अठारवा अध्याय
Eighteenth chapter
अष्टावक्र उवाच –
यस्य बोधोदये तावत्–स्वप्नवद् भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे॥१८.१॥
अष्टावक्र कहते हैं –
जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश को नमस्कार है ॥१॥
अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
न हि सर्वपरित्याजम–न्तरेण सुखी भवेत्॥१८.२॥
जगत के सभी पदार्थों को प्राप्त करके कोई बहुत से भोग प्राप्त कर सकता है पर उन सबका आतंरिक त्याग किये बिना सुखी नहीं हो सकता ॥ २ ॥
कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वाला दग्धान्तरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारा–सारमृते सुखम्॥१८.३॥
जिसका मन यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य आदि दुखों की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूपी शांति की अमृत–धारा का सेवन किये बिना सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥३॥
भवोऽयं भावनामात्रोन किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्॥१८.४॥
यह संसार केवल एक भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है । भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता ॥४॥
न दूरं न च संकोचाल्–लब्धमेवात्मनः पदं।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥१८.५॥
आत्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और न मल ही ॥५॥
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥१८.६॥
अज्ञान मात्र की निवृत्ति और स्वरुप का ज्ञान होते ही दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्त्व को जानने वाला शोक से रहित होकर शोभायमान हो जाता है ॥६॥
समस्तं कल्पनामात्र–मात्मा मुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्॥१८.७॥
सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस तथ्य को जान कर फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे? ॥१७॥
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥१८.८॥
आत्मा ही ब्रह्म है और भाव–अभाव कल्पित हैं – ऐसा निश्चय हो जाने पर निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे और क्या कहे ॥८॥
अयं सोऽहमयं नाहं इति क्षीणा विकल्पना।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णींभूतस्य योगिनः॥१८.९॥
सब आत्मा ही है – ऐसा निश्चय करके जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ आदि कल्पनाएँ भी शांत हो जाती हैं ॥९॥
न विक्षेपो न चैकाग्र्यं नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः॥१८.१०॥
अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख ॥१०॥
स्वाराज्ये भैक्षवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥१८.११॥
जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ–हानि में, भीड़ में या सुने जंगल में कोई अंतर नहीं है ॥११॥
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१८.१२॥
यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक कहाँ ॥१२॥
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१८.१३॥
जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग है । जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी स्थिति है ॥१३॥
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद् ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१८.१४॥
जो महात्मा सभी संकल्पों की सीमा पर विश्राम कर रहा है, उसके लिए मोह कहाँ, संसार कहाँ, ध्यान कहाँ और मुक्ति भी कहाँ? ॥१४॥
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१८.१५॥
जिसने इस संसार को वास्तव में देखा हो वह कहे कि यह नहीं है, नहीं है । जो कामना रहित है, वह तो इसको देखते हुए भी नहीं देखता ॥१५॥
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो यो न पश्यति॥१८.१६॥
जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे ॥१६॥
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्॥१८.१७॥
जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो वह उसको रोके । तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे ॥१७॥
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८.१८॥
तत्त्वज्ञ तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लय ही ॥१८॥
भावाभावविहीनो यस्–तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८.१९॥
तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित, तृप्त और कामना रहित होता है । लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा–सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता ॥१९॥
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥१८.२०॥
तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता । जब जो सामने आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है ॥२०॥
निर्वासनो निरालंबः स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।
क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८.२१॥
ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से सर्वथा मुक्त होता है । प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से सूखा पत्ता ॥२१॥
असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥१८.२२॥
जो संसार से मुक्त है वह न कभी हर्ष करता है और न विषाद । उसका मन सदा शीतल रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह के समान सुशोभित होता है ॥२२॥
कुत्रापि न जिहासास्ति नाशो वापि न कुत्रचित्।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥१८.२३॥
जिसका अंतर्मन शीतल और स्वच्छ है, जो आत्मा में ही रमण करता है, उस धीर पुरुष की न तो किसी त्याग की इच्छा होती है और न कुछ पाने की आशा ॥२३॥
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥१८.२४॥
जिस धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विषय है, वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्ध वश बहुत से कार्य करता है पर उसका उसे न तो मान होता है और न अपमान ही ॥२४॥
कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न॥१८.२५॥
‘यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं, मैं तो शुद्ध स्वरुप हूँ‘ – इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता ॥२५॥
अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते॥१८.२६॥
सुखी और श्रीमान् जीवन्मुक्त विषयी के समान कार्य करता है, परन्तु विषयी नहीं होता है वह तो सांसारिक कार्य करता हुआ भी शोभा को प्राप्त होता है ॥२६॥
नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥१८.२७॥
जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता ही है ॥२७॥
असमाधेरविक्षेपान् न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥१८.२८॥
ऐसा ज्ञानी समाधि में आग्रह न होने के कारण मुमुक्षु नहीं और विक्षेप न होने के कारण विषयी नहीं है । मेरे अतिरिक्त जो कुछ भी दिख रहा है वह सब कल्पित ही है – ऐसा निश्चय करके सबको देखता हुआ वह ब्रह्म ही है ॥२८॥
यस्यान्तः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किंचिदकृतं कृतम्॥१८.२९॥
जिसके अन्तः करण में अहंकार विद्यमान है वह देखने में कर्म न करे तो भी करता है । पर जो धीर पुरुष निरहंकार है, वह सब कुछ करते हुए भी कर्म नहीं करता ॥९॥
नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट–मकर्तृ स्पन्दवर्जितं।
निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते॥१८.३०॥
मुक्त पुरुष के चित्त में न उद्वेग है, न संतोष और न कर्तृत्व का अभिमान ही है उसके चित्त में न आशा है, न संदेह ऐसा चित्त ही सुशोभित होता है ॥३०॥
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८.३१॥
जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरत होने के लिए और व्यवहार करने की चेष्टा नहीं करता है । निमित्त के शून्य होने पर वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है ॥३१॥
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मन्दः प्राप्नोति मूढतां।
अथवा याति संकोचम–मूढः कोऽपि मूढवत्॥१८.३२॥
अविवेकी पुरुष यथार्थ तत्त्व का वर्णन सुनकर और अधिक मोह को प्राप्त होता है या संकुचित हो जाता है । कभी–कभी तो कुछ बुद्धिमान भी उसी अविवेकी के समान व्यवहार करने लगते हैं ॥३२॥
एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशं।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः॥१८.३३॥
मूढ़ पुरुष बार–बार (चित्त की ) एकाग्रता और निरोध का अभ्यास करते हैं । धीर पुरुष सुषुप्त के समान अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए कुछ भी कर्तव्य रूप से नहीं करते ॥३३॥
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद् वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिं।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः॥१८.३४॥
मूढ़ पुरुष प्रयत्न से या प्रयत्न के त्याग से शांति प्राप्त नहीं करता पर प्रज्ञावान पुरुष तत्त्व के निश्चय मात्र से शांति प्राप्त कर लेता है ॥३४॥
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयं।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८.३५॥
आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म–स्वरूप को नहीं जानते ॥३५॥
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥१८– ३६॥
अज्ञानी मनुष्य कर्म रूपी अभ्यास से मुक्ति नहीं पा सकता और ज्ञानी कर्म रहित होने पर भी केवल ज्ञान से मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३६॥
मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥१८.३७॥
अज्ञानी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्रह्म होना चाहता है । ज्ञानी पुरुष इच्छा न करने पर भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है ॥३७॥
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः॥१८.३८॥
अज्ञानी निराधार आग्रहों में पड़कर संसार का पोषण करते रहते हैं । ज्ञानियों ने सभी अनर्थों की जड़ इस संसार की सत्ता का ही पूर्ण नाश कर दिया है ॥३८॥
न शान्तिं लभते मूढो यतः शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥१८.३९॥
अज्ञानी शांति नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि वह शांत होने की इच्छा से ग्रस्त है । ज्ञानी पुरुष तत्त्व का दृढ़ निश्चय करके सदैव शांत चित्त ही रहता है ॥३९॥
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥१८.४०॥
अज्ञानी को आत्म–साक्षात्कार कैसे हो सकता है जब वह दृश्य पदार्थों के आश्रय को स्वीकार करता है । ज्ञानी पुरुष तो वे हैं जो दृश्य पदार्थों को न देखते हुए अपने अविनाशी स्वरूप को ही देखते हैं ॥४०॥
क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥१८.४१॥
जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है? आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है ॥४१॥
भावस्य भावकः कश्चिन् न किंचिद् भावकोपरः।
उभयाभावकः कश्चिद् एवमेव निराकुलः॥१८.४२॥
कोई पदार्थ की सत्ता की भावना करता है और कोई पदार्थों की असत्ता की । ज्ञानी तो भाव–अभाव दोनों की भावना को छोड़कर निश्चिन्त रहता है ॥४२॥
शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहा–द्यावज्जीवमनिर्वृताः॥१८.४३॥
बुद्धिहीन पुरुष अज्ञानवश अपने शुद्ध, अद्वितीय स्वरूप का ज्ञान तो प्राप्त करते नहीं पर केवल भावना करते हैं, उन्हें जीवन पर्यन्त शांति नहीं मिलती ॥४३॥
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब–मन्तरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥१८.४४॥
मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि कुछ आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती । मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है ॥४४॥
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।
विशन्ति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥१८.४५॥
अज्ञानी पुरुष विषयरूपी मतवाले हाथियों को देखकर भयभीत हो जाते हैं और शरण के लिए तुरंत निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए झटपट चित्त की गुफा में घुस जाते है ॥४५॥
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः॥१८.४६॥
कामना रहित ज्ञानी सिंह है, उसे देखते ही विषय रूपी मतवाले हाथी चुपचाप भाग जाते हैं उनकी एक नहीं चलती उलटे वे तरह–तरह से खुशामद करके सेवा करते हैं ॥४६॥
न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥१८.४७॥
शंका रहित ज्ञानी पुरुष मुक्ति के साधनों का अभ्यास नहीं करता, वह तो देखते, सुनते, छूते, सूंघते, भोगते हुए भी आनंद में मग्न रहता है ॥४७॥
वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचार–मौदास्यं वा प्रपश्यति॥१८.४८॥
शुद्ध–बुद्धि पुरुष वस्तु–तत्त्व के केवल सुनने मात्र से आकुलता रहित हो जाता है, फिर आचार–अनाचार या उदासीनता पर उसकी दृष्टि नहीं जाती ॥४८॥
यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्॥१८.४९॥
स्वभाव में स्थित ज्ञानी, शुभ हो या अशुभ, जो जब करने के लिए सामने आ जाता है, तब वह उसे बालक की चेष्टा के समान सरलता से कर डालता है ॥४९॥
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परं।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्–स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥१८.५०॥
स्वतंत्रता से ही सुख की प्राप्ति होती है । स्वतंत्रता से ही परम तत्त्व की उपलब्धि होती है । स्वतंत्रता से ही परम शांति की प्राप्ति होती है । स्वतंत्रता से ही परम पद मिलता है ॥५०॥
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८.५१॥
जब साधक अपने आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है तब उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं ॥५१॥
उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु सस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥१८.५२॥
धीर पुरुष की स्वाभाविक स्थिति विक्षोभ युक्त होने पर भी श्रेष्ठ है पर जिसके चित्त में अनेक इच्छाएं भरी हैं उस अज्ञानी पुरुष पर बनावटी शांति शोभा नहीं पाती ॥५२॥
विलसन्ति महाभोगै–र्विशन्ति गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीराअबद्धा मुक्तबुद्धयः॥१८.५३॥
धीर पुरुष बड़े भोगों में आनंद करते हैं और पर्वतों की गहन गुफाओं में भी निवास करते हैं पर वे कल्पना, बंधन और बुद्धि की वृत्तियों से मुक्त होते हैं ॥५३॥
श्रोत्रियं देवतां तीर्थम–ङ्गनां भूपतिं प्रियं।
दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥१८.५४॥
धीर पुरुष शास्त्रज्ञ ब्राह्मण, देवता, तीर्थ, स्त्री, राजा और प्रिय को देख कर उनका स्वागत करता है पर उसके ह्रदय में कोई कामना नहीं होती ॥५४॥
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्॥१८.५५॥
सेवक, पुत्र, स्त्री, नाती और सगोत्र द्वारा हंसी उदय जाने पर, धिक्कारने पर भी योगी के चित्त में थोड़ा सा विकार भी उत्पन्न नहीं होता ॥५५॥
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तादृशा एव जानते॥१८.५६॥
लौकिक दृष्टि से प्रसन्न दिखने पर वह प्रसन्न नहीं होता और दुखी दिखने पर दुखी नहीं होता । उसकी उस आश्चर्यमय दशा को उसके समान लोग ही जान सकते हैं ॥५६॥
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः॥१८.५७॥
कर्तव्य बुद्धि का नाम ही संसार है, विद्वान लोग उस कर्तव्यता को नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय होती है ॥५७॥
अकुर्वन्नपि संक्षोभाद् व्यग्रः सर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥१८.५८॥
अज्ञानी पुरुष कुछ न करते हुए भी क्षोभवश सदा व्यग्र ही रहता है । योगी पुरुष बहुत से कार्य करता हुआ भी शांत रहता है ॥५८॥
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥१८.५९॥
शांत बुद्धि वाला पुरुष सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से आता–जाता है, सुख से बोलता है और सुख से ही खाता है ॥५९॥
स्वभावाद्यस्य नैवार्ति–र्लोकवद् व्यवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः स शोभते॥१८.६०॥
जो बड़े सरोवर के समान शांत है और लौकिक आचरण करते हुए जिसको अन्य लोगों के समान दुःख नहीं होता, वह दुःख रहित ज्ञानी शोभित होता है ॥६०॥
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्ति रुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥१८.६१॥
मूढ़ में निवृत्ति से भी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और धीर पुरुष की प्रवृत्ति भी निर्वृत्ति के समान फलदायिनी है ॥६१॥
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता॥१८.६२॥
अज्ञानी पुरुष प्रायः गृह आदि पदार्थों से वैराग्य करता दिखाई देता है पर जिसका देह–अभिमान नष्ट हो चुका है, उसके लिए कहाँ राग और कहाँ विराग ॥६२॥
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी॥१८.६३॥
अज्ञानी की दृष्टि सदा भाव या अभाव में लगी रहती है, पर धीर पुरुष तो दृश्य को देखते रहने पर भी आत्म स्वरूप को देखने के कारण कुछ नहीं देखती ॥६३॥
सर्वारंभेषु निष्कामो यश्चरेद् बालवन् मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणोऽपि कर्मणि॥१८.६४॥
जो धीर पुरुष सभी कार्यों में एक बालक के समान निष्काम भाव से व्यवहार करता है, वह शुद्ध है और कर्म करने पर भी उससे लिप्त नहीं होता ॥६४॥
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्निस्तर्षमानसः॥१८.६५॥
वह आत्मज्ञानी धन्य है जो सभी स्थितियों में समान रहता है । देखते, सुनते, छूते, सूंघते और खाते–पीते भी उसका मन कामना रहित होता है ॥६५॥
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनं।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥१८.६६॥
धीर पुरुष सदा आकाश के समान निर्विकल्प रहता है । उसकी दृष्टि में संसार कहाँ और उसकी प्रतीति कहाँ? उसके लिए साध्य क्या और साधन क्या? ॥६६॥
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते॥१८.६७॥
जिस सन्यासी को अपने अखंड स्वरुप में सदा स्वाभाविक रूप से समाधि रहती है, जो पूर्ण स्वानंद स्वरूप है, वही विजयी है ॥६७॥
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः॥१८.६८॥
बहुत कहने से क्या लाभ? महात्मा पुरुष भोग और मोक्ष दोनों की इच्छा नहीं करता और सदा–सर्वत्र रागरहित होता है ॥६८॥
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृंभितं।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते॥१८.६९॥
महतत्त्व से लेकर सम्पूर्ण द्वैतरूप दृश्य जगत नाम मात्र का ही विस्तार है । शुद्ध बोध स्वरुप धीर ने जब उसका भी परित्याग कर दिया फिर भला उसका क्या कर्तव्य शेष है ॥६९॥
भ्रमभृतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति॥१८.७०॥
यह सम्पूर्ण दृश्य जगत भ्रम मात्र है, यह कुछ नहीं है – ऐसे निश्चय से युक्त पुरुष दृश्य की स्फूर्ति से भी रहित हो जाता है और स्वभाव से ही शांत हो जाता है ॥७०॥
शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥१८.७१॥
जो शुद्ध स्फुरण रूप है, जिसे दृश्य सत्तावान नहीं मालूम पड़ता, उसके लिए विधि क्या, वैराग्य क्या, त्याग क्या और शांति भी क्या ॥७१॥
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता॥१८.७२॥
जो अनंत रूप से स्वयं स्फुरित हो रहा है और प्रकृति की पृथक् सत्ता को नहीं देखता है, उसके लिए बंधन कहाँ, मोक्ष कहाँ, हर्ष कहाँ और विषाद कहाँ ॥७२॥
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः॥१८.७३॥
बुद्धि के अंत तक ही संसार है और यह केवल माया का विवर्त है, इस तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान ममता, अहंकार और कामना से रहित होकर शोभित होता है ॥७३॥
अक्षयं गतसन्ताप–मात्मानं पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा॥१८.७४॥
जो मुनि संताप से रहित अपने अविनाशी स्वरुप को जानता है, उसके लिए विद्या कहाँ और विश्व कहाँ अथवा देह कहाँ और मैं–मेरा कहाँ ॥७४॥
निरोधादीनि कर्माणि जहाति जडधीर्यदि।
मनोरथान् प्रलापांश्च कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात्॥१८.७५॥
जड़ बुद्धि वाला यदि निरोध आदि कर्मों को छोड़ देता है तो अगले क्षण बड़े–बड़े मनोरथ बनाने और प्रलाप करने लगता है ॥७५॥
मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढतां।
निर्विकल्पो बहिर्यत्नाद–न्तर्विषयलालसः॥१८.७६॥
अज्ञानी तत्त्व का श्रवण करके भी अपनी मूढ़ता का त्याग नहीं करता, वह बाह्य रूप से तो निसंकल्प हो जाता है पर उसके अंतर्मन में विषयों की इच्छा बनी रहती है ॥७६॥
ज्ञानाद् गलितकर्मा यो लोकदृष्ट्यापि कर्मकृत्।
नाप्नोत्यवसरं कर्मं वक्तुमेव न किंचन॥१८.७७॥
ज्ञान से जिसका कर्म–बंधन नष्ट हो गया है, वह लौकिक रूप से कर्म करता रहे तो भी उसके कुछ करने या कहने का अवसर नहीं रहता (क्योंकि वह अकर्ता और अवक्ता है) ॥७७॥
क्व तमः क्व प्रकाशो वा हानं क्व च न किंचन।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा॥१८.७८॥
जो धीर सदा निर्विकार और भय रहित है, उसके लिए अन्धकार कहाँ, प्रकाश कहाँ और त्याग कहाँ? उसके लिए किसी का अस्तित्व नहीं रहता ॥७८॥
क्व धैर्यं क्व विवेकित्वं क्व निरातंकतापि वा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः॥१८.७९॥
योगी को धैर्य कहाँ, विवेक कहाँ और निर्भयता भी कहाँ? उसका स्वभाव अनिर्वचनीय है और वह वस्तुतः स्वभाव रहित है ॥७९॥
न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्ट्या न किंचन॥१८.८०॥
योगी के लिए न स्वर्ग है, न नरक और न जीवन्मुक्ति ही । इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या लाभ है योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है ॥८०॥
नैव प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तम–मृतेनैव पूरितम्॥१८.८१॥
धीर का चित्त ऐसे शीतल रहता है जैसे वह अमृत से परिपूर्ण हो । वह न लाभ की आशा करता है और न हानि का शोक ॥८१॥
न शान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति॥१८.८२॥
धीर पुरुष न संत की स्तुति करता है और न दुष्ट की निंदा । वह सुख–दुख में समान, स्वयं में तृप्त रहता है । वह अपने लिए कोई भी कर्तव्य नहीं देखता ॥८२॥
धीरो न द्वेष्टि संसारमा–त्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥१८.८३॥
धीर पुरुष न संसार से द्वेष करता है और न आत्म–दर्शन की इच्छा । वह हर्ष और शोक से रहित है । लौकिक दृष्टि से वह न तो मृत है और न जीवित ॥८३॥
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥१८.८४॥
जो धीर पुरुष पुत्र–स्त्री आदि के प्रति आसक्ति से रहित होता है, विषय की उपलब्धि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती, अपने शरीर के लिए भी निश्चिन्त रहता है, सभी आशाओं से रहित होता है, वह सुशोभित होता है ॥८४॥
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान् यत्रस्तमितशायिनः॥१८.८५॥
जहाँ सूर्यास्त हुआ वहां सो लिया, जहाँ इच्छा हुई वहां रह लिया, जो सामने आया उसी के अनुसार व्यवहार कर लिया । इस प्रकार धीर सर्वत्र संतुष्ट रहता है ॥८५॥
पततूदेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रान्ति–विस्मृताशेषसंसृतेः॥१८.८६॥
जो अपने आत्मस्वरुप में विश्राम करते हुए सभी प्रपंचों का नाश कर चुका है, उस महात्मा को शरीर रहे अथवा नष्ट हो जाये – ऐसी चिंता भी नहीं होती ॥८६॥
अकिंचनः कामचारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥१८.८७॥
ज्ञानी पुरुष संग्रह रहित, स्वच्छंद, निर्द्वन्द्व और संशय रहित होता है । वह किसी भाव में आसक्त नहीं होता । वह तो केवल आनंद से विहार करता है ॥८७॥
निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकांचनः।
सुभिन्नहृदयग्रन्थि–र्विनिर्धूतरजस्तमः॥१८– ८८॥
धीर पुरुष की ह्रदय ग्रंथि खुल जाती है, रज और तम नष्ट हो जाते हैं । वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है, ममता रहित वह सुशोभित होता है ॥८८॥
सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद् वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते॥१८.८९॥
जो इस दृश्य प्रपंच पर ध्यान नहीं देता, आत्म तृप्त है, जिसके ह्रदय में जरा सी भी कामना नहीं होती – ऐसे मुक्तात्मा की तुलना किसके साथ की जा सकती है ॥८९॥
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।
ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते॥१८.९०॥
कामनारहित धीर के अतिरिक्त ऐसा और कौन है जो जानते हुए भी न जाने, देखते हुए भी न देखे और बोलते हुए भी न बोले ॥ ९०॥
भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥१८.९१॥
राजा हो या रंक, जो कामना रहित है वह ही सुशोभित होता है । जिसकी दृश्य वस्तुओं में शुभ और अशुभ बुद्धि समाप्त हो गयी है वह निष्काम है ॥९१॥
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।
निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः॥१८.९२॥
योगी निष्कपट, सरल और चरित्रवान होता है । उसके लिए स्वच्छंदता क्या, संकोच क्या और तत्त्व विचार भी क्या ॥९२॥
आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयेत तत् कथं कस्य कथ्यते॥१८.९३॥
जो अपने स्वरुप में विश्राम करके तृप्त है, आशा रहित है, दुःख रहित है, वह अपने अन्तः करण में जिस आनंद का अनुभव करता है वह कैसे किसी को बताया जा सकता है ॥९३॥
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे॥१८.९४॥
धीर पुरुष पद–पद पर तृप्त रहता है । वह सोकर भी नहीं सोता, वह स्वप्न देखकर भी नहीं देखता और जाग्रत रहने पर भी नहीं जगता ॥९४॥
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥१८.९५॥
धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंतारहित होता है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित होता है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित होता है ॥९५॥
न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥१८.९६॥
धीर पुरुष न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त । वह न मुमुक्षु है और न मुक्त । वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं है ॥९६॥
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥१८.९७॥
धीर पुरुष विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता । उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है ॥९७॥
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥१८.९८॥
धीर पुरुष सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित रहता है । कर्तव्य रहित होने से शांत होता है । सदा समान रहता है । तृष्णा रहित होने के कारण वह क्या किया और क्या नहीं – इन बातों का स्मरण नहीं करता ॥९८॥
न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥१८.९९॥
वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता । मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता ॥९९॥
न धावति जनाकीर्णं नारण्यं उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥१८.१००॥
शांत बुद्धि वाला धीर न तो जनसमूह की ओर दौड़ता है और न वन की ओर । वह जहाँ जिस स्थिति में होता है, वहां ही समचित्त से आसीन रहता है ॥१००॥