Bhagavad Gita chapter 8

 

 

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अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर

 

 

shrimad bhagavad geeta chapter 8यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥8.6॥

 

यम् यम्-जिसका; वा-या; अपि-किसी भी; स्मरन्-स्मरण कर; भावम्-स्मरण; त्यजति-त्याग करना; अन्ते–अन्तकाल में; कलेवरम्-शरीर को; तम् तम्-उस उसको; एव–निश्चय ही; एति-प्राप्त करता है; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन,; सदा-सदैव; तत्-उस; भावभावितः-चिन्तन में लीन।

 

हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! मनुष्य अंतकाल में शरीर छोड़ते हुए जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है अर्थात मृत्यु के समय मनुष्य जिसका भी स्मरण करता है उसकी ही गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है या उसी के चिंतन में लीन रहता हैं ॥8.6॥

( इसीलिए कहा जाता है अंतकाल में इस संसार की ओर से धयान हटा कर केवल भगवान का स्मरण करना चाहिए जिस से उनको प्राप्त किया जा सके। परन्तु जिसने जीवन भर भगवान का रूप , नाम , ध्यान , स्मरण नहीं किया अचानक अंत समय में वो ध्यान कैसे आ जाये। इसलिए बचपन से ही भगवान का ध्यान , नाम , जप , भक्ति , भजन , कीर्तन में लगे रहना चाहिए जिस से अंत समय में उन्हें याद करने में परेशानी न हो । क्योंकि अंत समय में वही ध्यान आता है जिसका हमने जीवन भर ध्यान किया । )

 

(‘यं यं वापि स्मरन्भावं ৷৷. सदा तद्भावभावितः ‘ – भगवान ने इस नियम में दया से भरी हुई एक विलक्षण बात बतायी है कि अन्तिम चिन्तन के अनुसार मनुष्य को उस-उस योनि की प्राप्ति होती है । जब यह नियम है तो मेरी स्मृति से मेरी प्राप्ति होगी ही । परम दयालु भगवान ने  अपने लिये अलग कोई विशेष नियम नहीं बताया है बल्कि सामान्य नियम में ही अपने को शामिल कर दिया है। भगवान की दया की यह कितनी विलक्षणता है कि जितने मूल्य में कुत्ते की योनि मिले , उतने ही मूल्य में भगवान मिल जायँ । ‘सदा तद्भावभावितः’ का तात्पर्य है कि अन्तकाल में जिस भाव का , जिस किसी का चिन्तन होता है – शरीर छोड़ने के बाद वह जीव जब तक दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेता तब तक वह उसी भावसे भावित रहता है अर्थात् अन्तकाल का चिन्तन (स्मरण) वैसा ही स्थायी बना रहता है। अन्तकाल के उस चिन्तन के अनुसार ही उसका मानसिक शरीर बनता है और मानसिक शरीर के अनुसार ही वह दूसरा शरीर धारण करता है। कारण कि अन्तकाल के चिन्तन को बदलने के लिये वहाँ कोई मौका नहीं है , शक्ति नहीं है और बदलने की स्वतन्त्रता भी नहीं है तथा नया चिन्तन करने का कोई अधिकार भी नहीं है। अतः वह उसी चिन्तन को लिये हुए उसी में तल्लीन रहता है। फिर उसका जिस किसी के साथ कर्मों का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है – वायु , जल , खाद्यपदार्थ आदि के द्वारा वह वहीं पुरुषजाति में प्रविष्ट होता है। फिर पुरुषजाति से स्त्रीजाति में जाकर समय पर जन्म लेता है। जैसे कुत्ते का पालन करने वाला कोई मनुष्य अन्त समय में कुत्ते को याद करते हुए शरीर छोड़ता है तो उसका मानसिक शरीर कुत्ते का बन जाता है जिससे वह क्रमशः कुत्ता ही बन जाता है अर्थात् कुत्ते की योनि में जन्म लेता है। इस तरह अन्तकाल में जिस किसी का स्मरण होता है उसी के अनुसार जन्म लेना पड़ता है परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मकान को याद करते हुए शरीर छोड़ने से मकान बन जायगा , धन को याद करते हुए शरीर छोड़ने से धन बन जायगा आदि बल्कि मकान का चिन्तन होने से वह उस मकान में चूहा , छिपकली आदि बन जायगा और धन का चिन्तन होने से वह साँप बन जायगा आदि। तात्पर्य यह हुआ कि अन्तकाल के चिन्तन का नियम सजीव प्राणियों के लिये ही है , निर्जीव (जड) पदार्थों के लिये नहीं। अतः जड पदार्थ का चिन्तन होने से वह उससे सम्बन्धित कोई सजीव प्राणी बन जायगा। मनुष्येतर (पशु , पक्षी आदि ) प्राणियों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही अन्तकाल में स्मरण होता है और उसी के अनुसार उनका अगला जन्म होता है। इस तरह अन्तकाल के स्मरण का कानून सब जगह लागू पड़ता है परन्तु मनुष्यशरीर में यह विशेषता है कि उसका अन्तकाल का स्मरण कर्मों के अधीन नहीं है बल्कि पुरुषार्थ के अधीन है। पुरुषार्थ में मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है। तभी तो अन्य योनियों की अपेक्षा इसकी अधिक महिमा है। मनुष्य इस शरीर में स्वतन्त्रतापूर्वक जिससे सम्बन्ध जोड़ लेता है उस सम्बन्ध के अनुसार ही उसका अन्य योनियों में जन्म हो सकता है परन्तु अन्तकाल में अगर वह भगवान का स्मरण कर ले तो उसके सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं। कारण कि वे सब सम्बन्ध वास्तविक नहीं है बल्कि वर्तमान के बनाये हुए कृत्रिम हैं जब कि भगवान के साथ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है , बनाया हुआ नहीं है। अतः भगवान की याद आने से उसके सारे कृत्रिम सम्बन्ध टूट जाते हैं। विशेष बात – (1) दूसरे जन्म की प्राप्ति अन्तकाल में हुए चिन्तन के अनुसार होती है। जिसका जैसा स्वभाव होता है अन्तकाल में उसे प्रायः वैसा ही चिन्तन होता है। जैसे जिसका कुत्ते पालने का स्वभाव होता है , अन्तकाल में उसे कुत्ते का चिन्तन होता है। वह चिन्तन आकाशवाणी केन्द्र के द्वारा प्रसारित (विशेष शक्तियुक्त) ध्वनि की तरह सब जगह फैल जाता है। जैसे आकाशवाणी केन्द्र के द्वारा प्रसारित ध्वनि रेडियो के द्वारा (किसी विशेष नंबर पर) पकड़ में आ जाती है। ऐसे ही अन्तकालीन कुत्ते का चिन्तन सम्बन्धित कुत्ते के द्वारा (जिसके साथ कोई ऋणानुबन्ध अथवा कर्मों आदि का कोई न कोई सम्बन्ध है ) पकड़ में आ जाता है। फिर जीव सूक्ष्म और कारणशरीर को साथ लिये अन्न , जल , वायु (श्वास) आदि के द्वारा उस कुत्ते में प्रविष्ट हो जाता है। फिर कुतिया में प्रविष्ट होकर गर्भ बन जाता है और निश्चित समय पर कुत्ते के शऱीर से जन्म लेता है। अन्तकालीन चिन्तन और उसके अनुसार गति को एक दृष्टान्त के द्वारा समझा जा सकता है। एक आदमी फोटो खिंचवाने गया। जब वह फोटो खिंचवाने बैठा तब फोटोग्राफर ने उससे कहा कि फोटो खिंचते समय हिलना मत और मुस्कराते रहना। जैसे ही फोटो खिंचने का समय आया उस आदमी की नाक पर एक मक्खी बैठ गयी। हाथ से मक्खी  को भगाना ठीक न समझकर (कि कहीं फोटोमें वैसा न आ जाय) उसने अपनी नाक को सिकोड़ा। ठीक इसी समय उसकी फोटो खिंच गयी। उस आदमी ने फोटोग्राफर से फोटो माँगी तो उसने कहा कि अभी फोटो को प्रत्यक्ष रूप में आने में कुछ समय लगेगा आप अमुक दिन फोटो ले जाना। वह दिन आने पर फोटोग्राफर ने उसे फोटो दिखायी तो उसमें (अपनी नाक सिकोड़े हुए) भद्दे रूप को देखकर वह आदमी बहुत नाराज हुआ कि तुमने फोटो बिगाड़ दी । फोटोग्राफर ने कहा कि इसमें मेरी क्या गलती है ? फोटो खिंचते समय आपने जैसी आकृति बनायी थी , वैसी ही फोटो में आ गयी । अब तो फोटो में परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तरह अन्तकाल में मनुष्य का जैसा चिन्तन होगा , वैसी ही योनि उसको प्राप्त होगी। फोटो खिंचने का समय तो पहले से ही मालूम रहता है पर मृत्यु कब आ जाय , इसका हमें कुछ पता नहीं रहता। इसलिये अपने स्वभाव चिन्तन को निर्मल बनाये रखते हुए हर समय सावधान रहना चाहिये और भगवान का नित्य-निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिये (गीता 8। 5 7)।(2) अन्तकालीन गति के नियम में भगवान की न्यायकारिता और दयालुता – ये दोनों ही भरी हुई हैं। साधारण दृष्टि से न्याय और दया – दोनों परस्परविरुद्ध मालूम देते हैं। अगर न्याय करेंगे तो दया सिद्ध नहीं होगी और दया करेंगे तो न्याय सिद्ध नहीं होगा। कारण कि न्याय में ठीक-ठीक निर्णय होता है , छूट नहीं होती और दया में छूट होती है परन्तु वास्तव में यह विरोध सामान्य और क्रूर पुरुष के बनाये हुए न्याय में ही आ सकता है , भगवान के बनाये हुए न्याय में नहीं क्योंकि भगवान परम दयालु और प्राणिमात्र के सुहृद् हैं – ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता 5। 29)। भगवान के सभी न्याय , कानून दया से परिपूर्ण होते हैं। मनुष्य अन्तकाल में जैसा स्मरण करता है , उसी के अनुसार उसकी गति होती है। अगर कोई कुत्ते का चिन्तन करते हुए मरता है तो क्रमशः कुत्ता ही बन जाता है। यह भगवान का मनुष्यमात्र के प्रति लागू होने वाला न्याय हुआ क्योंकि भगवान ने मनुष्यमात्र को यह स्वतन्त्रता दी है कि वह चाहे मेरा (भगवान का ) स्मरण करे चाहे अन्य का स्मरण करे। इसलिये यह भगवान का न्याय है। जितने मूल्य में कुत्ते की योनि मिले , उतने ही मूल्य में भगवान मिल जायँ – यह मनुष्यमात्र के प्रति भगवान की दया है। अगर मनुष्य भगवान की इस न्यायकारिता और दयालुता की तरफ खयाल करे तो उसका भगवान में आकर्षण हो जायगा। जब अन्तकाल के स्मरण के अनुसार ही गति होती है तो फिर अन्तकाल में भगवान का स्मरण होने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये ? इसका उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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