Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

23 – 28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन

 

 

bhagavad gita in hindi chapter 8शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥8.26॥

 

शुक्ल-प्रकाश; कृष्णे-अंधकार; गती-मार्ग; हि-निश्चय ही; एते-ये दोनों; जगतः-भौतिक जगत् का; शाश्वते-नित्य; मते–मत से; एकया-एक के द्वारा; याति–जाता है; अनावृत्तिम्-न लौटने के लिए; अन्यथा-अन्य के द्वारा; आवर्तते-लौटकर आ जाता है; पुनः-फिर से।

 

क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात अर्चिमार्ग या प्रकाश मार्ग से गया हुआ योगी) जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात धूममार्ग या अंधकार मार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी ) फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥8.26॥

(प्रकाश मार्ग से गए हुए निष्काम योगी को इस संसार में वापस नहीं लौटना पड़ता और वह परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है। अंधकार मार्ग से गए हुए सकाम कर्मयोगी को इस संसार में फिर वापस आना पड़ता है अर्थात्‌ वह पुनः जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। )

 

( ‘शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते’ – शुक्ल और कृष्ण – इन दोनों मार्गों का सम्बन्ध जगत के सभी चर-अचर प्राणियों के साथ है। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति के साथ मनुष्य का तो साक्षात् सम्बन्ध है और चर-अचर प्राणियों का परम्परा से सम्बन्ध है। कारण कि चर-अचर प्राणी क्रम से अथवा भगवत्कृपा से कभी न कभी मनुष्यजन्म में आते ही हैं और मनुष्यजन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार ही ऊर्ध्वगति , मध्यगति और अधोगति होती है। अब वे ऊर्ध्वगति को प्राप्त करें अथवा न करें पर उन सबका सम्बन्ध ऊर्ध्वगति अर्थात् शुक्ल और कृष्णगति के साथ है ही। जब तक मनुष्यों के भीतर असत् (विनाशी) वस्तुओं का आदर है , कामना है । तब तक वे कितनी ही ऊँची भोगभूमियों में क्यों न चले जायँ पर असत् वस्तु का महत्त्व रहने से उनकी कभी भी अधोगति हो सकती है। इसी तरह परमात्मा के अंश होने से उनकी कभी भी ऊर्ध्वगति हो सकती है। इसलिये साधक को हरदम सजग रहना चाहिये और अपने अन्तःकरण में विनाशी वस्तुओं को महत्त्व नहीं देना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मप्राप्ति के लिये किसी भी लोक में योनि में कोई बाधा नहीं है। इसका कारण यह है कि परमात्मा के साथ किसी भी प्राणी का कभी सम्बन्धविच्छेद होता ही नहीं। अतः न जाने कब और किस योनि में वह परमात्माकी तरफ चल दे – इस दृष्टि से साधक को किसी भी प्राणी को घृणा की दृष्टि से देखने का अधिकार नहीं है। चौथे अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने योग को अव्यय कहा है। जैसे योग अव्यय है , ऐसे ही ये शुक्ल और कृष्ण – दोनों गतियाँ भी अव्यय शाश्वत हैं अर्थात् ये दोनों गतियाँ निरन्तर रहने वाली हैं , अनादिकाल से हैं और जगत के लिये अनन्तकाल तक चलती रहेंगी। ‘एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः’ – एक मार्ग से अर्थात् शुक्लमार्ग से गये हुए साधनपरायण साधक अनावृत्ति को प्राप्त होते हैं अर्थात् ब्रह्मलो कमें जाकर ब्रह्माजी के साथ ही मुक्त हो जाते हैं बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में नहीं आते और दूसरे मार्ग से अर्थात् कृष्णमार्ग से गये हुए मनुष्य बार-बार जन्म-मरण के चक्करमें आते हैं। अब भगवान् दोनों मार्गों को जानने का माहात्म्य बताने के लिये आगेका श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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