात् अनन्यभाव से भगवान की शरण में हो जाता है तब यह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है तथा संसारमात्र का कल्याण करने वाला हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी )

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।

 

मन्मना-मेरा चिंतन करो; भव-होओ; मत्भक्त:-मेरा भक्त; मद्याजी-मेरी पूजा करो; माम्–मुझे ; नमस्कुरू-प्रणाम करो; माम्-मेरे पास; एव-निश्चित रूप से; एष्यसि-आओगे; सत्यम् – वास्तव में; ते-तुमसे; प्रतिजाने-वचन देता हूँ; प्रिय:-प्रिय; असि-हो; मे-मुझको।

 

सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो अर्थात तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा – यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।

(  साधक को सबसे पहले मैं भगवान का हूँ इस प्रकार अपनी अहंता (मैं-पन ) को बदल देना चाहिये। कारण कि बिना अहंता के बदले साधन सुगमता से नहीं होता। अहंता के बदलने पर साधन सुगमता से स्वाभाविक ही होने लगता है। अतः साधक को सबसे पहले मद्भक्तः होना चाहिये। किसी का शिष्य बनने पर व्यक्ति अपनी अहंता को बदल देता है कि मैं तो गुरु महाराज का ही हूँ। विवाह हो जाने पर कन्या अपनी अहंता को बदल देती है कि मैं तो ससुराल की ही हूँ और पिता के कुल का सम्बन्ध बिलकुल छूट जाता है। ऐसे ही साधक को अपनी अहंता बदल देनी चाहिये कि मैं तो भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है। [अहंता के बदलने पर ममता भी अपने आप बदल जाती है।] अपने को भगवान का मान लेने पर ,भगवान में स्वाभाविक ही मन लगने लगता है। कारण कि जो अपना होता है वह स्वाभाविक ही प्रिय लगता है और जहाँ प्रियता होती है वहाँ स्वाभाविक ही मन लगता है। अतः भगवान को अपना मानने से भगवान स्वाभाविक ही प्रिय लगते हैं। फिर मन से स्वाभाविक ही भगवान के नाम, गुण, प्रभाव, लीला आदि का चिन्तन होता है। भगवान के नाम का जप और स्वरूप का ध्यान बड़ी तत्परता से और लगनपूर्वक होता है। अहंता बदल जाने पर अर्थात् अपने आप को भगवान का मान लेने पर संसार का सब काम भगवान की सेवा के रूप में बदल जाता है अर्थात साधक पहले जो संसार का काम करता था वही काम अब भगवान का काम हो जाता है। भगवान का सम्बन्ध ज्यों-ज्यों दृढ़ होता जाता है त्यों ही त्यों उसका सेवाभाव पूजाभाव में परिणत होता जाता है। फिर वह चाहे संसार का काम करे, चाहे घर का काम करे, चाहे शरीर का काम करे, चाहे ऊँचा-नीचा कोई भी काम करे उसमें भगवान की पूजा का ही भाव बना रहता है। उसकी यह दृढ़ धारणा हो जाती है कि भगवान की पूजा के सिवाय मेरा कुछ भी काम नहीं है। मां नमस्कुरु -भगवान के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम करके सर्वथा भगवान के समर्पित हो जाय। मैं प्रभु के चरणों में ही पड़ा हुआ हूँ –ऐसा मन में भाव रखते हुए जो कुछ अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति सामने आ जाय उसमें भगवान का मङ्गलमय विधान मानकर परम प्रसन्न रहे। भगवान के द्वारा मेरे लिये जो कुछ भी विधान होगा वह मङ्गलमय ही होगा। पूरी परिस्थिति मेरी समझ में आये या न आये – यह बात दूसरी है पर भगवान का विधान तो मेरे लिये कल्याणकारी ही है इसमें कोई सन्देह नहीं। अतः जो कुछ होता है वह मेरे कर्मों का फल नहीं है बल्कि भगवान के द्वारा कृपा करके केवल मेरे हित के लिये भेजा हुआ विधान है। कारण कि भगवान् प्राणिमात्र के परम सुहृद होने से जो कुछ विधान करते हैं वह जीवों के कल्याण के लिये ही करते हैं। इसलिये भगवान अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर प्राणियों के पुण्य-पापोंका नाश करके उन्हें परम शुद्ध बनाकर अपने चरणों में खींच रहे हैं । इस प्रकार दृढ़ता से भाव होना ही भगवान के चरणों में नमस्कार करना है। भगवान् कहते हैं कि इस प्रकार मेरा भक्त होने से मेरे में मनवाला होने से मेरा पूजन करने वाला होने से और मुझे नमस्कार करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा अर्थात् मेरे में ही निवास करेगा ऐसी मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा प्यारा है। भगवान का जीवमात्र पर अत्यधिक स्नेह है। अपना ही अंश होने से कोई भी जीव भगवान को अप्रिय नहीं है। भगवान् जीवों को चाहे चौरासी लाख योनियों में भेंजें, चाहे नरकों में भेजें , उनका उद्देश्य जीवों को पवित्र करने का ही होता है। जीवों के प्रति भगवान का जो यह कृपापूर्ण विधान है यह भगवान के प्यार का ही द्योतक है। इसी बात को प्रकट करने के लिये भगवान् अर्जुन को जीवमात्र का प्रतिनिधि बनाकर प्रियोऽसि मे वचन कहते हैं। जीवमात्र भगवान को अत्यन्त प्रिय है। केवल जीव ही भगवान से  विमुख होकर प्रतिक्षण वियुक्त होने वाले संसार (धनसम्पत्ति, कुटुम्बी, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि) को अपना मानने लगता है जबकि संसार ने कभी जीव को अपना नहीं माना है। जीव ही अपनी तरफ से संसार से सम्बन्ध जोड़ता है। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और जीव नित्य अपरिवर्तनशील है। जीव से यही गलती होती है कि वह प्रतिक्षण बदलने वाले संसार के सम्बन्ध को नित्य मान लेता है। यही कारण है कि सम्बन्धी के न रहने पर भी उससे माना हुआ सम्बन्ध रहता है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही अनर्थ का हेतु है। इस सम्बन्ध को मानने अथवा न मानने में सभी स्वतन्त्र हैं। अतः इस माने हुए सम्बन्ध का त्याग करके जिनसे हमारा वास्तविक और नित्यसम्बन्ध है उन भगवान की शरण में चले जाना चाहिये — स्वामी रामसुखदास जी )

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

सर्वधर्मान् – सभी प्रकार के धर्म; परित्यज्य-परित्याग कर; माम्-मेरी; एकम्-केवल; शरणम्-शरण में; व्रज-जाओ; अहम्-मैं; त्वाम्-मुमको; सर्व-समस्त; पापेभ्यः-पापों से; मोक्षयिष्यामि-मुक्त करूँगा; मा -मत; शुचः-डरो मत।

सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत अर्थात सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर अथवा सब धर्मों का परित्याग करके तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।

 

इदम् – यह; ते – तुम्हारे द्वारा; न – कभी नहीं; अतपस्काय-वे जो संयमी नहीं है; न – कभी नहीं; अभक्ताय–वे जो भक्त नहीं हैं; कदाचन-किसी समय; न – कभी नहीं; च-भी; अशुश्रूषवे-वे जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के विरुद्ध हैं; वाच्यम्-कहने के लिए; न – कभी नहीं; च-भी; माम् – मेरे प्रति; यः-जो; अभ्यसूयति-द्वेष करता है।

 

यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।

 

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।

 

यः-जो; इदम्-इस; परमम्-अत्यन्त; गुह्यम्-गूढ़ ज्ञान को; मत्भक्तेषु – मेरे भक्तों में; अभिधास्यति-सिखाता है; भक्तिम्-प्रेम भक्ति का महान कार्य; मयि-मेरी; परम्-अलौकिक; कृत्वा-करके; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यति-प्राप्त होता है; असंशयः-नि:संदेह।

 

वे जो इस अति गुह्य ज्ञान को मेरे भक्तों को सिखाते हैं, वे अति प्रिय कार्य करते हैं। वे निःसंदेह मेरे धाम में आएंगे अर्थात जो मुझसे परम प्रेम या मेरे में परा भक्ति करके इस परम गुह्य ज्ञान अथवा परम गोपनीय संवाद (गीता-ग्रन्थ) का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।

 

न कभी नहीं; च और; तस्मात्-उनकी उपेक्षा; मनुष्येषु-मनुष्यों में; कश्चित्-कोई; मे-मुझको; प्रियकृत्त- मः-अतिशय प्रिय; भविता-होगा; न- न तो; च-तथा; मे-मुझे; तस्मात्-उनकी अपेक्षा; अन्यः-दूसरा; प्रियतरः-अधिक प्रिय; भुवि-इस पृथ्वी पर।

 

उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूमण्डल पर उसके समान मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।

 

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।

 

अध्येष्यते-अध्ययन; च-और; यः-जो; इमं इस; धर्म्यम्-पवित्र; संवादम्-संवाद; आवयोः-हमारे; ज्ञान-ज्ञान; यज्ञेन-ज्ञान का समर्पण; तेन-उसके द्वारा; अहम्-मैं; इष्ट:-पूजा; स्याम्-होऊँगा; इति इस प्रकार; मे मेरा; मतिः-मत।

 

और मैं यह घोषणा करता हूँ कि जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा अर्थात वे ज्ञान के समर्पण द्वारा अपनी बुद्धि के साथ मेरी पूजा करेंगे – ऐसा मेरा मत है ।

 

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।

 

श्रद्धा-वान्–श्रद्धा से युक्त; अनसूयः-द्वेषरहित; च-तथा; शृणुयात्-सुनता है; अपि-निश्चय ही; यः-जो; नरः-वह मनुष्यः सः-वह; अपि-भी; मुक्तः-मुक्त होकर; शुभान्–पवित्र; लोकान्–लोकों को प्राप्नुयात्–प्राप्त करता है; पुण्यकर्मणाम्-पुण्य कर्म करने वाली आत्माएँ।

 

 वे जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वे पापों से मुक्त हो जाते हैं और मेरे पवित्र लोकों को पाते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं अर्थात श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन भी लेगा या श्रवण मात्र भी करेगा , वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ और श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त हो जायगा।

 

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।

 

कच्चित्-क्या; एतत्-यह; श्रुतम्-सुना गया; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; त्वया-तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण चेतसा-एकाग्र मन से; कच्चित्-क्या; अज्ञान-अज्ञान का; सम्मोहः-मोह; प्रणष्ट:-नष्ट हो गया; ते-तुम्हारा; धनञ्जय -धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

हे पार्थ! क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर मुझे सुना? हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ? अर्थात क्या तुम्हारे द्वारा मेरा यह उपदेश एकाग्रचित्त हो कर सुना गया ? क्या तुम्हारा अज्ञान जनित सम्पूर्ण मोह पूर्णतया नष्ट हुआ ?

 

अर्जुन उवाच

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।

 

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; नष्ट:-दूर हुआ; मोह:-मोह; स्मृति:-स्मरण शक्ति; लब्धा-पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्-आपकी कृपा से; मया मेरे द्वारा; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; स्थितः-स्थित; अस्मि-हूँ; गतसन्देहः-सारे संशयों से मुक्त; करिष्ये – मैं करूँगा; वचनम्-आदेश को; तव-आपके।

 

अर्जुन ने कहाः हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ अर्थात मुझे मेरी स्मरण शक्ति पुनः प्राप्त हो गयी है। मैं समस्त संशयों और संदेहों से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा और आपके वचनो का पालन करूंगा ।

 

सञ्जय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।

 

सञ्जयःउवाच-संजय ने कहा; इति–इस प्रकार; अहम्-मैं; वासुदेवस्य-श्रीकृष्ण का; पार्थस्य-तथा अर्जुन का; च-और; महाआत्म्न:-उदार चित्त आत्मा का; संवादम्-वार्तालाप; इमम् – यह; अश्रौषम्-सुना है; अद्भुतम्-अद्भुत; रोमहर्षणम्-शरीर के रोंगटे खड़े करने वाला।

 

संजय ने कहाः इस प्रकार से मैंने वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और उदारचित्त पृथा पुत्र अर्जुन के बीच अद्भुत संवाद सुना। यह इतना रोमांचकारी संदेश है कि इससे मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए हैं।

 

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।

 

व्यासप्रसादात्-वेदव्यास की कृपा से; श्रुतवान्-सुना है; एतत्-इस; गुह्य-गोपनीय ज्ञान; अहम्-मैंने; परम्-परमः योगम् – योग; योगईश्वरात्-योग के परमेश्वर; कृष्णात्-कृष्ण से; साक्षात्-साक्षात; कथ्यतः-कहते हुए; स्वयम्-स्वयं।

 

वेद व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता-ग्रन्थ) अर्थात इस परम गुह्य योग को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से सुना है।

 

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।

 

राजन् राजा; संस्मृत्य-बार बार स्मरण करके; संवादम्-संवाद को; इमम्-इस; अद्भुतम्–चौंका देने वाले ; केशव अर्जुनयोः-भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच; पुण्यम्-पवित्र; हृष्यामि-हर्षित होता हूँ; च-और; मुहुः-मुहुः-बार-बार।

 

हे राजन! जब-जब मैं परमेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए इस चकित कर देने वाले अद्भुत संवाद का स्मरण करता हूँ तब-तब मैं पुनः पुनः हर्षित होता हूँ अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर-करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

 

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।

 

तत्-उस; च–भी; संस्मृत्य-संस्मृत्य-बार-बार स्मरण करके; रूपम्-विराट रूप को; अति-अत्यधिक; अद्भुतम्-आश्चर्यजनक; हरे:-भगवान् श्रीकृष्ण के; विस्मय:-आश्चर्य; मे-मेरा; महान- महान; राजन्– राजा; हृष्यामि -मैं हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ; च-और; पुनः पुनः-बारम्बार।

 

हे राजन ! भगवान श्रीकृष्ण के अति विस्मयकारी विश्व रूप का स्मरण कर मैं अति चकित और बार-बार हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण के उस अत्यन्त अद्भुत विराट रूप को याद कर-कर के मेरे को बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।

 

यत्र -जहाँ; योगेश्वरः -योग के स्वामी श्रीकृष्ण; यत्र-जहाँ; पार्थः-पृथापुत्र, अर्जुन; धनुर्धरः-धनुर्धर; तत्र-वहाँ; श्री:-ऐश्वर्य; विजयः-विजय; भूति:-समृद्धि; ध्रुवा–अनन्त; नीतिः-नीति; मतिः-मम–मेरा मत।।

 

जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है अर्थात जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।

 

 

 

 

 

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