अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥8.11॥
यत्-जिस; अक्षरम्-अविनाशी; वेदविदः-वेदों के ज्ञाता; वदन्ति–वर्णन करते हैं; वशन्ति–प्रवेश करना; यत्-जिसमें; यतयः-बड़े बड़े तपस्वी; वीतरागाः-आसक्ति रहित; यत्-जो; इच्छन्तः-इच्छा करने वाले; ब्रह्मचर्यम् – ब्रह्मचर्य का; चरन्ति–अभ्यास करना; तत्-उस; ते-तुमको; पदं-लक्ष्य; सङ्ग्रहेण-संक्षेप में; प्रवक्ष्ये-मैं बतलाऊँगा।
वेदों के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाशी कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले महान तपस्वी ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं और उसमे स्थित होने के लिए सांसारिक सुखों का त्याग करते हैं। उस परम पद मुक्ति के मार्ग को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप में कहूँगा॥8.11॥
(7वें अध्याय के 29वें श्लोक में जो निर्गुण-निराकार परमात्मा का वर्णन हुआ था , उसी को यहाँ 11वें , 12वें और 13वें श्लोक में विस्तार से कहा गया है।] ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति ‘ – वेदों को जानने वाले पुरुष जिसको अक्षर निर्गुण-निराकार कहते हैं जिसका कभी नाश नहीं होता जो सदा-सर्वदा एकरूप एकरस रहता है और जिसको इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’ कहा गया है । उसी निर्गुणनिराकार तत्त्व का यहाँ अक्षर नाम से वर्णन हुआ है। ‘विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः’ – जिनके अन्तःकरण में राग का अत्यन्त अभाव हो गया है । अतः जिनका अन्तःकरण महान , निर्मल है और जिनके हृदय में सर्वोपरि अद्वितीय परम तत्त्व को पाने की उत्कट लगन लगी है । ऐसे प्रयत्नशील यति महापुरुष उस तत्त्व में प्रवेश करते हैं – उसको प्राप्त करते हैं। ‘यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति ‘ – जिनका उद्देश्य केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का है , परमात्मप्राप्ति के सिवाय जिनका और कोई ध्येय है ही नहीं और जो परमात्मप्राप्ति की इच्छा रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम करते हैं अर्थात् किसी भी विषय का भोगबुद्धि से सेवन नहीं करते। ‘तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये — जो सम्पूर्ण साधनों का आखिरी फल है उस पद को अर्थात् तत्त्व को मैं तेरे लिये संक्षेप से और अच्छी तरह से कहूँगा। संक्षेप से कहने का तात्पर्य है कि शास्त्रों में जिस तत्त्व को सर्वोपरि विलक्षण बताया गया है हरेक आदमी उसको प्राप्त नहीं कर सकता — ऐसी जिसकी महिमा बतायी गयी है , वह पद (तत्त्व) किस तरह से प्राप्त होता है – इस बातको मैं कहूँगा। अच्छी तरह से कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्म की उपासना करने वाले जिस तरह से उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं , उसको मैं अच्छी तरह से कहूँगा। अन्तकाल में उस निर्गुणनिराकार तत्त्व की प्राप्ति की फलसहित विधि बताने के लिये आगे के दो श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )