Bhagavad Gita chapter 18

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

 

 

Bhagavad Gita chapter 18

 

 

 

01-12 त्याग का विषय

13-18 कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन

19-40 तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता,बुद्धि,धृतिऔर सुख के पृथक-पृथक भेद

41-48 फल सहित वर्ण धर्म का विषय

49-55 ज्ञाननिष्ठा का विषय

56-66 भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

67-78 श्री गीताजी का माहात्म्य

 

मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

 

अर्जुन उवाच

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।

त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।

 

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; संन्यासस्य-कर्मों का त्याग; महाबाहो-बलिष्ट भुजाओं वाला; तत्त्वम्-सत्य को; इच्छामि – चाहता हूँ; वेदितुम-जानना; त्यागस्य-कर्मफल के भोग की इच्छा का त्याग; च-भी; हृषीकेश-इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण; पृथक्-भिन्न रूप से; केशिनिषूदन-केशी असुर के संहार करने वाले, श्रीकृष्ण।

 

अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु! मैं संन्यास और त्याग की प्रकृति अथवा उसके तत्व के संबंध में जानना चाहता हूँ। हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं दोनों के बीच का भेद जानने का भी इच्छुक हूँ अर्थात मैं  संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।

 

श्री भगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।

 

श्री भगवान् उवाच-परम भगवान ने कहा; काम्यानाम्-कामना युक्त; कर्मणाम् – कर्मो का; न्यासम्-त्याग करना; संन्यासम्-संन्यासः कवयः-विद्वान जन; विदुः-जानना; सर्व-सब; कर्म-कर्म; फल-कर्मों के फल; त्यागम् – कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्यागः प्राहुः-कहते हैं; त्यागम्-कर्म फलों के भोग की इच्छा का त्याग; विचक्षणा:-बुद्धिमान।

 

श्रीभगवान् बोले — कई विद्वान् और पंडित जन कामना युक्त कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् समस्त कर्मों के फल के त्याग को अथवा कर्मफलों के भोग की इच्छा के त्याग को त्याग कहते हैं। 

(जो भी कर्म किसी कामना , अभिलाषा , आकांक्षा , इच्छा से अथवा उस कर्म का निश्चित फल मिलने की अभिलाषा मन में रखते हुए या कर्म के बदले फल मिलने के उद्देश्य से ही संपन्न किये जाते हैं उन्हें कामना युक्त कर्म कहते हैं । )

 

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।

 

त्यागम्-त्याग देना चाहिए; दोषवत्-बुराई के समान; इति-इस प्रकार; एके-कुछ; कर्म-कर्म; प्राहुः-कहते हैं; मनीषिणः-महान विद्वान; यज्ञ-यज्ञ; दान-दान; तपः-तप; कर्म-कर्म; न-कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागना चाहिए; इति-इस प्रकार; च-और; अपरे-अन्य।।

 

कुछ विद्वान् जन घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए किन्तु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए अर्थात  कुछ विद्वान् जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य अथवा त्यागने के योग्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य अथवा त्यागने योग्य नहीं हैं।।

 

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।18.4।।

 

निश्चयम् – निष्कर्ष; शृणु-सुनो; मे – मेरे; तत्र-वहाँ; त्यागे-कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्याग; भरतसत्तम ( भरत-सत्-तम ) -भरतश्रेष्ठ; त्यागः – कर्मफलों के भोग की इच्छा का त्याग; हि-वास्तव में; पुरुषव्याघ्र-मनुष्यों में बाघ; त्रिविधा:-तीन प्रकार का; सम्प्रकीर्तितः-घोषित किया जाता है।

 

हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा अंतिम निर्णय सुनो। हे मनुष्यों में सिंह! वह त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।।

 

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।

 

यज्ञ-यज्ञ, दान-दान; तपः-तपः कर्म-कर्म; न कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागने चाहिए; कार्यमेव ( कार्यम्-एव ) – निश्चित रूप से संपन्न करना चाहिए; तत्-उसे; यज्ञः-यज्ञ; दानम्-दान; तपः-तप; च-और; एव-वास्तव में; पावनानि-शुद्ध करने वाले; मनीषिणाम् – महात्माओं , ज्ञानियों अथवा साधकों के लिए भी।

 

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिये, बल्कि इन कर्मों को तो निश्चित रूप से कर्त्तव्य कर्म मान कर संपन्न करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कर्म महात्माओं और ज्ञानी जनों को पवित्र अथवा शुद्ध करनेवाले हैं।

 

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।18.6।।

 

एतानि – ये सब; अपि-निश्चय ही; तु-लेकिन; कर्माणि-कार्य; सङ्गं-आसक्ति को, मोह को ; त्यक्त्वा-त्यागकर; फलानि-फलों को; च-भी; कर्तव्यानि- कर्त्तव्य समझ कर करने चाहिए; इति-इस प्रकार; मे-मेरा; पार्थ-हे पृथापुत्र अर्जुन; निश्चितम-निश्चित; मतम्-मत; उत्तमम्-श्रेष्ठ।

 

किन्तु ये सब कर्म आसक्ति और फल की कामना से रहित होकर अथवा फलों को त्यागकर अपना कर्त्तव्य समझ कर संपन्न करने चाहिए। हे पार्थ ! इस प्रकार यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है अर्थात स्पष्ट और अंतिम निर्णय है।

 

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।18.7।।

 

नियतस्य-नियत कार्य; तु-लेकिन; संन्यासः- त्याग; कर्मणः-कर्मो का; न-कभी नहीं; उपपद्यते-उचित; मोहात्-मोहवश; तस्य-उसका; परित्यागः-त्याग देना; तामसः-तमोगुणी; परिकीर्तितः-घोषित किया जाता है।

 

नियत कर्त्तव्यों को कभी त्यागना नहीं चाहिए। मोहवश होकर निश्चित कार्यों के त्याग को तमोगुणी कहा जाता है अर्थात नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है; मोहवश उसका त्याग करना “तामस त्याग” कहा गया है।।

 

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।

 

दुःखम् – कष्टदायक; इति-इस प्रकार; एव-निश्चय ही; यत्-जो; कर्म-कार्य; काय-शरीर के लिए; क्लेश -कष्टपूर्ण; भयात्-भय से; त्यजेत्-त्याग देता है; सः-वह; कृत्वा-करके; राजसम्-रजोगुण में; त्यागम्-त्याग; न – कभी नहीं; एव-निश्चय ही; त्याग-त्यागः फलम्-फल को; लभेत्–प्राप्त करता है।

 

नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद और शरीर को कष्ट देने का कारण समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक और उन्नत करने वाला नहीं होता अर्थात जो मनुष्य, नियत कर्तव्यों और कर्मों को दु:ख रूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, वह मनुष्य इस प्रकार किये गए उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।

 

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।

सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।

 

कार्यम्-कर्त्तव्य के रूप में; इति-इस प्रकार; एव-निःसन्देह; यत्-जो ; कर्म-कर्म; नियतम् – निश्चित ; क्रियते-किया जाता है; अर्जुन – हे अर्जुन; सङ्गं-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; फलम्-फल; च-भी; एव-निश्चय ही; सः-वह; त्यागः-त्याग; सात्त्विकः-सत्वगुणी; मतः-मेरे मत से।

 

हे अर्जुन ! जब कोई मनुष्य कर्मों का निर्वाह कर्त्तव्य समझ कर और फल की आसक्ति से रहित होकर करता है तब उसका त्याग सत्वगुणी कहलाता है अर्थात ‘केवल कर्तव्य मात्र करना है’ अथवा “कर्म करना कर्तव्य है” – ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।

 

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।18.10।।

 

न-नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है; अकुशलम्-अप्रिय; कर्म-कर्म; कुशले-प्रिय; न – न तो; अनुषज्जते-आसक्त होता है; त्यागी-त्यागी; सत्त्व-सत्वगुण में; समाविष्ट:-लीन; मेधावी -बुद्धिमान ; छिन्नसंशयः-वे जिन्हें कोई संदेह न हो।

 

वे जो न तो अप्रिय कर्म से द्वेष या घृणा करते है और न ही कर्म को प्रिय जानकर उसमें लिप्त होते हैं ऐसे मनुष्य वास्तव में त्यागी , बुद्धिमान्, सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित होते हैं। वे सात्विक गुणों से संपन्न होते हैं और कर्म की प्रकृति के संबंध में उनमें कोई संशय नहीं होता।

 

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।।

 

न-नहीं; हि-वास्तव में; देहभृता-देहधारी जीवों के लिए; शक्यम्-सम्भव है; त्यक्तुम्-त्यागना; कर्माणि-कर्म; अशेषतः-पूर्णतया; यः-जो; तु-लेकिन; कर्मफल-कर्मो के फल; त्यागी – कर्मफलों को भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; सः – वे; त्यागी – कर्म फलो का भोगने की इच्छा का त्याग करने वाला; इति-इस प्रकार; अभिधीयते-कहलाता है।

 

देहधारी जीवों के लिए वास्तव में पूर्ण रूप से कर्मों का परित्याग करना अथवा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना असंभव है लेकिन जो कर्मफलों का और कर्मफलों को भोगने की इच्छा का परित्याग करते हैं, वे वास्तव में त्यागी कहलाते हैं।

 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।18.12।।

 

अनिष्टम् – दुखद; इष्टम्-सुखद; मिश्रम्-मिश्रित; च – और; त्रिविधम् – तीन प्रकार के; कर्मणःफलम् – कर्मों के फल; भवति-होता है; अत्यागिनाम्-वे जो निजी पारितोषिक में आसक्त रहते हैं; प्रेत्य-मृत्यु के पश्चात; न-नहीं; तु-लेकिन; संन्यासिनाम्-कर्मों का त्याग करने वालों के लिए; क्वचित्-किसी समय।

 

जो निजी पारितोषिक के प्रति आसक्त होते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात भी सुखद, दुखद और मिश्रित अथवा शुभ , अशुभ और मिश्रित ये तीन प्रकार के कर्मफल प्राप्त होते हैं लेकिन जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं उन्हें न तो इस लोक में और न ही मरणोपरांत ऐसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं अर्थात कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित – ऐसे तीन प्रकार का फल मरनेके बाद भी होता है; परन्तु कर्म फल का त्याग करने वालों को कहीं भीनहीं होता।

 

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।

सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।

 

पञच-पाँच; एतानि-ये; महाबाहो-बलिष्ट भुजाओं वाला; कारणानि-कारण; निबोध – सुनो; मे-मुझसे; सांख्ये-सांख्य दर्शन के; कृतान्ते ( कृत-अन्ते ) – कर्मों की प्रतिक्रियाओं को रोकना; प्रोक्तानि-व्याख्या करना; सिद्धये-उपलब्धियों के लिए; सर्व-समस्त; कर्मणाम्- कर्मों का।

 

हे महाबाहो ! अब तुम मुझसे कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य दर्शन के सिद्धांत में वर्णित समस्त कर्मों को संपूर्ण करने हेतु अथवा समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारकों या कारणों को भलीभांति समझो जो यह बोध कराते हैं कि कर्मों की प्रतिक्रियाओं को कैसे रोका जाए।

 

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।

 

अधिष्ठानम्-शरीर; तथा-भी; कर्ता – करने वाला (जीवात्मा); करणम् – इन्द्रियाँ; च – और; पृथग्विधम् ( पृथक्-विधाम् ) – विभिन्न प्रकार के; विविधाः-अनेक; च-और; पृथक-अलग; चेष्टा:-प्रयास; दैवम्-भगवान का विधान; चैवात्र ( च-एव- अत्र ) – निश्चित रूप से ये (कारक); पञ्चमम् – पाँचवा।

 

( कर्मों की सिद्धि में अथवा कर्म को पूर्ण करने में ) शरीर , कर्ता या जीवात्मा , विभिन्न इन्द्रियां , अलग-अलग चेष्टाएँ और विधि का विधान अर्थात भगवान – निश्चित रूप से ये पाँच कर्म के कारक हैं।

 

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।18.15।।

 

शरीर-शरीर ; वाक्-वाणी से; मनोभिः-मन से; यत्-जो; कर्म-कर्म; प्रारभते-संपन्न करता है; नरः-व्यक्ति; न्याय्य्-उचित, वा-अथवा; विपरीतम्-अनुचित; वा-अथवा; पञ्च-पाँच; एते-ये सब; तस्य-उसके; हेतवः-कारण।

 

मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो भी उचित ( शास्त्रविहित ) या अनुचित ( शास्त्रविरुद्ध ) कर्म आरम्भ या संपन्न करता है, उसके ये पाँच कारण ही हैं।।

 

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।18.16।।

 

तत्र-वहाँ, एवम्-इस प्रकार; सति-होकर; कर्तारम्-कर्ता; आत्मानम्-स्वयं का; केवलम्-केवल; तु-लेकिन; यः-जो; पश्यति-देखता है; अकृतबुद्धित्वात्-कुबुद्धि के कारण; न – कभी नहीं; सः-वह; पश्यति-देखता है; दुर्मतिः-मूर्ख।

 

किन्तु जो मनुष्य अपनी कुबुद्धि के कारण इसे नहीं समझते और ऐसे पाँच कारणों के उपस्थित होने पर भी जो केवल शुद्ध आत्मा को ही उन समस्त कर्मों का कर्ता मानते हैं, वे दुर्मति मनुष्य अपनी दूषित बुद्धि के कारण वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।

 

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।18.17।।

 

यस्य – जिसके; न-नहीं; अहंकृतः-कर्तापन के अहंकार से मुक्त; भावः-प्रकृति; बुद्धिः-बुद्धि; यस्य-जिसकी; न लिप्यते – अनासक्त; हत्वा-मारकर; अपि – भी; सः-वे; इमान् – इस; लोकान् – जीवों को; न – कभी नहीं; हन्ति – मारता है; न – कभी नहीं; निबध्यते – बंधन में पड़ता है।

 

जो कर्तापन के अहंकार से मुक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, यद्यपि वे जीवों को मारते हैं तथापि वे न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं अर्थात जिस मनुष्य में अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि किसी गुण दोष से लिप्त नहीं होती, वह मनुष्य इन समस्त प्राणियों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।।

 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।

 

ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषयः परिज्ञाता-जानने वाला; त्रिविधा-तीन प्रकार के कारक; कर्मचोदना-कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व; करणम्-कर्म के उपादान; कर्म-कर्म; कर्ता-कर्ता ; इति-इस प्रकार; त्रिविधः – तीन प्रकार के ; कर्म-कर्म के; संग्रहः-संग्रह।

 

ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता-ये कर्म को प्रेरित करने वाले तीन कारक हैं। करण , स्वयं कर्म और कर्ता-इन तीनों से कर्मसंग्रह होता है अथवा ये त्रिविध कर्म संग्रह हैं । यदि इन तीनों में से एक भी न हो तो कर्म करने की प्रेरणा नहीं होती।

 

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।

 

ज्ञानम्-ज्ञान; कर्म-कर्म; च-और; कर्ता-कर्ता; च-भी; त्रिधा-तीन प्रकार का; एव-निश्चय ही; गुणभेदतः-प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार अंतर करना; प्रोच्यते-कहे जाते हैं; गुणसंख्याने-सांख्य दर्शन, जो प्रकृति के गुणों का वर्णन करता हैं; यथावत्-जिस रूप में हैं उसी में; शृणु-सुनो; तानि-उन सबों को; अपि-भी।

 

सांख्य दर्शन अर्थात गुणसंख्यान शास्त्र ( गुणों के सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना करने वाले ) में तीनों गुणों के भेद के अनुसार ज्ञान , कर्म तथा कर्ता की तीन श्रेणियों का उल्लेख किया गया है अर्थात वे तीन-तीन प्रकार से ही कहे जाते हैं, उनको भी तुम यथार्थ रूप से सुनो । मैं तुम्हें इनका भेद बताता हूँ।

 

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।

 

सर्वभूतेषु-समस्त जीवों में; येन-जिससे; एकम्-एक; भावम् – प्रकृति; अव्ययम्-अविनाशी; ईक्षते-कोई देखता है; अविभक्तम्-अविभाजित; विभक्तेषु – विभिन्न प्रकार से विभक्त; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानों; सात्त्विकम्-सत्वगुण।

 

 जिस ज्ञान के द्वारा कोई नाना प्रकार के सभी जीवों में विभिन्न प्रकार से विभक्त एक ही अविभाजित अविनाशी सत्य अर्थात अविनाशी स्वरूप या अविनाशी सत्ता को देखता है उसे सत्वगुण प्रकृति का ज्ञान कहते हैं अर्थात उस ज्ञान को तुम सात्विक समझो ।

( किसी भी व्यक्ति को किसी व्यक्ति, वस्तु आदि में जो अपनापन , जो सत्ता दिखती है , जो अधिकार दिखता है कि यह मेरा है , यह मेरी है वह वस्तुतः उस व्यक्ति का नहीं है प्रत्युत इस जगत की समस्त वस्तुओं और सम्पूर्ण जीवों में परिपूर्ण परमात्मा का ही है। इस संसार में किसी भी व्यक्ति, वस्तु आदि की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु आदि ऐसी नहीं है जिसमें परिवर्तन न होता हो परन्तु केवल अज्ञानतावश उनकी सत्ता प्रतीत होती है। जब अज्ञानता मिट जाती है और ज्ञान हो जाता है तब ज्ञानी साधक की दृष्टि उस अविनाशी तत्त्व की ओर ही जाती है जिसकी सत्ता से यह सब सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। ज्ञान होने पर साधक की दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओं को भेदकर परिवर्तन रहित तत्त्व की ओर ही जाती है। फिर वह विभक्त अर्थात् अलग अलग वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति और घटना आदि में विभाग रहित एक ही तत्त्व को देखता है। तात्पर्य यह है कि अलग अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का अलग अलग ज्ञान और यथायोग्य अलग अलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओं में उस स्वतः सिद्ध निर्विकार एक अविनाशी तत्त्व को देखता है। उसके देखने की यही पहचान है कि उसके अन्तःकरण में राग द्वेष नहीं होते। )

 

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।18.21।।

 

पृथक्त्वेन-असंबद्ध; तु-लेकिन; यत्-जो; ज्ञानम्-ज्ञान; नानाभावान् – अनेक प्रकार के अस्तित्त्वों को; पृथग्विधान ( पृथक्-विधान ) -विभिन्न; वेत्ति-जानता है; सर्वेषु – समस्त; भूतेषु-जीवों में; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानो; राजसम्-राजसी।

 

परन्तु जिस ज्ञान के द्वारा कोई मनुष्य भिन्न-भिन्न शरीरों में अनेक जीवित प्राणियों को पृथक-पृथक और असंबद्ध रूप में देखता है उसे राजसी माना जाता है अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में नाना भावों या अनेक भावों को पृथक्-पृथक् या अलग-अलग रूप से जानता है, उस ज्ञानको तुम राजस समझो।

( राजस ज्ञान में राग की मुख्यता होती है । राग का यह नियम है कि वह जिसमें आ जाता है उसमें किसी के प्रति आसक्ति , मोह अथवा प्रेम उत्पन्न करा देता है और किसी के प्रति द्वेष या घृणा उत्पन्न करा देता है। इस राग के कारण ही मनुष्य, देवता, यक्ष , राक्षस, पशु ,पक्षी, कीट ,पतङ्ग,  वृक्ष , लता आदि जितने भी चर – अचर प्राणी हैं उन प्राणियों की विभिन्न आकृति, स्वभाव, नाम, रूप, गुण आदि को लेकर राजस ज्ञान वाला मनुष्य उनमें रहने वाली एक ही अविनाशी आत्मा या अविनाशी सत्ता को तत्त्व से अलग-अलग मानता है। )

 

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।18.22।।

 

यत्-जो; तु-लेकिन; कृत्स्नवत्-जैसे कि वह पूर्ण सम्मिलित हो; एकस्मिन्–एक; कार्ये – कार्य; सक्तम्-तल्लीन; अहैतुकम्-अकारण; अतत्त्व-अर्थवत्-जो सत्य पर आधारित न हो; अल्पम्-अणु अंश; च-और; तत्-वह; तामसम्-तमोगुणी; उदाहृतम्-कहा जाता है।

 

वह ज्ञान जिसमें कोई मनुष्य ऐसी विखंडित या असत्य अवधारणा में तल्लीन होता है जैसे कि वह संपूर्ण के सदृश हो और जो न तो किसी कारण और न ही सत्य पर आधारित है उसे तामसिक ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण की तरह आसक्त है तथा जो युक्तिरहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य रूप शरीर में ही आसक्त हो जाता है, मानो वह (कार्य ही) पूर्ण वस्तु हो तथा जो (ज्ञान) हेतुरहित (अयुक्तिक), तत्त्वार्थ से रहित तथा संकुचित (अल्प) है, वह (ज्ञान) तामस है।।

( तामस मनुष्य एक ही शरीर में सम्पूर्ण की तरह आसक्त रहता है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाले इस पाञ्चभौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। वह मानता है कि मैं ही छोटा बच्चा था, मैं ही जवान हूँ और मैं ही बूढ़ा हो जाऊँगा । मैं भोगी हूँ , मैं बलवान हूँ , मैं  सुखी हूँ , मैं धनी हूँ , मैं बड़े कुटुम्बवाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है इत्यादि इत्यादि। ऐसी मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है । तामस मनुष्य की मान्यता युक्ति और शास्त्रप्रमाण के विरुद्ध होती है। यह शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। शरीर आदि वस्तुमात्र अभाव में परिवर्तित हो रही है , दृश्यमात्र अदृश्य हो रहा है और इनमें तू ( आत्मा ) सदा ज्यों का त्यों रहता है अतः यह शरीर और तू एक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार की युक्तियों को वह स्वीकार नहीं करता। यह शरीर और मैं दोनों अलग – अलग हैं । इस वास्तविक ज्ञान या विवेक से वह रहित है। उसकी समझ अत्यन्त तुच्छ है अर्थात् तुच्छता की प्राप्ति कराने वाली है कारण कि तामस पुरुष में मूढ़ता की प्रधानता होती है। मूढ़ता और ज्ञान का आपस में विरोध है । युक्तिरहित , अल्प और अत्यन्त तुच्छ समझ को ही तामस कहा गया है। )

 

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।

 

नियतम् – शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार; संगरहितम् – आसक्ति रहित; अरागद्वेषतः-राग द्वेष से मुक्त; कृतम्-किया गया; अफलप्रेप्सुना – कर्मफल की इच्छा से रहित; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; सात्त्विकम्-सत्वगुण; उच्चये-कहा जाता है।

 

जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ अर्थात जो कर्म शास्त्रों के अनुमोदन के अनुसार है और कर्तव्याभिमान से रहित हो ( मैं कर्ता हूँ अथवा मैं ही सब करने वाला हूँ इस अभिमान से रहित हो ) तथा फल की इच्छा से रहित मनुष्य के द्वारा बिना राग-द्वेष के किया हुआ हो, वह सात्त्विक या सत्वगुण प्रकृति का कहा जाता है।

 

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।18.24।।

 

यत्-जो; तु-लेकिन; कामेप्सुना ( काम-ईप्सुना ) – स्वार्थ और इच्छा से प्रेरित होकर; कर्म-कर्म; साहङ्कारेण ( स-अहङ्कारेण ) – अहंकार सहित; वा-अथवा; पुनः-फिर; क्रियते-किया जाता है; बहुलायासं ( बहुल-आयासम् ) – कठिन परिश्रम से; तत्-वह; राजसम्-राजसिक प्रकृति; उदाहृतम्-कहा जाता;

 

जो कार्य स्वार्थ की पूर्ति से प्रेरित होकर मिथ्या, अभिमान और तनाव ग्रस्त होकर किए जाते हैं वे रजोगुणी प्रकृति के होते हैं अर्थात जो कर्म भोगों को चाहने वाले मनुष्य के द्वारा अहंकार और कठिन परिश्रम पूर्वक किया जाता है अर्थात जो कर्म स्वार्थ और इच्छा की पूर्ति से प्रेरित होता है , बहुत परिश्रम से युक्त है , फल की कामना वाला है और अहंकारयुक्त पुरुष के द्वारा किया जाता है ऐसा कर्म  राजस या रजोगुणी प्रकृति का कहा गया है।

 

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।

 

अनुबन्धाम्-फलस्वरूप; क्षयम्-क्षति; हिंसाम्-कष्ट; अनपेक्ष्य-उपेक्षा करना; च-और; पौरुषम् – मनुष्य का सामर्थ्य; मोहात्-मोह से; आरभ्यते-प्रारम्भ होता है; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; तामसम्-तमोगुण; उच्यते-कहा जाता है। 

 

जो कर्म अथवा कार्य मोहवश होकर, अपनी क्षमता का आंकलन , कर्म का परिणाम , कर्म के परिणामस्वरूप होने वाली हानि और दूसरों की क्षति अथवा उस कर्म के फलस्वरूप दूसरों को होने पर कष्ट पर विचार किए बिना आरम्भ किए जाते हैं वे तमोगुणी या तामस कहलाते हैं।

 

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।

 

मुक्तसङ्ग: – सांसारिक आसक्ति से मुक्त; ऽनहंवादी ( अनहम्-वादी ) – अहं से मुक्त; धृति-दृढ़संकल्प; उत्साह – उत्साह सहित; समन्वितः – सम्पन्न; सिद्ध्यसिद्ध्यो ( सिद्धि असिद्धयोः ) – सफलता तथा विफलता; निर्विकारः – अप्रभावित; कर्ता – कर्ता; सात्त्विकः-सत्वगुणी; उच्यते – कहा जाता है।

 

जो कर्ता सांसारिक आसक्ति से रहित और अहंकार से मुक्त होकर , धैर्य , दृढ – संकल्प और उत्साह से युक्त , कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (विफलता) में निर्विकार रहता है , वह कर्ता सात्त्विक अथवा सतोगुणी कहा जाता है।।

 

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।18.27।।

 

रागी – अत्यधिक लालायितः कर्मफल-कर्म का फल अथवा परिणाम : प्रेप्सुः-लोभ ; लुब्धः-लोभी; हिंसात्मकः ( हिंसा-आत्मक: ) – हिंसक प्रवृत्ति; अशुचिः-अपवित्र; हर्षशोकान्वितः ( हर्ष-शोक-अन्वितः ) – हर्ष तथा शोक से प्रेरित; कर्ता – कर्ता; राजसः – रजोगुणी; परिकीर्तितः – घोषित किया जाता है।

 

जो कर्ता कर्मफल की लालसा से अत्यधिक लालायित होकर , लोभ के वश हो कर , हिंसक स्वभाव से पूर्ण हो कर , अशुद्धता से , हर्ष एवं शोक से प्रेरित होकर कार्य करता है, उसे रजोगुणी या राजस कहा जाता है।

 

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।18.28।।

 

अयुक्तः-अनुशासनहीन; प्राकृतः-अशिष्ट; स्तब्धाः-हठी; शठः-धूर्त; नैष्कृतिक:-कुटिल या नीच; अलसः-आलसी; विषादी-अप्रसन्न और निराश; दीर्घसूत्री-टाल मटोल करने वाला; च-और; कर्ता-कर्ता; तामसः-तमोगुण; उच्यते-कहलाता है।।

 

जो कर्ता अनुशासनहीन, अशिष्ट, हठी, कपटी, धूर्त , कुटिल , नीच , आलसी , निराश , अप्रसन्न और टाल मटोल करने वाला होता है वह तमोगुणी या तामस कहलाता है।

 

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।

प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।18.29।।

 

बुद्धेः-बुद्धि का; भेदम् – अन्तर; धृतेः – दृढ़ संकल्प, दृढ निश्चय , धैर्य , धारण शक्ति ; च – और; एव – निश्चय ही; गुणत: – गुणों के द्वारा; त्रिविधाम् – प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार; शृणु – सुनो; प्रोच्यमानम् – वर्णन; अशेषेण – विस्तार से; पृथक्त्वेन – भिन्न प्रकार से; धनञ्जय – धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

 

हे धनञ्जय ! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि और दृढ संकल्प के विषय में विस्तार से बता रहा हूँ। अर्थात अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, जो कि मेरे द्वारा पूर्ण रूप से कहे जा रहे हैं। तुम उसे सुनो।

 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।

 

प्रवृत्तिम् – संसार की ओर प्रवृत्त करने वाले कर्म ; च – और; निवृत्तिम् – कर्म से वैराग्य; च – और; कार्य – उचित कार्य: अकार्य – अनुचित कार्य; भय – भय; अभये – भय रहित; बन्धम् – बंधन क्या है; मोक्षम् – मोक्ष क्या है; च – और; या – जो; वेत्ति – जानता है; बुद्धिः – बुद्धि; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी – सत्वगुणी।

 

हे पृथानन्दन ! वह बुद्धि सत्वगुणी या सात्विकी है जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि क्या प्रवृत्ति है और क्या निवृत्ति है अर्थात कौन से कर्म संसार में लगाने वाले हैं और कौन से कर्म वैराग्य की ओर ले जाने वाले हैं , क्या उचित है और क्या अनुचित है, क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्तव्य या अकरणीय है अर्थात न करने योग्य है , किससे भयभीत होना चाहिए और किससे भयभीत नहीं होना चाहिए और क्या बंधन में डालने वाला है और क्या मुक्ति देने वाला है अर्थात जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, उचित कार्य और अनुचित कार्य, भय और अभय तथा बंधन और मोक्ष को तत्व से जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।

 

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।18.31।।

 

यया – जिसके द्वारा; धर्मम्-धर्म को; अधर्मम्-अधर्म को; च और; कार्यम्-उचित आचरण; च-और; अकार्यम्-अनुचित आचरण; एव–निश्चय ही; च-और; अयथावत्-विचलित; प्रजानाति-भेद करना; बुद्धिः-बुद्धि; सा-वह; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; राजसी-रजोगुण।

 

हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म – अधर्म तथा  कर्तव्य – अकर्तव्य अर्थात उचित और अनुचित आचरण को यथावत् नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।।

 

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।18.32।।

 

अधर्मम् – अधर्म; धर्मम् – धर्म; इति – इस प्रकार; या – जो; मन्यते – कल्पना करते हैं; तमसा – अंधकार से; आवृता – आच्छादित, ; सर्वअर्थान् – सभी वस्तुएँ; विपरीतान् – विपरीत दिशा में; च-और; बुद्धिः – बुद्धि; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी – तमोगुण।

 

हे पार्थ ! जो बुद्धि तमोगुण या अज्ञान के अंधकार से ढकी रहती है और सभी बातों को विपरीत दिशा में ही मानती है । ऐसी बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है और असत्य में सत्य की कल्पना करती है । ऐसी बुद्धि तामसी अथवा तामसिक प्रकृति की या तमोगुणी होती है।

 

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।

योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.33।।

 

धृत्या – संकल्प द्वारा; यया-जिससे; धारयते – धारण करता है; मन:-मन का; प्राण-जीवन शक्ति; इन्द्रिय-इन्द्रियों के ; क्रिया:-क्रिया कलापों को; योगेन – योगाभ्यास द्वारा; अव्यभिचारिण्या-दृढ़ संकल्प के साथ; धृतिः-दृढ़ निश्चय; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सात्त्विकी-सत्वगुणी।

 

जो धृति या धारण शक्ति अथवा दृढ संकल्प शक्ति योग या योगाभ्यास से विकसित होती है और जो मन, प्राण शक्ति और इन्द्रियों की क्रियाओं को स्थिर रखती है उसे सात्विक धृति या संकल्प कहते हैं अर्थात समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है।

( जिस अव्यभिचारिणी अर्थात इधर – उधर न भटकने वाली स्थिर धृति के द्वारा अर्थात् सदा समाधि में लगी हुई जिस धारणा के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की सब क्रियाएँ धारण की जाती हैं अर्थात् मन, प्राण और इन्द्रियों की सब चेष्टाएँ जिसके द्वारा शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति से रोकी जाती हैं वह धृति सात्त्विकी है। सात्त्विकी धृति द्वारा धारण की हुई इन्द्रियाँ ही शास्त्रविरुद्ध विषय में प्रवृत्त नहीं होतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि धारण करने वाला मनुष्य जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा समाधि योग से मन। प्राण और इन्द्रियों की चेष्टाओं को धारण करता है वह इस प्रकार की धृति सात्त्विकी है। )

 

यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।18.34।।

 

यया – जिसके द्वारा; तु – लेकिन; धर्मकामार्थान् ( धर्म – काम – अर्थान्) – कर्त्तव्य, सुख और धन; धृत्या – दृढ़ इच्छा द्वारा; धारयते – धारण करता है; अर्जुन – अर्जुनः प्रसङ्गेन – आसक्ति के कारण; फलाकाङ्क्षी ( फल-आकाङ्क्षी ) – फल की इच्छा; धृतिः – दृढ़ संकल्प; सा – वह; पार्थ – पृथापुत्र, अर्जुन; राजसी – रजोगुण।

 

हे पार्थ ! वह धृति जिसके द्वारा कोई मनुष्य आसक्ति और कर्म फल की इच्छा से कर्तव्य पालन करता है, सुख और धन प्राप्ति में लिप्त रहता है, वह राजसी धृति कहलाती है अर्थात कर्मफल का इच्छुक पुरुष अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और काम (इन तीन पुरुषार्थों) को धारण करता है, वह धृति राजसी है।।

 

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।

 

यया-जिससे; स्वप्नम्-स्वप्न; भयम्-भय; शोकम् – शोक; विषादम्-दुख; मदम्-मोह; एव – वास्तव में; च-और; न – कभी नहीं; विमुञ्चति-त्यागती है; दुर्मेधा-दुर्बुद्धि;धृतिः – संकल्प; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी-तमोगुणी।

 

जिस धृति या दर्बद्धिपूर्ण संकल्प के द्वारा मनुष्य स्वप्न , निद्रा , भय , त्रास , शोक , दुःख और मद को नहीं छोड़ता अर्थात् विषय सेवन को ही अपने लिये बहुत बड़ा पुरुषार्थ मानकर उन्मत्त या पागल की भाँति मद या मोह को ही मन में सदा कर्तव्य रूप से समझता हुआ जो दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य इन सबको नहीं छोड़ता यानी धारण ही किये रहता है उसकी जो धृति है वह तामसी मानी गयी है।

 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।।

 

सुखम्-सुख; तु–लेकिन; इदानीम्-अब; त्रि-विधम् तीन प्रकार का; शृणु–सुनो; मे मुझसे; भरत-ऋषभ-भरतश्रेष्ठ, अर्जुन, अभ्यासात्-अभ्यास से; रमते-भोगता है; यत्र-जहाँ; दुःख-अन्तम्-सभी प्रकार के दुखों का अन्त; च-और; निगच्छति-पहुंचता है।

 

हे अर्जुन! अब तुम मुझसे तीन प्रकार के त्रिविध सुख भी तुम मुझसे सुनो जिनसे देहधारी आत्मा आनन्द प्राप्त करती है और सभी दुखों के अंत तक भी पहुँच सकती है अर्थात जिसमें साधक मनुष्य अभ्यास से रमता है और जिससे उसके दुःखों का अन्त हो जाता है। 

 

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।

 

यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – आरम्भ में; विषमिव ( विषम्-इव ) – विष के समान; परिणामे-अन्त में; ऽमृतोपमम् (अमृत-उपमम् ) -अमृत के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; सात्त्विकम्-सत्वगुणी; प्रोक्तम्-कहा जाता है; आत्मबुद्धि-आत्म ज्ञान में स्थित; प्रसादजम्-शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न।

 

हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! ऐसा वह परमात्मविषयक , बुद्धि की प्रसन्नता से अथवा शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में विष की तरह और परिणाम में अमृत की तरह अनुभव होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।

 

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।18.38।।

 

विषय-इन्द्रिय विषयों के साथ; इन्द्रिय-इन्द्रियों के; संयोगत्-संपर्क से; यत्-जो; तत्-वह; अग्रे – प्रारम्भ में; ( ऽमृतोपमम् ) अमृत-उपमम्-अमृत के समान; परिणामे- अन्त में; विषमिव ( विषम्-इव ) -विष के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; राजसम्-राजसी; स्मृतम्-माना जाता है।

 

जो सुख विषयों और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह आरम्भ में तो अमृत के समान लगता है परन्तु परिणाम में विष तुल्य लगता  है, वह सुख राजस कहा गया है।।

 

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।18.39।।

 

यत्-जो; अग्रे – प्रारम्भ में; च-और; अनुबन्धे-अंत में; च-और; सुखम्-सुख; मोहनम्-मोह; आत्मन:-अपना; निद्रा-नींद; आलस्य-आलस्य; प्रमाद-मोह से; उत्थम्-उत्पन्न; तत्-वह; तामसम्–तामसी; उदाहृतम्-कहलाता है।

 

निद्रा, आलस्य और मोह से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में आत्मा को या स्वयं को मोहित करनेवाला है, वह सुख तामस कहा गया है अर्थात जो सुख आदि से अंत तक आत्मा की प्रकृति को ढक देता है और जो निद्रा, आलस्य और असावधानी से उत्पन्न होता है वह तामसिक सुख कहलाता है।

 

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः।।18.40।।

 

न-नहीं; तत्-वह; अस्ति – है; पृथिव्यां – पृथ्वी पर; वा-या; दिवि-स्वर्ग के उच्च लोक; देवेषु-स्वर्ग के देवताओं में; वा-या ; पुनः-फिर; सत्वम-अस्तित्त्व; प्रकृति-जे-प्रकृति से उत्पन्न; मुक्तम-मुक्त होना; यत्-जो; एभि – इनके प्रभाव से; स्यात-है; त्रिभिः-तीन; गुणैः-प्रकृति के गुण।

 

पृथ्वी पर या स्वर्ग के उच्च लोकों में रहने वाला कोई भी जीव अथवा स्वर्ग के देवताओं में तथा इनके अतिरिक्त और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो या इन तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो ।

 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।

 

ब्राह्मण-पुरोहित वर्गः क्षत्रिय – युद्ध और शासन करने वाला वर्ग; विशां- व्यापार और कषि करने वाला वर्ग; शूद्राणाम्-श्रमिक वर्ग; च-और; परन्तप-शत्रुओं का विजेता, अर्जुन; कर्माणि-कर्त्तव्य; प्रविभक्तानि-विभाजित; स्वभावप्रभवैर्गुणैः (स्वभाव-प्रभवैः-गुणैः ) – किसी के स्वभाव और गुणों पर आधारित कर्म।

 

हे परन्तप ! ब्राह्मणों, श्रत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के कर्तव्यों अथवा कर्मों को इनके गुणों के अनुसार तथा प्रकृति के तीन गुणों के अनुरूप विभक्त किया गया है, न कि इनके जन्म के अनुसार।

 

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।

 

शमः-शान्ति; दमः-संयम; तपः-तपस्या; शौचम्-पवित्रता; क्षान्तिः-धैर्य; आर्जवम्-सत्यनिष्ठा; एव-निश्चय ही; च-और; ज्ञानम्-ज्ञान, विज्ञानम्-विवेक; अस्तिक्यम्-परलोक में विश्वास; ब्रह्म-ब्राह्मण, पुरोहित वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न।

 

मनका निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना – ये सब-के-सब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं अर्थात शान्ति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तप, शौच तथा परलोक में विश्वास- ये सब ब्राह्मणों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं और स्वाभाविक कर्म हैं।

 

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।

 

शौयम्-शौर्य; तेजः-शक्ति; धृतिः-धैर्य; दाक्ष्यम् युद्धे-रण कौशल; च -और; अपि-भी; अपलायनम्-विमुख न होना; दानम्-उदार हृदय; ईश्वर-नेतृत्व; भावः-गुणः च-और; क्षात्रम् – योद्धा और शासक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-स्वभाव से उत्पन्न गुण।

 

शूरवीरता , शौर्य, शक्ति, तेज , धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प अथवा युद्धमें कभी पीठ न दिखाना, दान देने में उदारता, नेतृत्व क्षमता, दक्षता, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता-ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण या कर्म हैं।

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।18.44।।

 

कृषि-खेतीबाडी; गौरक्ष्य-गोपालन और दुग्ध उत्पादन; वाणिज्यम्-व्यापार; वैश्य-व्यापारी और कृषक वर्ग; कर्म-कार्य; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण; परिचर्या- सेवा ; आत्मकम्-स्वाभाविक; कर्म-कर्त्तव्य; शूद्रस्य-कर्मचारी वर्ग; अपि-भी; स्वभावजम्-जन्म के अन्तर्निहित गुण;।

 

कृषि या खेती – बाड़ी , गोपालन अथवा गायों की रक्षा करना , दुग्ध उत्पादन तथा वाणिज्य या शुद्ध व्यापार करना – ये सब वैश्यों के या वैश्य गुणों से संपन्न लोगों के स्वाभाविक कार्य या कर्म हैं या जन्म से ही उनमें अन्तर्निहित गुण हैं वहीं शूद्र अथवा शूद्रता के गुणों से युक्त लोगो का स्वाभाविक कर्म या जन्मजात गुण हैं – परिश्रम पूर्वक चारों वर्णों की सेवा सुश्रुषा करना 

 

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18.45।।

 

स्वे स्वे-अपने अपने स्वाभाविक कर्म; कर्मणि-कर्म में; अभिरत:-पूरा करना; संसिद्धिम् – पूर्णता को; लभते-प्राप्त करना; नरः-मनुष्य; स्वकर्म-मनुष्य के निर्धारित कर्त्तव्य; निरतः-संलग्न; सिद्धिम् – पूर्णता को; यथा-जैसे; विन्दति-प्राप्त करता है; तत्-वह; शृणु-सुनो।

 

अपने जन्मजात गुणों से उत्पन्न अपने कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है अर्थात अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में रत मनुष्य अथवा अपने-अपने कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य पूर्ण सिद्धि ( परमात्मा ) को प्राप्त कर लेता है । अब मुझसे सुनो कि कोई निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए कैसे पूर्णता प्राप्त करता है अर्थात स्वकर्म में या अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है?

 

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

 

यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-अस्तित्त्व में आना; भूतानाम्-सभी जीवित प्राणी; येन-जिसके द्वारा; सर्वम्-सब; इदम् यह; ततम्-व्याप्त; स्वकर्मणा किसी की स्वाभाविक वृत्तियाँ; तम्-उसको; अभ्यर्च्य-पूजा करके; सिद्धिम् – सिद्धि को; विन्दति-प्राप्त करता है; मानवः-मनुष्य।

 

अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्मांड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।

 

श्रेयान् – श्रेष्ठ; स्वधर्मः-अपने निश्चित व्यवसायी कार्य; विगुणः-त्रुटिपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना; परधार्मात्-दूसरों की अपेक्षा; सु-अनुष्ठितात्-कुशलतापूर्वक; स्वभावनियतम्-जन्म जात स्वभाव के अनुसार; कर्मकुर्वन् – करने से; न – कभी नहीं; आप्नोति-प्राप्त करता है; किल्बिषम्- पाप को।

 

 अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य पाप अर्जित नहीं करता अर्थात स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।

 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

 

सहजम्-किसी की प्रकृति से उत्पन्न; कर्म-कर्त्तव्य; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; सदोषम् दोषयुक्त; अपि – यद्यपि; न-त्यजेत्-त्यागना नहीं चाहिए; सर्वआरम्भाः – सभी प्रयासों को; हि-वास्तव में; दोषेण-बुराई के साथ; धूमेन-धुएँ से; अग्निः -अग्नि; इव-सदृश; आवृताः-आच्छादित।

 

हे कौन्तेय !  किसी को भी अपनी प्रकृति से उत्पन्न कर्त्तव्यों का परित्याग नहीं करना चाहिए चाहे कोई उनमें दोष भी क्यों न देखता हो। हे कुन्ती पुत्र! वास्तव में सभी प्रकार के उद्योग कुछ न कुछ बुराई से ढके रहते हैं जैसे आग धुंए से ढकी रहती है अर्थात दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।

 

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।

 

असक्तबुद्धिः-आसक्ति रहित बुद्धि; सर्वत्र-सभी स्थानों पर; जितात्मा ( जित-आत्मा ) -अपने मन को वश में करने वाला; विगतस्पृहः-इच्छाओं से रहित; नैष्कर्म्यसिद्धिम – अकर्मण्यता की स्थिति; परमाम्-सर्वोच्च; संन्यासेन-वैराग्य के अभ्यास द्वारा; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

 

वे जिनकी बुद्धि सदैव सभी स्थानों पर अनासक्त रहती है, जो इच्चकों से रहित हैं , जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है , जिसने अपने शरीर पर अधिकार प्राप्त कर लिया है , जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं अर्थात वह मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा या सन्यास के द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

 

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।

 

सिद्धिम् – पूर्णता को प्राप्त करना; यथा-कैसे; ब्रह्म-ब्रह्म; तथा – भी; आप्नोति-प्राप्त करता है; निबोध-सुनो; मे-मुझसे; समासेन-संक्षेप में; एव-वास्तव में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; निष्ठा-दृढ़ता से स्थित; ज्ञानस्य-ज्ञान की; या-जो; परा-दिव्य।

 

हे कौन्तेय ! अब मुझसे संक्षेप में सुनो कि जो सिद्धि या पूर्णता को प्राप्त कर चुका है वह भी दृढ़ता से दिव्य ज्ञान में स्थित होकर कैसे ब्रह्म को भी पा सकता है अर्थात अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की पराकाष्ठा है, किस प्रकार से प्राप्त होता है, उस प्रकार को तुम मुझसे संक्षेपमें ही समझो।

 

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।

शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।18.51।।

 

बुद्धया – बुद्धि; विशुद्धया-शुद्ध; युक्तः – युक्त होना; धृत्या-दृढ़ संकल्प के साथ; आत्मानम् – बुद्धि को; नियम्य-रोकना; च-और; शब्द आदीन् विषयान्–शब्द और इन्द्रियों के विषय को; त्यक्त्वा -त्यागकर; रागद्वेषौ-अनुराग और द्वेष; व्युदस्य-एक ओर रख कर; च-और;

 

कोई भी मनुष्य ब्रह्म को पाने की पात्रता प्राप्त कर सकता है । जब वह विशुद्ध या सात्विकी बुद्धि से युक्त होकर , दृढ़ता से या दृढ संकल्प से इन्द्रियों को संयत रखता है, शब्द और अन्य इन्द्रिय विषयों का परित्याग करता है, राग और द्वेष का परित्याग कर अपने से अलग कर लेता है।

 

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।

 

विविक्तसेवी-एकान्त स्थान पर निवास करना; लघ्वाशी ( लघुआशी ) -कम भोजन करने वाला; यत-नियंत्रण करके; वाक्-वाणी; काय-शरीर; मानसः-मन; ध्यानयोगपरो – ध्यान में लीन; नित्यम्-सदैव; वैराग्यम्-उदासीनता; समुपाश्रितः-शरण लेकर;

 

जो एकांत वास करता है, अल्प भोजन करता है, शरीर मन और वाणी पर नियंत्रण रखता है, सदैव ध्यान में लीन रहता है, वैराग्य का अभ्यास करता है,

 

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

 

अहड्.कारम्-अहंकार; बलम्- बल ; दर्पम्-घमंड को; कामम्-इच्छा; क्रोधम्-क्रोध; परिग्रहम्-स्वार्थ मुक्त; विमुच्य–मुक्त होकर; निर्ममः-स्वामित्व की भावना से रहित; शान्तः-शान्तिप्रियब्रह्म-भूयाय-ब्रह्म के साथ एकीकृत होना; कल्पते योग्य हो जाता है।

 

जो अहंकार, बल , अभिमान, कामनाओं , क्रोध, संपत्ति के स्वामित्व और स्वार्थ से मुक्त रहता है , जो ममता से रहित और जो शांति में स्थित है वह ब्रह्म के साथ एकरस होने का अधिकारी है अर्थात वह ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है ।

 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।

 

ब्रह्मभूतः – ब्रह्म में स्थित ; प्रसन्नात्मा (प्रसन्न-आत्मा) – मानसिक रूप से शांत; न – न तो; शोचति-शोक करना; न-न ही; काङ्क्षति-कामना करता है; समः-समभाव से; सर्वेषु-सब के प्रति; भूतेषु-जीवों पर; मद्भक्तिं ( मत्-भक्तिम् ) – मेरी भक्ति को; लभते-प्राप्त करता है; पराम्-परम।

 

परम ब्रह्म की अनुभूति में स्थित मनुष्य मानसिक शांति प्राप्त करता है, वह न तो शोक करता है और न ही कोई कामना करता है। क्योंकि वह सभी के प्रति समभाव रखता है, ऐसा परम योगी मेरी भक्ति को प्राप्त करता है अर्थात वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त , प्रसन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।

 

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।

 

भक्त्या-प्रेममयी भक्ति; माम्-मुझे अभिजानाति-कोई जान सकता है; यावान्–जितना; यः-च-अस्मि-जैसा मैं हूँ; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ततः-तत्पश्चात; माम्-मुझे; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ज्ञात्वा-जानकर; विशते-प्रवेश करता है; तत्-अनन्तरम् तत्पश्चात।

 

मेरी प्रेममयी भक्ति से अथवा परा भक्ति के द्वारा कोई विरला ही मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। मैं जितना हूँ और जो हूँ इसको तत्व से या सत्य रूप में जान लेता है तब यथावत मुझे सत्य रूप में तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप या मेरा ही स्वरूप बन जाता है।।

 

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।

 

सर्व-सब; कर्माणि-कर्म; अपि-यद्यपि; सदा-सदैव; कुर्वाणः-निष्पादित करते हुए; मद्व्यपाश्रयः ( मत्-व्यपाश्रयः ) – मेरी पूर्ण शरणागति में; मत्प्रसादाद ( मत्-प्रसादात् ) – मेरी कृपा से; अवाप्नोति–प्राप्त करता है; शाश्वतम्-नित्य; पदम्-धाम; अव्ययम्-अविनाशी।

 

यदि मेरे भक्त सभी प्रकार के कार्यों को करते हुए मेरी पूर्ण शरण ग्रहण करते हैं। तब वे मेरी कृपा से मेरा नित्य एवं अविनाशी धाम प्राप्त करते हैं अर्थात मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा और अनुग्रह से शाश्वत और अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

 

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।18.57।।

 

चेतसा – चेतना द्वारा; सर्वकर्माणि – समस्त कर्म; मयि-मुझको; संन्यस्य-सम्पर्ण; मत्परः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; बुद्धियोगम् – बुद्धि को भगवान में एकीकृत करते हुए; उपाश्रित्य-शरण लेकर; मत्चित्-मेरी चेतना में लीन; सततम्-सदैव; भव-होना।

 

अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना लक्ष्य मानो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो अर्थात चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके, मेरे परायण होकर तथा समता का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा।

 

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।

 

मत्चित्त:-सदैव मेरा स्मरण करना; सर्व-सब; दुर्गाणि-बाधाओं को; मत्प्रसादात्-मेरी कृपा से; तरिष्यसि -तुम पार कर सकोगे; अथ-लेकिन; चेत् – यदि; त्वम्-तुम; अहङ्कारात्-अभिमान के कारण; नश्रोष्यसि-नहीं सुनते हो; विनश्यसि – तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

 

मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा अर्थात यदि तुम सदैव मेरा स्मरण करते हो तब मेरी कृपा से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।

 

यत्-यदि; अहङ्कारम् अहंकार से प्रेरित; आश्रित्य–शरण लेकर; न-योत्स्ये-मैं नहीं लडूंगा; इति इस प्रकार; मन्यसे-तुम सोचते हो; मिथ्याएष-यह सब झूठ है; व्यवसायः-दृढ़ संकल्प; ते तुम्हारा; प्रकृतिः-भौतिक प्रकृति; त्वाम्-तुमको; नियोक्ष्यति–विवश करेगी।

 

यदि तुम अहंकार से प्रेरित होकर सोचते हो कि “मैं युद्ध नहीं लडूंगा “, तुम्हारा यह निर्णय, यह निश्चय झूठा और निरर्थक है । तुम्हारा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म , तुम्हारी स्वाभाविक क्षात्र प्रकृति , क्षात्र स्वभाव तुम्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश करेगा , तुम्हें बल पूर्वक युद्ध में लगा देगा ।।

 

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।18.60।।

 

स्वभावजेन – अपने प्राकृतिक गुण से उत्पन्न; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र,अर्जुन; निबद्धः-बद्ध; स्वेन-अपनी प्रवृत्ति द्वारा; कर्मणा-कर्मों द्वारा; कर्तुम् – करने के लिए; न-नहीं; इच्छसि-इच्छा करते हो; यत्-जिसे; मोहात्-मोह के कारण; करिष्यसि-तुम करोगे; अवश:-असहाय होकर; अपि-भी; तत्-वह।

 

हे कौन्तेय ! मोहवश जिस कर्म को तुम नहीं करना चाहते उसे तुम अपनी प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न प्रवृत्ति से बाध्य होकर करोगे अर्थात तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, अत: मोह के वश हो कर जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम अपनी क्षात्र प्रकृति से  विवश होकर करोगे।।

 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

 

ईश्वर:-परमेश्वर; सर्वभूतानाम्-सभी जीवों में; हृत्देशे-हृदय में; अर्जुन-अर्जुन; तिष्ठति-वास करता है; भ्रामयन्-भटकने का कारण; सर्वभूतानि-समस्त जीवों को; यन्त्रआरूढानि-यंत्र पर सवार, मायया – भौतिक शक्ति से निर्मित।

 

हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देशित करता है जो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार होती है अर्थात ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयमें रहता है और अपनी माया से शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता रहता है।

 

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।

 

तम्-उस पर; एव-केवल; शरणम् गच्छ-शरण ग्रहण करो; सर्वभावेन – विशाल हृदय से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; तत्प्रसादात्-उसकी कृपा से; पराम्-परम; शान्तिम्-शान्ति; स्थानम्-धाम को ; प्राप्सयसि-प्राप्त करोगे; शाश्वतम्-नित्य।

 

हे भारत! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे अर्थात तुम सर्वभाव या सम्पूर्ण भाव से उस ईश्वर की ही शरण में चले जाओ । उसकी कृपा से तुम परमशान्ति अर्थात इस संसार से सम्पूर्ण वैराग्य को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाओगे।

 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।

 

इति-इस प्रकार; ते – तुमको; ज्ञानम्-ज्ञान; आख्यातम् – समझाना; गुह्यात्-गूढ़ से अधिक; गुह्यतरम्-और अधिक गुह्य अर्थात गुह्यतर; मया – मेरे द्वारा; विमृश्य-विचार करके; एतत्-इस; अशेषेण-पूर्णतया; यथा-जैसी; इच्छसि-इच्छा हो; तथा-वैसा ही; कुरु-करो

 

इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गोपनीय ज्ञान , गूढ़ से भो अधिक गूढ़ ( शरणागति रूप ) ज्ञान मैंने तुमसे कहा; इस पर गहनता पूर्ण अच्छी प्रकार से विचार करने के पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा तुम करो।।

 

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।

 

सर्वगुह्यतमम्-सब गोपनीयों में से गोपनीय; भूयः-पुनः ; शृणु-सुनो; मे-मुझसे; परमम्-परम; वचः-आदेश; इष्ट:असि-अतिशय प्रिय हो; मे-मुझे ; दृढम्-अत्यन्तः इति -इस प्रकार; ततः-क्योंकि; वक्ष्यामि – कह रहा हूँ; ते – तुम्हारे; हितम्-लाभ के लिए;

 

पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम अथवा गोपनीयों से भी गोपनीय परम वचन (उपदेश) को सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे हित की बात कहूंगा अर्थात मेरा परम उपदेश सुनो जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो।

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।

 

मन्मना-मेरा चिंतन करो; भव-होओ; मत्भक्त:-मेरा भक्त; मद्याजी-मेरी पूजा करो; माम्–मुझे ; नमस्कुरू-प्रणाम करो; माम्-मेरे पास; एव-निश्चित रूप से; एष्यसि-आओगे; सत्यम् – वास्तव में; ते-तुमसे; प्रतिजाने-वचन देता हूँ; प्रिय:-प्रिय; असि-हो; मे-मुझको।

 

सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो अर्थात तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा – यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

सर्वधर्मान् – सभी प्रकार के धर्म; परित्यज्य-परित्याग कर; माम्-मेरी; एकम्-केवल; शरणम्-शरण में; व्रज-जाओ; अहम्-मैं; त्वाम्-मुमको; सर्व-समस्त; पापेभ्यः-पापों से; मोक्षयिष्यामि-मुक्त करूँगा; मा -मत; शुचः-डरो मत।

सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत अर्थात सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर अथवा सब धर्मों का परित्याग करके तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।

 

इदम् – यह; ते – तुम्हारे द्वारा; न – कभी नहीं; अतपस्काय-वे जो संयमी नहीं है; न – कभी नहीं; अभक्ताय–वे जो भक्त नहीं हैं; कदाचन-किसी समय; न – कभी नहीं; च-भी; अशुश्रूषवे-वे जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के विरुद्ध हैं; वाच्यम्-कहने के लिए; न – कभी नहीं; च-भी; माम् – मेरे प्रति; यः-जो; अभ्यसूयति-द्वेष करता है।

 

यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।

 

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।

 

यः-जो; इदम्-इस; परमम्-अत्यन्त; गुह्यम्-गूढ़ ज्ञान को; मत्भक्तेषु – मेरे भक्तों में; अभिधास्यति-सिखाता है; भक्तिम्-प्रेम भक्ति का महान कार्य; मयि-मेरी; परम्-अलौकिक; कृत्वा-करके; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यति-प्राप्त होता है; असंशयः-नि:संदेह।

 

वे जो इस अति गुह्य ज्ञान को मेरे भक्तों को सिखाते हैं, वे अति प्रिय कार्य करते हैं। वे निःसंदेह मेरे धाम में आएंगे अर्थात जो मुझसे परम प्रेम या मेरे में परा भक्ति करके इस परम गुह्य ज्ञान अथवा परम गोपनीय संवाद (गीता-ग्रन्थ) का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।

 

न कभी नहीं; च और; तस्मात्-उनकी उपेक्षा; मनुष्येषु-मनुष्यों में; कश्चित्-कोई; मे-मुझको; प्रियकृत्त- मः-अतिशय प्रिय; भविता-होगा; न- न तो; च-तथा; मे-मुझे; तस्मात्-उनकी अपेक्षा; अन्यः-दूसरा; प्रियतरः-अधिक प्रिय; भुवि-इस पृथ्वी पर।

 

उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूमण्डल पर उसके समान मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।

 

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।

 

अध्येष्यते-अध्ययन; च-और; यः-जो; इमं इस; धर्म्यम्-पवित्र; संवादम्-संवाद; आवयोः-हमारे; ज्ञान-ज्ञान; यज्ञेन-ज्ञान का समर्पण; तेन-उसके द्वारा; अहम्-मैं; इष्ट:-पूजा; स्याम्-होऊँगा; इति इस प्रकार; मे मेरा; मतिः-मत।

 

और मैं यह घोषणा करता हूँ कि जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा अर्थात वे ज्ञान के समर्पण द्वारा अपनी बुद्धि के साथ मेरी पूजा करेंगे – ऐसा मेरा मत है ।

 

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।

सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।

 

श्रद्धा-वान्–श्रद्धा से युक्त; अनसूयः-द्वेषरहित; च-तथा; शृणुयात्-सुनता है; अपि-निश्चय ही; यः-जो; नरः-वह मनुष्यः सः-वह; अपि-भी; मुक्तः-मुक्त होकर; शुभान्–पवित्र; लोकान्–लोकों को प्राप्नुयात्–प्राप्त करता है; पुण्यकर्मणाम्-पुण्य कर्म करने वाली आत्माएँ।

 

 वे जो श्रद्धायुक्त तथा द्वेष रहित होकर केवल इस ज्ञान को सुनते हैं वे पापों से मुक्त हो जाते हैं और मेरे पवित्र लोकों को पाते हैं जहाँ पुण्य आत्माएं निवास करती हैं अर्थात श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थ को सुन भी लेगा या श्रवण मात्र भी करेगा , वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ और श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त हो जायगा।

 

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।

 

कच्चित्-क्या; एतत्-यह; श्रुतम्-सुना गया; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; त्वया-तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण चेतसा-एकाग्र मन से; कच्चित्-क्या; अज्ञान-अज्ञान का; सम्मोहः-मोह; प्रणष्ट:-नष्ट हो गया; ते-तुम्हारा; धनञ्जय -धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन।

हे पार्थ! क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर मुझे सुना? हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह नष्ट हुआ? अर्थात क्या तुम्हारे द्वारा मेरा यह उपदेश एकाग्रचित्त हो कर सुना गया ? क्या तुम्हारा अज्ञान जनित सम्पूर्ण मोह पूर्णतया नष्ट हुआ ?

 

अर्जुन उवाच

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।

 

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; नष्ट:-दूर हुआ; मोह:-मोह; स्मृति:-स्मरण शक्ति; लब्धा-पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्-आपकी कृपा से; मया मेरे द्वारा; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; स्थितः-स्थित; अस्मि-हूँ; गतसन्देहः-सारे संशयों से मुक्त; करिष्ये – मैं करूँगा; वचनम्-आदेश को; तव-आपके।

 

अर्जुन ने कहाः हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ अर्थात मुझे मेरी स्मरण शक्ति पुनः प्राप्त हो गयी है। मैं समस्त संशयों और संदेहों से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा और आपके वचनो का पालन करूंगा ।

 

सञ्जय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।

 

सञ्जयःउवाच-संजय ने कहा; इति–इस प्रकार; अहम्-मैं; वासुदेवस्य-श्रीकृष्ण का; पार्थस्य-तथा अर्जुन का; च-और; महाआत्म्न:-उदार चित्त आत्मा का; संवादम्-वार्तालाप; इमम् – यह; अश्रौषम्-सुना है; अद्भुतम्-अद्भुत; रोमहर्षणम्-शरीर के रोंगटे खड़े करने वाला।

 

संजय ने कहाः इस प्रकार से मैंने वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और उदारचित्त पृथा पुत्र अर्जुन के बीच अद्भुत संवाद सुना। यह इतना रोमांचकारी संदेश है कि इससे मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए हैं।

 

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।

 

व्यासप्रसादात्-वेदव्यास की कृपा से; श्रुतवान्-सुना है; एतत्-इस; गुह्य-गोपनीय ज्ञान; अहम्-मैंने; परम्-परमः योगम् – योग; योगईश्वरात्-योग के परमेश्वर; कृष्णात्-कृष्ण से; साक्षात्-साक्षात; कथ्यतः-कहते हुए; स्वयम्-स्वयं।

 

वेद व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता-ग्रन्थ) अर्थात इस परम गुह्य योग को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से सुना है।

 

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।

 

राजन् राजा; संस्मृत्य-बार बार स्मरण करके; संवादम्-संवाद को; इमम्-इस; अद्भुतम्–चौंका देने वाले ; केशव अर्जुनयोः-भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच; पुण्यम्-पवित्र; हृष्यामि-हर्षित होता हूँ; च-और; मुहुः-मुहुः-बार-बार।

 

हे राजन! जब-जब मैं परमेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए इस चकित कर देने वाले अद्भुत संवाद का स्मरण करता हूँ तब-तब मैं पुनः पुनः हर्षित होता हूँ अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर-करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

 

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।

 

तत्-उस; च–भी; संस्मृत्य-संस्मृत्य-बार-बार स्मरण करके; रूपम्-विराट रूप को; अति-अत्यधिक; अद्भुतम्-आश्चर्यजनक; हरे:-भगवान् श्रीकृष्ण के; विस्मय:-आश्चर्य; मे-मेरा; महान- महान; राजन्– राजा; हृष्यामि -मैं हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ; च-और; पुनः पुनः-बारम्बार।

 

हे राजन ! भगवान श्रीकृष्ण के अति विस्मयकारी विश्व रूप का स्मरण कर मैं अति चकित और बार-बार हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण के उस अत्यन्त अद्भुत विराट रूप को याद कर-कर के मेरे को बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

 

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।

 

यत्र -जहाँ; योगेश्वरः -योग के स्वामी श्रीकृष्ण; यत्र-जहाँ; पार्थः-पृथापुत्र, अर्जुन; धनुर्धरः-धनुर्धर; तत्र-वहाँ; श्री:-ऐश्वर्य; विजयः-विजय; भूति:-समृद्धि; ध्रुवा–अनन्त; नीतिः-नीति; मतिः-मम–मेरा मत।।

 

जहाँ योग के स्वामी श्रीकृष्ण और श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से अनन्त ऐश्वर्य, विजय, समृद्धि और नीति होती है, ऐसा मेरा निश्चित मत है अर्थात जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।

 

 

 

 

 

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