गीत गोविन्द

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Jun 20, 2023 #geet govind, #geet govind lyrics, #geet govind sanskrit lyrics, #geet govindam, #geetgovind by jaidev, #gita govind, #jaidev, #shri geet govind, #shri geet govindam, #shri gita govindam, #क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर राधिके, #गीत गोविंदम, #गीत गोविन्द, #गीत गोविन्दम, #जय जगदीश हरे, #जय जय देव हरे, #जयदेव द्वारा रचित गीत गोविन्द, #नाथ हरे ! सीदति राधा आवासगृहे, #निजगाद सा यदुनन्दने क्रीड़ति हृदयानंदने, #प्रविश राधे ! माधवसमीपमिह, #प्रिये ! चारुशीले ! मुञ्च मयि मानमनिदानं।, #यामि हे ! कमिह शरणं सखीजन - वचन - वंचिता, #रासे हरिमिह विहित विलासं स्मरति मनो मम कृत परिहासम, #विहरति हरिरिह सरसवसन्ते| नृत्यति युवतिजनेन समं सखि| विरहिजनस्य दुरन्ते, #श्री गीत गोविन्दं, #सखि ! या रमिता वनमालिना, #सखि! सीदति तव विरहे वनमाली, #हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव, #हरिमेकरसं चिरंभिलषित - विलासं।, #हरिरिह मुग्धवधूनिकरे विलासिनि विलसति केलिपरे
गीत गोविन्द

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गीत गोविन्द

 

 

श्री गीत गोविन्दं

 

गीतगोविन्द प्रसिद्द कवि जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर 1116 ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं।

गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक प्रचलित है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है।गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है।

गीत गोविंदम, कृष्ण और गोपियों, विशेष रूप से राधा के बीच प्रेम का उत्सव मनाने वाली संस्कृत की गीतात्मक कविता, उड़ीसा के 12 वीं शताब्दी के भक्त-कवि जयदेव द्वारा लिखी गई है। इस कार्य का आधार श्रीमद्भगवतम (रसपंचाध्यायी के रूप में जाना जाता है) के 5 अध्याय ( 29 से 33 ) हैं, जो रासलीला की घटनाओं का वर्णन करते हैं, यमुना के तट पर हुआ महान नृत्य जहां प्रत्येक गोपी सोचती है कि कृष्ण उसके साथ हैं। हालाँकि, श्रीमद्भगवतम, विशेष रूप से राधा नाम की एक गोपी के बारे में बात नहीं करता है, हालांकि कुछ अन्य पुराणों में राधा को कृष्ण के ह्रदय के रूप में वर्णित किया गया है।

उपरोक्त विषय को गीत गोविंदम में इस सीमा तक विकसित किया गया है कि इसे ‘श्रृंगार महाकाव्य’ के रूप में जाना जाता है, जिसमें राधा और कृष्ण के बीच दिव्य प्रेम के संबंध में प्रमुख भावना श्रृंगार रस भावना है। मिलन की उमंग, विरह की व्यथा, अपनों के इंतजार के बेचैन पलों को संवेदनशीलता और काव्यात्मक उत्कृष्टता के साथ चित्रित किया गया है। पूरे काम को बारह अध्यायों ( सर्गों) में विभाजित किया गया है, प्रत्येक अध्याय में एक या एक से अधिक प्रबंध हैं।

कुल 24 प्रबंध हैं जिनमें से प्रत्येक में दोहे हैं जिन्हें अष्टपदी कहा जाता है, जो उस अष्टपदी के लिए विशिष्ट राग के साथ गाने हैं। गीत गोविंदम में कुल 24 अष्टपदी हैं। प्रत्येक अध्याय में संस्कृत कविता के विभिन्न छंदों में अष्टपदी के साथ मिले हुए एक या अधिक श्लोक हैं। कहा जाता है कि कवि-भक्त जयदेव अष्टपदी गाते थे और उनकी पत्नी पद्मावती संगीत पर नृत्य करती थीं। अष्टपदी को एक नृत्य नाटिका के रूप में चित्रित करने और प्रस्तुत करने के लिए कई नृत्यकला के कार्य हुए हैं।

गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। 

आखिर यह गीत गोविन्द प्रकट कैसे हुआ ? एक बार प्रभु प्रेरणा से जयदेव जी के ह्रदय में आया कि मैं प्रभु चरित्र मय एक नवीन पुस्तक बनाऊँ तब श्री गोविंद जी का अति सरस गीत “श्री गीतगोविंद” प्रकट हुआ।जब जयदेव गीत गोविन्द लिख रहे थे तो एक प्रसंग उन के हृदय में आया- “स्मर-गरल-खंडन, ममशिरसि मंड़न देहि पदपल्लवमुदाराम”, अर्थात भगवान राधा जी से कह रहे है – हे प्रिय ! कन्दर्प का विष खंडन करने वाला, और मेरे मस्तक का मेरे मस्तक का मंडल भूषण अपने चरण कमलों को मेरे सिर पर रखो’ लेकिन जयदेव जी को इस प्रसंग पर शंका हुई और इसे बीच में अधूरा छोड़ कर विचार करते हुए आप स्नान करने चले गए। जब वापिस आ कर देखा तो अचंभित रह गए की जैसा उन्होंने सोचा था वैसा ही श्लोक लिखा हुआ पाया । पत्नी से पूछा तो पत्नी ने बताया की आप खुद ही आए थे और इसे लिखकर वापिस स्नान करने चले गए। इस पर जयदेव जी समझ गए की स्वयं भगवान यह पंक्तियाँ लिख कर गए हैं।

श्री जयदेव गोस्वामी ने इस अप्राकृत या दिव्य प्रणय का सुन्दर वर्णन किया है । भगवान श्रीकृष्ण शक्तिमान हैं और श्रीमती राधिका रानी उनकी परा शक्ति हैं । श्री राधिका और श्रीकृष्ण की लीला शक्ति और शक्तिमान की लीला है । काम की गंध से रहित यह अप्राकृत और दिव्य प्रेम की लीला है । लौकिक प्रेम और दिव्य प्रेम दोनों के लक्षण अलग हैं । प्राकृत या लौकिक या भौतिक प्रेम लोहे के समान है और अलौकिक प्रेम या अप्राकृत या दिव्य प्रेम सोने के समान है । अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने की इच्छा को , इन्द्रियों को सुख देने की चाह को काम कहते हैं किन्तु श्री कृष्णेन्द्रिय प्रीति को विशुद्ध प्रेम कहते हैं । 

 

यदि हरिस्मरणे सरसं मनो 

यदि विलास कलासु कुतूहलम ।

मधुर – कोमल – कान्त – पदावलीं

शृणु तदा जयदेव सरस्वतीं।।

 

अर्थात उन्होंने कहा है कि यदि श्री हरि की सुखद स्मृति की मन में इच्छा है अथवा यदि तुम प्रीतिपूर्वक हरि का स्मरण करने में मन को अनुरक्त करना चाहते हो और यदि उस लीलारस को आस्वादन करने का कौतुहल हो अर्थात यदि एकांतिक अभिलाषा हो अथवा श्रीहरि के विलास नैपुण्य को जानने का ह्रदय में कौतुहल हो तभी सुमधुर कोमलकांत पदावलीयुक्त जयदेव कृत अप्राकृत काव्य का श्रवण या पाठ करो अन्यथा इसका पाठ मत करो अर्थात अधिकारी भक्तजन ही इस दिव्य एवं पवित्र काव्य के श्रवण या पाठन के अधिकारी हैं क्योंकि अनाधिकारी व्यक्ति इस काव्य को पढ़कर सही अर्थ समझने के बजाय कुछ दूसरा ही अर्थ समझ लेंगे और जिसके फलस्वरूप उनका हित के बदले अनहित ही होगा । भगवान की दिव्य रास लीला को सामान्य मनुष्यों के प्रेम की भांति समझना अत्यंत नासमझी है । यह बात अभक्त नहीं समझ सकते । इसलिए जो भगवान् के प्रेमी भक्त जन हैं वे ही इस काव्य का श्रवण – पाठन करें । कहते हैं कि भगवान् जगन्नाथ को जयदेव रचित यह काव्य अत्यंत प्रिय है । भगवन जगन्नाथ को जयदेव के गीत गोविन्द से अधिक कोई भी अन्य काव्य प्रिय नहीं है । भगवन जगन्नाथ को नियमपूर्वक जयदेव रचित गीत गोविन्द सुनाया जाता है ।

 

एक बार एक माली की लड़की खेत में बेंगन तोड़ते हुए ‘गीत गोविन्द’ के पांचवे सर्ग की इस अष्टपदी को गा रही थी—

 

धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥1॥

 

उसके मधुर गीत को सुनने के लिए भगवान जगन्नाथ उस लड़की के पीछे-पीछे घूमने लगे । उस समय भगवान ने अत्यंत महीन ढीली पोशाक धारण की हुई थी, जो कांटों में उलझ कर फट गई । लड़की का गाना खत्म होने पर जगन्नाथ जी मंदिर में पधारे तो उनके फटे वस्त्रों को देख कर पुरी का राजा, जो उनके दर्शन के लिए आया था, बड़ा आश्चर्यचकित हुआ ।

राजा ने पुजारियों से पूछा—‘ठाकुरजी के वस्त्र कैसे फट गए ? पुजारियों ने कहा—हमें तो कुछ मालूम नहीं, यह कैसे हुआ ?’

तब भगवान ने स्वयं सब बात पुजारी को स्वप्न में बता दी । राजा ने भगवान की ‘गीत गोविन्द’ के पदों को सुनने की रुचि जान कर उस बालिका को पालकी भेज कर बुलाया  । उस बालिका ने भगवान के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया । तब से राजा ने मंदिर में नित्य ‘गीत गोविन्द’ के गायन की व्यवस्था कर दीसाथ ही पुरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब; सभी ‘गीत गोविंद’ की अष्टपदियों का इस भाव से गायन करें कि स्वयं सुगल सरकार श्रीराधाकृष्ण इसे सुन रहे हैं । भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है, जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा । न मन्दिर है न जंगल । न धूप है न चैन । है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है । यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है । 

जगन्नाथपुरी के एक अन्य राजा ने श्रीकृष्ण-लीलाओं की पुस्तक बनवा कर उसका नाम भी ‘गीत गोविन्द’ रख दिया । राजा के चापलूस ब्राह्मण सब जगह यह प्रचार करने लगे कि यही असली ‘गीत गोविन्द’ है । असली पुस्तक का निर्णय करने के लिए दोनों ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तकें भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रख दी गईं । दूसरे दिन जब पट खुले तो भगवान ने राजा की पुस्तक दूर फेंक दी और जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तक को अपनी छाती से चिपका रखा था ।

यह देख कर राजा समुद्र में डूबने चला । तब भगवान ने आकाशवाणी की कि तुम समुद्र में मत डूबो । तुम्हारी पुस्तक के बारह श्लोक जयगेव कृत ‘गीत गोविन्द’ के बारह सर्गों में लिखे जाएंगे; जिससे तुम्हारी प्रसिद्धि भी संसार में फैल जाएगी ।

ऐसा माना जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियों का जो कोई नित्य पठन और गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र और प्रखर होकर दिन-प्रतिदिन बढ़ती है । साथ ही इन अष्टपदियों का जहां प्रेम से गायन होता है, वहां उन्हें सुनने के लिए श्रीराधाकृष्ण अवश्य विराजते हैं और प्रसन्न होकर कृपा-वृष्टि करते हैं ।

भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।

 

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श्री गीत गोविन्दम

 

 

श्री गीत गोविन्दम

 

गीतगोविन्द नामक इस प्रबन्ध में श्रीराधा-माधव की एकांत की प्रेममयी निकुञ्ज लीला का चित्रण किया गया है। रचनाकार महाकवि श्रीजयदेव गोस्वामी ने श्रीराधामाधव की स्मर केलि-लीला का वर्णन कर उन दोनों की सर्वश्रेष्ठता स्थापित की है। ग्रन्थ कृति के प्रारम्भ में श्रीकविराज जी ने तमालवृक्ष के तम:पुञ्ज द्वारा समाच्छादित कुञ्ज-भवन में श्रीराधा-माधव की प्रविष्टि का चित्रण किया है। परम प्रेयसी श्रीराधा अपनी सखी के वचनों का स्मरण कर श्रीकृष्ण को साथ लेकर कुञ्ज में प्रवेश कर जो सुख क्रीड़ाएँ करती हैं, उन्हीं को मंगला चरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य-तत्त्व श्रीराधामाधव की लीलामाधुरी है; अत: यह प्रबन्ध सभी के लिए मंगलदायी और कल्याणकारी है।

 

प्रथम सर्गः

अथ प्रथम संदर्भः 

प्रबंधः 1

सामोद – दमोदरः

 

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामाः तमालद्रुमैः

नक्तंभीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।

इत्थं नन्दनिदेशतः चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं

राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।।1।।

 

वाग्देवता चरितचित्रितचित्तसद्मा

पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती।

श्रीवासुदेवरतिकेलिकथा समेतं

एतं करोति जयदेवकविः प्रबन्धम् ।।2।।

 

यदि हरिस्मरणे सरसं मनः

यदि विलासकलासु कुतूहलम्।

मधुरकोमलकान्तपदावलिं

शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥3॥

 

वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः सन्दर्भशुद्धिं गिरां

जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यो दुरूहद्रुतेः।

शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरसनैः आचार्य गोवर्धन-

स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः श्रुतिधरो धोयी कविक्ष्मापतिः।।4।।

 

गीतम १ | अष्टपदी-1

कीर्ति धवल 

मालव रागेण रूप कतालेन गीयते 

 

प्रलयपयोधिजले  धृतवानसि वेदम्

विहितवहित्रचरित्रमखेदं।

केशव! धृतमीनशरीर जय  जगदीश हरे ॥१॥ ध्रुवं 

 

क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे

धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे

केशव! धृतकच्छपरूप

जय  जगदीश हरे ॥२॥ध्रुवं

 

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना

शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना

केशव! धृत

सूकररूप जय  जगदीश हरे ॥३॥ध्रुवं

 

तव करकमलवरे नखमद्भुतशृङ्गं

दलित हिरण्यकशिपु तनुभृङ्गम्।

केशव! धृत नरहरिरूप जय  जगदीश हरे ॥४॥ध्रुवं

 

छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुत वामन

पदनखनीरजनितजनपावन

केशव धृत वामनरूप जय  जगदीश हरे ॥५॥ध्रुवं

 

क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं

स्नपयसि पयसि शमित भवतापम्

केशव! धृत भृगुपतिरूप जय  जगदीश हरे ॥६॥ध्रुवं

 

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पति कमनीयं

दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्

केशव! धृत

रघुपतिरूप जय  जगदीश हरे ॥७॥ध्रुवं

 

वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभं

हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम्

केशव! धृत

हलधररूप जय  जगदीश हरे ॥८॥ध्रुवं

 

निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं

सदय हृदय दर्शितपशुघातम्

केशव! धृत

बुद्धशरीर जय  जगदीश हरे ॥९॥ध्रुवं

 

म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं

धूमकेतुमिव किमपि करालं

केशव! धृत कल्किशरीर जय  जगदीश हरे ॥१०॥ध्रुवं

 

श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारं

शृणु सुखदं शुभदं भवसारम्

केशव! धृत दशविधरूप जय  जगदीश हरे ॥११॥ध्रुवं

 

इस प्रकार प्रथम प्रबंध में दशावतार स्तोत्र कीर्तिधवल नामक छंद है । प्रस्तुत प्रबंध में पारस्वर , मध्यमादि राग , आदि ताल , विलम्बित लय, माध्यमी रीति तथा श्रृंगार रस है। इसमें वासुदेव भगवान के यश का वर्णन है ।

 

इति श्री गीत गोविन्दे प्रथम संदर्भः

इति दशावतार कीर्तिधवलो नाम प्रथमः प्रबंधः ।

 

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Geet Govind

 

 

अथ द्वितीय सन्दर्भः 

द्वितीय प्रबंध

 

वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्बिभ्रते

दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।

पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते

म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।1।।

 

गीतम 2 | अष्टपदी 2

गुर्ज्जरी राग निःसार तालाभ्यां गीयते

(गुर्जरी राग और निःसार ताल के साथ गाया जाता है )

 

श्रितकमलाकुचमंडल धृतकुण्डल हे 

कलितललितवनमाल जय जय देव हरे ॥१॥ ध्रुवं 

 

दिनमणिमण्डलमण्डन।

भवखण्डन हे मुनिजनमानसहंस॥

(जय जय देव हरे ) ॥२॥ ध्रुवं 

 

कालियविषधरभञ्जन जनरञ्जन हे

यदुकुलनलिनदिनेश॥

(जय जय देव हरे ) ||३|| ध्रुवं 

 

मधुमुरनरकविनाशन।

गरुडासन हे सुरकुलकेलिनिदान॥

(जय जय देव हरे ) ॥४॥ ध्रुवं 

 

अमलकमलदललोचन।

भवमोचन हे त्रिभुवनभवननिदान॥ 

(जय जय देव हरे ) ॥५॥ ध्रुवं 

 

जनकसुता कृत भूषण ।

जितदूषण समरशमितदशकण्ठ॥

(जय जय देव हरे ) ॥६॥ ध्रुवं 

 

अभिनवजलधरसुन्दर|

धृत मन्दर श्रीमुखचन्द्रचकोर॥

(जय जय देव हरे ) ||७॥ ध्रुवं 

 

तव चरणे प्रणता वयमिति भावय हे 

कुरु कुशलं प्रणतेषु

जय जय देव हरे ।।8।। ध्रुवं 

 

श्रीजयदेवकवेरिदं कुरुते मुदं|

मङ्गलमुज्ज्वलगीति  ॥

(जय जय देव हरे )  ॥9॥ ध्रुवं 

 

पद्मापयोधरतटीपरिरंभलग्न-

काश्मीरमुद्रितमुरो मधुसूदनस्य|

व्यक्तानुरागमिव खेलदनङ्ग खेद-

स्वेदांबुपूरमनुपूरयतु प्रियं वः।।1।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे द्वितीय संदर्भः

इति श्री गीत गोविन्दे द्वितीयः प्रबंधः

 

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 अथ तृतीय संदर्भः 

तृतीयः प्रबंधः 

 

वसन्ते वासन्तीकुसुमसुकुमारैरवयवैः

भ्रमन्तीं कान्तारे बहुविहितकृष्णानुसरणां ।

अमन्दं कन्दर्पज्वरजनितचिन्ताकुलतया

वलत्पादां राधां सरसमिदमूचे सहचरी ॥1।।

 

गीतम 3 | अष्टपदी 3

वसंत राग यति तालभ्याम गीयते

बसंत राग और यति ताल में गाया जाता है 

( सरस वसंत समय )

 

ललित-लवङ्गलता-परिशीलन-कोमल-मलयसमीरे।

मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुञ्जकुटीरे॥

विहरति हरिरिह सरसवसन्ते|

नृत्यति युवतिजनेन समं सखि|

विरहिजनस्य दुरन्ते ॥1॥ ध्रुवं 

 

उन्मद-मदन-मनोरथ-

पथिक-वधूजन-जनित-विलापे।

अलिकुल-संकुल-कुसुम-समूह-

निराकुल-वकुल-कलापे॥  (विहरति…)॥2॥ ध्रुवं 

 

मृगमद-सौरभ-रभस-वशंवद-

नवदलमाल-तमाले।

युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-

नखरुचि-किंशुकजाले॥ (विहरति…)॥3॥ ध्रुवं 

 

मदन-महीपति-कनकदण्डरुचि-

केसर-कुसुम-विकासे।

मिलित-शिलीमुख-पाटलपटल-

कृतस्मरतूण-विलासे॥ (विहरति…)॥4॥ ध्रुवं 

 

विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-

तरुण-करुण-कृत-हासे।

विरहि-निकृन्तन-कुन्दमुखाकृति-

केतकि-दन्तुरिताशे॥ (विहरति…)॥5॥ ध्रुवं 

 

माधविका-परिमल-मिलिते

नवमालिकयाऽतिसुगन्धौ।

मुनिमनसामपिमोहनकारिणि

तरुणाकारणबन्धौ॥ (विहरति…)॥6॥ ध्रुवं 

 

स्फुरदति-मुग्धलता-परिरंभण

-मुकुलित-पुलकित-चूते।

बृन्दावन-विपिने-परिसर-परिगत

-यमुनाजल-पूते॥  (विहरति…)॥7॥ ध्रुवं 

 

श्रीजयदेवभणितमिदं उदयति

हरिचरणस्मृतिसारं।

सरस-वसन्त-समय-वनवर्णन-

मनुगत-मदनविकारम् (विहरति…)॥8॥ ध्रुवं 

 

इति श्री गीत गोविन्दे तृतीय संदर्भः

इति श्री गीत गोविन्दे तृतीय प्रबंधः 

 

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चतुर्थ सन्दर्भः

चतुर्थ प्रबंध 

 

दरविदलितवल्ली चञ्चत्पराग-

प्रकटित-पटवासै-र्वासयन्काननानि ।

इह हि दहति चेतः केतकी-गन्ध-बन्धुः

प्रसरदसमबाण-प्राणवद्गन्धवाहः ॥1।।

 

अद्योतसंग – वसदभुजङ्ग – कवल – क्लेशादिवेशाचलं

प्रालेय – प्लवनेच्छयानुसरित श्रीखंडशैलानिलः ।

किञ्च स्निग्ध – रसाल – मौलि – मुकुलान्यालोक्य हर्षोदया-

दुन्मीलन्ति कुहुः कुहूरिति कलोत्तालाः पिकानां गिरः ।।2।।

 

उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूतचूताङ्कुर-

क्रीडत्कोकिलकाकलीकलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वराः ।

नीयन्ते पथिकैः कथं कथमपि ध्यानावधानक्षण-

प्राप्तप्राणसमासमागमरसोल्लासैरमी वासराः॥3।।

 

अनेकनारीपरिरंभसंभ्रम-

स्फुरन्मनोहारि-विलास-लालसम्।

मुरारिमारादुपदर्शयन्त्यसौ

सखी समक्षं पुनराह राधिकाम् ॥4।।

 

गीतम 4 | अष्टपदी 4

राम किरी रागेन यतिता लेन च गीयते

 

चन्दनचर्चित-नीलकलेबर-

पीतवसन-वनमालि।

केलिचल्न्मणि-कुण्डल-मण्डित-

गण्डयुग-स्मितशालि॥

हरिरिह मुग्धवधूनिकरे

विलासिनि विलसति केलिपरे

हरिरिह मुग्धवधूनिकरे॥1॥ ध्रुवं 

 

पीनपयोधर-भार-भरेण

हरिं परिरभ्य सरागम्।

गोपवधूरनुगायति काचित् उदञ्चित-

पञ्चम-रागम्॥2॥  (हरिरिह…) ध्रुवं 

 

कापि विलास-विलोल-विलोचन-

खेलन-जनित-मनोजम्।

ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन-

वदन-सरोजम् ॥3॥ (हरिरिह…) ध्रुवं 

 

कापि कपोलतले मिलिता

लपितुं किमपि श्रुतिमूले।

चारु चुचुम्ब नितम्बवती

दयितं पुलकैरनुकूले  ॥4॥  (हरिरिह…) ध्रुवं 

 

केलिकला-कुतुकेन च

काचिदमुं यमुनावनकूले।

मञ्जुल-वज्जुल- कुञ्ज गतं

विचकर्ष करेण दुकूले ॥5॥ (हरिरिह…) ध्रुवं 

 

करतल – ताल – तरल – वलयावली –

कलित – कलस्वन – वंशे

रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा

युवतिः प्रशंससे ।। (हरिरिह…) ।।6।। ध्रुवं 

 

श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि

कामपि रमयति रामाम्।

पश्यति सस्मित चारुतरामपरा

मनुगच्छति वामाम्॥7॥ (हरिरिह…)

 

श्री जयदेव – भणितमिदमद्भुत –

केशव – केलि – रहस्यं।

वृन्दावन – विपिन ललितं

वितनोतु शुभानि यशस्यं ।।

हरिरिह – मुग्ध – वधु निकरे….8।।

 

विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवर।

श्रेणीश्यामल-कोमलैःरूपनयन्नगैरनंगोत्सव ।।

स्वच्छन्दं व्रजसुंदरीभिरभितः प्रत्यंगमालिंगितः।

श्रृंगारः सखि मूर्त्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीडति ।।1।।

 

नित्योत्सङ्गव सद्भुजङ्गक वलक्लेशादिवेशाचलं

प्रालेय प्लवननेच्छयानु सरति श्रीखंड शैलानिलः ।

किञ्च स्निग्ध  रसाल मौलि कुसुमान्यालोक्य हर्षोदया

दुन्मीलन्ति कुहूः कुहूरति कलोत्तालाः पिकानां गिरः।।2।।

 

रासोल्लासभरेण विभ्रम – भृतामाभीर – वाम भ्रुवा –

मभ्यरणे परिरभ्य निर्भरमुरः प्रेमान्ध्या राध्या।

साधु तदवदनं सुधा मयमिति व्याहृत्य गीतस्तुति –

व्याजादुद्भट चुम्बितः स्मितमनोहारी हरिः पातु वः।।3।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे चतुर्थ प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे  शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ सामोददामोदरोनाम प्रथमःसर्गः

 

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द्वितीय सर्गः

अकलेश केशवः

 पंचम संदर्भः 

पंचम प्रबंधः

 

 

विहरति वने राधा साधारण – प्रणये हरौ

विगलित – निजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गतान्यतः

क्वचिदपि लताकुंजे गुंजनमधुव्रत – मंडली –

मुखर – शिखरे- लीना दीनाप्युवाच रहः सखीम।।1।।

 

गीतम ।। 5 ।। अष्टपदी 5

गुर्ज्जरी राग यतीतालाभ्यां गीयते

( गुर्जरी राग और यति ताल में गया जाता है )

 

सञ्चरदधर सुधा मधुर ध्वनि मुखरित मोहन वंशम

बलित दृगञ्चल चञ्चल मौलि कपोल विलोल वतंसं।

रासे हरिमिह विहित विलासं

स्मरति मनो मम कृत परिहासम ।।1।। ध्रुवं

 

चन्द्रक चारु मयूर शिखंडक मंडल वलयित केशं ।

प्रचुर पुरंदर धनुरनुरञ्जित मेदुर मुदिर सुवेशं ।।

रासे हरिमिह ………………।।2।।ध्रुवं

 

गोप कदम्ब नितम्बवती मुख चुम्बन लम्भित लोभं।

बंधुजीव मधुराधर पल्लवमुल्लसित स्मित शोभम।।

रासे हरिमिह  ………………।।3।।ध्रुवं

 

विपुल पुलक भुज पल्लव वलयित वल्लव युवति सहस्रं।

कर चरणोरसि मणिगण भूषण किरण विभिन्न तमिस्रं।।

रासे हरिमिह  ………………।।4।।ध्रुवं

 

जलद पटल बलदिन्दु विनिन्दक चन्दन तिलक ललाटं ।

पीन पयोधर परिसर मर्दन निर्दय ह्रदय कवाटम।।

रासे हरिमिह  ………………।।5।।ध्रुवं

 

मणिमय मकर मनोहर कुण्डल मंडित गण्डमुदारं।

पीतवसन मनुगत मुनि मनुज सुरसुरवर परिवारं।।

रासे हरिमिह  ………………।।6।।ध्रुवं

 

विशद कदम्ब तले मिलितं कलि कलुष भयं शमयन्तं ।

मामपि किमपि तरङ्गदनंगदृशा मनसा रम्यंतं।।

रासे हरिमिह  ………………।।7।।ध्रुवं

 

श्री जयदेव भणितमतिसुन्दर मोहन मधुरिपु रूपं।

हरि चरण स्मरणं संप्रति पुण्यवतामनुरूपं ।।

रासे हरिमिह  ………………।।8।।ध्रुवं

 

इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चमः संदर्भः ।

इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चमः प्रबंधः  ।

 

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षष्टम प्रबंधः 

षष्टम संदर्भः

 

गणयति गुणग्रामं  भ्रामं भ्रमादपि नेहते

वहति च परितोषं दोषं विमुञ्चति दूरतः ।

युवतिषु वल्तृष्णे कृष्णे विहारिणी मां विना

पुनरपि मनो वामं कामं करोति करोमि किं।।1 ।।

 

गीतम ।। 6 ।। अष्टपदी 6

मालव गौड़ रागेन एक ताली टालें च गीयते 

( मालव राग तथा एकताली ताल के द्वारा यह गीत गया जाता है इसकी गति द्रुत है )

 

निभृत निकुंज गृहं गतया निशि रहसि निलीय वसंतं

चकित विलोकित सकल दिशा रति रभस भरेन हसन्तं ।।

सखि हे केशि मथन मुदारम।

रमय मया सह मदन मनोरथ भावितया सविकारम ।।1।। ध्रुवं ।।

 

प्रथम समागम लज्जितया पटु चाटु शतैरनुकूलम ।

मृदु मधुर स्मित भाषितया शिथिलीकृत जघन दुकूलम ।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।2।। ध्रुवं

 

किसलय शयन निवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानं ।

कृत परिरम्भण चुम्बनया परिरभ्य कृताधरपानं ।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।3।। ध्रुवं

 

अलस लोचनया निमीलित पुलकावलि ललित कपोलं।

श्रमजल सकल कलेवरया वरमदन मदादति लोलम ।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।4।। ध्रुवं

 

कोकिल कलरव कूजितया जित मनसिज तंत्र विचारम ।

श्लथ कुसुमाकुल कुंतलया नखलिखित घन स्तनभारं।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।5।। ध्रुवं

 

चरण रणित मणि नूपुरया परिपूरितं सुरत वितानं।

मुखर विश्रृंखल मेखलया सकच गृह चुम्बन दानं ।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।6।। ध्रुवं

 

रति सुख समय रसालसया दरमुकुलित नयन सरोजं ।

निःसह निपतित तनुलतया मधुसूदनमुदितमनोजं।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।7।। ध्रुवं

 

श्रीजयदेव भणितमिदमतिशय मधुरिपु निधुवन शीलं।

सुखमुत्कण्ठित गोपवधू कथितं वितनोतु सलीलं ।।

सखि हे केशीमथनमुदारम…………।।8।। ध्रुवं

 

हस्त स्रस्त विलास विलास वंशमनृजु भ्रुवल्लिमदवल्लवी

वृन्दोत्सारि दृगंत वीक्षितमति स्वेदार्द्र गण्डस्थलं।

मामुद्वीक्ष्य विलज्जित स्मित सुधा मुग्धाननं कानने

गोविन्दं व्रजसुन्दरीगण वृतं पश्यामि हृष्यामि च ।।1।।

 

दुरालोकः स्तोक स्तवक नवकाशोक लतिका 

विकाशः कासारोपवन पवनोपि व्यथयति ।

अपि भ्राम्यदभृङ्गी रणित रमणीया न मुकुल 

प्रसूतिश्चूतानां सखि शिखरिणीयं सुखयति।।2।।

 

साकूत स्मितमाकुलाकूल गलद्धम्मिल्ल मुल्लासित

भ्रु वल्लीकमलीक दर्शित भुजामूलार्द्धदृष्टस्तनम।

गोपीनां निभृतं निरीक्ष्य गमिता कांक्षश्चिरं चिन्तय

न्नन्तर्मुग्ध मनोहरं हरतु वः क्लेशं नवः केशवः ।।3।।

 

इति षष्टम संदर्भः – षष्टम प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे  शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ अक्लेशकेशवोनाम द्वितीयःसर्गः

 

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तृतीय सर्गः

मुग्ध मधुसूदनः

अथ सप्तमः संदर्भः

 सप्तमः प्रबंधः 

 

कंसारिरपि संसार वासना बंध श्रंखलां।

राधामाधाय हृदये तत्याज बृजसुंदरीः।।1।।

 

इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिकामनंग

बाण वृण खिन्न मानसः।

कृतानुतापः स कलिंदनंदिनी

तटांत कुञ्जे विषसाद माधवः ।।2

 

गीतम।।7।।अष्टपदी 7

गुर्जरी रागेन यति तालेन च गीयते 

(गुर्जरी राग और यति ताल के साथ गाया जाता है )

 

मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधु निचयेन।

सापराधतया मयापि न निवारिताति भयेन।।

हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव ।।1।। ध्रुवं

 

किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण ।

किं धनेन किं जनेन किं मम जीवितेन ग्रहेण।।

हरि हरि हतादरतया……….।।2।।ध्रुवं

 

चिन्तयामि तदाननं कुटिल भ्रु कोप भरेण।

शोणपद्ममिवोपरि भ्रमताकुलं भ्रमरेण।।

हरि हरि हतादरतया……….।।3।।ध्रुवं

 

तामहं हृदि संगतांनिशं भृशं रमयामि।

किं वनेअनुसरामि तामिह किं वृथा विलपामि

हरि हरि हतादरतया……………।।4।।ध्रुवं

 

तन्वि खिन्नमसूयया हृदयं तवाकलयामि ।

तन्न वेद्यमि कुतो गतासि तेन ते अनुनयामि

हरि हरि हतादरतया……………।।5।।ध्रुवं

 

दृश्यसे पुरतो गतागतमेव मे विदधासि।

किं पुरेव ससम्भ्रमं परिरम्भणं न ददासि

हरि हरि हतादरतया……………।।6।।ध्रुवं

 

क्षम्यतां कदापि तवेदृशं न करोमि ।

देहि सुंदरि दर्शनं मम मन्मथेन दुनोमि

हरि हरि हतादरतया……………।।7।।ध्रुवं

 

वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन  ।

केन्दुविल्व समुद्रसंभव रोहिणी रमणेन 

हरि हरि हतादरतया……………।।8।।ध्रुवं

 

हृदि विसलता – हारो नायं भुजङ्गम – नायकः

कुवलय – दल – श्रेणी कण्ठे न सा गरल – द्युतिः

मलयज – रजो नेदं भस्म – प्रिया – रहिते मयि

प्रहर न हर – भ्रान्त्या अनंग क्रुधा किमु धावासि ।।1।।

 

पाणौ मा कुरु चूत- शायकममुं मा चापमारोपय 

क्रीड़ा- निर्जित – विश्व ! मूर्च्छित – जनाघातेन किं पौरुषं ।

तस्या एव मृगीदृशो मनसिज ! प्रेंगखत्कटाक्षाशुग-

श्रेणी – जर्जरितं मनागपि मनो नाद्यापि सन्धुक्षते ।।2।।

 

भ्रू पल्लवं धनुरपाङ्ग – तरंगितानी

बाणा गुणः श्रवण – पालिरिति स्मरेण।

तस्यामनंग- जय – जङ्गम- देवताया-

मस्राणि निर्जित – जगन्ति किमर्पितानि।।3।।

 

भ्रूचापे निहितः कटाक्ष – विशिखो निर्मातु मर्मव्यथां

श्यामात्मा कुटिलः करोतु कबरी – भारो अपि मारोद्यमम्।

मोहन्ता वदयन्च तन्वि तनुतां विम्बाधरो रागवान

सद्वृत्तं स्तन – मण्डलं तव कथं प्राणैर्मम क्रीडति ।।4।।

 

तानि स्पर्श – सुखानि ते च तरलाः स्निग्धा दृशोर्विभ्रमा-

स्तद्वक्त्राम्बुज – सौरभं स च सुधास्यन्दी गिरां वक्रिमा ।

सा विम्बाधर – माधुरीति विषया सङ्गेपि चेनमानसं

तस्यां लग्न समाधि हन्त विरह – व्याधिः कथं वर्द्धते।।5।।

 

तिर्य्यक – कण्ठ – विलोल – मौलि – तरलोत्तम सस्य वंशोच्चरद 

गीति – स्थान – कृतावधान ललना – लक्षैर्न संलक्षिताः ।

संमुग्धं मधुसूदनस्य मधुरे राधामुखेन्दौ सुधा –

सारे कंदलिताश्चिरं ददतु वः क्षेमं कटाक्षोर्म्मयः ।।6।

 

( तृतीय सर्ग के अंतिम श्लोक में कवि ने  श्री राधा के वचनों को प्रमाणित किया है । गोपाङ्गनाओं के मध्य में अवस्थित श्रीकृष्ण को श्रीराधा दर्शन से भावानुभूति हुयी है उसी को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । कवि ने पाठकों और श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान किया है कि मुग्ध – मधुसूदन आपका कल्याण करें ।)

 

इति श्री गीत गोविन्दे सप्तम प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ मुग्धमधुसूदनो नाम तृतीयः सर्गः

 

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चतुर्थः सर्गः

स्निग्ध मधुसूदनः

अथ अष्टमः संदर्भः 

अष्टमः प्रबंधः 

 

यमुना – तीर – वानीर – निकुञ्जे मंदमास्थितं।

प्राह – प्रेम – भरोदभ्रान्तं माधवं राधिका – सखी।।1।।

 

गीतम 8-अष्टपदी 8

कर्णाट रागैक ताली तालाभ्यां गीयते 

( यह आठवां प्रबंध कर्णाट राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है । जब शिखिकण्ठ – नीलकण्ठ महादेव एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में एक विशाल गजदंत धारणकर दाहिने कंधे में रखकर चलते हैं , सुर – चारण आदि उनकी स्तुति करते हैं , ऐसे समय में कर्णाट राग प्रस्तुत होता है )

 

निन्दति चन्दनमिन्दु – किरणमनुविन्दति खेदधीरं।

व्याल – निलय – मिलनेन गरलमिव कलयति मलय – समीरं।।

सा विरहे तव दीना ।

माधव मनसिज – विशिख – भयादिव भावनया त्वयि लीना।।1।। ध्रुवं 

 

अविरल – निपतित – मदन – शरादिव भवदवनाय विशालं ।

स्वहृदय – मर्माणि वर्म करोति सजल – नलिनी – दल – जलं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।2।।ध्रुवं

 

कुसुम – विशिख – शर – तल्पमनल्प – विलास – कला – कमनीयं।

व्रतमिव तव परिरम्भ – सुखाय करोति कुसुम – शयनीयं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।3।।ध्रुवं

 

वहति च चलित – विलोचन – जलभरमानन – कमल मुदारं।

विधुमिव – विकट – विधुन्तुद – दन्त – दलन – गलितामृतधारं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।4।।ध्रुवं

 

विलिखति रहसि कुरङ्ग – मदेन भवन्तम समशर – भूतं।

प्रणमति मकरमध्ये विनिधाय करे च शरं नवचूतं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।5।।ध्रुवं

 

प्रतिपदमिदमपि निगदति माधव तव चरणे पतिता अहम् ।

त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनु राहं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।6।।ध्रुवं

 

ध्यान – लयेन पुरः परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापं ।

विलपति हसति विषीदति रोदति चंचति मुञ्चति तापं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।7।। ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयं।

हरि – विरहाकुल – वल्लव – युवति – सखी – वचनं पठनीयं।।

सा विरहे तव दीना ……….।।8।।ध्रुवं

 

आवासो विपिनायते प्रिय – सखी – मालापि जालायते

तापो अपि श्वसितेन दाव – दहन – ज्वाला – कलापायते ।

सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणी – रूपायते हा कथं

कंदर्पो अपि यमायते विरचयनशार्दुल – विक्रीड़ितं।।1।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे अष्टम प्रबंधः 

 

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अथ नवमः प्रबंधः 

अथ नवमः संदर्भः 

गीतं।।9।। अष्टपदी 9

देशाख रागैक ताली तालाभ्यां गीयते ।

(यहाँ नवें प्रबंध का प्रारम्भ होता है । यह गीत देशराग तथा एकताली से गाया जाता है ।)

 

स्तन – विनिहितमपि हार मुदारम,

सा मनुते कृश – तनुरिव भारं

राधिका विरहे तव केशव ।।1।। ध्रुवं

 

सरस – मसृणमपि मलयज – पङ्कम

पश्यति विषमिव वपुषि सशङ्कं-

राधिका विरहे………।।2।।ध्रुवं

 

श्वसित – पवनमनुपन – परिणाहं।

मदन – दहनमिव वहति सदाहं –

राधिका विरहे………।।3।।ध्रुवं

 

दिशि – दिशि किरति सजल – कण – जालं।

नयन – नलिनमिव विदलितनालं –

राधिका विरहे………।।4।।ध्रुवं

 

त्यजति न पाणि – तलेन कपोलं।

बाल – शशिनमिव सायमलोलं।।

राधिका विरहे………।।5।।ध्रुवं

 

नयन – विषयमपि किसलय – तल्पं ।

कलयति विहित – हुताशवि – कल्पं-

राधिका विरहे………।।6।।ध्रुवं

 

हरिरिति हरिरिति जपति सकामं।

विरह – विहित – मरणेव निकामं-

राधिका विरहे………।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणितमिति गीतं ।

सुखयतु केशव – पदमुपनीतं।।

राधिका विरहे………।।8।।ध्रुवं

 

सा रोमाञ्चति शीतकरोति विलपत्युत्कंपते ताम्यति 

ध्यायत्युद्भ्रमति प्रमीलति पतत्युद्याति मूर्च्छत्यपि ।

एतावत्यतनु- ज्वरे वरतनुर्जीवेन्न किं ते रसा –

त्स्वरवैद्य- प्रतिम ! प्रसीदसि यदि त्यक्तो अन्यथा हस्तकः।।1।।

 

स्मरातुरां दैवत – वैद्य – हृद्य ! त्वदङ्गसंगामृतमात्रसाध्यं।

निवृत्त बाधां कुरुषे न राधामुपेन्द्र ! व्रजादपि दारुणो असि।।2।।

 

कंदर्प – ज्वर – संज्वरातुर – तनोराश्चर्य मस्याश्चिरं

चेतश्चन्दनचंद्रमः – कमलिनी – चिंतासु संताम्यति 

किन्तु क्लान्तिवशेन शीतलतनुं त्वामेकमेव प्रियं

ध्यायन्तीं रहसि स्थिता कथमपि क्षीणां क्षणं प्राणिति ।।3।।

 

क्षणमपि विरहः पुरा न सेहे

नयन – निमीलन – खिन्नया यया ते ।

श्वसिति कथमसौ रसालशाखां

चिरविरहेण विलोक्य पुष्पिताग्रं।।4।।

 

वृष्टि – व्याकुल गोकुलावन – रसादुद्धृत्य गोवर्धनं

विभ्रदबल्लव – वल्लभिरधिकानंदाच्चिरं चुम्बितः 

दर्पेणेव तदार्पिताधर – तटी – सिन्दूर – मुद्रांकितो

बाहुर्गोप तनोस्तनोतु भवतां श्रेयांसि कंसद्विषः।।5।।

 

जिस शास्त्र के आदि , मध्य और अंत में मंगल होता है उस शास्त्र का प्रचुर प्रचार होता है । इस नियम के अनुसार कवि जयदेव ने ग्रन्थ के चतुर्थ सर्ग की समाप्ति पर आशीर्वादात्मक मंगलाचरण किया है कि श्रीकृष्ण की वे भुजाएं पाठकों और श्रोताओं का मंगल विधान करें ।

 

इति गीतगोविन्दे नवम संदर्भः | नवम प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे  शृङ्गारमहाकाव्ये श्रीकृष्णदासजयदेवकृतौ स्निग्धमधुसूदनोनाम चतुर्थः सर्गः

 

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पंचम सर्गः

आकांक्ष पुण्डरीकाक्षः

 दशमः प्रबंधः 

अथ दशमः संदर्भः 

 

अहमिह निवसामि याहि राधा –

मनुनय मद्वचनेन चानयेथाः ।

इति मधु – रिपुणा सखी नियुक्ता

स्वयमिदमेत्य पुनर्जगाद राधां।।1।।

 

गीतम 10- अष्टपदी 10

देशीवराडीरागेण रूप कतालेन गीयते ।। प्रबंधः ।।

(यह प्रबंध देशीवराड़ी राग से तथा रूपक ताल से गाया जाता है ।)

( सुकेशी नायिका जब हाथों में कंकण , कानों में देवपुष्प लगाए हुए हाथ में चंवर लिए वीजन करती हुयी निज दयित के साथ विनोदन करती है तब देशीवराड़ी राग प्रस्तुत होता है ।

 

वहति मलय – समीरे मदनमुपनिधाय,

स्फुटति कुसुमनिकरे विरहि – ह्रदय – दलनाय

सखि! सीदति तव विरहे वनमाली ।।1।। ध्रुवं

 

दहति शिशिरमयूखे मरणमनुकरोति।

पतति मदन – विशिखे विलपति विकलतरो अति ।।

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।2।।ध्रुवं

 

ध्वनति मधुप – समूहे श्रवणमपिदधाति।

मनसि कलित – विरहे निशि निशि रुजमुपयाति –

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।3।।ध्रुवं

 

वसति विपिन – विताने त्यजति ललित धाम ।

लुठति धरणि – शयने बहु विलपति तव नाम –

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।4।।ध्रुवं

 

रणति पिक समुदाय प्रति दिश मनुयाति।

हसति मनुज निचये विरहं पलपति नेति ।।

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।5।।ध्रुवं

 

स्फुरति कलरव रावे स्मरति भणित मेव ।

तव रतिसुख विभवे बहु गणयति गुणमतीव।।

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।6।।ध्रुवं

 

त्वदभिधशुभमासं वदति नरि शृणोति ।

तमपि जपति सरसं परयुवतिषु न रतिमुपैती  

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।7।।ध्रुवं

 

भणति कवि – जयदेव इति विरह – विलसितेन।

मनसि रभस – विभवे हरिरुदयतु सुकृतेन –

सखि! सीदति तव विरहे ………….।।8।।ध्रुवं

 

इति श्री गीत गोविन्दे दशमः संदर्भः

इति श्री गीत गोविन्दे दशमः प्रबंधः 

 

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 एकादश प्रबंधः 

एकादश संदर्भः

 

पूर्वं यत्र समं त्वया रतिपतेरासादिताः सिद्ध्य-

स्तस्मिन्नेव निकुंज – मन्मथ – महातीर्थे पुनर्माधवः।

ध्यायंस्त्वामनिशं जपन्नपि तवैवालाप – मंत्रावलीं

भूयस्त्वत्कुचकुम्भ – निर्भर परीम्भामृतं वाञ्छति।।1।।

 

गीतम 11- अष्टपदी 11

गुर्जरी रागेण एकताली तालेन गीयते

यह ग्यारहवां प्रबंध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है

 

रति – सुख – सारे गतमभिसारे मदन – मनोहर वेषम्।

न कुरु नितंबिनी ! गमन – विलम्बनमनुसर तं हृदयेशं।।

धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।

गोपी पीन पयोधर मर्दन चञ्चल कर युग शाली ।।1।। ध्रुवं

 

नाम – समेतं कृत – संकेतं वादयते मृदुवेणुं ।

बहु मनुते अतनु ते तनु – सङ्गतपवन – चलितमपि रेणुं।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।2।।ध्रुवं

 

पतति – पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कित – भवदुपयानं।

रचयति शयनं सचकित – नयनं पश्यति तव पन्थानं ।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।3।।ध्रुवं

 

मुखर मधीरं त्यज मंजीरं रिपुमिव केलिषु लोलम।

चल सखि ! कुंजं सतिमिर – पुंजं शीलय नील – निचोलं।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।4।।ध्रुवं

 

उरसि मुरारेरूपहित – हारे घन इव तरल – बलाके ।

तड़िदिव पीते ! रति – विपरीते राजसि सुकृत – विपाके ।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।5।।ध्रुवं

 

विगलित – वसनं परिहृत – रसनं घटय जघन मपिधानं ।

किशलय – शयने पङ्कज – नयने निधिमिव हर्ष – निधानं ।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।6।।ध्रुवं

 

हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामं।

कुरु मम वचनं सत्वर – रचनं पूरय मधुरिपु कामं –

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेवे कृत – हरि – सेवे भणति परम रमणीयं।

प्रमुदित – हृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृत – कमनीयं।।

धीर समीरे यमुना तीरे……….।।8।।ध्रुवं

 

( इस अष्टपदी के अंत में कवि जयदेव कहते हैं कि हे भागवतजन ! श्रीकृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले उन्होंने सुमधुर इस कथा – काव्य की रचना की है । अतः श्रीकृष्ण उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं । अपनी – अपनी स्फूर्ति के कारण जो सबकी कामना के विषय बने हुए हैं , ऐसे दया के सिंधु , परम रमणीय श्रीकृष्ण को आप सभी प्रमुदित ह्रदय से नमस्कार करें । )

 

विकिरति मुहुः कुश्वासानाशाः पुरो मुहुरीक्षते

प्रविशति मुहुः कुञ्जम गुञ्जन मुहुर्बहू ताम्यति ।

रचयति मुहुः शय्या पर्याकुलं मुहुरीक्षते 

मदन – कदन – क्लान्तः कांते ! प्रियस्तव वर्तते ।।1।।

 

त्वद्वाम्येन समं समग्र मधुना तिग्मांशुरस्तं गतो 

गोविन्दस्य मनोरथेन च समं प्राप्तं तमः सांद्रतां।

कोकानां करुणस्वनेन सदृशी दीर्घा मद्भयर्थना

तन्मुग्धे ! विफलं विलम्बनमसौ रम्यो अभिसार – क्षणः।।2।।

 

आश्लेषादनु चुम्बादनु नखोल्लेखादनु स्वांतज –

प्रोद्बोधादनु सम्भ्रमादनु रतारम्भादनु प्रीतयोः ।

अन्यार्थं गतयोर्भ्रमान्मिलितयोः सम्भाषणैर्जानतो

र्दंपत्योरिह को न को न तमसि व्रीड़ाविमिश्रो रसः ।।3।।

 

सभय – चकितं विन्यस्यन्तीं दृशौ तिमिरे पथि

प्रतितरू मुहुः स्थित्वा मन्दं पदानि वितन्वतीं।

कथमपि रहः प्राप्ता मंगैरनंग – तरङ्गिभिः 

सुमुखि ! सुभगः पश्यन स त्वामुपैतु कृतार्थतां।।4।।

 

राधा – मुग्ध – मुखारविंद – मधुपस्त्रैलोक्य – मौलि – स्थली

नेपथ्योचित – नील – रत्नमवनी – भारावतारान्तकः ।

स्वच्छन्दं व्रज – सुंदरी – जन – मनस्तोष प्रदोषोदयः

कंस – ध्वंसन – धूमकेतुरवतु त्वां देवकी – नन्दनः ।।5।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे एकादश प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये अभिसारिकावर्णने साकांक्षपुण्डरीकाक्षो नाम पञ्चमः सर्गः

 

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षष्ठः सर्गः

धृष्ट – वैकुण्ठः

द्वादश प्रबंधः 

द्वादशः संदर्भः 

 

अथ तां गन्तुंशक्तां चिरमनुरक्तां लतागृहे दृष्ट्वा ।

तच्चरितं गोविन्दे मनसिजमंदे सखी प्राह।।1।।

 

गीतम 12 | अष्टपदी 12

गुणकरी रागेण रूप कतालेन गीयते 

यह बारहवाँ प्रबंध गुणकारी ताल तथा रूपक ताल द्वारा गाया जाता है ।

 

पश्यति दिशि – दिशि रहसि भवन्तं ।

तदधर – मधुर – मधूनि पिवन्तम ।।

नाथ हरे ! सीदति राधा आवासगृहे ।।1।। ध्रुवं

 

त्वदभिसरण – रभसेन वलंति ।

पतति पदानि कियंति चलन्ति।।

नाथ हरे ! सीदति ……….।।2।।ध्रुवं

 

विहित – विशद – विस – किसलय – वलया।

जीवति परमिह तव रति – कलया –

नाथ हरे ! सीदति ……….।।3।।ध्रुवं

 

मुहरवलोकित – मण्डन – लीला ।

मधुरिपुरहमिति भावन – शीला –

नाथ हरे ! सीदति ……….।।4।।ध्रुवं

 

त्वरितमुपैति न कथंभिसारं।

हरिरिति वदति सखी मनुवारं-

नाथ हरे ! सीदति ……….।।5।।ध्रुवं

 

श्लिष्यति चुम्बति जलधर – कल्पं।

हरिरूपगत इति तिमिरमनल्पं-

नाथ हरे ! सीदति ……….।।6।।ध्रुवं

 

भवति विलम्बिनी विगलित – लज्जा ।

विलपति रोदति वासक – सज्जा –

नाथ हरे ! सीदति ……….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – कवेरिद मुदितं ।

रसिकजनं तनुतामति मुदितं –

नाथ हरे ! सीदति ……….।।8।।ध्रुवं

 

विपुल – पुलक – पालिः स्फीत – सीत्कारमंत –

र्जनितजड़िमु काकु – व्याकुलं व्याहरन्ति ।

तव कितव ! विधायामंद – कंदर्प – चिन्तां

रस – जलनिधि – मग्ना ध्यानलग्ना मृगाक्षी ।।1।।

 

अंगेष्वाभरणं करोति बहुशः पत्रे अपि संचारिणि

प्राप्तं त्वां परिशंकते वितनुते शय्यां चिरं ध्यायति ।

इत्याकल्प – विकल्प – तल्प – रचना – संकल्पलीला – शत –

व्यासक्तापि विना त्वया वर्तनुर्नैषा निशां नेष्यति ।।2।।

 

किं विश्राम्यसि कृष्ण – भोगि – भवने भाण्डीर – भूमीरुहे ।

भ्रातर्याहि न दृष्टि – गोचराभितः सानंद – नंदास्पदं।।

राधाया वचनं तदध्वग – मुखानंदान्तिके गोपतो।

गोविन्दस्य जयति सायमतिथि – प्राशस्त्य – गर्भा गिरः ।।3।।

 

( महाकवि श्रीजयदेव इस श्लोक के द्वारा आशीर्वाद देते हुए इस षष्टम सर्ग का उपसंहार करते हैं । सायंकाल के अतिथि की प्रशंसा से युक्त श्रीगोविन्द की वाणियों की जय हो। जय – जयकार से श्रीकृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है ।)

 

इति श्रीगीतगोविन्दे द्वादशः संदर्भः । द्वादश प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये वासकसज्जावर्णने धृष्ट – वैकुण्ठो नाम षष्ठः सर्गः ।

 

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सप्तमः सर्गः

नागर – नारायणः

त्रयोदशः प्रबंध 

त्रयोदशः संदर्भः 

 

अत्रान्तरे स कुलटा – कुल – वर्त्म – पात

सञ्जात – पातक इव स्फुट – लाञ्छन – श्रीः ।

वृन्दावनान्तरमदीपयदंशु – जालै-

र्दिक्सुंदरी – वदन – चन्दन – बिंदुरिन्दः ।।1।।

 

प्रसरति शशधर – बिम्बे विहित – विलम्ब च माधवे विधुरा ।

विरचित – विविध – विलापं सा परितापं चकोरोच्चैः ।।2।।

 

गीतम 13 | अष्टपदी 13

मालवराग – यतितालाभ्यां गीयते 

(यह तेरहवां प्रबंध मालव राग तथा यति ताल में गाया जाता है )

 

कथित – समये अपि हरिरहह न ययौ वनं।

मम विफलमिदंमलमपि रूप यौवनं ।।

यामि हे ! कमिह शरणं सखीजन – वचन – वंचिता ।।1।। ध्रुवं

 

यदनुगमनाय निशि गहनमपि शीलितं।

तेन मम ह्रदयमिदंसमशर – कीलितं-

यामि हे ! कमिह…………।।2।।ध्रुवं

 

मम मरणमेव वरमिति – वितथ – केतना ।

किमिति विषहामि विरहानलमचेतना- 

यामि हे ! कमिह…………।।3।।ध्रुवं

 

मामहह विधुरयति मधुर – मधु – यामिनी ।

कापि हरिमनुभवति कृत – सुकृत – कामिनी –

यामि हे ! कमिह…………।।4।।ध्रुवं

 

अहह कलयामि वलयादि – मणि – भूषणं।

हरि – विरह – दहन – वहनेन बहु – दूषणं –

यामि हे ! कमिह…………।।5।।ध्रुवं

 

कुसुम – सुकुमार – तनुमतनु – शर लीलया ।

स्रगपि हृदि हन्ति मामितिविषम – शीलया –

यामि हे ! कमिह…………।।6।।ध्रुवं

 

अहमिह निवासामि न गणित – वनवेतसा ।

स्मरति मधुसूदनो यामपि न चेतसा –

यामि हे ! कमिह…………।।7।।ध्रुवं

 

हरि – चरण – शरण – जयदेव – कवि – भारती।

वसतु हृदि युवतिरिव कोमल – कलावती –

यामि हे ! कमिह…………।।8।।ध्रुवं

 

( जयदेव कवि कहते हैं कि उनके रक्षक एकमात्र श्रीकृष्ण के चरण ही हैं । उनसे अलग उनका और कोई रक्षक ही नहीं है । यह कविता भक्तों के ह्रदय में उसी प्रकार स्थान प्राप्त करे जिस प्रकार कोमल वपूवाली तथा श्रंगार आदि रसवर्धिनी छह कलाओं से विशिष्ट कोई सुंदरी अपने नायक के ह्रदय में विराजती है । जैसे लावण्य विभूषिता कोई नायिका अपने नायक के मन को अत्यधिक आनंद प्रदान किया करती है उसी प्रकार यह काव्य भक्तों के ह्रदय को भी आनंदित करे – यह कवि की कामना है ।)

 

तत्किं कामपि कामिनीमभिसृतः किं व कलाकेलिभि

र्बद्धो बंधुभिरंधकारिणि वनाभ्यर्णे किमुदभ्राम्यति।

कान्त ! क्लान्त्मना मनागपि पथि प्रस्थातु मेवाक्षमः

संकेतीकृत – मञ्जु – वञ्जुल – लता – कुञ्जे अपि यन्नागतः।।1।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे त्रयोदशः प्रबंधः 

 

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 चतुर्दशः प्रबंध 

अथ चतुर्दशः संदर्भः 

हरिरमितचम्पकशेखर

 

अथागतं माधवमन्तरेण सखीमियं वीक्ष्य विषादमूकाम ।

विशंकमना रमितं कयापि जनार्दनं दृष्टवदेतदाह।।1।।

 

गीतम 14| अष्टपदी 14

वसंतरागयतितालाभ्यां गीयते

(यह चौदहवां प्रबंध वसंत राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है )

 

समर – समरोचित – विरचित – वेशा,

दलित – कुसुम – दर विलुलित केशा ।

कापि मधुरिपुणा

विलसति युवतिरधिकगुणा।।1।। ध्रुवं

 

हरि – परिरम्भण – वलित – विकारा।

कुच – कलशोपरि तरलित – हारा ।।

कापि मधुरिपुणा ………….।।2।।ध्रुवं

 

विचलदल – कललितानन – चंद्रा।

तदधर – पान – रभस – कृत – तन्द्रा ।।

कापि मधुरिपुणा ………….।।3।। ध्रुवं

 

चञ्चल – कुण्डल – ललित – कपोला ।

मुखरित – रसन – जघन – गति – लोला ।।

कापि मधुरिपुणा ………….।।4।। ध्रुवं

 

दयित – विलोकित – लज्जित – हसिता ।

बहुविध – कूजित – रति – रस – रसिता-

कापि मधुरिपुणा ………….।।5।। ध्रुवं

 

विपुल – पुलक – पृथु – वेपथु – भङ्गा।

श्वसति – निमीलित – विकसदनंगा-

कापि मधुरिपुणा ………….।।6।।ध्रुवं

 

श्रमजल – कण – भर – सुभग – शरीरा ।

परिपतितोरसि रति रण – धीरा।।

कापि मधुरिपुणा ………….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणित – हरि – रमितं।

कलि – कलुष जनयतु परिशमितं –

कापि मधुरिपुणा ………….।।8।।ध्रुवं

 

( गीतगोविन्द के इस चौदहवें प्रबंध का नाम हरिरमितचम्पकशेखर है । इस प्रबंध में विपरीत रति का वर्णन है । यह पाठकों और श्रोताओं के कलिदोषजन्य काम – विकार का प्रक्षालन करे । )

 

इति श्री गीत गोविन्दे चतुर्दशः संदर्भः | चतुर्दशः प्रबंधः 

 

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पंचदशः प्रबंधः 

पञ्चदशः संदर्भः 

 

विरह – पाण्डु – मुरारि – मुखाम्बुजद्युतिरयं तिरयन्नपि वेदनां।

विधुरतीव तनोति मनोभुवः सुहृदये हृदये मदनव्यथां।।1।।

 

गीतम 15 | अष्टपदी 15

गुर्जरीरागैकतालीतालेन गीयते

(गीत – गोविन्द काव्य का यह पन्द्रहवां प्रबंध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है )

 

समुदित – मदने रमणी – वदने चुम्बन – वलिताधरे ।

मृगमदतिलकं लिखति सपुलकं मृगमिव रजनीकरे।।

रमते यमुना – पुलिन – वने विजयी मुरारिरधुना।।1।। ध्रुवं

 

घनचय – रुचिरे रचयति चिकुरे तरलित – तरुणानने।

कुरुबक – कुसुमं चपला – सुषमं रतिपति – मृग – कानने –

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।2।। ध्रुवं

 

घटयति सुधने कुच – युग – गगने मृगमद – रूचिरुषिते।

मणिसरममलं तारक – पटलं नख – पद – शशि – भूषिते ।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।3।।ध्रुवं

 

जित – विस – शकले मृदु – भुज – युगले करतल – नलिनी – दले।

रकत – वलयं मधुकर – निचयं वितरति हिम – शीतले।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।4।।ध्रुवं

 

रति – गृह – जघने विपुलापघने मनसिज – कनकासने।

मणिमय – रसनं तोरण – हसनं विकिरति कृत – वासने ।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।5।।ध्रुवं

 

चरण – किसलये कमला – निलये नख – मणिगण – पूजिते ।

बहिरपवर्णं यावक – भरणं जनयति हृदि योजिते ।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।6।।ध्रुवं

 

रमयति सुभृशं कामपि सुदृशं खलहलधरसोदरे ।

किमफलमवसं चिरमिह विरसं वद सखी ! विटपोदरे।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।7।।ध्रुवं

 

इस रस – भणने कृत – हरि – गुणने मधुरिपु – पद – सेवके।

कलि – युग – रचितं न वसतु दुरितं कविनृप जयदेवके ।।

रमते यमुना – पुलिन वने ……………।।8।।ध्रुवं

 

( श्रीजयदेव इस अष्टपदी की संरचना में स्वयं को मधुरिपु के सेवकों में सर्वश्रेष्ठ मानकर यह प्रार्थना करते हैं कि इस गीति को सुनने वालों में कलियुग के दूषणीय चरित्र प्रविष्ट न हों । ‘ हरगुणने ‘ का तात्पर्य है कि श्रीहरि की कथाओं का अभ्यास करने वाले कविराज जयदेव । इस प्रबंध में आयी कवि की सभी उक्तियाँ रस की उद्दीपना करने वाली हैं । इस रस की अभिव्यक्ति से कलियुग के प्रभाव से तामसी चित्तवृत्तियाँ ह्रदय में प्रविष्ट नहीं हो पाती हैं । इस प्रबंध का नाम हरिरससमन्मथतिलक है , जिसे प्रबंधराज कहा गया है । यह द्रुत ताल एवं द्रुत लय से गाया जाता है । इसकी राग मल्हार है ।)

 

इति पञ्चदशः संदर्भः | इति पंचदशः प्रबंधः 

 

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षोडशः प्रबंधः 

षोडशः संदर्भः 

नारायण मदनायास

 

नायातः सखि ! निर्दयो यदि शठस्त्वं दूति ! किं दूयसे ?

स्वच्छन्दं बहुवल्लभः स रमते , किं तत्र ते दूषणं ?

पश्याद्य प्रिय- सङ्गमाय दयितस्याकृष्यमाणं गुणै

रुत्कण्ठार्ती भरादिव स्फुटदिदं चेतः स्वयं यास्यति ।।1।।

 

गीतम 16 | अष्टपदी 16

देशवराडीरागेण रूपकतालेन गीयते 

( गीतगोविन्द काव्य का यह सोलहवां प्रबंध देशवराड़ी राग और रूपक ताल में गाया जाता है )

 

अनिल – तरल – कुवलय – नयनेन।

तपसि न सा किसलय – शयनेन।।

सखि ! या रमिता वनमालिना ।। ध्रुवपदं।।1।।

 

विकसित – सरसिज – ललित – मुखेन ।

स्फुटति न सा मनसिज – विशिखेन –

सखि ! या रमिता ………….।।2।।ध्रुवं

 

अमृत – मधुर – मृदुतर – वचनेन।

ज्वलति न सा मलयज – पवनेन।।

सखि ! या रमिता ………….।।3।।ध्रुवं

 

स्थल – जलरुह – रूचि – कर – चरणेन ।

लुठति न सा हिमकर किरणेन ।।

सखि ! या रमिता ………….।।4।।ध्रुवं

 

सजल – जलद – समुदय – रुचिरेण।

दहति न सा हृदि विरह – दवेन ।।

सखि ! या रमिता ………….।।5।।ध्रुवं

 

कनक – निकष – रूचि – शुचि – वसनेन।

श्वसिति न सा परिजन – हसनेन ।।

सखि ! या रमिता ………….।।6।।ध्रुवं

 

सकल – भुवन – जन – वर – तरुणेन।

वहति न सा रुजमति – करूणेन।।

सखि ! या रमिता ………….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणित – वचनेन ।

प्रविशतु हरिरपि हृदयमनेन।।

सखि ! या रमिता ………….।।8।।ध्रुवं

 

( जयदेव कवि द्वारा माधव के उद्देश्य से गाये गए इस प्रबंध से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ह्रदय में प्रवेश करें । किसके ह्रदय में ? श्रीराधा के ह्रदय में । साथ ही कारण – रंध्र द्वारा मेरे – कवि जयदेव के , इस प्रबंध के पाठकों के तथा श्रोताओं के भाव रुपी ह्रदय – कमल में भी प्रवेश करें । नागर नारायण हरि ह्रदय में अवस्थित हों ।)

 

मनोभवानंदन चंदनानिल!

प्रसीद रे दक्षिण ! मुञ्च वामतां।

क्षणं जगत्प्राण ! विधाय माधवं ।

पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि ।।1।।

 

रिपुरिव सखी – संवासो अयं शिखीव हिमानिलो

विषमिव सुधा रश्मिर्यस्मिन दुनोति मनोगते ।

हृदयमदये तस्मिन्नेवं पुनर्वलते बलात् – 

कुवलय – दृशां वामः कामो निकाम निरंकुशः।।2।।

 

बाधां विधेहि मलयानिल ! पंचबाण !

प्राणान्गृहाण न गृहं पुनराश्रयिष्ये।

किं ते कृतांतभगिनी ! क्षमया तरङ्गे-

रँगानि सिञ्च मम शाम्यतु देहदाहः ।।3।।

 

प्रातर्नील – निचोलमच्युतमुर संवीत पीतांशुकं

राधायाश्चकितं विलोक्य हसति स्वैरं सखिमंडले।

ब्रीडाचंचलमञ्चलं नयनयोराधाय राधानने 

स्मेरस्मेरमुखो अयमस्तु जगदानन्दाय नन्दात्मजः ।।4।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे षोडश संदर्भः । षोडशः प्रबंधः 

इस प्रकार नारायण मदनायास नाम का या सोलहवां प्रबंध समाप्त हुआ ।

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये वासकसज्जावर्णने नागर-नारायणो नाम सप्तमःसर्गः

 

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अष्टमः सर्गः

लक्ष्मीपति – रत्नावली

सप्तदशः प्रबंधः

सप्तदशः संदर्भः 

( इस गीत गोविन्द काव्य के अष्टम सर्ग का नाम ” लक्ष्मीपति – रत्नावली” है । इसमें मेघराग है ।)

 

अथ कथमपि यामिनीं विनीय

स्मरशरजर्जरितापि सा प्रभाते ।

अनुनयवचनं वदन्तमग्रे

प्रणतमपि प्रियमाह साभ्यसूयं।।1।।

 

गीतम 17 | अष्टपदी 17

भैरवीरागयतितालाभ्यां गीयते 

( गीत गोविन्द काव्य का यह सत्रहवाँ प्रबंध भैरव – राग तथा यति ताल से गाया जाता है )

 

रजनि – जनित – गुरु – जागर – राग – कषायितमलस – निमेषें।

वहति नयनमनुरागमिव स्फुटमुदित – रसाभिनिवेशं ।।

हरि हरि याहि माधव याहि केशव मा वद कैतववादं

तामनुसर सरसीरुहलोचन या तव हरति विषादं ।। ध्रुवं ।।1।।

 

कज्जल – मलिन – विलोचन – चुम्बन – विरचित – नीलिम – रूपं।

दशन – वसनमारुणं तव कृष्ण ! तनोति तनोरनुरूपं।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।2।।ध्रुवं

 

वपुरनुहरति तव स्मर – संगर-  खरनखरक्षत – रेखं।

रकत – शकल – कलित – कलधौत – लिपेरिव रति – जयलेखं ।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।3।।ध्रुवं

 

चरणकमल गलदल लक्तक – सिक्तमिदं तव ह्रदयमुदारं ।

दर्शयतीव बहिर्मदन – द्रुम – नव – किसलय – परिवारं।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।4।।ध्रुवं

 

दशन – पदम् भवदधर – गतं मम जनयति चेतसि खेदं ।

कथयति कथमधुनापि मया सह तव वपुरेतदभेदं ।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।5।।ध्रुवं

 

बहिरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनो अपि भविष्यति नूनं ।

कथमथ वंच्यसे जनमनुगतमसमशरज्वरदूनं।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।6।।ध्रुवं

 

भ्रमति भवानवला – कवलाय वनेषु किमत्र विचित्रं।

प्रथयति पूतनिकैव वधू – वध – निर्दय – बाल – चरित्रं।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणित – रति – वञ्चित – खण्डित – युवति – विलापं ।

शृणुत सुधा – मधुरं विबुधा ! विबुधा लयतो अपि दुरापं ।।

हरि हरि याहि माधव……………..।।8।।ध्रुवं

 

तवेदं पश्यन्त्यः प्रसरदनुरागं बहिरिव ।

प्रिया – पाद – लक्त – च्छुरितमरुणद्योति –  हृदयँ ।।

ममाद्य प्रख्यातप्रणयभरभङ्गेन कितव।

त्वदालोकः  शोकादपि किमपि लज्जां जनयति।।1।।

 

अंतर्मोहन – मौलि – घूर्णन – चलन्मन्दार – विस्रंशन

स्तब्धाकर्षण – दृष्टिहर्षण – महामन्त्रः कुरङ्गी दृशां।

दृपयद्दानव – दूयमान – दिविषद – दुर्वार – दुःखापदां

भ्रंशः कंसरिपोहव्यापोअवतु वः श्रेयांसि वंशीरवः।।2।।

 

इति सप्तदशः संदर्भः | इति सप्तदशः प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये खण्डितावर्णने विलक्षणलक्ष्मीपतिर्नाम अष्टमः सर्गः

 

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नवमः सर्गः

(मुग्ध – मुकुन्दः )

अष्टादशः प्रबंधः 

 अष्टादशः संदर्भः 

 

तामथ मन्मथ – खिन्नां रति – रस – भिन्नां विषाद – सम्पन्नां।

अनुचिंतित – हरि – चरितां कलहांतरितामुवाच रहसि सखी ।।1।।

 

गीतम 18 | अष्टपदी 18

गुर्जरीराग – यतितालाभ्यां गीयते

( गीत गोविन्द काव्य का प्रस्तुत अठारवाँ प्रबंध गुर्जरी राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है )

 

हरिरभिसरति वहति मधुपवने

किमपरमधिकसुखं सखि ! भवने।।1।।

माधवे मा कुरु मानिनी । मानमये ।। ध्रुवं ।।

 

ताल – फलादपि गुरुमतिसरसं

किं विफली कुरुषे कुच – कलशं?

माधवे ………………..।।2।।ध्रुवं

 

कति न कथितमिदमनुपदमचिरं ।

मा परिहर हरिमतिशय – रुचिरं।।

माधवे ………………..।।3।।ध्रुवं

 

किमति विषीदासि रोदिषि विकला ?

विहसति युवति सभा तव सकला।।

माधवे ………………..।।4।।ध्रुवं

 

सजल – नलिनीर्दल – शीलितशयने ।

हरिमवलोकय सफलय नयने ।।

माधवे ………………..।।5।।ध्रुवं

 

जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदं?

श्रणु मम वचनमनीहित भेदं।।

माधवे ………………..।।6।।ध्रुवं

 

हरिरूपयातु वदतु बहु – मधुरं ।

किमिति करोषि ह्रदयमतिविधुरं ।।

माधवे ………………..।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणितमति – ललितं।

सुखयतु रसिकजनं हरि – चरितं ।।

माधवे ………………..।।8।।ध्रुवं

 

स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति – स्तब्धासि यद्रागिणी

द्वेषस्थासि यदुन्मुखे विमुखतां यातासि तस्मिन् – प्रिये ।

तद्युक्तं विपरीतकारिणी तव श्रीखंडचर्चा विषं

शीतांशुस्तपनो हिमं हुतवहः क्रीडामुदो यातनाः ।।1।।

 

सान्द्रानन्द – पुरन्दरादि – दिविषदवृन्दैर मंदादरा-

दानम्र मुकुटेंद्र नीलमणिभिः संदर्शितेन्दिन्दिरं ।

स्वच्छन्दं मकरंद – सुन्दर – गलन्मन्दाकिनी – मेदुरं

श्रीगोविन्दपदारविन्दमशुभस्कंदाय वन्दामहे ।।2।।

 

इति अष्टादश संदर्भः | इति अष्टादशः प्रबंधः 

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये खण्डितावर्णने मुग्धमुकुन्दो नाम नवमः सर्गः

 

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दशमः सर्गः

चतुरचतुर्भुजः

 उन्नीसवां प्रबंध 

ऊनविंश संदर्भः 

 

अत्रान्तरे मसृण – रोष – वशामसीम –

निःश्वासनिः सहमुखीं सुमुखीमुपेत्य।

सव्रीडमीक्षितसखीवदनां प्रदोषे

सानंद गदगदपदम् हरिरित्युवाच ।।1।।

 

गीतम 19 | अष्टपदी 19

देशवराडीरागाष्टतालीतालाभ्यां गीयते 

( गीतगोविन्द काव्य का यह उन्नीसवां प्रबंध देशवराडी राग तथा अष्टताली ताल में गाया जाता है )

 

वदसि यदि किञ्चिदपि दन्त – रूचि – कौमुदी

हरति दर – तिमिरमति धोरं ।

स्फुरदधर – शीधवे तव वदन – चन्द्रमा 

रचयतु लोचन चकोरं।।1।।

प्रिये ! चारुशीले !

मुञ्च मयि मानमनिदानं।

सपदि मदनानलो दहति मम मानसं

देहि मुखकमल – मधुपानं । ध्रुवपदं।।

 

सत्यमेवासि यदि सुदति मयि कोपिनी देहि खरनयनशरघातं।

घटय भुजबन्धनं जनय रदखंडनं येन वा भवति सुखजातं ।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।2।।ध्रुवं

 

त्वमसि मम भूषणं त्वमसि मम जीवनं ,

त्वमसि मम भव – जलधि – रत्नं।

भवतु भवतीह मयि सतत मनुरोधिनी ,

तत्र मम हृदयमतियत्नं ।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।3।।ध्रुवं

 

नीलनलिनाभमपि तन्वि तव लोचनं धारयति कोकनद – रूपं।

कुसुमशरबाणभावेन यदि रंजयसि कृष्णमिदमेतदनुरूपं ।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।4।।ध्रुवं

 

स्फुरतु कुचकुम्भयोरुपरि मणिमञ्जरी रञ्जयतु तव – हृदयदेशं।

रसतु रसनापि तव घन – जघनमण्डले घोषयतु – मन्मथनिदेशं।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।5।।ध्रुवं

 

स्थल – कमलगंजनं मम ह्रदय – रंजनं जनित – रति – रङ्गपर भागं।

भ्रण मसृण वाणि करवाणि चरणद्वयं सरस – लसदलक्तकरागं ।।

प्रिये चारुशीले  ……………..।।6।।ध्रुवं

 

स्मर – गरल – खंडनं मम शिरसि मंडनं देहि पद पल्लव मुदारं ।

ज्वलति मयि दारुणो मदन – कदनानलो हरतु तदुपाहितविकारं।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।7।।ध्रुवं

 

इति चटुल – चाटु – पटु – चारु  मुरवैरिणो राधिकामधि वचन – जातं ।

जयति पद्मावती रमण जयदेव कवि भारती भणितमतिशातं।।

प्रिये चारुशीले ……………..।।8।।ध्रुवं

 

( इस प्रकार मुरवैरी श्रीकृष्ण की यह वचनावली जो श्रीराधा को अभिलिषित करके सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रकाशित हुई है , वे सब प्रकार से जययुक्त हों । अपनी परम प्रेयसी श्रीराधा के मान – अपमान हेतु ये वाक्य समूह अति समर्थ एवं परम सुखप्रद हैं । इस मनोहर अष्टपदी में चतुर एवं प्रिय मीठी बातों का ही संकलन है , पद्मावती अर्थात श्रीराधा – श्रीकृष्ण के ऊपर विजयिनी हों और विजयी हों । भारती से भूषित , पद्मावती – पति जयदेव , इसी अष्टपद में कवि जयदेव की स्फूर्ति को श्रीकृष्ण ने जयदेव के वेश में स्वयं लिपिबद्ध किया है । यह गीत गीतगोविन्द का उनीसवाँ प्रबंध है , इस प्रबंध का नाम चतुर्भुजरागराजितचंद्रोद्योत है ।)

 

परिहर कृतातंके ! शंका त्वया सततं घन

स्तनजघनया क्रान्ते स्वान्ते परानवकाशिनी ।

विशति वितनोरन्यो धन्यो न को अपि ममान्तरं

प्रणयिनी ! परीरम्भारम्भे विधेहि विधेयताम।।1।।

 

मुग्धे विधेहि मयि निर्दय – दंतदंश

दोरवल्लि – बंध – निबिडस्तन – पीडनानि।

चंडी ! त्वमेव मुदमुञ्च न पंचबाण-

चांडाल – काण्ड – दलनादसवः प्रयांतु ।।2।।

 

शशिमुखि ! तव भाति भंगुर भ्रू ,

र्युवजनमोह – कराल कालसर्पी।

तदुदित – भय – भञ्जनाय यूनां

त्वदधर – सीधु – सुधैव सिद्धमंत्रः।।3।।

 

व्यथयति वृथा मौनं तन्वि! प्रपंचय पंचमं ,

तरुणि मधुरालापैस्तापं विनोदय दृष्टिभिः ।

सुमुखि ! विमुखी भावं तावद्विमुञ्च न मुञ्च

मां स्वयमतिशयस्निग्धो मुग्धे । प्रियो अयमुपस्थितः।।4।।

 

बंधूकद्युति – बांधवोअयंधरः स्निग्धो मधूकच्छवि-

चकास्ति नील – नलिन श्रीमोचने लोचनं ।

र्गण्डश्चण्डि ! नासाभ्येति तिल – प्रसून – पदवीं कुंदाभदन्ति !

प्रिये !

प्रायस्त्वन्मुख – सेवया विजयते विश्वं स पुष्पायुधः ।।5।।

 

दृशौ तव मदालसे वदनमिन्दु – संदीपनं

गतिर्जन – मनोरमा विजितरम्भ मुरुद्वयं ।

रतिस्तव कलावती रुचिरचित्रलेखे भुवा –

वहो विबुध – यौवतं वहसि तन्वि ! पृथ्वीगता ।।6।।

 

प्रीतिं वस्तनुतां हरिः कुवलयापीडेन सार्धं रणे

राधा – पीन – पयोधर – स्मरण कृतकुम्भेन सम्भेदवान।

यत्र स्विद्यति मीलति क्षण क्षिपते द्विपे तत्क्षणात 

कंसस्यालमभूत जितं जितमिति व्यामोह – कोलाहलः ।।7।।

 

इति एकोनविंशः संदर्भः | उनीसवाँ प्रबंध समाप्त 

इति श्रीगीतगोविन्दे शृङ्गारमहाकाव्ये राधावर्णने मुग्धमाधवो नाम दशमः सर्गः

 

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एकादश सर्गः

सामोद – दमोदरः

 बीसवां प्रबंध 

अथ विंशः संदर्भः

 

सुचिर मनुनयेन प्रीणयित्वा मृगाक्षीं

गतवति  कृतवेशे केशवे कुञ्जशय्यां ।

रचित – रुचिर – भूषां दृष्टि मोषे प्रदोषे

स्फुरति निरवसादां कापि राधाम जगाद ।।1।।

 

गीतम 20 | अष्टपदी 20

वसंतरागयतितालाभ्यां गीयते

( श्रीगीतगोविन्द काव्य का यह बीसवां प्रबंध वसंत राग तथा यति ताल में गाया जाता है )

 

विरचित – चाटु – वचन – रचनं चरणे रचित – प्रणिपातं।

सम्प्रति मञ्जुल – वञ्जुल – सीमनि केलि – शयनमनुयातं।।

मुग्धे ! मधु – मथनमनुगतमनुसर राधिके ! ।।1।। ध्रुवं

 

घन – जघन- स्तन – भार भरे ! दरमंथरचरणविहारं।

मुखरित – मणिमञ्जीरमुपैहि विधेहि मरालनिकारं।।

मुग्धे ……………..।।2।। ध्रुवं

 

श्रणुरमणीयतरं तरुणीजनमोहन – मधु – रिपु – वरावं।

कुसुम – शरासन – शासन – वंदिनी पिकनिकरे भज भावं ।।

मुग्धे ……………..।।3।। ध्रुवं

 

अनिल – तरल – किसलय – निकरेण करेण लता निकुरम्बं।

प्रेरणमिव करभोरु ! करोति गतिम् प्रति मुञ्च विलम्बं।।

मुग्धे ……………..।।4।। ध्रुवं

 

स्फुरित – मनंग – तरंग – वशादिव सुचित हरि – परिरम्भं।

पृच्छ मनोहर – हार – विमल – जलधारममुं कुचकुम्भं।।

मुग्धे ……………..।।5।। ध्रुवं

 

अधिगतमरिवल – सखीभिरिदं तव वपुरपि रति – रण – सज्जम।

चण्डी ! रणित – रसना – रव – डिण्डिममभिसर सरस मलज्जम।।

मुग्धे ……………..।।6।। ध्रुवं

 

स्मर – शर – सुभग – नखेन सखीमवलम्ब्य करेण सलीलं ।

चल वलय क्वणितैरवबोधय हरिमपि निजगतिशीलं।।

मुग्धे ……………..।।7।। ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणितमधरीकृत – हारमुदासितरामं।

हरि – विनिहित – मनसामधितिष्ठतु कंठतटीमविरामं।।

मुग्धे ……………..।।8।। ध्रुवं

 

सा मां द्रक्ष्यति वक्ष्यति स्मरकथां प्रत्यङ्ग मालिंगनैः ।

प्रीतिं यास्यति रंस्यते सखि समागत्येति सञ्चिन्त्यं।।

स त्वां पश्यति वेपते पुलक यत्यानन्दति स्विद्यति।

प्रत्युद्गच्छति मूर्च्छति स्थिर तमः पुन्जे निकुंजेप्रियः ।।1।।

 

अक्ष्णोर्निक्षिपदंजनं श्रवणयोस्तापिच्छ गुच्छावलीं।

मूर्द्धिन श्यामसरोजदामकुचयोः कस्तूरिका – पत्रकं।।

धूर्त्तानामभिसार – सत्वर – हृदां विष्वङ्गनिकुञ्जे सखि ।

ध्वान्तं नील – निचोल – चारु सुदृशां प्रत्यङ्ग मालिङ्गति।।2।।

 

काश्मीर – गौर – वपुषा मभिसारिकाणा –

माबद्ध – रेखमभितो रूचि मंजरीभिः ।

एतत्तमालदल – नील – तमं तमिस्रं

तत्प्रेम – हेम – निकषोंपलतां तनोति ।।3।।

 

हारावली – तरल – काञ्चन – काञ्चि – दाम

मञ्जीर – कंकण – मणि – द्युति – दीपितस्य ।

द्वारे निकुञ्ज – निलयस्य हरिं विलोक्य 

व्रीडावतीमथ सखीमियमित्युवाच ।।4।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे विंशः प्रबंधः 

श्रीहरितालराजिजलधरविलसित नाम का यह बीसवाँ प्रबंध पूरा हुआ ।

 

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 इकीसवाँ प्रबंध 

इकीसवाँ सन्दर्भ |

गीतम 21 | अष्टपदी 21

वराडीरागरूपकतालाभ्यां गीयते

 

मञ्जुतर – कुञ्जतल – केलिसदने।

विलस रतिरभसहसितवदने ! ।।1।।

प्रविश राधे ! माधवसमीपमिह । ध्रुवं पदम् ।

 

नव – भवदशोक- दल – शयन – सारे

विलस कुचकलशतरल हारे !

प्रविश…………….।।2।।ध्रुवं

 

कुसुमचय – रचित – शुचि – वासगेहे ।

विलस कुसुम – सुकुमार – देहे ।।

प्रविश…………….।।3।।ध्रुवं

 

मृदुचल – मलय – पवन – सुरभि – शीते।

विलस मदन – शर – निकर – भीते ।।

प्रविश…………….।।4।।ध्रुवं

 

वितत – बहु – वल्लि – नव – पल्लव – घने

विलस चिरमलस – पीनजघने !

प्रविश…………….।।5।।ध्रुवं

 

मधु – मुदित – मधुपकुल – कलित – रावे ।

विलस मदन – रस – सरस – भावे ।।

प्रविश…………….।।6।।ध्रुवं

 

मधुरतर – पिक – निकर – निनद – मुखरे।

विलस दशन – रूचि – रुचिर – शिखरे।।

प्रविश…………….।।7।।ध्रुवं

 

विहित – पद्मावती – सुख – समाजे।

कुरु मुरारे ! मङ्गलशतानि।

भणति जयदेव – कविराज – राजे ।।

प्रविश…………….।।8।।ध्रुवं

 

( कवि जयदेव इस अष्टपदी को श्रीहरि चरणों में समर्पित करते हुए कहते हैं – हे मुरारे ! जयदेव कविराज के इस गीत को श्रवण कर आप सबका हजारों प्रकार से मङ्गल विधान करें । लक्ष्मी जी का एक नाम पद्मावती है , जयदेव की पत्नी का नाम भी पद्मावती है । पद्मावती के आराधक हैं जयदेव जो कविराजों में सर्वश्रेष्ठ हैं । अतः कविराजवर श्रीहरि से प्रार्थना करते हैं – हे मुरारे ! मैंने प्रसाद के अंतर में पद्मावती की प्रतिष्ठा की है , आपकी प्रसन्नता के लिए यह कविता की है , आप प्रसन्न होवें और हमारा शतशः  मङ्गल करें । अथवा श्रीजयदेव स्वयं श्रीराधा से अनुरोध कर रहे हैं – जो लक्ष्मी की सारी सम्पदा , सारा सुख लेकर आज उपस्थित हैं , आप उन मुरारी के लिए सौ – सौ प्रकार के मङ्गल विधान करें । उनका मङ्गल तुम्हारे साथ रमण ही है । )

 

त्वां चित्तेन चिरं वहन्नयमतिश्रान्तो भृशं तापितः 

कंदर्पेण च पातुमिच्छति सुधा – सम्बाध – विम्बाधरं।

अस्याकं तदलंकुरु क्षणमिह भ्रूक्षेप – लक्ष्मीलव-

क्रीते दास इवोपसेवित – पदाम्भोजे कुतः सम्भ्रमः ।।1।।

 

सा ससाध्वस – सानन्दं गोविन्दे लोललोचना ।

सिञ्जान – मञ्जु – मंजीरं प्रतिवेश निवेशनं।।2।।

 

इति एकविंशः संदर्भः | इकीसवाँ प्रबंध समाप्त 

 

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 बाईसवाँ प्रबंध 

बाईसवां सन्दर्भ 

सानंद गोविंदराग श्रेणी कुसुमाभरण

गीतम 22 | अष्टपदी 22

वराड़ीरागयतितालाभ्यां गीयते

 

राधा – वदन – विलोकन – विकसित – विविध – विकार – विभङ्गम।

जलनिधिमिव विधु – मण्डल – दर्शन – तरलित – तुङ्ग – तरङ्गम।।1।।

हरिमेकरसं चिरंभिलषित – विलासं।

सा ददर्श गुरुहर्ष – वशंवद वदनमनंग – निवासं।। ध्रुवपदं।।

 

हारममलतर – तारमुरसि दधतं परिलम्ब्य विदूरं।

स्फुटतर फेन – कदम्ब – करंबित मिव यमुनाजल – पूरं।।

हरि …………………।।2।।ध्रुवं

 

श्यामल – मृदुल – कलेवर – मण्डलमधिगत – गौरदुकूलं ।

नील – नलिनमिव पीत – पराग – पटल – भर – वलयित – मूलं ।।

हरि …………………।।3।।ध्रुवं

 

तरल – दृगञ्चल – चलन – मनोहर – वदन – जनित – रति – रागं।

स्फुट – कमलोदर – खेलित – खञ्जन – युगमिव शरदि तडागम ।।

हरि …………………।।4।।ध्रुवं

 

वदन – कमल – परिशीलन – मिलित – मिहिर – सम- कुण्डल – शोभं।

स्मित – रूचि – कुसुम – सुमुल्लसिताधर – पल्लव – कृत – रति – लोभं।।

हरि …………………।।5।।ध्रुवं

 

शशि – किरण – च्छुरितोदर – जलधर – सुन्दर – सुकुसुम – केशं ।

तिमिरोदित – विधुमंडल – निर्मलमलयज – तिलकनिवेशं।।

हरि …………………।।6।।ध्रुवं

 

विपुल – पुलक – भर – दन्तुरितं रति – केलि – कलाभिरधीरं।

मणिगण – किरण – समूह – समुज्ज्वल – भूषण – सुभग – शरीरं।।

हरि …………………।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेवकवि – भणित – विभव – द्विगुणीकृत – भूषणभारं।

प्रणमत हृदि विनिधाय हरिं सुचिरं सुकृतोदय – सारं।।

हरि …………………।।8।।ध्रुवं

 

( चिरकाल से संचित पुण्योदय के तत्वरूप श्रीकृष्ण को चित्त में धारण कर उन्हें प्रणाम कीजिये । बड़े पुण्यों से ऐसे श्रीकृष्ण मन में उदित होते हैं , वे श्रीराधा के संग से जुड़कर द्विगुणित भूषण के भार से श्रीराधा से जुड़कर द्विगुणित हो जाते हैं । ऐसे श्रीकृष्ण जिन्हें श्रीराधा निरंतर देख रही हैं , नित्यकाल के लिए ह्रदय में विराजमान हो जाएं । )

 

अति क्रम्यापांगं श्रवणपथपर्यन्तगमन-

प्रयासेनेवाक्ष्णोस्तरलतरतारं पतितयोः ।

तदानीं राधायाः प्रियतम – समालोकसमये

पपात स्वेदाम्बुप्रकर इव हर्षाश्रुनिकरः।।1।।

 

भजन्त्यस्तल्पान्तं कृत – कपट – कण्डूति – पिहित –

स्मितं याते गेहाद बहिरबहिताली – परिजने।

प्रियास्यं पश्यंत्याः स्मरशर – समाहूत – सुभगं

सलज्जा लज्जापि व्यगमदिव दूरं मृगदृशः ।।2।।

 

सानन्दं नन्दसूनुर्दिशतु मितपरं सम्पदं मन्दमन्दं

राधामाधाय बाह्वोर्विवरमनु दृढं पीडयन्प्रीति योगात ।

तुंगौ तस्या उरोजावतनु वर्तनोर्निगतौ मा सम भूतां

पृष्ठं निर्भिद्य तस्माद् बहिरिति वलित ग्रीव मालोक्यन्वः।।3।।

 

जयश्री – विन्यस्तैर्महित इव मंदार कुसुमैः

स्वयं सिंदूरेण द्विप – रण – मुदा मुद्रित इव ।

भुजापीड़ – क्रीड़ाहत – कुवलयापीड – करिणः

प्रकीर्णा सृग्बिन्दुर्जयति भुजदण्डो मुरजितः।।4।।

 

सौन्दर्यैकनिधेरनंग – ललना – लावण्य – लीलाजुषो

राधाया हृदि पल्वले मनसिज क्रीड़ैकरंगस्थले

रम्योरोजसरोजखेलनरसित्वादात्मनः ख्यापय –

न्ध्यातुर्मानसराजहंसनिभतां देयान्मुकुंदो मुदं।।5।।

 

बाईसवां सन्दर्भ समाप्त | बाईसवां प्रबंध समाप्त 

श्रीगीतगोविंद के काव्य के इस बाइसवें प्रबंध का नाम ‘ सानंद गोविंदराग श्रेणी कुसुमाभरण’ है।

 

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द्वादशः सर्गः

( सुप्रीत – पीताम्बरः )

तेइसवां प्रबंध

त्रयोविंश सन्दर्भ 

 

गतवति सखीवृन्देअमंदत्रपाभर – निर्भर –

स्मरशरशाकूतस्फीतस्मितस्नपिताधरां

सरसमनसं दृष्ट्वा राधा मुहुर्नवपल्लव –

प्रसवशयने निक्षिप्ताक्षीमुवाच हरिः प्रियां।।1।।

 

सखीवृन्द के लता – कुञ्ज से बाहर चले जाने पर अत्यधिक लज्जा से परिपूर्ण श्रीराधा कामदेव के वशीभूत हो गयीं । उनके अधरोष्ठ स्मित से सुशोभित हो गए , रतिक्रीड़ा के लिए अनुरागवती हो नव – पल्लवों एवं कुसुमों से रचित शय्या को पुनः – पुनः अवलोकन करने लगीं । अपनी प्रिया को ऐसा करते देख कर श्रीकृष्ण ने कहा ।।1।।

 

गीतम 23| अष्टपदी 23

विभासरागैकतालीतालाभ्यां गीयते ।। प्रबंधः ।।23

( गीतगोविन्द काव्य के इस 23वें प्रबंध को विलास राग तथा एक ताली ताल से गाया जाता है )

 

किसलय – शयन – तले कुरु कामिनि ! चरण – नलिन – विनिवेशं।

तव – पद – पल्लव – वैरि पराभवमिदमनुभवतु सुवेशं ।।1।।

क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर राधिके ! ध्रुवपदं

 

कर – कमलेन करोमि चरण – महमाग मितासि विदूरं।

क्षणमुपकुरु शयनोपरि मामिव नूपुरमनुगतिशूरं।।

क्षणमधुना ………………….।।2।।ध्रुवं

 

वदन – सुधानिधि – गलितंमृतमिव रचय वचन मनुकूलं।

विरहमिवापनयामि पयोधर – रोधकमुरसि दुकूलं।।

क्षणमधुना ………………….।।3।।ध्रुवं

 

प्रिय – परिरम्भण – रभस – वलितमिव पुलकितमति दुरवापं।

मदुरसि कुचकलशं विनिवेशय शोषय मनसिज – तापं।।

क्षणमधुना ………………….।।4।।ध्रुवं

 

अधर – सुधारसमुपनय भामिनि ! जीवय मृतमिव दासं।

त्वयि विनिहित – मनसं विरहानलदग्धपुषमविलासं।।

क्षणमधुना ………………….।।5।।ध्रुवं

 

शशिमुखि ! मुखरय मणिरशनागुणमनुगुणकंठनिनादं।

श्रुति – युगले पिकरुतविकले पुर शमय चिरादवसादं।।

क्षणमधुना ………………….।।6।।ध्रुवं

 

मामतिविफलरुषा विकलीकृतमवलोकितुमधुनेदं ।

मिलतिलज्जितमिव नयनं तव विरमविसृजसि रतिखेदं ।।

क्षणमधुना ………………….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – भणितमिदंनुपद – निगदितमधुरिपु – मोदं ।

जनयतु रसिकजनेषु मनोरम रतिरस भाव – विनोदं।।

क्षणमधुना ………………….।।8।।ध्रुवं

 

प्रत्यूहः पुलकांकुरेण निविडाश्लेषे निमेषेण च

क्रीडाकूत – विलोकितेअधर – सुधापाने कथा – नर्मभिः ।

आनन्दाधिगमेन मन्मथ – कला – युद्धेअपि यस्मिन्नभू-

दुद्भुतः स तयोर्बभूव सुरतारम्भः प्रियं भावुकः।।1।।

 

दोर्भ्यां संयमितः पयोधर – भरेणापीड़ितः पाणिजै

राविद्धो दशनैः क्षताधरपुटः श्रोणीतटेनाहतः।

हस्तेनानमितः कचेअधरसुधापानेन सम्मोहितः

कान्तः कामपि तृप्तिमाप तदहो कामस्य वामा गतिः ।।2।।

 

मारांके रति – केलि – संकुल – रणारम्भे तया साहस –

प्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि यत्सम्भ्रमात ।

निष्पंदा जघनस्थली शिथिलता दोर्वल्लि रुत्कम्पितं

वक्षो मीलितमक्षि पौरुषरसः स्रीणां कुतः सिध्यति ।।3।।

 

तस्याः पाटल – पाणिजांकितमुरो निद्राकषाये दृशौ

निर्धोतोधर – शोणिमा विलुलिताः स्रस्तस्रजो मूर्धजाः ।

काञ्चीदाम दरश्लथाञ्चलमिति प्रातर्निखातै दृशौ –

रेभिः कामशरैस्तदद्भुतम भूत्पत्युर्मनः कीलितं।।4।।

 

व्यालोलः केशपाशस्तरलितमलकैः स्वेदलोलौ कपोलौ

क्लिष्टा दृष्टाधरश्रीः कुचकलशरुचा हारिता हारयष्टिः ।

काञ्चीकाञ्चिदगताशां स्तनजघनपदम् पाणिनाच्छाद्यासद्यः

पश्यन्ति सत्रपा मां तदपि विलुलित स्रग्धरेयन्धिनोति।।5।।

 

ईषन्मीलितदृष्टि मुग्धविलसत्सीत्कारधारावशा

दव्यक्ताकुलकेलिकाकुविकसद्दंतांशुधौताधरं।

शांतस्तब्धपयोधरं भृशपरिस्वङ्गात्कुरङ्गीदृशो

हर्षोत्कर्षविमुक्तनिः सहतनोर्धन्यो धयत्याननं ।।6।।

 

अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका।

निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डन वाञ्छया।।

अथ सहसा सुप्रीतं सुरतान्ते सा नितांत खिन्नांगी ।

राधा जगाद सादरमिदमानन्देन गोविन्दं।।7।।

 

इति श्री गीत गोविन्दे त्रयोविंश सन्दर्भ | तेइसवां प्रबंध समाप्त 

 

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 चौबीसवाँ प्रबंध 

चतुर्विंशः सन्दर्भः 

गीतम 24| अष्टपदी 24

रामकरीरागयतितालाभ्यां गीयते

 

कुरु यदुनंदन ! चन्दनशिशिरतरेण कारेण पयोधरे

मृगमद – पत्रकमत्रमनोभवमङ्गलकलशसहोदरे ।।1।।

निजगाद सा यदुनन्दने क्रीड़ति हृदयानंदने ।। ध्रुवपदं।।

 

अलिकुल – गञ्जन – संजनकं रतिनायक – शायक – मोचने ।

त्वदधर – चुम्बन – लंबित – कज्जलमुज्ज्वलय प्रियालोचने ।।

निज …………………….।।2।।ध्रुवं

 

हे मनोहरवेशधारिन !

नयन – कुरंग – तरंग – विकास – निरासकरे श्रुतिमंडले।

मनसिज – पाश विलासधरे शुभवेश निवेशय कुंडले।।

निज …………………….।।3।।ध्रुवं

 

भ्रमरचयं रचयन्तमुपरि रुचिरं सुचिरं मम सम्मुखे ।

जित – कमले विमले परिकर्मय नर्मजनककमलकं मुखे।।

निज …………………….।।4।।ध्रुवं

 

मृगमद – रस – वलितं ललितं कुरु तिलकमलिक – रजनीकरे ।

विहित – कलंक – कलं कमलानन ! विश्रमित – श्रमशीकरे।।

निज …………………….।।5।।ध्रुवं

 

मम रुचिरे चिकुरे कुरु मानद ! मनसिज – ध्वज – चामरे ।

रति – गलिते ललिते कुसुमानि शिखंडी – शिखंडक- डामरे।।

निज …………………….।।6।।ध्रुवं

 

सरस – घने जघने मम शम्बर – दारण – वारण – कंदरे ।

मणि – रसना – वसनाभरणानि शुभाशय ! वासय सुंदरे।।

निज …………………….।।7।।ध्रुवं

 

श्रीजयदेव – वचसि रुचिरे सदयं हृदयं कुरु मण्डने।

हरिचरण – स्मरणामृत – निर्मित – कलि – कलुष – ज्वर – खण्डने।।

निज …………………….।।8।।ध्रुवं

 

(यह वाणी हरि – चरणों के स्मरण का अमृत है जो कलिकाल के कलुषित ज्वर के रोष को शांत करने वाला है । हरि – चरण – स्मरण – अमृत ही सभी पापों का खंडन करने वाला है । यह अमृत ही कवि जयदेव की वाणी है । इस काव्य वर्षामृत की स्मृति ही सबका कल्याण करने वाली है ।)

 

रचय कुचयो पत्रश्चित्रं कुरुष्व कपोलयोः

घटय जघने कांचीं मुग्धस्रजा कबरीभरं ।

कलय वलय श्रेणीं पादौ पदे कुरूनपुरा-

विति निगदितः प्रीतः पीताम्बरो अपि तथा करोत ।।1।।

 

यदगांधर्व – कलासु कौशलमनुध्यानं च यद्वैष्णवं

यच्छृङ्गार विवेक – तत्त्व – रचना – काव्येषु लीलायितं।

तत्सर्वं जयदेव पंडित – कवेः कृष्णैकतानात्मनः

सानन्दाः परिशोधयन्तु सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः।।2।।

 

साध्वी माध्वीक ! चिंता न भवति भवतः शकरे कर्कशासि।

द्राक्षे द्रस्यन्ति के त्वाममृत ! मृतमसि क्षीर ! नीरं रसस्ते ।

माकंद ! क्रन्द कान्ताधर ! धर न तुलां गच्छ यच्छति भावं 

यावच्छृङ्गार शुभमिव जयदेवस्य वैदग्ध्य वाचः ।।3।।

 

इत्थं केलिततीर्विहृत्य यमुनाकूले समं राधया 

तद्रोमावलि – मौक्तिकावलि – युगे वेणी भ्रमं विभ्रति ।

तत्राह्लादि – कुच – प्रयागफलयोर्लिप्सावतोर्हस्त्या

व्यार्पाराः पुरुषोत्तमस्य ददतु स्फीतां मुदा सम्पदं ।।4।।

 

पर्यङ्कीकृत – नाग – नायक – फणा – श्रेणी मणीनां गजे

संक्रांत – प्रतिबिम्ब – संकलनया विभ्रदविभू – प्रक्रियां।

पादोम्भोरूहधारि – वारिधि सुतामक्ष्मां दिदृक्षुः शतैः

कायव्यूहमिवाचरन्नुपचितीभूतो हरिः पातु वः।।5।।

 

त्वामप्राप्य मयि स्वयम्बरपरां क्षीरोद – तीरोदरे

शंके सुंदरि ! कालकूटमपिविमूढ़ो मृडानीपतिः

इत्थं पूर्वकथाभिरन्य मनसो विक्षिप्य वक्षोंचलं 

पद्मायाः स्तनकोरकोपरि मिलन्नेत्रो हरिः पातु वः ।।6।।

 

श्रीभोज – देव – प्रभवस्य रामा – देवीसुत श्रीजयदेवकस्य।

पराशरादिबंधुवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविंदकवित्वमस्तु ।।7।।

 

(श्रीभोजदेव और श्रीरामदेवी ( श्रीराधादेवी ) के पुत्र श्रीजयदेव  ने भगवान के प्रिय भक्तों पराशर आदि प्रिय मित्रों के कंठ में मुखरित विभूषित होने के लिए और प्रखरित होकर गगन में अनुगुंजित होने के लिए इस पदावली की रचना की है । रसरूप श्रीकृष्ण के स्मरण में अनोखे लीला चित्र भक्त हृदयों में सदैव सुशोभित रहें , प्रिय – प्रियतर – प्रियतम – प्राण सर्वस्व बन जावें ।)

 

इति चतुर्विंशति सन्दर्भः | चौबीसवाँ प्रबंध समाप्त 

इति श्री जयदेव कृतौ गीत गोविन्दे सुप्रीत पीताम्बरो नाम द्वादशः सर्गः समाप्तः 

 

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श्री जयदेव जी का जन्म “किन्दुबिल्व” नाम के ग्राम में हुआ भोजदेव इनके पिता और राधादेवी इनकी माता थी । ये ब्राह्मण कुल के थे और वैराग्य तो ऐसा कि ग्रह त्याग के बाद वन में भी एक वृक्ष के तले एक दिवस से ज्यादा नहीं ठहरते और निर्वाह के लिए केवल एक गुदड़ी थी और एक कमंडलु था।

जयदेव जी द्वारा रचित “श्री गीतगोविन्द” काव्य के सम्पूर्ण अंगों का, नवो रसो का, सरसश्रृंगार का रत्नाकर समुद्र ही है। गीत गोविंद की अष्ट पदियाँ जो कोई अभ्यास करता है उसकी बुद्धि बढती है। जो सप्रेम गान करता है तो श्री राधा वल्लभ जी वहाँ सुनने के लिए प्रसन्न होकर प्रकट या गुप्त रूप से अवश्य ही आते है।

एक बार एक ब्राह्मण श्री जगन्नाथ को अपनी कन्या प्रतिज्ञापूर्वक देने को कह गया । जब उस कन्या की आयु विवाह के योग्य हुई तो उसको देने के लिए वह विप्र श्री जगन्नाथ जी के पास लाया । प्रभु की आज्ञा हुई कि जयदेव जी नामक भक्त मेरे ही स्वरुप है सो आप इसी समय जयदेव के घर जाये और उन्हें मेरी आज्ञा सुनाएं और अपनी बेटी उन को दे दो अर्थात इसका विवाह उनसे कर दो ।

जयदेव जी उस ब्राह्मण की कन्या से बोले कि तुम अपने योग्य वर और निर्वाह आदि को विचार करो और जैसा उचित है वैसा करो। ब्राह्मण अपनी कन्या को लेकर जहाँ कविराज जयदेव जी बैठे हुए प्रभु का स्मरण कर रहे थे वही जाकर प्रार्थना करने लगे कि महाराज यह मेरी कन्या है और मैं इसे आपको अर्पण करता हूँ । इसका पाणि ग्रहण कीजिये।

जयदेव जी ने कहा – जो अधिकारी हो और गृहस्थाश्रम का विस्तार करे उसे अपनी कन्या दीजिये । ब्राह्मण ने कहा – यदि मैं अपनी इच्छा से विवाह करता तो अवश्य विचार करता परन्तु मैं तो श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा से आपको कन्या दे रहा हूँ पर इन्होंने स्वीकार नहीं किया। तब ब्राह्मण ने अपनी अपनी कन्या से कहा कि तू इन्हीं के पास बैठी रह क्योंकि श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा मुझसे टाली नहीं जाती। ऐसा कह कन्या को बैठा कर ब्राह्मण चल दिए।

पद्मावती जी बोली – में तो पिता के द्वारा दान देने से और प्रभु आज्ञा से आपको श्री जगन्नाथ ही जान अपना सर्वस्व न्यौछावर कर आपकी हो चुकी। तब वे कुटिया बनाकर उनके साथ रहने लगे।

एक बार प्रभु प्रेरणा से जयदेव जी के ह्रदय में आया कि मैं प्रभु चरित्रमय एक नवीन पुस्तक बनाऊँ । एक दिन भावावेश में जयदेव जी ने देखा कि यमुना तीर पर कदम्ब के नीचे भगवान श्रीकृष्ण मुरली हाथ में लिए मुस्कुरा रहे हैं । तभी उनके मुख से यह गीत निकला—‘मेधैर्मेदुरमस्वरं वनभुव श्यामास्तमालद्रुमै’ । बस यहीं से ‘गीत गोविन्द’ काव्य का आरम्भ हो गया । इसमें प्रभु की श्रृंगार रस से पूरित ललित लीलाओं का वर्णन है । जयदेव जी जब ‘गीत गोविंद’ लिख रहे थे, तब एक बार उनके मन में श्रीराधिका के मान का प्रसंग आया । उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिया के चरणकमलों को अपने मस्तक का भूषण बता कर प्रार्थना की कि इन्हें मेरे मस्तक पर रख दीजिए ।

 जब जयदेव गीत गोविन्द लिख रहे थे तो एक प्रसंग उन के हृदय में आया- “स्मर-गरल-खंडन, ममशिरसि मंड़न देहि पदपल्लवमुदाराम”,

अर्थात भगवान राधा जी से कह रहे है – हे प्रिय ! कन्दर्प का विष खंडन करने वाला, और मेरे मस्तक का मेरे मस्तक का मंडल भूषण अपने चरण कमलों को मेरे सिर पर रखो’   इस भाव का पद जयदेव जी के हृदय में आया पर उसे मुख से कहते हुए तथा अपनी पत्नी पद्मावती द्वारा ग्रंथ में लिखाते हुए वे सोच-में पड़ गए कि इस गुप्त रहस्य को कैसे प्रकट किया जाए ?  इस कारण कविता का अन्तिम चरण (पंक्ति) पूरा नहीं हो पा रहा था ।  

जयदेव जी की पत्नी पद्मावती ने कहा–’अब स्नान का समय हो गया है, लिखना बन्द करके आप स्नान कर आएं ।’

जयदेव जी ने कहा–’पद्मा ! मैंने एक गीत लिखा है, पर इसका अन्तिम चरण ठीक नहीं बैठता । मैं क्या करुँ ?’

पत्नी ने कहा—‘इसमें घबराने की कौन-सी बात है, गंगा-स्नान से लौट कर शेष चरण लिख लीजियेगा ।’

पत्नी के स्नान के लिए जाने पर जोर देने पर वे गंगा-स्नान को चले गए । कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले–’पद्मा ! जरा ‘गीत गोविन्द’ देना ।’

पद्मा ने आश्चर्यचकित होकर कहा–’आप स्नान करने गए थे न ? बीच से ही कैसे लौट आए ?’

महामायावी किन्तु भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’रास्ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया ।’

पद्मावती ने कलम और दवात ला दिए । जयदेव-वेषधारी भगवान ने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ लिखकर कविता पूरी कर दी । फिर पद्मावती से जल मंगाकर स्नान किया और पद्मावती के हाथ का भोजन ग्रहण कर पलंग पर विश्राम करने लगे ।

पद्मावती भगवान की पत्तल में बचा प्रसाद पाने लगी । इतने में ही गंगा-स्नान करके जयदेव जी लौट आए । पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती चौंक गयी । जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर आश्चर्यचकित हो गए ।

जयदेव ने पूछा–’पद्मा, आज तुम मुझे भोजन कराए बिना कैसे भोजन कर रही हो ?’

पद्मावती ने कहा–’यह आप क्या कह रहे हैं ? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिए रास्ते से ही लौट आए थे । कविता पूरी करने के बाद अभी तो स्नान-पूजन के बाद भोजन करके आप लेटे थे ।’

जयदेव जी ने जाकर देखा, पलंग पर कोई नहीं सो रहा था । वे समझ गए आज अवश्य ही भक्तवत्सल भगवान की कृपा हुई है । फिर उन्होंने भगवान द्वारा लिखा कविता का शेष चरण देखा तो अचंभित रह गए कि जैसा उन्होंने सोचा था वैसा ही श्लोक लिखा हुआ पाया । मन-ही-मन कहा–’यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था ।’ पत्नी से पूछा तो पत्नी ने बताया कि आप स्वयं ही तो आए थे और इसे लिखकर वापिस स्नान करने चले गए। इस पर जयदेव जी समझ गए कि स्वयं भगवान यह पंक्तियाँ लिख कर गए हैं।

फिर वे दोनों हाथ उठा कर रोते-रोते पुकारने लगे—‘हे कृष्ण ! हे नंदनन्दन ! हे राधाबल्लभ ! हे ब्रजांगमाधव ! हे गोकुलरत्न ! हे करुणासिंधु ! हे गोपाल ! हे प्राणप्रिय ! आज किस अपराध से इस किंकर को त्याग कर केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया है ?’

इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे । पद्मावती ने उन्हें अपनी जूठन खाने से रोका भी; पर प्रभु प्रसाद के लोभी जयदेव जी ने उसकी एक न सुनी ।

इस घटना के बाद जयदेव जी संकोच छोड़ कर उसी गीत को गाते हुए मस्त घूमा करते और उस गीत को सुनने के लिए नंदनन्दन उनके पीछे-पीछे छिपकर चलते रहते थे ।

भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है, जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा । न मन्दिर है न जंगल । न धूप है न चैन । है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है । यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है । 

 

एक बार एक माली की लड़की खेत में बैंगन तोड़ते हुए ‘गीत गोविन्द’ के पांचवे सर्ग की इस अष्टपदी को गा रही थी—

 

“ना कुरु नितम्बिनि गमन विलम्बनमनुसर तं ह्र्दयेशम् ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली “

गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥1॥

 

अर्थ – “दुति श्री राधिका जी से कहती है कि हे नितम्बिनि! अब गमन में विलम्ब मत करो उन प्राणप्रिया के समीप चलो वे वनमाली वन विषे यमुना के कूल में धीर समीर कुंज में बसते है” इसी पद को सुनते हुए उस माली की कन्या के पीछे-पीछे श्री जगन्नाथ जी झीना जामा पहने डोलने लगे और जब वह तान छेड़ती तो प्रेम मादकता से झूमते ‘बहुत अच्छा’ कहते थे।

उसके मधुर गीत को सुनने के लिए भगवान जगन्नाथ उस लड़की के पीछे-पीछे घूमने लगे । उस समय भगवान ने अत्यंत महीन ढीली पोशाक धारण की हुई थी, जो कांटों में उलझ कर फट गई । लड़की का गाना खत्म होने पर जगन्नाथ जी मंदिर में पधारे तो उनके फटे वस्त्रों को देख कर पुरी का राजा, जो उनके दर्शन के लिए आया था, बड़ा आश्चर्यचकित हुआ ।

राजा ने पुजारियों से पूछा—‘ठाकुरजी के वस्त्र कैसे फट गए ?’

पुजारियों ने कहा—हमें तो कुछ मालूम नहीं, यह कैसे हुआ ?’

तब भगवान ने स्वयं सब बात पुजारी को स्वप्न में बता दी । राजा ने भगवान की ‘गीत गोविन्द’ के पदों को सुनने की रुचि जान कर उस बालिका को पालकी भेज कर बुलाया  । उस बालिका ने भगवान के सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदी को गाकर सुनाया । तब से राजा ने मंदिर में नित्य ‘गीत गोविन्द’ के गायन की व्यवस्था कर दी । साथ ही पुरी में ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे कोई अमीर हो या गरीब; सभी ‘गीत गोविंद’ की अष्टपदियों का इस भाव से गायन करें कि स्वयं सुगल सरकार श्रीराधाकृष्ण इसे सुन रहे हैं ।

जगन्नाथपुरी के एक अन्य राजा ने श्रीकृष्ण-लीलाओं की पुस्तक बनवा कर उसका नाम भी ‘गीत गोविन्द’ रख दिया । राजा के चापलूस ब्राह्मण सब जगह यह प्रचार करने लगे कि यही असली ‘गीत गोविन्द’ है । असली पुस्तक का निर्णय करने के लिए दोनों ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तकें भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रख दी गईं । दूसरे दिन जब पट खुले तो भगवान ने राजा की पुस्तक दूर फेंक दी और जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ की पुस्तक को अपनी छाती से चिपका रखा था ।

यह देख कर राजा समुद्र में डूबने चला । तब भगवान ने आकाशवाणी की कि तुम समुद्र में मत डूबो । तुम्हारी पुस्तक के बारह श्लोक जयगेव कृत ‘गीत गोविन्द’ के बारह सर्गों में लिखे जाएंगे; जिससे तुम्हारी प्रसिद्धि भी संसार में फैल जाएगी ।

ऐसा माना जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियों का जो कोई नित्य पठन और गान करे, उसकी बुद्धि पवित्र और प्रखर होकर दिन-प्रतिदिन बढ़ती है । साथ ही इन अष्टपदियों का जहां प्रेम से गायन होता है, वहां उन्हें सुनने के लिए श्रीराधाकृष्ण अवश्य विराजते हैं और प्रसन्न होकर कृपा-वृष्टि करते हैं ।

भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।

 

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जयदेव जी के आश्रम से गंगा जी अठारह कोस दूर थी परन्तु प्रभु कृपा से वे नित्य ही गंगा स्नान करते थे। जब इनका शरीर वृद्ध हो गया तब भी गंगा स्नान का नियम नहीं छोड़ा । ऐसा प्रेम देख गंगा जी को उन पर दया आयी । इसलिए गंगा जी ने इन्हें रात्रि में आज्ञा दी कि अब वृद्ध शरीर से नित्य स्नान को मत जाईये। इस हठ को छोड़ कर ध्यान ही से मेरा स्नान किया करो परन्तु जा उन्होंने गंगा जी की बात नहीं मानी तब गंगा जी ने कहा कि देखो ! तुम्हारे आश्रम के निकट की नदी में ही मैं आऊँगी उसी में स्नान किया करो।

जयदेव जी ने पूछा – मैं कैसे जानूं कि आप आई हो ?

तो श्री गंगा जी ने कहा – देखो उस नदी में कमल नहीं है किन्तु जब उस नदी में सुन्दर कमल के फूल देखो तो जान जाना कि मैं आ गई हूँ। जयदेव जी ने दूसरे दिन देखा तो तो उस नदी में दिव्य कमल के फूल खिले थे और जल भी दिव्य गंगा जल के तुल्य अमृतमयी और मीठा था । तब से जयदेव जी ने उसी में स्नान किया और जल पान किया । तभी से वह नदी किन्दुबिल्व ग्राम में “जयदेई-गंगा” नाम से प्रसिद्ध है।

श्री जयदेव जी जगन्नाथ पुरी में वास करने लगे । तब श्री जगन्नाथ जी ने इन्हें श्री राधामाधव जी का एक विशाल श्री विग्रह सेवा निमित्त प्रदान कर इन्हे वृंदावन चले जाने की आज्ञा दी।

इस तरह जयदेव जी श्री विग्रह को लेकर श्री धाम वृंदावन आ गए और केशीघाट पर आकर निवास करने लगे । भक्तों ने ठाकुर जी का एक विशाल मंदिर का निर्माण करा दिया। औरंगजेब के आक्रमण के बाद राधामाधव जी का विग्रह जयपुर में सेवित होने लगा और वृंदावन में उस श्री राधामाधव जी का प्रतिभू विग्रह स्थापित किया गया।।

 भगवान जगन्नाथ जी का ही स्वरूप माने जाने वाले महाकवि जयदेव द्वारा रचित महाकाव्य ‘गीत गोविन्द’ की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? जिस पर रीझ कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ से पद लिख कर उसे पूरा किया । जयदेव जी और उनकी पत्नी पद्मावती श्रीकृष्ण प्रेमरस में डूबे रहते थे । जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए थे ।

 

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गीत गोविन्दम

 

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