kathopnishad with hindi meaning

Contents

कठोपनिषद् प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली

Previous    Menu    Next

वल्ली १

शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

 

ॐ =परमात्मा का प्रतीकात्मक नामनौ =हम दोनों (गुरु और शिष्य) कोसह = साथ-साथभुनक्तु = पालेंपोषित करेंसह =साथ-साथवीर्यं = शक्ति कोकरवावहै = प्राप्त करेंनौ = हम दोनों कोअवधीतम् = पढ़ी हुई विद्यातेजस्वि =तेजोमयीअस्तु =होमा विद्विषावहै = (हम दोनों) परस्पर द्वेष न करें।

वह परमात्मा हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करेंहम दोनों का साथ- साथ पालन  करेंहम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करेंहमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद होहम परस्पर द्वेष न करेंपरस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् ! त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) कीअधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।

 

ॐ उशन्‌ ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥1

 

ॐ = सच्चिदानन्द परमात्मा का नाम है, जो मंगलकारक एवं अनिष्टनिवारक है; उशन्= कामनावाला; ह और वै =पहले से बीते हुए वृत्तान्त को स्मरण कराने के लिए; वाज =अन्न; श्रव = यश; दानदि के कारण जिसका यश हो वाजश्रवा कहते हैं; सर्ववेदसं =(विश्वजित् यज्ञ में) सारा धन; ददौ =दे दिया; तस्य =उसका;  नचिकेता= नचिकेता, नाम ह= नाम से, पुत्र आस = पुत्र था।

 

वाजश्रवस् ने यज्ञ के फल की कामना रखते हुए तथा पहले से बीते हुए वृत्तांत का स्मरण कराने के लिए विश्वजित यज्ञ में अपना सब धन दान दे दिया। वाजश्रवा  का नचिकेता नाम का एक पुत्र था।

 

तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु

श्रद्धाऽऽविवेश। सोऽमन्यत ॥2

 

दक्षिणासु नीयमानासु =दक्षिणा के रुप में देने के लिए गौओं को ले जाते समय में; कुमारम् सन्तम् =छोटा बालक होते हुए भी; तम् ह श्रद्धा आविवेश =उस (नचिकेता) पर श्रद्धाभाव (पवित्रभाव, ज्ञान-चेतना) का आवेश हो गया। स: अमन्यत = उसने विचार किया।

 

जिस समय दक्षिणा के लिए गौओं को ले जाया जा रहा थातब छोटा बालक होते हुए भी उस नचिकेता में श्रद्धाभाव (ज्ञान-चेतनासात्त्विक-भाव) उत्पन्न हो गया तथा उसने चिन्तन-मनन प्रारंभ कर दिया।

 

पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान्स गच्छति ता ददत्‌ ॥3

 

पीतोदका: जो (अन्तिम बार) जल पी चुकी हैं; जग्धतृणा: =जो तिनके (घास ) खा चुकी हैं;दुग्धदोहा: =जिनका दूध (अन्तिम बार ) दुहा जा चुका है; निरिन्द्रिया: = जिनकी इन्द्रियां सशक्त नहीं रही हैं, शिथिल हो चुकी हैं; ता: ददत्= उन्हें देनेवाला; अनन्दा नाम ते लोका:= आनन्द-रहित जो वे लोक हैं; स तान् गच्छति= वह उन लोको को जाता है।

 

नचिकेता ने विचार किया –

(ऐसी गौएं) जो (अन्तिम बार) जल पी चुकी हैं, जो घास खा चुकी हैं, जिनका दूध दुहा जा चुका है, जो इन्द्रियरहित (जिनकी प्रजनन क्षमता समाप्त) हो गयी है, अर्थात ऐसी गौएं जो मरणासन्न हो गयी हो।  ऐसी गौओं को दान देनवाला उन लोकों को प्राप्त होता है, जो आनन्दशून्य हैं।

 

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥4

 

स ह पितरं उवाच =वह (यह सोचकर)पिता से बोला; तत (तात)= हे प्रिय पितामां कस्मै दास्यति इति = मुझे किसको देंगेद्वितीयं तृतीयं तं ह उवाच = दूसरीतीसरी बार (कहने पर) उससे (पिता ने) कहात्वा मृत्यवे ददामि इति =तुझे मैं मृत्यु को देता हूं।

 

वह ( नचिकेता) ऐसा विचार कर पिता से बोला-

हे तातआप मुझे किसको देंगेदूसरीतीसरी बार (यों कहने पर )

उससे पिता ने कहा- तुझे मैं ‘ मृत्यु ‘ को देता हूं।

 

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥5

 

बहूनां प्रथमो एमि = बहुत से (शिष्यों )में तो प्रथम चलता आ रहा हूं;बहूनां मध्यम: एमि =बहुत से (शिष्यों मे) मध्यम श्रेणी के अन्तर्गत चलता आ रहा हूं;यमस्य =यम काकिम् स्वित् कर्तव्य् = (यम का) कौन-सा कार्य हो सकता हैयत् अद्य= जिसे आज;मया करिष्यति =(पिताजी) मेरे द्वारा (मुझे देकर) करेंगे।

 

नचिकेता ने मन में सोचा –

(व्यक्तियों की तीन श्रेणियां होती हैं- उत्तम, मध्यम और अधम अथवा प्रथम, द्वितीय, और तृतीय)

मैं बहुत से (शिष्यों एवं पुत्रों में) में तो प्रथम श्रेणी में आ रहा हूं, बहुत से शिष्यों में द्वितीय श्रेणी या मध्यम श्रेणी में रहा हूं। यम का कौन सा ऐसा कार्य हो सकता है है, जिसे पिताजी मेरे द्वारा या मुझे देकर करेंगे?

 

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथाऽपरे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥6

 

पूर्वे यथा =पूर्वज जैसे (थे)अनुपश्य = उस पर विचार कीजिये;अपरे (यथा) तथा प्रतिपश्य = (वर्तमान काल में) दूसरे (श्रेष्ठजन) जैसे ( हैं )उस पर भली प्रकार दृष्टि डालेंमर्त्य:=मरणधर्मा मनुष्य;सस्यम् इव =अनाज की भांतिपच्यते=पकता है;सस्यम् इव पुन: अजायते =अनाज की भांति ही पुन: उत्पन्न हो जाता है।

 

नचिकेता बोला-

(आपके) पूर्वजों ने जिस प्रकार का आचरण किया है, उस पर चिन्तन कीजिये और वर्तमान में भी (श्रेष्ठ पुरुष कैसा आचरण करते हैं) उसको भी भंलीभाति देखिए। मरणधर्मा मनुष्य अनाज की भांति पकता है (वृद्ध होता और मृत्यु को प्राप्त होता है ) तथा अनाज की भांति फिर उत्पन्न हो जाता है।

 

वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्‌।
तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्‌ ॥7

 

वैवस्वत= हे सूर्यपुत्र यमराजवैश्वानर: ब्राह्मण: अतिथि: गृहान् प्रविशति =वैवानर (अग्निदेव) ब्राह्मण अतिथि के रुप में (गृहस्थ के) घरों में प्रवेश करते हैं (अथ्वा ब्राह्मण अतिथि अग्नि की भांति घर में प्रवेश करते हैं );तस्य= उसकी;एताम्= ऐसी (पादप्रक्षालन इत्यादि के द्वारा )शान्ति कुर्वन्ति = शान्ति करते हैं;उदकं हर = जल ले जाइये।

 

नचिकेता ने यमराज से बोला –

हे सूर्य पुत्र ! (साक्षात) अग्निदेव ही (तेजस्वी) ब्राह्मण-अतिथि के रुप में (गृहस्थ) के घरों में प्रवेश करते हैं (अथवा ब्राह्मण अतिथि घर में अग्नि की भांति प्रवेश करते हैं)। (उत्तम पुरुष) उसकी ऐसी ( अर्थात चरण धोकर ) शान्ति करते हैं या ब्राह्मण का आतिथ्य करते हैं। आप आतिथेय जल ले जाइये।

 

आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्वे पुत्रपशूंश्च सर्वान्‌।
एतद्‌ वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन्वसति ब्राह्मणो गृहे ॥8

 

यस्य गृहे ब्राह्मण: अनश्नन् वसति = जिसके घर में ब्राह्मण बिना भोजन किये रहता है १ अल्पमेधस: पुरुषस्य =(उस ) मन्दबुद्धि पुरुष कीआशा प्रतीक्षे =आशा और प्रतीक्षा (कल्पित एवं इच्छित सुखद फल );संगतम् = उनकी पूर्ति से होने वाले सुख (अथवा सत्संग लाभ)इष्टापूर्ते च = और इष्ट एवं आपूर्त शुभ कर्मो के फलसर्वान् पुत्रपशून् = सब पुत्र और पशुएतद् वृड्न्क्ते = इनको नष्ट कर देता है (अथवा यह सब नष्ट हो जाता है )।

 

नचिकेता ने आगे कहा –

जिसके घर में ब्राह्मण-अतिथि बिना भोजन किये हुए रहता है, (उस) मन्दबुद्धि मनुष्य की नाना प्रकार की आशा (संभावित एवं निश्चित की आशा) और प्रतीक्षा (असंभावित एवं अनिश्चित की प्रतीक्षा), अर्थात कल्पित एवं इच्छित सुखद फल , उनकी पूर्ति से प्राप्त् होनेवाले सुख (अथवा सत्संग-लाभ) और सुन्दर वाणी के फल (अथवा धर्म-संवाद-श्रवण) , यज्ञ, दान तथा कूप निर्माण आदि शुभ कर्मों और उनके फल सब नष्ट हो जाते हैं । ब्राह्मण का असत्कार ऐसे मनुष्य के सब पुत्रों और पशुओं को भी नष्ट कर देता है । अर्थात यदि घर आये ब्राह्मण का उचित अतिथि सत्कार न किया जाये तो सभी प्रकार के शुभ कर्म , शुभ फल , पुत्र , पशु सब नष्ट हो जाते हैं 

 

तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मेऽनश्नन्ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः।
नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात्प्रति त्रीन्वरान्वृणीष्व ॥9

 

ब्रह्मन् =हे ब्राह्मण देवता;नमस्य: अतिथि: =आप नमस्कार के योग्य अतिथि हैंते नम: अस्तु =आपको नमस्कार होब्रह्मन मे स्वस्ति अस्तु= हे ब्राह्मण देवतामेरा शुभ होयम् तिस्त्र: रात्री: मे गृहे अनश्नन् अवात्सी: =(आपने) जो तीन रात मेरे घर में बिना भोजन ही निवस कियातस्मात् = अतएवप्रति त्रीन् वरान् वृणीष्ठ = प्रत्येक के लिए आप (कुल) तीन वर मांग लें।

 

नचिकेता की बात सुन कर यमराज ने कहा-

हे ब्राह्मण देवता! आप वन्दनीय अतिथि हैं। आपको मेरा नमस्कार है। हे ब्राह्मण देवता! मेरा शुभ हो। आपने जो तीन रात्रियां मेरे घर में बिना भोजन ही निवास कियाइसलिए आप मुझसे प्रत्येक रात्रि के बदले एक अर्थात कुल तीन वर मांग लें।

 

( यम, मृत्यु का अधिष्ठाता, इस सृष्टि में ‘विधान’ का भी स्वामी है । अतः वह सत्य के ‘ज्योतिर्मय प्रभु’, सूर्य के भी पुत्र हैं, जिससे समस्त ‘विधान’ का जन्म होता है ।)

 

शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥10

 

मृत्यो =हे मृत्यु देव;यथा गौतम: मा अभि = जिस प्रकार गौतम वंशीय उद्दालक मेरे प्रतिशान्तसंकल्प: सुमना: वीतमन्यु: स्यात् = शान्त संकल्पवाले प्रसन्नचित क्रोधरहित हो जायंत्वत्प्रसृष्टं मा प्रतीत: अभिवदेत् =आपके द्वारा भेजा जाने पर वे मुझ पर विश्वास करते हुए मेरे साथ प्रेमपूर्वक बात करेंएतत् = यहत्रयाणां प्रथमं वरं वृणे = तीन में प्रथम वर मांगता हूं।

 

नचिकेता कहता है-

हे मृत्युदेव ! जिस प्रकार भी गौतमवंशीय ( मेरे पिता) उद्दालक अर्थात वाजश्रवस मेरे प्रति शान्त संकल्प वाले (चिन्तरहित)प्रसन्नचित और क्रोधरहित एवं खेदरहित हो जायं आप वह कार्य करें । आपके द्वारा वापस भेजे जाने पर वे मेरा विश्वास करके मेरे साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप कर लें। मेरे प्रति उनके मन में जो भी क्षोभ है , क्रोध है वह न रहे ।  (मैं) यह तीन में से प्रथम वर मांगता हूं।

 

यथा पुरस्ताद्‌ भविता प्रतीत औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः।
सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्युस्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्‌ ॥11

 

त्वां मृत्युमुखात् प्रमुक्तम् ददृशिवान् = तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त हुआ देखने परमत्प्रसृष्ट: आरुणि: औद्दालकि: = मेरे द्वारा प्रेरितआरुणि उद्दालक (तुम्हारा पिता)यथा पुरस्ताद् प्रतीत: = पहले की भांति ही विश्वास करकेवीतमन्यु: भविता =क्रोधरहित एवं दु:खरहित हो जायगारात्री:सुखम् शयिता = रात्रियों में सुखपूर्वक सोयेगा।

 

यमराज ने नचिकेता से कहा-

तुम्हें मृत्यु के मुख से मुक्त हुआ देखने पर मेरे द्वारा प्रेरित उद्दालक ( तुम्हारे पिता) पूर्ववत विश्वास करके क्रोध एवं दु:ख से रहित हो जाएंगे और (जीवन भर) रात्रियों में सुखपूर्वक् सोयेंगे।

 

स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति।
उभे तीर्त्वाऽशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥12

 

स्वर्गे लोक किञ्चन भयम् न अस्ति = स्वर्गलोक में किञ्चित् भय नहीं हैतत्र त्वं न = वहां आप(मृत्यु) भी नहीं हैंजरया न बिभेति= कोई वृद्धावस्था से नहीं डरतास्वर्गलोके = स्वर्ग लोक में (वहां के निवासी )अशनायापिपासे = भूख और प्यासउभे तीर्त्वा = दोनों को पार करके;शोकातिग: =शोक (दु:ख) से दूर रहकरमोदते = सुख भोगते हैं।

 

नचिकेता ने कहा-

स्वर्गलोक में किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं है। वहां आप (मृत्युस्वरुप) भी नहीं हैं। वहां कोई जरा (वृद्धावस्था) से नहीं डरता। स्वर्गलोक के निवासी भूख-प्यास दोनों को पार करके शोक (दु:ख) से दूर रहकर सुख भोगते हैं।

 

स त्वमग्निं स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम्‌।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद्‌ द्वितीयेन वृणे वरेण ॥13

 

मृत्यो =हे मृत्युदेव;स त्वं स्वर्ग्यम् अग्निं अध्येषि = वह आप स्वर्ग-प्राप्ति के साधनरुप अग्नि को जानते हैंत्वं मह्यम श्रद्दधानाय प्रब्रूहि =आप मुझ श्रद्धालु को (उस अग्नि को) बतायें। स्वर्गलोका: अमृतत्वं भजन्ते =स्वर्गलोक के निवासी अमरत्व को प्राप्त् होते हैंएतद् द्वितीयेन वरेण वृणे =(मैं) यह दूसरा वर मांगता हूं।

 

नचिकेता ने आगे कहा –

हे मृत्युदेव, आप उस स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्नि को जानते हैं। जिसके कारण स्वर्गलोक के निवासी अमृत्व को प्राप्त हो जाते हैं। आप जिस स्वर्गिक अग्नि का अध्ययन करते हैं , मुझ श्रद्धालु को उसे बता दें। मैं यह दूसरा वर मांगता हूं।

[वह स्वर्गिक शक्ति (अग्नि) जो मनुष्य की मर्त्यता में अवचेतन रूप में निहित है, जिसके प्रदीपन तथा जिसकी यथायुक्त व्यवस्था से मनुष्य अपनी पार्थिव प्रकृति ( भौतिक शरीर ) का अतिक्रमण कर जाता है ( पार पा जाता है या ऊपर उठ जाता है )।]

 

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन्‌।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्‌ ॥14

 

नचिकेत: = हे नचिकेतास्वर्ग्यम् अग्निम् प्रजानन् ते प्रब्रवीमि= स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्निविद्या को भली प्रकार जाननेवाला मैं तुम्हें इसे बता रहा हूं;तत् उ मे निबोध = उसे भली प्रकार मुझसे जान लोत्वं एतम् =तुम इसे;अनन्तलोकाप्तिम् = अनन्तलोक की प्राप्ति करानेवालीप्रतिष्ठाम् =उसकी आधाररुपाअथो = तथा;गुहायाम् निहितम् = बुद्धिरुपी गुहा में स्थित (अथवा रहस्यमय एवं गूझ् )विद्धि =समझो।

 

यम कहते हैं-

हे नचिकेता ! स्वर्ग प्रदान करने वाली अग्नि विद्या को जानने वाला मैं उसे तुम्हारे लिए भलीभांति कथन करता हूं। (तुम) इसे मुझसे जान लो और समझ लो । तुम इस विद्या को अनंत लोकों की प्राप्ति करानेवालीउसकी आधाररुपा और हमारी बुद्धिरूपी गुहा में स्थित रहस्यमय और गूढ़ तत्त्व के रूप में समझो ।

 

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः ॥15

 

तम् लोकादिम् अग्निम् तस्मै उवाच = उस लोकादि (स्वर्ग-लोक की साधन-रुपा) अग्निविद्या को उस (नचिकेता )को कह दियाया वा यावती: इष्टका: = (उसमें कुण्डनिर्माण आदि के लिए ) जो-जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं )वा यथा = अथवा जिस प्रकार(उनका चयन होच स अपि तत् यथोक्तम् प्रत्यवदत् =और उस (नचिकेता) ने भी उसे जैसा कहा गया थापुन: सुना दियाअथ= इसके बादमृत्यु: अस्य तुष्ट: = यमराज उस पर संतुष्ट होकरपुन: एव आह = पुन: बोले।

 

यम ने उस स्वर्ग लोक की साधन रुपी अग्निविद्या को उसे (नचिकेता को ) कह दिया। (कुण्डनिर्माण इत्यादि में) जोजो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं) अथवा जिस प्रकार (उनका चयन हो) सब विधि विस्तार पूर्वक बता दी । और उस (नचिकेता) ने भी उसे जैसा कहा गया थापुन: उसे यम को सुना दिया। इसके बाद यमराज उस से संतुष्ट होकर पुन: बोले।

 

तमब्रवीत्प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूयः।
तवैव नाम्ना भविताऽयमग्निः सृङ्कां चेमामनेकरूपां गृहाण ॥16

 

प्रीयमाण: महात्मा तम् अब्रवीत् =प्रसन्न एवं परितुष्ट हुए महात्मा यमराज उससे बोले;अद्य तव इह भूय: वरम् ददामि = अब (मैं) तुम्हें यहां पुन: (एक अतिरिक्त)वर देता हूंअयम् अग्नि: तव एव नाम्रा भविता = यह अग्नि तुम्हारे ही नाम से (प्रख्यात) होगीच इमाम् अनेकरुपाम् सृक्ङाम् गृहाण = और इस अनेक रुपों वाली (रत्नों की )माला को स्वीकार करो।

 

महात्मा यमराज प्रसन्न एवं परितुष्ट होकर प्रेम भरे भाव से उससे बोले-

अब ( मैं तुमसे प्रसन्न होकर ) तुम्हें यहां पुन: एक (अतिरिक्त) वर देता हूं। यह अग्नि भविष्य में तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगी और नचिकेताग्नि कहलाएगी । और ( इसके अतिरिक्त )  इस अनेक रुपोंवाली माला को ( भी ) स्वीकार करो।

(जो ‘दिव्यशक्ति’ अवचेतन मे छिपी हुई है वह वही शक्ति है जिसने लोकों की उत्पत्ति और उनका निर्माण किया है। दूसरी ओर अतिचेतन में यह अपने आपको उस ‘दिव्यतिदिव्य परमतत्त्व’, ‘परमेश्वर’ तथा ‘सर्वज्ञाता’ के स्वरूप में प्रकाशित करती है, जिसने ‘स्वयं’ को ‘ब्रह्म’ से प्रकट किया है।अनेकरूपा माला ‘प्रकृति’ है, वह सर्जनकारिणी ‘प्रकृति’, जो उस आत्मा के अधीन हो जाती है जिसने दिव्यसत्ता की प्राप्ति कर ली है।)

 

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥17

 

त्रिणाचिकेत: = नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करनेवालात्रिभि: सन्धिम् एत्य =तीनों (ऋक्सामयजु:वेद) के साथ सम्बन्ध जोड़कर अथवा मातापितागुरु से सम्बद्ध होकर मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् ब्रूयात् त्रिकर्मकृत = तीन कर्मों (यज्ञ दान तप) को करनेवाला मनुष्य;जन्ममृत्यु तरति= जन्म और मृत्यु को पार कर लेता हैजन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठ जाता हैब्रह्मजज्ञम् =ब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि (अथवा अग्निदेव) के जानने वाले; ‘ब्रह्मजज्ञ‘ का अर्थ अग्नि भी हैजैसे अग्नि को जातवेदा भी कहते हैं। ब्रह्मजज्ञ‘ का एक अर्थ सर्वज्ञ भी है “ब्रह्मणों हिरण्यगर्भात् जातो ब्रह्मज:ब्रह्मजश्चासौ ज्ञश्चेति ब्रह्मजज्ञ: सर्वज्ञों हि असौ (शंकराचार्य)।” ईड्यम देवम् = स्तवनीय अग्निदेव (अथवा ईश्वर) को;विदित्वा=जानकरनिचाय्य = इसका चयन करके इसको भली प्रकार समझकर देखकरइमाम् अत्यन्तम् शान्तिम् एति = इस अत्यन्त शान्ति को प्राप्त् हो जाता है।

 

जो भी मनुष्य इस नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करता है और तीनों (ऋक्सामयजु:वेदों) से सम्बद्ध हो जाता है तथा तीनों कर्म (यज्ञदानतप) करता हैवह जन्म-मृत्यु को पार कर लेता है अर्थात जन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठ जाता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय अग्निदेव को जानकर और उसकी अनुभुति करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।

 

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्‌।
स मृत्युपाशान्पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥18

 

एतत् त्रयम् = इन तीनों (ईंटो के स्वरुप संख्या और चयन विधि)कोविदित्वा = जानकरत्रिणाचिकेत: = तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवालाय एवम् विद्वान् = जो भी इस प्रकार जाननेवाला ज्ञानी पुरुष: नाचिकेतम् चिनुते = नाचिकेत अग्निका चयन करता हैस मृत्युपाशान् पुरत: प्रणोद्य =वह मृत्यु के पाशों को उपने सामने ही (अपने जीवनकाल में ही )काटकर;शोकातिग: स्वर्गलोके मोदते = शोक को पार करके स्वर्ग लोक में आनन्द का अनुभव करता है। (मृत्युं जयति मृत्युञ्जय:)

 

इन तीनों (ईंटों के स्वरुप संख्या और चयन-विधि) को जानकर तीन बर नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवाला जो भी विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता हैवह (अपने जीवनकाल मे ही) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकरशोक को पार करस्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है।

 

एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।
एतमग्निं तवैव प्रवक्श्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ॥19

 

नचिकेत:= हे नचिकेताएष ते स्वर्ग्य: अग्नि: = यह तुमसे कही हुई स्वर्ग की साधनरुपा अग्निविद्या हैयम् द्वितीयेन वरेण अवृणीथा: =जिसे तुमने दूसरे वर में  मांगा थाएतम् अग्निम् =इस अग्निको;जनास: =लोग;तव एव प्रवक्ष्यन्ति =तुम्हारी ही (तुम्हारे नाम से ही) कहा करेंगे;नचिकेत = हे नचिकेतातृतीयम् वरम् वृणीष्व= तीसरा वर मांगों।

 

यमराज बोले –

हे नचिकेता! यह तुमसे कही हुई स्वर्ग की साधन रुपा अग्नि विद्या हैजिसे तुमने दूसरे वर के रूप में वरण किया है । इस अग्नि को लोग तुम्हारे नाम से जाना करेंगे। हे नचिकेता, अब तीसरा वर मांगों।

 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥20

 

प्रेते मनुष्ये या इयं विचिकित्सा = मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है;एके अयम् अस्ति इति = कोई तो (कहते हैं) यह आत्मा (मृत्यु के बाद) रहता हैच एके न अस्ति इति = और कोई (कहते हैं) नहीं रहता हैत्वया अनुशिष्ट: अहम् = आपके द्वारा उपदिष्ट मैंएतत् विद्याम् =इसे भली प्रकार जान लूंएष वराणाम् तृतीय: वर: = यह वरों में तीसरा वर है।

 

नचिकेता कहता है-

मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा (मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहताआपसे उपदेश पाकर मैं इसे भली प्रकार जान लूंयह वरों मे तीसरा वर है।

 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्‌ ॥21

 

नचिकेत:= हे नचिकेताअत्र पुरा देवै: अपि विचिकित्सितम् =यहां (इस विषय में) पहले देवताओं द्वारा भी सन्देह किया गयाहि एष: धर्म: अणु: = क्योंकि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म हैन सुविज्ञेयम् = सरल प्रकार से जानने के योग्य नहीं हैअन्यम् वरम् वृणीष्व = अन्य वर मांग लोमा मा उपरोत्सी: मुझ पर दबाव मत डालोएनम् मा अतिसृज = इस (आत्मज्ञान-सम्बन्धी वर ) को मुझे छोड़ दो।

 

यम कहते हैं –

हे नचिकेता ! इस विषय में पूर्व काल में देवताओं द्वारा भी सन्देह किया गया था और संशयात्मक विवाद हुआ था क्योंकि यह विषय अत्यन्त् सूक्ष्म है और सरलता से जानने योग्य् नहीं है। इसलिए तुम कोई अन्य वर मांग लो। इस वर के लिए मुझसे आग्रह और अनुरोध मत करो तथा मुझ पर दबाव मत डालो। इस ( आत्मज्ञान संबंधी वर को ) छोड़ दो।

 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुज्ञेयमात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्‌ ॥22

 

मृत्यों =हे यमराज;त्वम् यत् आत्थ = आपने जो कहाअत्र किल देवै: अपि विचिकित्सितम् = इस विषय में वास्तव में देवताओं द्वारा भी संशय किया गयाच न सुविज्ञेयम् = और वह सुविज्ञैय भी नहीं हैच अस्य वक्ता = और इसका वक्तात्वादृक् अन्य: लभ्य: = आपके सृदश अन्य कोई प्राप्त नहीं हो सकताएतस्य तुल्य: अन्य: कश्चित् वर: न =इस (वर) के समान अन्य कोई वर नहीं है।

 

यह सुनकर नचिकेता बोला – 

हे यमराज! आपने जो कहा कि इस विषय में निश्चित रूप से देवताओं द्वारा भी संशय किया गया और यह (विषय/ तथ्य ) सरलता से जानने योग्य भी नहीं है। और (इस गूढ़ विषय के लिए ) आपके समान ज्ञानी वक्ता मुझे दूसरा कोई नहीं मिलेगा और न इस (वर) के समान दूसरा कोई वर है।

 

शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान्‌।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥23

 

शतायुष: =शतायुवाले/ 100 वर्ष की अवस्था वाले पुत्रपौत्रान् = बेटे पोतों कोबहून पशून् = बहुत से गौ आदि पशुओं कोहस्तिहिरण्यम् = हाथी और हिरण्य (स्वर्ग) को;अश्वान वृणीष्व =अश्वों को मांग लोभूमें: महत् आयतनम् = भूमि के महान् विस्तार कोवृणीष्व = मांग लोस्वयम् च = तुम स्वयं भीयावत् शरद: इच्छसि जीव = जीवन शरद् ऋतुओं (वर्षों तक इच्छा करोजीवित रहो।

 

नचिकेता का दृढ निश्चय देख कर यम ने प्रलोभन देते हुए कहा –

( हे नचिकेता ! तुम मुझसे अपने तीसरे वर में ) दीर्घायु पुत्रों और पौत्रों को बहुत से (गौ आदि) पशुओं कोहाथी, सुवर्ण , स्वर्ग तथा अश्वो को मांग लो। भूमि के महान् विस्तार को मांग लो तथा स्वयं भी जितने शरद् ऋतुओं ( वर्षों ) तक इच्छा होजीवित रहो। 

(यमराज उस वैश्व ‘विधान’ के ज्ञाता और संरक्षक हैं जिसके द्वारा आत्मा को जन्म तथा मृत्यु के माध्यम से ‘अमरत्व’ की मुक्तावस्था में आरोहण करना है।)

 

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वां कामभाजं करोमि ॥24

 

नचिकेता:हे नचिकेता;यदि त्वम् एतत् तुल्यम् वरम् मन्यसे वृणीष्व =यदि तुम इस आत्मज्ञान के समान (किसी अन्य) पर को मनते होमांग लोवित्तं चिरजीविकाम् = धन को और अनन्तकाल तक जीवनयापन के साधनों को;व महभूमौ =और विशाल भूमि पर;एधि= फलो-फूलोबढोशासन करोत्वा कामानाम् कामभाजम् करोमि = तुम्हें (समस्त कामनाओं का उपभोग करनेवाला बना देता हूँ।

 

यम आगे कहते हैं –

हे नचिकेता! यदि तुम इस आत्मज्ञान के समान (किसी अन्य) वर को मांगते हो, वो मांग लो धन तथा जीवनयापन के साधनों को और विशाल भूमि पर (अधिपति / राजा होकर) वृद्धि करोशासन करो। (मैं ) तुम्हें (समस्त) कामनाओं का उपभोग करनेवाला बना देता हूँ।

 

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान्कामांश्छन्दतः प्रार्थयस्व।
इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः।
आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं माऽनुप्राक्शीः ॥25

 

ये ये कामा: मर्त्यलोके दुर्लभा: (सन्ति) =जो-जो भोग मनुष्यलोक में दुर्लभ हैंसर्वान् कामान् छन्दत: प्रार्थयस्व = उन सम्पूर्ण भोगो को इच्छानुसार मांग लोसरथा: सतूर्या: इमा: रामा: =रथोंसहिततूर्यों (वाद्योंवाजों )सहितइन स्वर्ग की अप्सराओं कोमनुष्यै: ईदृशा: न हि लम्भनीया: =मनुष्यों द्वारा ऐसी स्त्रियॉँ प्राप्य नहीं हैंमत्प्रत्ताभि: आभि: पिरचारयस्व = मेरे द्वारा प्रदत्त इनसे सेवा कराओ;नचिकेत:= हे नचिकेता;मरणं मा अनुप्राक्षी:=मरण (के संबंध में प्रश्न को) मत पूछो।

 

यम आगे और प्रलोभन देते हुए कहते हैं –

हे नचिकेता! जो-जो भोग मृत्युलोक ( पृथ्वी  ) में दुर्लभ हैं, जिन-जिन कामनाओं की पूर्ति मर्त्यलोक में दुर्लभ है उन सभी कामनाओं को तुम सहर्ष माँग लो। देखो! अपने रथों एवं वाद्यों सहित ये मनोहारिणी रमणीयां ( अप्सराएं ) हैं इन को (मांग लो)। मनुष्यों के लिए निश्चय ही ऐसी स्त्रियां दुर्लभ हैं। इनसे अपनी सेवा कराओ , इनके साथ सुख सें रहो किन्तु, मृत्यु के विषय में प्रश्न मत करो।

 

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥26

 

अन्तक =हे मृत्यो, अंत करने वाले देव ;श्वो भावा:= कल तक ही रहनेवाले अर्थात नश्वरक्षणिकक्षणभंगुर ये भोग;मर्त्यस्य् सर्वेन्द्रियाणाम् यत् तेज: एतत् जरयन्ति = मरणशील मनुष्य की सब इन्द्रियों का जो तेज (है) उसे क्षीण कर देते हैंअपि सर्वम् जीवितम् अल्पम् एव = इसके अतिरिक्त समस्त आयु अल्प ही हैतव वाहा: न्त्यगीते तव एव = आपके रथादि वाहनस्वर्ग के नृत्य और संगीत आपके ही (पास) रहें।

 

परन्तु नचिकेता अपनी ही बात पर अटल रहते हुए और इन सभी प्रलोभनों से अप्रभावित हुए बिना कहता है-

हे अन्तक!  ( आपके द्वारा वर्णित ये सभी भोग पदार्थ ) कल तक ही रहने वाले अर्थात ( एक ही दिन के / क्षणभंगुर ) हैं तथा ये सभी भोग मरणधर्मा मनुष्य की सब इन्द्रियों के तेज को क्षीण कर देते हैं। इसके अतिरिक्त ये समस्त जीवन अल्प ही है, थोड़े ही समय का है । आपके रथादि वाहनस्वर्ग की रमणियों के नृत्य और संगीत आपके ही पास रहें। ये आपके लिए ही हैं । ( आप ही इन भोगों के अधिकारी हैं । मैं इसका क्या करूंगा )

 

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्श्म चेत्त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥27

 

मनुष्य: वित्तेन तर्पणीय: न = मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता;चेत्= यदिजब कि;त्वा अद्राक्ष्म =(हमने) आपके दर्शन पा लिये हैं;वित्तम् लप्स्यामहे = धन को (तो हम) पा ही लेंगे;त्वम् यावद् ईशिष्यसि = आप जब तक ईशन(शासन) करते रहेंगेजीविष्याम:= हम जीवित ही रहेंगे;मे वरणीय: वर: तु स एव = मेरे मांगने के योग्य वर तो वह ही है।

 

नचिकेता ने दृढ़ वाणी में आगे बोला-

मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता और अगर हमने आपके दर्शन कर लिये तो धन तो हमें मिल ही जाएगा तथा जब तक आपका हम पर प्रभुत्व रहेगा अर्थात जब तक आप शासन करते रहेंगे तब तक हम जीवित भी रहेंगे। अतः मेरे वरण करने योग्य वर तो वही है ( जो मैंने आपसे माँगा है )

 

अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्‌।
अभिध्यायन्वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे जीविते को रमेत ॥28

 

जीर्यन् मर्त्यः = जीर्ण ( वृद्धावस्था को प्राप्त ) होनेवाला मरणधर्मा मनुष्यअजीर्यताम् अमृतानाम् = वयोहानिरूप जीर्णता को प्राप्त न होने वाले अमृतों (देवताओंमहात्माओं) की सन्निधि मेंनिकतटता मेंउपेत्य= प्राप्त होकरपहुँचकरप्रजानन्= आत्मतत्त्व की महिमा का जाननेवाला अथवा उन (देवताओंमहात्माओ) से प्राप्त होनेवाले लाभ को जानने वालाव्कधःस्थः=व्कधः (कु=पृथ्वीअन्तरिक्ष आदि से अधःनीचे होने के कारण पृथ्वी व्कधः कहलाती है-शंकराचार्य) में स्थित व्कधःस्थनीचे पृथ्वी पर स्थित होकरकः= कौनवर्णरतिप्रमोदान् अभिध्यायन्=रूपरति और भोगसुखों का ध्यान करता हुआ (अथवा उनकी व्यर्थता पर विचार करता हुआ)अतिदीर्घे जीविते रमेत=अतिदीर्घ काल तक जीवित रहने में रुचि लेगा। (इस श्लोक के अनेक अन्वय और अर्थ किए गए हैं।

 

नचिकेता आगे ज्ञानपूर्ण वचन बोला – 

इस दुःखमय भूतल पर वास करते हुए जीर्ण होने वाला ( जरावस्था प्राप्त करने वाला ) ऐसा कौन मरणधर्मा मनुष्य होगा जो जीर्णता को प्राप्त न होने वाले देवताओं (अथवा महात्माओं और अजर अमर पुरुषों) के समीप जाकर भी (उनका सानिध्य प्राप्त कर भी) आत्मविद्या से परिचित होकर भी ( ज्ञानवान हो कर अथवा महात्माओं से प्राप्त होने वाले लाभ को सोचकर भी ) भौतिक भोगों ( रूप रंग , सौंदर्य , रति , आमोद – प्रमोद ) का स्मरण करता हुआ (अथवा उनकी निरर्थकता को समझता हुआ) अतिदीर्घ ( लम्बी आयु के ) जीवन में रमेगा या उसमें सुख मानेगा?

 

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्‌।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥29

 

मृत्यो=हे यमराजयस्मिन् इदम् विचिकित्सन्ति= जिस समय यह विचिकित्सा (सन्देहविवाद) होती हैयत् महति साम्पराये = जो महान् परलोक-विज्ञान में हैतत्=उसेनः ब्रूहि=हमें बता दोयः अयम् गूढम् अनुप्रविष्टः वरः= जो यह वर (अब) गूढ रहस्यमयता को प्रवेश कर गया है (अधिक रहस्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण हो गया है)तस्मात् अन्यम्= इससे अतिरिक्त अन्य (वर) कोनचिकेता न वृणीते= नचिकेता नहीं माँगता। (इस श्लोक के भी अनेक अन्वय और अर्थ किए गए हैं। )

 

नचिकेता अपने वर पर अड़ा हुआ कहता है –

हे मृत्युदेव! यह, जिसके विषय में सब संशयात्मक विवाद करते हैं, तथा वह, जो महती प्रयाणगति (परलोकयात्रा/ परलोक विज्ञान ) में है, उसे मुझे बताइये। यह वर जो उस गूढ रहस्य में प्रवेश करता है जिसे हम नहीं जानते हैं, उसके अतिरिक्त नचिकेता अन्य किसी वर का वरण नहीं करता।

 

 

इति: कठोपनिषद प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली समाप्त

 

 

Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!