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श्री राम-लक्ष्मण संवाद

 

  

चौपाई :

समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥

कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥

 

जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिए॥1॥

 

कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥

सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥

 

वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े-खड़े देख रहे हैं। (ऐसे दीन हो रहे हैं) मानो जल से निकाले जाने पर मछली दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता! क्या होने वाला है? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया?॥2॥

 

मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥

राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥

 

मुझको श्री रघुनाथजी क्या कहेंगे? घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा॥3॥

 

बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥

तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥

 

तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी वचन बोले- हे तात! परिणाम में होने वाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ॥4॥

 

दोहा :

मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।

लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥

 

जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है॥70॥

 

चौपाई :

अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥

भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥

 

हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दुःख है॥1॥

 

मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥

गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥2॥

 

इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा॥2॥

 

रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥3॥

 

अतः तुम यहीं रहो और सबका संतोष करते रहो। नहीं तो हे तात! बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है॥3॥

 

रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥

सिअरें बचन सूखि गए कैसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥4॥

 

हे तात! ऐसी नीति विचारकर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत ही व्याकुल हो गए! इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गए, जैसे पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है!॥4॥

 

दोहा :

उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।

नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥

 

प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता। उन्होंने व्याकुल होकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए और कहा- हे नाथ! मैं दास हूँ और आप स्वामी हैं, अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?॥71॥

 

चौपाई :

दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥

नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥

 

हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच के बाहर) लगी। शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं, जो धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं॥1॥

 

मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥

गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥2॥

 

मैं तो प्रभु (आप) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूँ! कहीं हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता॥2॥

 

जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥

मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥3॥

 

जगत में जहाँ तक स्नेह का संबंध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है- हे स्वामी! हे दीनबन्धु! हे सबके हृदय के अंदर की जानने वाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही हैं॥3॥

 

धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥

मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥4॥

 

धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए, जिसे कीर्ति, विभूति (ऐश्वर्य) या सद्गति प्यारी हो, किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिन्धु! क्या वह भी त्यागने के योग्य है?॥4॥

 

दोहा :

करुनासिंधु सुबंधु के सुनि मृदु बचन बिनीत।

समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥

 

दया के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया॥72॥

 

चौपाई :

मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥

मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥

 

(और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनंदित हो गए। बड़ी हानि दूर हो गई और बड़ा लाभ हुआ!॥1।

 

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