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श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद

 

 

कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥

बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥3॥

 

श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। (माता ने कहा-) बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा के दुःख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाए!॥3॥

 

फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।

सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥4॥

 

हे विधाता! क्या मेरी दशा भी फिर पलटेगी? क्या अपने नेत्रों से मैं इस मनोहर जोड़ी को फिर देख पाऊँगी? हे पुत्र! वह सुंदर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते जी तुम्हारा चाँद सा मुखड़ा फिर देखेगी!॥4॥

 

दोहा :

बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।

कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥

 

हे तात! ‘वत्स’ कहकर, ‘लाल’ कहकर, ‘रघुपति’ कहकर, ‘रघुवर’ कहकर, मैं फिर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊँगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूँगी!॥68॥

 

चौपाई :

लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥

राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥

 

यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता। श्री रामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥

 

तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥

सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥2॥

 

तब जानकीजी सास के पाँव लगीं और बोलीं- हे माता! सुनिए, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया॥2॥

 

तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥

सुनिसिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥3॥

 

आप क्षोभ का त्याग कर दें, परन्तु कृपा न छोड़िएगा। कर्म की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है। सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गईं। उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखान कर कहूँ!॥3॥

 

बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥

अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥4॥

 

उन्होंने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे॥4॥

 

दोहा :

सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥

 

सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएँ दीं और वे (सीताजी) बड़े ही प्रेम से बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं॥69॥

 

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