Baalkand Ramcharitmanas

 

 

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सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व

 

चौपाई :

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी।

मूरतिमंत तपस्या जैसी॥

बोले मुनि सुनु सैलकुमारी।

करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥

 

ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान् तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?॥1॥

 

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू।

हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥

कहत बचन मनु अति सकुचाई।

हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥2॥

 

तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा-) बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे॥2॥

 

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा।

चहत बारि पर भीति उठावा॥

नारद कहा सत्य सोइ जाना।

बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥3॥

 

मन ने हठ पकड़ लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारदजी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उड़ना चाहती हूँ॥3॥

 

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा।

चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥

 

हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ॥4॥

 

दोहा :

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।

नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

 

पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥78॥

 

चौपाई :

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई।

तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥

चित्रकेतु कर घरु उन घाला।

कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

 

उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ॥1॥

 

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी।

अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा।

आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

 

जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं॥2॥

 

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा।

तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥

निर्गुन निलज कुबेष कपाली।

अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥3॥

 

उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥3॥

 

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ।

भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥

पंच कहें सिवँ सती बिबाही।

पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

 

ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला॥

 

दोहा :

अब सुख सोवत सोचु नहिं

भीख मागि भव खाहिं।

सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ

कि नारि खटाहिं॥79॥

 

अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥79॥

 

चौपाई :

 अजहूँ मानहु कहा हमारा।

हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला।

गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥

 

अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं॥1॥

 

दूषन रहित सकल गुन रासी।

श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी।

सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥

 

वह दोषों से रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं-॥2॥

 

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा।

हठ न छूट छूटै बरु देहा॥

कनकउ पुनि पषान तें होई।

जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥

 

आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता॥3॥

 

नारद बचन न मैं परिहरऊँ।

बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही।

सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥

 

अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥4॥

 

दोहा 

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

 

माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥80॥

 

चौपाई :

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा।

सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥

अब मैं जन्मु संभु हित हारा।

को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

 

हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?॥1॥

 

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी।

रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥

तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं।

बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

 

यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)॥2॥

 

जन्म कोटि लगि रगर हमारी।

बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू।

आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

 

मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूँगी॥3॥

 

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा।

तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥

देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी।

जय जय जगदंबिके भवानी॥4॥

 

जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई। (शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!॥4॥

 

दोहा :

तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

 

आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥81॥

 

चौपाई :

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए।

करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई।

कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥

 

मुनियों ने जाकर हिमवान् को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई॥1॥

 

भए मगन सिव सुनत सनेहा।

हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥

मनु थिर करि तब संभु सुजाना।

लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥

 

पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे॥2॥

 

तारकु असुर भयउ तेहि काला।

भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥

तेहिं सब लोक लोकपति जीते।

भए देव सुख संपति रीते॥3॥

 

उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥3॥

 

अजर अमर सो जीति न जाई।

हारे सुर करि बिबिध लराई॥

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे।

देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥

 

वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा॥4॥

 

दोहा :

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥

 

ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥82॥

 

चौपाई :

मोर कहा सुनि करहु उपाई।

होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा।

जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥

 

मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥1॥

 

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी।

सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥

जदपि अहइ असमंजस भारी।

तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥

 

उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥2॥

 

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं।

करै छोभु संकर मन माहीं॥

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई।

करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥

 

तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे॥3॥

 

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई।

मत अति नीक कहइ सबु कोई॥

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू।

प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥

 

इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥4॥

 

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