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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
ज्ञानविज्ञानयोग- सातवाँ अध्याय
01-07 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय,इश्वर की व्यापकता
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
20-23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जाननेवालों की महिमा
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
श्रीभगवान उवाच।
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥7.1॥
श्रीभगवानउवाच-परम् भगवान ने कहा; मयि–मुझमें; आसक्तमना:-मन को अनुरक्त करने वाला; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; योगम्-भक्ति योगः युञ्जन्–अभ्यास करते हुए; आश्रयः-मेरे प्रति समर्पित; असंशयम्-सन्देह से मुक्त; समग्रम्-पूर्णतया; माम्-मुझे; यथा-कैसे; ज्ञास्यसि -तुम जान सकते हो; तत्-वह; श्रृणु-सुनो।
श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से ( भक्ति ) योग के अभ्यास द्वारा मुझमें आसक्त चित अर्थात मन को केवल मुझमें अनुरक्त कर तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर अर्थात मेरी शरण ग्रहण कर , तुम जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशय रहित जान सकोगे , उसको सुनो ॥7.1॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥7.2॥
ज्ञानम्-ज्ञान; ते-तुमसे; अहम्-मैं; स–सहित; विज्ञानम्-विवेक; इदम्-यह; वक्ष्यामि-प्रकट करना; अशेषत:-पूर्णरूप से; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; न-नहीं; इह-इस संसार में; भूयः-आगे; अन्यत्-अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्-जानने योग्य; अवशिष्यते-शेष रहता है।
अब मैं तुम्हारे समक्ष इस दिव्य ज्ञान और तत्व ज्ञान को विज्ञान सहित अर्थात अपने अनुभव और विवेक से पूर्णतः प्रकट करूँगा जिसको जान लेने पर इस संसार में तुम्हारे जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहेगा॥7.2॥
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥7.3॥
मनुष्याणाम् – मनुष्यों में; सहस्त्रेषु-कई हजारों में से; कश्चित् – कोई एक; यतति-प्रयत्न करता है; सिद्धये-पूर्णता के लिए; यतताम्-प्रयास करने वाला; अपि-निस्सन्देह; सिद्धानाम्-वह जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो; कश्चित्-कोई एक; माम्–मुझको; वेत्ति-जानता है; तत्त्वतः-वास्तव
हजारों में से कोई एक मनुष्य सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक विरला ही वास्तव में मुझे तत्व से अर्थात वास्तव में जान पाता है॥7.3॥
भूममिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥7.4॥
भूमिः-पृथ्वी; आप:-जल; अनल:-अग्नि; वायु:-वायुः खम्-आकाश; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; एव–निश्चय ही; च-और; अहंकारः-अहम्; इति–इस प्रकार; इयम्-ये सब; मे-मेरी; भिन्ना-पृथक्; प्रकृतिः-भौतिक शक्तियाँ; अष्टधा-आठ प्रकार की।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पांच महाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार ये सब मेरी आठ प्रकार के भेदों वाली प्राकृत शक्ति अर्थात अपरा शक्ति के आठ तत्त्व हैं॥7.4॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥7.5॥
अपरा-निकृष्ट, इयम्-यह; इत:-इसके अतिरिक्त; तु–लेकिन; अन्याम्-अन्य; प्रकृतिम्–प्राकृत शक्ति; विद्धि-जानना; मे-मेरी; परम-उत्कृष्ट; जीवभूताम्-सभी जीव; महाबाहो–बलिष्ठ भुजाओं वाला; यथा-जिसके द्वारा; इदम्-यह; धार्यते-आधार पर; जगत्-भौतिक संसार।
ये आठ तत्व मेरी अपरा शक्ति अर्थात जड़ प्रकृति हैं किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इस से भिन्न जीव रूप बनी हुयी मेरी परा शक्ति है जो मेरी चेतन प्रकृति है उसको जानो जिसके द्वारा ये जगत धारण किया जाता है । यह जीव शक्ति है जिसमें देहधारी आत्माएँ (जीवन रूप) सम्मिलित हैं जो इस संसार के जीवन का आधार हैं॥7.5॥
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥7.6॥
एतत् योनीनि-इन दोनों शक्तियों के स्रोत; भूतानि-सभी जीव; सर्वाणि-सभी; इति-वह; उपधारय-जानो; अहम्-मैं; कृत्स्नस्य–सम्पूर्ण; जगतः-सृष्टि; प्रभवः-स्रोत; प्रलयः-संहार; तथा-और।
तुम ऐसा जान लो कि सभी प्राणी मेरी इन दो प्रकृतियों या शक्तियों के संयोग के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का मूल कारण हूँ और ये पुनः मुझमें ही विलीन हो जाती है अर्थात इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय मैं ही हूँ॥7.6॥
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7.7॥
मत्तः-मुझसे; परतरम्-श्रेष्ठ; न-नहीं; अन्यत्-किञ्चित्-अन्य कुछ भी; अस्ति–है; धनञ्जय-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; मयि–मुझमें; सर्वम्-सब कुछ; इदम्-जो हम देखते हैं; प्रोतम्-गुंथा हुआ; सूत्रे-धागे में; मणिगणा:-मोतियों के मनके; इव-समान।
हे धनञ्जय ! मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। सब कुछ मुझ पर उसी प्रकार से आश्रित है , जिस प्रकार से धागे में गुंथे हुए मोती॥7.7॥
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥7.8॥
रसः-स्वाद; अहम्–मैं; अप्सु-जल में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; प्रभा–प्रकाश; अस्मि-हूँ; शशिसूर्ययो:-चन्द्रमा तथा सूर्य का; प्रणवः-पवित्र मंत्र ॐ ; सर्व-सारे; वेदेषु–वेद; शब्दः-ध्वनि; खे-व्योम में; पौरूषम्-सामर्थ्य; नृषु-मनुष्यों में।
हे कुंती पुत्र ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में प्रणव ( पवित्र मंत्र ) अर्थात ओंकार (ॐ) हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषार्थ ( पुरुषत्व / पौरुष ) अर्थात सामर्थ्य हूँ॥7.8॥
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥7.9॥
पुण्यः-पवित्र, गन्धः-सुगंध; पृथिव्याम्-पृथ्वी में; च-और; तेज:-प्रकाश; च-भी; अस्मि-मैं हूँ; विभावसौ-अग्नि में; जीवनम्-जीवन शक्ति; सर्व-समस्त; भूतेषु-जीव; तपः-तपस्या; च-भी; अस्मि-हूँ; तपस्विषु-तपस्वियों में।
पृथ्वी में मैं पवित्र गंध और अग्नि में तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन अर्थात प्राणियों में जीवन शक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तप भी मैं हूँ॥7.9॥
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥7.10॥
बीजम्-बीज; माम–मुझको; सर्व-भूतानाम्-समस्त जीवों का; विद्धि-जानना; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः सनातनम्-नित्य,; बुद्धिः-बुद्धि; बुद्धिमताम्-बुद्धिमानों की; अस्मि-हूँ; तेजः-तेज; तेजस्विनाम्-तेजस्वियों का; अहम्-मैं।
हे अर्जुन! यह समझो कि मैं सभी प्राणियों का आदि ( सनातन / पुरातन ) बीज हूँ अर्थात उनकी उत्पत्ति का मूल कारण मैं हूँ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि अर्थात विवेक शक्ति और तेजस्वियों का तेज हूँ॥7.10॥
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥7.11॥
बलम्-शक्ति; बलवताम्-बलवानों का; च-तथा; अहम्-मैं हूँ; काम-कामना; राग – आसक्ति; विवर्जितम्-रहित; धर्म-अविरुद्धः-जो धर्म के विरुद्ध न हो; भूतेषु–सभी जीवों में; कामः-कामुक गतिविधियाँ; अस्मि-मैं हूँ; भरत ऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ, अर्जुन।
हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल और सामर्थ्य हूँ और सभी जीवों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥7.11॥
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥7.12॥
ये-जो भी; च-तथा; एव–निश्चय ही; सात्त्विका:-सत्वगुण, अच्छाई का गुण; भावाः-भौतिक अस्तित्त्व की अवस्था; राजसा:-रजो गुण, आसक्ति का गुणः तामसा:-तमो गुण, अज्ञानता का गुण; च-भी; ये-जो; मत्तः-मुझसे; एव-निश्चय ही; इति–इस प्रकार; तान्-उनको; विद्धि-जानो; न-नहीं; तु-लेकिन; अहम्–मैं; तेषु-उनमें; ते-वे; मयि–मुझमें।
तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मेरी शक्ति से ही प्रकट होते हैं तथा जो सत्त्व गुण , रजो गुण और तमो गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न हुआ जान। ये सब मुझमें हैं लेकिन मैं इनसे परे हूँ। यद्यपि वे मुझसे उत्पन्न होते हैं तथापि मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् संसारी मनुष्यों की भाँति मैं उनके वशमें नहीं हूँ परंतु वे मुझमें हैं यानी मेरे वशमें हैं, मेरे अधीन हैं॥7.12॥
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥7.13॥
त्रिभिः-तीन; गुण-मयैः-भौतिक प्रकृति के गुणों से निर्मित; भावैः-अवस्था द्वारा; एभिः ये-सब; सर्वम्-सम्पूर्ण; इदम्-यह; जगत्-ब्रह्माण्ड; मोहितम्-मोहित होना; न-नहीं; अभिजानाति–नहीं जानना; माम्-मुझको; एभ्यः-इनसे; परम्-सर्वोच्च; अव्ययम्-अविनाशी।
माया के तीन गुणों और इन से उत्पन्न इन भावों ( विकारों ) से मोहित इस संसार के लोग इन तीन गुणों से परे मेरे नित्य और अविनाशी स्वरूप को जान पाने में असमर्थ होते हैं ॥7.13॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥7.14॥
दैवी-दिव्य; हि-वास्तव में; एषा–यह; गुणमयी-प्रकृति के तीनों गुणों से निर्मित; मम–मेरी; माया- भगवान की एक शक्ति जो उन जीवात्माओं से भगवान के वास्तविक दिव्य स्वरूप को आच्छादित रखती है जिन्होंने अभी तक भगवद्प्राप्ति की ओर अग्रसर होने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं की है; दुरत्यया-पार कर पाना कठिन; माम्-मुझे; एव-निश्चय ही; ये-जो; प्रपद्यन्ते-शरणागत होना; मायाम् एताम्-इस माया को; तरन्ति–पार कर जाते हैं; ते–वे।
प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं और केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं , वे इस माया को सरलता से पार कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं ॥7.14॥
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥7.15॥
न–नहीं; माम् – मेरी; दुष्कृतिन:-बुरा करने वाले; मूढाः-अज्ञानी; प्रपद्यन्ते–शरण ग्रहण करते हैं; नर अधमाः-अपनी निकृष्ट प्रवृति के अधीन आलसी लोग; मायया- भगवान की प्राकृत शक्ति द्वारा; अपहृत ज्ञानाः-भ्रमित बुद्धि वाले; आसुरम्-आसुरी; भावम्-प्रकृति वाले; आश्रिताः-शरणागति।
चार प्रकार के लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते-
* वे जो निपट मूढ़ और अज्ञानी हैं
*वे जो अपनी निकृष्ट , नीच और पाप पूर्ण प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, अर्थात दुष्कृत्य करने वाले नराधम लोग
*जिनकी बुद्धि भ्रमित है अर्थात माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है,
* जो आसुरी प्रवृति के हैं॥7.15॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥7.16॥
चतुः विधाः-चार प्रकार के; भजन्ते-सेवा करते हैं; माम् – मेरी; जनाः-व्यक्ति; सुकृतिनः-वे जो पुण्यात्मा हैं; अर्जुन-अर्जुन; आर्त:-पीड़ित; जिज्ञासुः-ज्ञान अर्जन करने के अभिलाषी; अर्थ अर्थी-लाभ की इच्छा रखने वाले; ज्ञानी-वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; च-भी; भरत ऋषभ-भरतश्रेष्ठ, अर्जुन।।
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी भक्ति में लीन रहते हैं:
*आर्त अर्थात (संकट निवारण के लिए भजने वाले दुःखी और पीड़ित जन ),
*जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु ( अर्थात मेरे वास्तविक और यथार्थ स्वरूप को तत्त्व से जानने की इच्छा से भजने वाले ),
*उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों धन इत्यादि के लिए भजने वाले या संसार के स्वामित्व की अभिलाषा रखने वाले)
*परम ज्ञान में स्थित ज्ञानी अर्थात परमात्म तत्त्व या विष्णु तत्व को जानने वाले ॥16॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥7.17॥
तेषाम्-उनमें से; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; नित्य-युक्त:-सदैव दृढ़; एक-अनन्य; भक्ति:-भक्ति में; विशिष्यते-श्रेष्ठ है; प्रियः-अति प्रिय; हि-निश्चय ही; ज्ञानिनः-ज्ञानवान; अत्यर्थम्-अत्यधिक; अहम्-मैं हूँ; सः-वह; च-भी; मम–मेरा; प्रियः-प्रिय।
इनमें से मैं उन्हें श्रेष्ठ मानता हूँ जो ज्ञान युक्त होकर प्रेम और भक्ति पूर्वक मेरी आराधना करते हैं और दृढ़तापूर्वक अनन्य भाव से मेरे प्रति समर्पित होते हैं अर्थात इन सब में से नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित हो कर अनन्य प्रेम और भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी भक्त मैं बहुत प्रिय हूँ और वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं॥7.17॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥7.18॥
उदारा:-महान; सर्वे -सभी; एव–वास्तव में; एते-ये; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; तु–लेकिनः आत्मा एव-मेरे समान ही; मे- मेरे; मतम्-विचार; आस्थित:-स्थित; सः-वह; हि-निश्चय ही; युक्त-आत्मा भगवान में एकीकृत; माम्-मुझे ; एव–निश्चय ही; अनुत्तमाम्-सर्वोच्च ;गतिम्-लक्ष्य।
वास्तव में वे सब जो मुझ पर समर्पित हैं, निःसंदेह महान हैं और उदार हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं और स्थिर मन वाले हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि मुझमें विलय कर दी है और जो केवल मुझे ही परम लक्ष्य के रूप में देखते हैं, उन्हें मैं अपने समान ही मानता हूँ अर्थात ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है॥7.18॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥7.19॥
बहूनाम्-अनेक; जन्मनाम्-जन्म; अन्ते-बाद में; ज्ञानवान्–ज्ञान में स्थित मनुष्य; माम्-मुझको; प्रपद्यते -शरणागति; वासुदेवः-वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; सर्वम्-सब कुछ; इति–इस प्रकार; सः-ऐसा; महा आत्मा-महान आत्मा; सुदुर्लभः-विरले।
अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे तत्व ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है अर्थात सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार मुझको भजता है। ऐसे महात्मा ( महान आत्मा ) वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ है॥7.19॥
20- 23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥7.20॥
कामैः-भौतिक कामनाओं द्वारा; तैः तैः-विविध; हृतज्ञाना:-जिनका ज्ञान भ्रमित है; प्रपद्यन्ते–शरण लेते हैं; अन्य-अन्य; देवताः-स्वर्ग के देवताओं की; तम् तम्-अपनी अपनी; नियमम् – नियम एवं विनियम; आस्थाय-पालन करना; प्रकृत्या – स्वभाव से; नियता:-नियंत्रित; स्वया अपने आप।
वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है और भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे उन कामनाओं की शीघ्र पूर्ति हेतु देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं॥7.20॥
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥7.21॥
यःयः-जो जो; याम् याम्- जिस जिस; तनुम्- के रूप में; भक्तः-भक्त; श्रद्धया -श्रद्धा के साथ; अर्चितुम्-पूजा करना; इच्छति–इच्छा; तस्य-तस्य-उसकी; अचलाम्-स्थिर; श्रद्धाम्-श्रद्धा; ताम्-उस; एव–निश्चय ही; विदधामि-प्रदान करना; अहम्–मैं।
जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥7.21॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥7.22॥
स:-वह; तया-उसके साथ; श्रद्धया – विश्वास से; युक्त:-सम्पन्न; तस्य-उसकी; आराधनम्-पूजा; ईहते-तल्लीन होने का प्रयास करना; लभते-प्राप्त करना; च-तथा; ततः-उससे; कामान्–कामनाओं को; मया- मेरे द्वारा; एव-केवल; विहितान्–स्वीकृत; हि-निश्चय ही; तान्-उन।
उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धा से युक्त होकर ऐसे भक्त सकाम भाव से उस विशेष देवता की पूजा करते हैं और निःसंदेह अपनी वांछित वस्तुएँ और इच्छित भोग प्राप्त भी करते हैं अर्थात उनकी वह कामना पूरी भी होती है किन्तु वास्तव में ये सब लाभ और कामना पूर्ति मेरे द्वारा ही प्रदान किए जाते हैं॥7.22॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥7.23॥
अन्तवत् – नाशवान; तु-लेकिन; फलम्-फल; तेषाम्-उनके द्वारा; तत्-वह; भवति–होता है; अल्पमेधसाम्-अल्पज्ञों का; देवान्–स्वर्ग के देवता; देवयज्ञः-देवताओं को पूजने वाले; यान्ति–जाते हैं; मत्–मेरे; भक्ताः-भक्त जन; यान्ति–जाते हैं; माम् – मेरे; अपि – भी।
किन्तु ऐसे अल्पज्ञानी लोगों को प्राप्त होने वाले फल भी नाशवान होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले , देव लोकों को जाते हैं अर्थात देवताओं को प्रात होते हैं जबकि मेरे भक्त चाहे जैसे भी मुझे भजें, अंत में वे मेरे लोक को जाते हैं अर्थात मुझको ही प्राप्त होते हैं ॥7.23॥
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥7.24॥
अव्यक्तम्-निराकार ; व्यक्तिम्- साकार स्वरूप; आपन्नम्-प्राप्त हुआ; मन्यन्ते-सोचना; माम्-मुझको; अबुद्धयः-अल्पज्ञानी; परम्- सर्वोच्च; भावम् – प्रकृति; अजानन्तः-बिना समझे ;मम-मेरा; अव्ययम्-अविनाशी; अनुत्तमम् – सर्वोत्तम।
बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं कि मैं परमेश्वर पहले निराकार था और अब मैंने यह साकार व्यक्तित्त्व धारण किया है, वे मेरे इस अविनाशी और सर्वोत्तम दिव्य स्वरूप की प्रकृत्ति को नहीं जान पाते अर्थात वे मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म लेने वाला या मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला साधारण व्यक्ति समझते हैं ॥7.24॥
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥7.25॥
ना – न तो ; अहम्-मैं; प्रकाश:-प्रकट; सर्वस्य–सब के लिये; योगमाया- भगवान की परम अंतरंग शक्ति; समावृतः-आच्छादित; मूढः-मोहित, मूर्ख; अयम्-इन; न-नहीं; अभिजानाति–जानना; लोकः-लोग; माम्-मुझको; अजम्-अजन्मा को; अव्ययम्-अविनाशी।
मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ क्योंकि सब मेरी अंतरंग शक्ति ‘योगमाया’ द्वारा आच्छादित रहते हैं अर्थात अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए मूर्ख और अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ अर्थात न तो मेरा जन्म होता है न मृत्यु या विनाश परन्तु माया द्वारा भ्रमित ये अल्पबुद्धि लोग मुझको जन्मने और मरने वाला समझते हैं ॥7.25॥
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥7.26॥
वेद-जानना; अहम्-मैं; समतीतानि – भूतकाल को; वर्तमानानि-वर्तमान को; च-तथा; अर्जुन-अर्जुन; भविष्याणि-भविष्य को; च-भी; भूतानि-सभी जीवों को; माम्-मुझको; तु-लेकिन; वेद-जानना; न-नहीं; कश्चन-कोई
अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जानता हूँ अर्थात जो प्राणी भूत काल में हो चुके हैं , जो वर्तमान में स्थित हैं और जो भविष्य में होने वाले हैं उन सभी प्राणियों को मैं जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता अर्थात मेरे शरणागत भक्तों को छोड़ कर मुझे कोई भी श्रद्धा और भक्ति रहित मनुष्य नहीं जानता। केवल मेरे प्रेमी भक्त ही मुझे जान सकते हैं ॥7.26॥
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥7.27॥
इच्छा-इच्छा; द्वेष- घृणा; समुत्थेन-उत्पन्न होने से; द्वन्द्व-द्वन्द्व से; मोहेन-मोह से; भारत-भरतवंशी, अर्जुन; सर्व-सभी; भूतानि-जीव; सम्मोहम्-मोह से; सर्गे–जन्म लेकर; यान्ति–जाते हैं; परन्तप-अर्जुन, शत्रुओं का विजेता।
हे परन्तप भारत ! इच्छा ( राग ) तथा घृणा ( द्वेष ) से उत्पन्न होने वाले सुख दुःख आदि द्वन्द रूप मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी इस भौतिक जगत में मूढ़ता ( अज्ञान ) को प्राप्त हो रहे हैं॥7.27॥
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥7.28॥
येषाम् – जिसका; तु–लेकिन; अन्तगतम्-पूर्ण विनाशः पापम्-पाप; जनानाम्- जीवों का; पुण्य-पवित्र; कर्मणाम्-गतिविधियाँ; ते–वे; द्वन्द्व-द्विविधताएँ; मोह-मोह; निर्मुक्ताः-से मुक्त; भजन्ते-आराधना करना; माम्-मुझको; दृढव्रताः-दृढसंकल्प।
परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्मों में संलग्न रहने और श्रेष्ठ कर्मों में आचरण करने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे राग – द्वेष जनित द्वन्द्वों के मोह से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे भक्त दृढ़ संकल्प के साथ मेरी भक्ति और पूजा करते हैं अर्थात सब प्रकार से मुझे भजते हैं ॥7.28॥
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥7.29॥
जरा-वृद्धावस्था; मरण- मृत्यु से; मोक्षाय–मुक्ति के लिए; माम्-मुझको, मेरे; आश्रित्य–शरणागति में; यतन्ति-प्रयत्न करते हैं; ये-जो; ते-ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म-ब्रह्म; तत्-उस; विदु-जान जाते हैं; कृत्स्नम्-सब कुछ; अध्यात्मम्-जीवात्मा; कर्म-कर्म; च-भी; अखिलम् – सम्पूर्ण;
जो मेरे शरणागत होकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति या मोक्ष पाने की चेष्टा करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को , अपनी आत्मा को और सम्पूर्ण कर्मों को या समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।।7.29॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥7.30॥
स-अधिभूत-प्राकृतिक तत्त्वों को चलाने वाले सिद्धान्त; अधिदैवम् – समस्त देवताओं को नियन्त्रित करने वाले सिद्धान्त; माम्-मुझको; स-अधियज्ञम् समस्त यज्ञों को सम्पन्न करने वाले सिद्धान्त का नियामक भगवान; च-और; ये-जो; विदुः-जानते हैं; प्रयाण-मृत्यु के; काले-समय में; अपि-भी; च-तथा; माम्-मुझको; ते–वे; विदुः-जानना; युक्तचेतसः-जिनकी चेतना पूर्णतया मुझमें है।
जो मनुष्य अधिभूत ( प्रकृति के तत्त्व के सिद्धान्त ) , अधिदैव ( देवतागण ) तथा अधियज्ञ ( यज्ञों के नियामक ) के रूप में मुझे जानते हैं , ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ सदैव यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के समय भी मेरी पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं अर्थात जो मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त हो जाते हैं॥7.30॥
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥7॥
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