अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय
08-22 भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ৷৷8.22৷৷
पुरूषः-परम भगवान; सः-वह; परः-महान, पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; भक्त्या-भक्ति द्वारा; लभ्यः-प्राप्त किया जा सकता है; तु-वास्तव में; अनन्यया-बिना किसी अन्य के; यस्य-जिसके; अन्तःस्थानि-भीतर स्थित; भूतानि-सभी जीव; येन-जिनके द्वारा; सर्वम्-समस्त; इदम्-जो कुछ हम देख सकते हैं; ततम्-व्याप्त है।
हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है , वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो वास्तव में अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है अर्थात परमेश्वर का दिव्य व्यक्तित्व सभी सत्ताओं से परे है। यद्यपि वह सर्वव्यापक है और सभी प्राणी उसके भीतर रहते है तथापि उसे केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।॥8.22॥
(‘यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ‘ – 7वें अध्याय के 12वें श्लोक में भगवान ने निषेधरूप से कहा कि सात्त्विक , राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं। यहाँ भगवान विधिरूप से कहते हैं कि परमात्मा के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और परमात्मा सम्पूर्ण संसार में परिपूर्ण हैं। इसी को भगवान ने 9वें अध्याय के चौथे , पाँचवें और छठे श्लोक में विधि और निषेध – दोनों रूपों से कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे सिवाय किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सब मेरे से ही उत्पन्न होते हैं , मेरे में ही स्थित रहते हैं और मेरे में ही लीन होते हैं । अतः सब कुछ मैं ही हुआ। वे परमात्मा सर्वोपरि होने पर भी सबमें व्याप्त हैं अर्थात् वे परमात्मा सब जगह हैं , सब समय में हैं , सम्पूर्ण वस्तुओं में हैं , सम्पूर्ण क्रियाओं में हैं और सम्पूर्ण प्राणियों में हैं। जैसे सोने से बने हुए गहनों में पहले भी सोना ही था , गहनारूप बनने पर भी सोना ही रहा और गहनों के नष्ट होने पर भी सोना ही रहेगा परन्तु सोने से बने गहनों के नाम रूप आकृति , उपयोग , तौल , मूल्य आदि पर दृष्टि रहने से सोने की तरफ दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही संसार के पहले भी परमात्मा थे , संसाररूप से भी परमात्मा ही हैं और संसार का अन्त होने पर भी परमात्मा ही रहेंगे परन्तु संसार को पाञ्चभौतिक ऊँच-नीच , बड़ा-छोटा , अनुकूल-प्रतिकूल आदि मान लेने से परमात्मा की तरफ दृष्टि नहीं जाती। ‘पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया’ – पूर्वश्लोक में जिसको अव्यक्त अक्षर परमगति आदि नामों से कहा गया है उसी को यहाँ ‘पुरुषः स परः’ कहा गया है। ऐसा वह परम पुरुष परमात्मा अनन्यभक्ति से प्राप्त होता है। परमात्मा के सिवाय प्रकृति का यावन्मात्र कार्य अन्य कहा जाता है। जो उस अन्य की स्वतन्त्र सत्ता मानकर उसको आदर देता है , महत्त्व देता है , उसकी अनन्य भक्ति नहीं है। इससे परमात्मा की प्राप्ति में देरी लगती है। अगर वह परमात्मा के सिवाय किसी की भी सत्ता और महत्ता न माने तथा भगवान के नाते भगवान की प्रसन्नता के लिये प्रत्येक क्रिया करे तो यह उसकी अनन्यभक्ति है। इसी अनन्यभक्ति से वह परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के सिवाय किसी की भी सत्ता और महत्ता न माने — यह बात भी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारको सत्ता देकर ही कही जाती है। कारण कि मनुष्यके हृदयमें एक परमात्मा है और एक संसार है – यह बात जँची हुई है। वास्तव में तो सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना आदि के रूप में एक परमात्मतत्त्व ही है। जैसे बर्फ , ओला , बादल , बूँदें , कोहरा , ओस ,नदी , तालाब , समुद्र आदि के रूप में एक जल ही है । ऐसे ही स्थूल , सूक्ष्म और कारणरूप से जो कुछ संसार दिखता है , वह सब केवल परमात्मतत्त्व ही है। भक्त की मान्यता में एक परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ रहता ही नहीं । इसलिये उसकी खाना-पीना , उठना-बैठना , सोना-जागना आदि सभी क्रियाएँ केवल उस परमात्मा की पूजा के रूपमें ही होती हैं ( गीता 18। 46)। विशेष बात- आप अन्तकाल में कैसे जानने में आते हैं ? (8। 2) -यह अर्जुन का प्रश्न बड़ा ही भावपूर्ण मालूम देता है। कारण कि भगवान को सामने देखते हुए भी अर्जुन में भगवान की विलक्षणता को जानने की उत्कण्ठा पैदा हो गयी। उत्तर में भगवान ने अन्तकाल में अपने चिन्तन की और सामान्य कानून की बात बताकर अर्जुन को सब समय में भगवच्चिन्तन करने की आज्ञा दी। उसके बाद 8वें श्लोक से 16वें श्लोक तक सगुण-निराकार , निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की प्राप्ति के लिये क्रमशः तीन-तीन श्लोक कहे। उनमें भी सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार की प्राप्ति में (प्राणों को रोकने की बात साथ में होने से) कठिनता बतायी और सगुण-साकार की उपासना में भगवान का आश्रय लेकर उनका चिन्तन करने की बात होने से सगुण-साकार की प्राप्ति में बहुत सुगमता बतायी। 16वें श्लोक के बाद सगुण-साकार स्वरूप की विशेष महिमा बताने के लिये भगवान ने छः श्लोक कहे। उनमें भी पहले के तीन श्लोकों में ब्रह्माजी की और उनके ब्रह्मलोक की अवधि बतायी और आगे के तीन श्लोकों में ब्रह्माजी और उनके ब्रह्मलोक से अपनी और अपने लोक की विलक्षणता बतायी। तात्पर्य है कि ब्रह्माजी के सूक्ष्मशरीर (प्रकृति) से भी मेरा स्वरूप विलक्षण है। उपासनाओं की जितनी गतियाँ हैं वे सब मेरे स्वरूप के अन्तर्गत आ जाती हैं। ऐसा वह मेरा सर्वोपरि स्वरूप केवल मेरे परायण होने से अर्थात् अनन्यभक्ति से प्राप्त हो जाता है। मेरा स्वरूप प्राप्त होने पर फिर साधक की न तो अन्य स्वरूपों की तरफ वृत्ति जाती है और न उनकी आवश्यकता ही रहती है। उसकी वृत्ति केवल मेरे स्वरूप की तरफ ही रहती है। इस प्रकार ब्रह्माजी के लोक से मेरा लोक विलक्षण है। ब्रह्माजी के स्वरूप से मेरा स्वरूप विलक्षण है और ब्रह्मलोक की गति से मेरे लोक (धाम ) की गति विलक्षण है। तात्पर्य है कि सब प्राणियों का अन्तिम ध्येय मैं ही हूँ और सब मेरे ही अन्तर्गत हैं। 16वें श्लोक में भगवान ने बताया कि ब्रह्मलोक तक को प्राप्त होने वाले लौटकर आते हैं और मेरे को प्राप्त होने वाले लौटकर नहीं आते परंतु किस मार्ग से जाने वाले लौटकर नहीं आते और किस मार्ग से जाने वाले लौटकर आते हैं यह बताना बाकी रह गया। अतः उन दोनों मार्गों का वर्णन करने के लिये भगवान आगे के श्लोक में उपक्रम करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )