Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार

 

 

Bhagavad Gita chapter 8अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्यमुक्तस्य योगिनः ॥8.14॥

 

अनन्यचेताः-बिना विचलित मन से; सततम्-सदैव; यः-जो; माम्–मुझमें; स्मरति-स्मरण; नित्यश:-नियमित रूप से; तस्य-उसका; अहम्-मैं हूँ; सुलभः-सरलता से प्राप्त; पार्थ-पृथापुत्र; अर्जुन; नित्य-निरन्तर; युक्तस्य–तल्लीन; योगिनः-योगी।

 

हे पार्थ! जो योगी अनन्य भक्ति भाव से अविचलित मन से सदैव मेरा ही चिन्तन करते हैं, उस नित्य निरंतर मुझमें युक्त योगी के लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ और सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ क्योंकि वे निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम की भक्ति में तल्लीन रहते हैं।।8.14।।

 

(सातवें अध्याय के 30वें श्लोक में जो सगुण-साकार परमात्मा का वर्णन हुआ था उसी को यहाँ 14वें , 15वें और 16वें श्लोक में विस्तार से कहा गया है।] ‘अनन्यचेताः’ – जिसका चित्त भगवान को छोड़कर किसी भी भोगभूमि में , किसी भी ऐश्वर्य में किञ्चिन्मात्र भी नहीं जाता , जिसके अन्तःकरण में भगवान के सिवाय अन्य किसी का कोई आश्रय नहीं है , महत्त्व नहीं है , वह पुरुष अनन्य चित्तवाला है। जैसे पतिव्रता स्त्री का पति का ही व्रत-नियम रहता है। पति के सिवाय उसके मन में अन्य किसी भी पुरुष का रागपूर्वक चिन्तन कभी होता ही नहीं। शिष्य गुरु के और सुपुत्र माँ-बाप के परायण रहता है , उनका दूसरा कोई इष्ट नहीं होता। इसी तरह से भक्त भगवान के ही परायण रहता है। यहाँ ‘अनन्यचेताः’ पद सगुण-उपासना करने वाले का वाचक है। सगुण उपासना में विष्णु , राम , कृष्ण , शिव , शक्ति , गणेश , सूर्य आदि जो भगवान के स्वरूप हैं , उनमें से जो जिस स्वरूप की उपासना करता है उसी स्वरूप का चिन्तन हो परन्तु दूसरे स्वरूपों को अपने इष्ट से अलग न माने और अपने आप को भी अपने इष्ट के सिवाय और किसी का न माने तो उसका अन्य की तरफ मन नहीं जाता। तात्पर्य यह हुआ कि मैं केवल भगवान का हूँ और भगवान ही मेरे हैं । मेरा और कोई नहीं है तथा मैं और किसी का नहीं हूँ , ऐसा भाव होने से वह ‘अनन्यचेताः’ हो जाता है। ‘सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ – ‘सततम्’ का अर्थ होता है – निरन्तर अर्थात् जब से नींद खुले तब से लेकर गाढ़ नींद आने तक जो मेरा स्मरण करता है और ‘नित्यशः’ का अर्थ होता है – सदा अर्थात् इस बात को जिस दिन से पकड़ा उस दिन से लेकर मृत्यु तक जो मेरा स्मरण करता है। ‘तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः’ – ऐसे नित्ययुक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ। यहाँ नित्ययुक्त पद चित्त के द्वारा निरन्तर चिन्तन करने वाले का वाचक नहीं है बल्कि श्रद्धाप्रेमपूर्वक निष्कामभाव से खुद भगवान में लगने वाले का वाचक है। जैसे कोई ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपने में स्थित रहता है कि मैं ब्राह्मण हूँ , क्षत्रिय , वैश्य आदि नहीं हूँ। वह अपने ब्राह्मणपने को याद करे या न करे पर उसके ब्राह्मणपने में कोई फरक नहीं पड़ता। ऐसे ही मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं – इस नित्यसम्बन्ध में दृढ़ रहने वाला ही नित्ययुक्त है। ऐसे नित्ययुक्त योगी को भगवान सुगमता से मिल जाते हैं। भगवान के सिवाय शरीर , इन्द्रियाँ , प्राण , मन , बुद्धि अपने नहीं हैं  केवल भगवान ही अपने हैं – ऐसा दृढ़ता से मानने पर भगवान सुलभ हो जाते हैं परन्तु शरीर आदि को अपना मानते रहने से भगवान सुलभ नहीं होते। भगवान के साथ अपनी भिन्नता तथा संसार के साथ अपनी एकता कभी हुई नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। इस रीति से मनुष्य की भगवान के साथ स्वतः स्वाभाविक अभिन्नता है और संसार के साथ स्वतः स्वाभाविक भिन्नता है परन्तु भूल के कारण मनुष्य अपने को भगवान से और भगवान को अपने से अलग मान लेता है तथा अपने को शरीर का तथा शरीर को अपना मान लेता है। इस विपरीत धारणा के कारण ही यह मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है। जब यह विपरीत धारणा सर्वथा मिट जाती है तब भगवान स्वतः सुलभ हो जाते हैं। 8वें से 13वें श्लोक तक सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार का स्मरण बताया गया। इन दोनों स्मरणों में प्राणायाम की मुख्यता रहती है जिसको सिद्ध करना कठिन है। अन्तकाल जैसी विकट अवस्था में भी प्राणायाम के बल से प्राणों को भ्रुवों के मध्य में स्थापित कर सकें अथवा मूर्धा (दशम द्वार) में लगा सकें – ऐसा प्राणों पर अधिकार रहने की आवश्यकता है परन्तु भगवान के स्मरण में यह कठिनता नहीं है क्योंकि यहाँ प्राणों का खयाल नहीं है। यहाँ तो भगवान के साथ साधक का स्वयं का अनादिकाल से स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि की भी जरूरत नहीं है। अतः इसमें अन्तकाल में प्राण आदि को लगाने की जरूरत नहीं है। जैसे किसी वस्तु का बीमा होने पर वस्तु के बिगड़ने , टूटने-फूटने की चिन्ता नहीं रहती । ऐसे ही शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि सहित अपने आपको भगवान के समर्पित कर देने पर साधक को अपनी गति के विषय में कभी किञ्चिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती। कारण कि यह साधन क्रियाजन्य अथवा अभ्यासजन्य नहीं है। इसमें तो वास्तविक सम्बन्ध की जागृति है। अतः इसमें कठिनता का नामोनिशान नहीं है। इसी से भगवान ने अपने आपको सुलभ बताया है। अब दो श्लोकों में भगवान अपनी प्राप्ति का माहात्म्य बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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