कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली सार
द्वितीय वल्ली सार
यमराज ने नचिकेता के हठ को देखा, तो कहा- हे नचिकेता! ‘कल्याण’ और ‘सांसारिक भोग्य पदार्थों’ का मार्ग अलग-अलग है। ये दोनों ही मार्ग मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होते हैं, किन्तु बुद्धिमान जन दोनों को भली-भांति समझकर उनमें से एक अपने लिए चुन लेते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, वे भोग-विलास का मार्ग चुनते हैं और जो ज्ञानी होते हैं, वे कल्याण का मार्ग चुनते हैं। प्रिय नचिकेता! श्रेष्ठ आत्मज्ञान को जानने का सुअवसर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। इसे शुष्क तर्कवितर्क से नहीं जाना जा सकता।’
यमराज ने बताया-‘प्रिय नचिकेता! ‘ॐ’ ही वह परमपद है। ‘ॐ’ ही अक्षरब्रह्म है। इस अक्षरब्रह्म को जानना ही ‘आत्माज्ञान’ है। साधक अपनी आत्मा से साक्षात्कार करके ही इसे जान पाता है; क्योंकि आत्मा ही ‘ब्रह्म’ को जानने का प्रमुख आधार है। एक साधक मानव-शरीर में स्थित इस आत्मा को ही जानने का प्रयत्न करता है।
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
अर्थात् यह नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मृत्यु को ही प्राप्त होता है। यह आत्मा न तो किसी अन्य के द्वारा जन्म लेता है और न कोई इससे उत्पन्न होता है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत औ क्षय तथा वृद्धि से रहित है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह विनष्ट नहीं होता।
‘हे नचिकेता! परमात्मा इस जीवात्मा के हृदय-रूपी गुफ़ा में अणु से भी अतिसूक्ष्म और महान् से भी अतिमहान रूप में विराजमान हैं। निष्काम कर्म करने वाला तथा शोक-रहित कोई विरला साधक ही, परमात्मा को कृपा से उसे देख पाता है। दुष्कर्मों से युक्त, इन्द्रियासक्त और सांसारिक मोह में फंसा ज्ञानी व्यक्ति भी आत्मतत्त्व को नहीं जान सकता।’