Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार

 

 

Bhagavad Gita chapter 8कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ৷৷8.9৷৷

 

कविम्-कवि, सर्वज्ञ ; पुराणम्-प्राचीन ; अनुशासितारम्-नियन्ता; अणो:-अणु से; अणीयांसम्-लघुतर; अनुस्मरेत्-सदैव सोचता है; यः-जो; सर्वस्य–सब कुछ; धातारम्-पालक; अचिन्त्य-अकल्पनीयः रूपम्-दिव्य स्वरूप; आदित्यवर्णम्-सूर्य के समान तेजवान; तमसः-अज्ञानता का अंधकार; परस्तात्-परे।

 

जो मनुष्य सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) ,सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है॥8.9॥

 

(‘कविम्’ – सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले होने से उन परमात्मा का नाम कवि अर्थात् सर्वज्ञ है। ‘पुराणम्’ – वे परमात्मा सबके आदि होने से पुराण कहे जाते हैं। ‘अनुशासितारम्’ – हम देखते हैं तो नेत्रों से देखते हैं। नेत्रों के ऊपर मन शासन करता है , मन के ऊपर बुद्धि और बुद्धि के ऊपर अहम् शासन करता है तथा अहम् के ऊपर भी जो शासन करता है , जो सबका आश्रय – प्रकाशक और प्रेरक है , वह (परमात्मा) अनुशासिता है। दूसरा भाव यह है कि जीवों का कर्म करने का जैसा-जैसा स्वभाव बना है उसके अनुसार ही परमात्मा (वेद , शास्त्र , गुरु , सन्त आदि के द्वारा) कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं और मनुष्यों के पुराने पापपुण्यरूप कर्मों के अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर उन मनुष्यों को शुद्ध – निर्मल बनाते हैं। इस प्रकार मनुष्यों के लिये कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले और मनुष्यों के पापपुण्यरूप पुराने कर्मों का (फल देकर) नाश करने वाले होने से परमात्मा अनुशासिता है। ‘अणोरणीयांसम्’ – परमात्मा परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा मन-बुद्धि के विषय नहीं हैं।  मन-बुद्धि आदि उनको पकड़ नहीं पाते। मन-बुद्धि तो प्रकृति का कार्य होने से प्रकृति को भी पकड़ नहीं पाते , फिर परमात्मा तो उस प्रकृति से भी अत्यन्त परे हैं । अतः वे परमात्मा सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं अर्थात् सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा हैं। ‘सर्वस्य धातारम्’ – परमात्मा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाले हैं , उनका पोषण करनेवाले हैं। उन सभी को परमात्मा से ही सत्तास्फूर्ति मिलती है। अतः वे परमात्मा सबका धारण-पोषण करने वाले कहे जाते हैं। ‘तमसः परस्तात्’ – परमात्मा अज्ञान से अत्यन्त परे हैं , अज्ञान से सर्वथा रहित हैं। उनमें लेशमात्र भी अज्ञान नहीं है बल्कि वे अज्ञान के भी प्रकाशक हैं। ‘आदित्यवर्णम्’ – उन परमात्मा का वर्ण सूर्य के समान है अर्थात् वे सूर्य के समान सबको मन-बुद्धि आदि को प्रकाशित करने वाले हैं। उन्हीं से सबको प्रकाश मिलता है। ‘अचिन्त्यरूपम्’ – उन परमात्मा का स्वरूप अचिन्त्य है अर्थात् वे मन-बुद्धि आदि के चिन्तन का विषय नहीं हैं। ‘अनुस्मरेत् ‘ – सर्वज्ञ अनादि सबके शासक परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म सबका धारण-पोषण करने वाले अज्ञान से अत्यन्त परे और सबको प्रकाशित करने वाले सगुण-निराकार परमात्मा के चिन्तन के लिये यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ पद आया है। यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ कहने का तात्पर्य है कि प्राणिमात्र उन परमात्मा की जानकारी में हैं , उनकी जानकारी के बाहर कुछ है ही नहीं अर्थात् उन परमात्मा को सबका स्मरण है। अब उस स्मरण के बाद मनुष्य उन परमात्मा को याद कर ले। यहाँ शङ्का होती है कि जो अचिन्त्य है उसका स्मरण कैसे करें ? इसका समाधान है कि वह परमात्मतत्त्व चिन्तन में नहीं आता – ऐसी दृढ़ धारणा ही अचिन्त्य परमात्मा का चिन्तन है। अब अन्तकाल के चिन्तन के अनुसार गति बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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