गोविन्दं आदि पुरुषं तमहं भजामि लिरिक्स हिंदी अर्थ सहित | गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि | गोविन्दं आदि पुरुषं तं अहं भजामि हिंदी लिरिक्स अर्थ सहित | गोविन्द स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित ( ब्रह्म संहिता )| गोविन्द पञ्चविंशति स्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित | Govinda Panchavimshati Stotram with meaning| गोविन्द स्तोत्र अर्थ सहित || Govinda Stotra with hindi meaning| ब्रह्म संहिता में वर्णित गोविन्द स्तोत्र | Govinda Stotram from Brahma Samhita| Govindam adi purusham tamham bhajami lyrics with meaning
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ब्रह्मसंहिता एक संस्कृत पंचरात्र ग्रन्थ है, जिसमें सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी द्वारा भगवान कृष्ण या गोविन्द की स्तुति की गयी है। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में इस ग्रन्थ की बहुत प्रतिष्ठा है।तथा आज भी गौडीय वैष्णव के भक्त दर्शन आरती के समय यह श्लोक गाते है। दर्शन आरती के समय सभी भक्त बड़े आनंद तथा उल्लास के साथ इन श्लोकों को गाते हुए श्री श्री राधा श्यामसुन्दर के दर्शन करते है।वैसे तो कथित तौर पर ब्रम्हा संहिता में 100 अध्याय है पर अधिकांश भाग समय के साथ विलुप्त हो गया। पर चैतन्य महाप्रभु ने आदि केशव मंदिर से ब्रह्म संहिता के पांचवे अध्याय को पुन: प्राप्त किया ।
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान् गोविन्द श्रीकृष्ण के इस गोविन्द स्तोत्र का नित्य पाठ करने से पृथ्वी पर कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता और उसे भगवत् भक्ति प्राप्त होता तथा अंत में दुर्लभ आदिपुरुष भगवान गोनिन्द का नित्य सानिध्य और नित्य निकुन्ज गोलोकधाम की प्राप्ति होता है ।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥1॥
भगवान् कृष्ण परम ईश्वर हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरुप हैं। उनका कोई आदि अर्थात आरम्भ नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं। भगवान गोविंद समस्त कारणों के कारण हैं। कृष्ण सर्वोच्च नियंत्रक, सर्वोच्च प्राधिकारी और सभी कारणों के अंतिम कारण हैं। – उनका स्वरूप शाश्वत, ज्ञान से परिपूर्ण और आनंद से परिपूर्ण है। वह हर चीज़ का मूल है, लेकिन स्वयं उनकी कोई उत्पत्ति नहीं है। वह गोविंद हैं, सभी इंद्रियों के स्वामी और सभी आनंद के स्रोत हैं। वह सभी कारणों का कारण, सभी अस्तित्व का मूल और सभी प्राणियों का पालनकर्ता है।
त्रय्या प्रबुद्धोऽथ विधिर्विज्ञाततत्त्वसागरः ।
तुष्टाव वेदसारेण स्तोत्रेणानेन केशवम् ॥2॥
तीन वेदों के ज्ञान के पश्चात् , ब्रह्मा जी ने , सत्य के सागर को पहचाना , उन्होंने भगवान कृष्ण के सर्वोच्च सत्य का आभास किया और इस प्रकार अपनी भक्ति और प्रशंसा व्यक्त करने के लिए इस श्लोक की रचना करके केशव की महिमा का गान किया , जो वेदों का सार हैं ।
चिन्तामणिप्रकरसद्मसु कल्पवृक्ष
लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥3॥
मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द (श्रीकृष्ण )की शरण लेता हूँ, जिनकी लाखों कल्पवृक्षों से आवृत एवं चिन्तामणिसमूह से निर्मित भवनों में लाखों लक्ष्मी सदृश्य युवतियों के द्वारा निरन्तर सेवा होती रहती है और जो स्वयं वन-वन में घूम-घूम कर गौओं की सेवा करते हैं।
वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं
बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम् ।
कन्दर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥4॥
जो बंशी में स्वर फूंक रहे हैं, कमल के पंखुड़ियों के समान बड़े-बड़े जिनके नेत्र हैं, जो मोरपंख का मूकुट धारण किये रहते हैं, मेघ के समान श्यामसुन्दर जिनके श्रीअङ्ग है। जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवों के दारा भी स्पृहणीय है, उन आदिपुरुष भगवान गोनिन्द का मैं भजन करता हूँ।
आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशी-
-रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् ।
श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥5॥
जो हवा से अठखेलियां करते हुए मोरपंख, सुन्दर वनमाला, बंशी एवं रत्नमय बाजूबंद से सुशोभित है, जो प्रणय केलि कला-विलास मे दक्ष हैं, जिनका त्रिभङ्गललित श्यामसुन्दर विग्रह है और जिनका प्रकाश कभी फीका नहीं होता सदा स्थिर रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय लेता हूँ।
अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति ।
आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥6॥
जिनका सञ्चिदानन्दमय प्रकाशयुक्त श्रीविग्रह है तथा सम्पूर्ण इन्द्रिय वृत्तियों से युक्त जिनके श्रीअङ्ग दीर्घ काल तक विभिन्न लोकों पर दृष्टि रखते हैं, उनकी रक्षा करते है तथा उनका ध्यान रखते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूं।
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपं
आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥7॥
जो द्वैत से रहित हैं, अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि है, परंतु जिनका कहीं आदि नहीं है और जो अनन्त रूपों में प्रकाशित है, जो पुराण (सनातन) पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, जिनका स्वरूप वेदों में भी प्राप्त नहीं होता (निषेधमुख में ही वेद जिनका वर्णन करते हैं), किंतु अपनी भक्ति प्राप्त हो जाने पर जो दुर्लभ नहीं रह जाते-अपने भक्तों के लिये जो सुलभ हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
पन्थास्तु कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो
वायोरथापि मनसो मुनिपुङ्गवानाम् ।
सोऽप्यस्ति यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥8॥
(भगवत्प्राप्ति के ) जिस मार्ग को बड़े बड़े मुनि प्राणायाम तथा चित्तनिरोध के द्वारा अरबों वर्षों में प्राप्त करते हैं, वही मार्ग जिनके अचिन्त्य महात्म्ययुक्त चरणों के अग्रभाग की सीमा मे स्थित रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः ।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥9॥
जो यद्यपि सदा एक हैं उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है, फिर भी जो (अपनी दृष्टिमात्र से) करोड़ों ब्रह्माण्डों को रचने की शक्ति रखते हैं—यही नहीं ब्रह्माण्डों के समूह जिनके भीतर रहते हैं, साथ ही जो ब्रह्माण्ड के भीतर रहनेवाले परमाणु समूह के भी भीतर स्थित रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ ।
यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव
सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः ।
सूक्तैर्यमेव निगमप्रथितैः स्तुवन्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥10॥
जिनकी भक्ति भावित बुद्धिवाले मनुष्य उनके रूप, महिमा, आसन, यान (वाहन) अथवा भूषणों की झाँकी प्राप्त करके वेदप्रसिद्ध सूक्तों (मन्त्रों) द्वारा स्तुति करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
-स्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः ।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥11॥
जो सर्वात्मा होकर भी आनन्दचिन्मय रस प्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं ( गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोक में ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति ।
यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥12॥
संतजन प्रेमरूपी अञ्जन से सुशोभित भक्तिरूपी नेत्रों से सदा-सर्वदा जिनका अपने हृदय में ही दर्शन करते रहते हैं, जिनका श्यामसुन्दर विग्रह है तथा जिनके स्वरूप एवं गुणों का यथार्थरूप से चिन्तन भी नहीं हो सकता, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु ।
कृष्णः स्वयं समभवत्परमः पुमान् यो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥13॥
जिन्होंने श्रीरामादि विग्रहों में नियत संख्या की कलारूप से स्थित रहकर भिन्न-भिन्न भुवनों में अवतार ग्रहण किया, परंतु जो परात्पर पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ ।
यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
-कोटिष्वशेषवसुधादि विभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥14॥
जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में पृथ्वी आदि समस्त विभूतियों के रूप में भिन्न-भिन्न दिखायी देता है, वह निष्कल (अखण्ड), अनन्त एवं अशेष ब्रह्म जिन सर्वसमर्थ प्रभु की प्रभा है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते
त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना ।
सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वं विशुद्धसत्त्वं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥15॥
सत्त्व, रज एवं तम के रूप में उन्हीं तीनों गुणों का प्रतिपादन करने वाले वेदों के द्वारा विस्तारित जिनकी माया सैकड़ों ब्रह्माण्डों का सृजन करती है, उन सत्त्वगुण का आश्रय लेने वाले, सत्य से परे एवं विशुद्धसत्त्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनःसु
यः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्रं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥16॥
जो स्मरण करने वाले प्राणियों के मनों में अपने आनन्दचिन्मय रसात्मक स्वरूप से प्रतिबिम्बित होते हैं तथा अपने लीलाचरित्र के द्वारा निरन्तर समस्त भुवनों को वशीभूत करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
गोलोकनाम्नि निजधाम्नि तले च तस्य
देवि महेशहरिधामसु तेषु तेषु ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥17॥
जिन्होंने गोलोक नामक अपने धाम में तथा उसके नीचे स्थित देवीलोक, कैलाश तथा बैकुण्ठ नामक विभिन्न धामों में विभिन्न ऐश्वर्यों की सृष्टि की, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥18॥
सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयकारिणी शक्तिरूपा भगवती दुर्गा, जिनकी छाया की भांति समस्त लोकों का धारण-पोषण करती हैं और जिनकी इच्छा के अनुसार चेष्टा करती है। उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
क्षीरं यथा दधि विकारविशेषयोगात्
सञ्जायते न हि ततः पृथगस्ति हेतोः ।
यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्या-
-द्गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥19॥
जामन आदि विशेष प्रकार के विकारों के संयोग से दूध जैसे दही के रूप में परिवर्तित हो जाता है, किंतु अपने कारण (दूध)से फिर भी विजातीय नहीं बन जाता, उसी प्रकार जो (संहाररूप) प्रयोजन को लेकर भगवान् शंकर के स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य
दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥20॥
जैसे एक दीपक की लौ दूसरी बत्ती का संयोग पाकर दूसरा दीपक बन जाती है, जिममें अपने कारण ( पहले दीपक) के गुण प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार जो अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए ही विष्णुरूप में दिखायी देने लगते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-
-निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः ।
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्तिं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥21॥
आधारशक्तिरूपा अपनी (नारायणरूप) श्रेष्ठ मूर्ति को धारण करके जो कारणार्णव के जल में योगनिद्रा के वशीभूत होकर स्थित रहते है और उस समय उनके एक-एक रोमकूप मे अनन्त ब्रह्माण्ड समाये रहते है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमबिलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥22॥
जिनके रोमकूपों से प्रकट हुए विभिन्न ब्रह्माण्डों के स्वामी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) जिनके एक श्वास जितने काल तक ही जीवन धारण करते हैं तथा सर्वविदित महान् विष्णु जिनकी एक विशिष्ट कलामात्र हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूं।
भास्वान् यथाश्मशकलेषु निजेषु तेजः
स्वीयं कियत्प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥23॥
जैसे सूर्य सूर्यकान्त नामक सम्पूर्ण मणियों मे अपने तेज का किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उसी प्रकार एक ब्रह्माण्ड का शासन करनेवाले ब्रह्मा भी अपने अंदर जिनके तेज का किंचित् अंश प्रकट करते है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हुँ ।
यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भ-
-द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।
विघ्नान् विहन्तुमलमस्य जगत्त्रयस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥24॥
प्रणाम करते समय जिनके चरणयुगल को अपने मस्तक के दोनो भागों पर रखकर सर्वसिद्ध भगवान् गणपति इन तीनों लोकों के विघ्नों का विनाश करने में समर्थ होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
अग्निर्मही गगनमम्बु मरुद्दिशश्च
कालस्तथात्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्माद्भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥25॥
अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, वायु एवं चारों दिशाएँ, काल, बुद्धि, मन, पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, समृद्ध (पुष्ट)होते हैं तथा जिनमें पुनः लीन हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्रो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥26॥
जिनके नेत्ररूप सूर्य, जो समस्त ग्रहों के अधिपति, सम्पूर्ण देवताओं के प्रतीक एव सम्पूर्ण तेजःस्वरूप तथा कालचक्र के प्रवर्तक होते हुए भी जिनकी आज्ञा से लोकों में चक्कर लगाते हैं। उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द को मैं भजता हूँ।
धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि
ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः ।
यद्दतमात्रविभवप्रकटप्रभावा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥26॥
धर्म एवं पाप समूह, वेद की ऋचाएँ, नाना प्रकार के तप तथा ब्रह्मा से लेकर कीट-पतङ्ग तक सम्पूर्ण जीव जिनकी दी हुई शक्ति के द्वारा ही अपना-अपना प्रभाव प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं भजन करता हूँ।
यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-
-बन्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किन्तु च भक्तिभाजां
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥27॥
जो एक बीरबहूटी को एवं देवराज इन्द्र को भी अपने-अपने कर्म-बन्धन के अनुरूप फल प्रदान करते हैं, किंतु जो अपने भक्तों के कर्मो को निःशेषरूप से जला डालते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति-
-वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः ।
सञ्चिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥28॥
क्रोध, काम, सहज स्नेह आदि, भय, वात्सल्य, मोह (सर्वविस्मृति), गुरु-गौरव ( बड़ों के प्रति होनेवाली गौरव बुद्धि के सदृश महान् सम्मान ) तथा सेब्य-बुद्धि से (अपने को दास मानकर ) जिनका चिन्तन करके लोग उन्हीं के समान रूप को प्राप्त हो गये, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ ।
श्रियः कान्ताः कान्तः परमपुरुषः कल्पतरवो
द्रुमा भूमिश्चिन्तामणिगणमयि तोयममृतम् ।
कथा गानं नाट्यं गमनमपि वंशी प्रियसखि
चिदानन्दं ज्योतिः परमपि तदास्वाद्यमपि च ।
स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीभ्यश्च सुमहान्
निमेषार्धाख्यो वा व्रजति न हि यत्रापि समयः ।
भजे श्वेतद्वीपं तमहमिह गोलोकमिति यं
विदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये ॥29॥
मैं उस दिव्य आसन की पूजा करता हूं, जिसे श्वेतद्वीप के नाम से जाना जाता है, जहां प्रेमी पत्नी के रूप में लक्ष्मी अपने शुद्ध आध्यात्मिक सार में अपने एकमात्र प्रेमी के रूप में सर्वोच्च भगवान कृष्ण की सेवा का अभ्यास करती हैं; जहां प्रत्येक वृक्ष एक पारलौकिक प्रयोजन वृक्ष है; जहां की मिट्टी उद्देश्यपूर्ण रत्न है, सारा पानी अमृत है, हर शब्द एक गीत है, हर चाल एक नृत्य है, बांसुरी को प्रेम करने वाला सहायक है, तेजस्विता पारलौकिक आनंद से भरी है और सर्वोच्च आध्यात्मिक संस्थाएं सभी सुखद और स्वादिष्ट हैं, जहां असंख्य दूध देने वाली गायें हमेशा दूध के दिव्य महासागरों का उत्सर्जन करती हैं; जहां पारलौकिक समय का शाश्वत अस्तित्व है, जो सदैव वर्तमान है और अतीत या भविष्य से रहित है और इसलिए आधे क्षण के लिए भी नष्ट होने की गुणवत्ता के अधीन नहीं है। इस संसार में केवल कुछ ही आत्म-साक्षात्कारी आत्माएं उस क्षेत्र को गोलोक के नाम से जानती हैं।
अथोवाच महाविष्णुर्भगवन्तं प्रजापतिम् ।
ब्रह्मन् महत्त्वविज्ञाने प्रजासर्गे च चेन्मतिः ।
पञ्चश्लोकीमिमां विद्यां वत्स दत्तां निबोध मे ॥30॥
तब भगवान विष्णु ने प्राणियों के स्वामी अर्थात प्रजापति ब्रह्मा से कहा । हे ब्रह्मा! यदि आपके मन में परम सत्य की महानता को जानने और जीवों की रचना करने की इच्छा है तो फिर हे मेरे प्रिय पुत्र ! मैं तुम्हें जो पाँच श्लोकों का ज्ञान दूँगा, उसे सुनो । श्लोक का तात्पर्य है कि भगवान कृष्ण, जो भगवान विष्णु के मूल रूप हैं, ने ब्रह्मा जी के समक्ष वेदों के सर्वोच्च ज्ञान को पांच छंदों के रूप में प्रकट किया, जो भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की प्रकृति, गुणों और गतिविधियों का वर्णन करते हैं। ये पांच श्लोक भगवान कृष्ण के भक्तों के लिए बेहद गोपनीय और शक्तिशाली माने जाते हैं।
भगवान महाविष्णु ने प्रजापति ब्रह्मा से यह पांच श्लोकी विद्या कही है, जो महत्त्वविज्ञान और प्रजासृष्टि के विषय में है। वत्स, इस विद्या को सुनो:
ईश्वर: ईश्वर परम कृष्ण है, जिनका स्वरूप सच्चिदानंद और विग्रह है। वह अनादि और अनंत है, सभी कारणों का कारण है।
गोकुल: गोकुल नामक अद्भुत पद है, जो हजार पत्तियों से युक्त है। वहां गोपियों के साथ श्रीकृष्ण विराजमान हैं।
महद्यन्त्र: महद्यन्त्र छह कोणों वाला वज्रकीलक है, जिसमें छह पादों के स्थान हैं। वह प्रकृति और पुरुष के द्वारा स्थित है।
प्रेमानन्दरस: यहां प्रेम और आनंद का रस है, जो ज्योतिरूप मनु के कामबीज से संगत है।
ज्योतिर्मय देव: यह देव सदानंद और परात्पर है, जो आत्माराम और अव्यय हैं। वह अपनी माया से जगत को नहीं जानते हैं।
इस विद्या का अध्ययन करने से तुम्हें अनंत भगवान के अद्भुत रूप का ज्ञान होगा।
प्रबुद्धे ज्ञानभक्तिभ्यामात्मन्यानन्दचिन्मयी ।
उदेत्यनुत्तमा भक्तिर्भगवत्प्रेमलक्षणा ॥31॥
श्लोक का तात्पर्य है कि जब किसी का ज्ञान और भक्ति जागृत हो जाती है, तो उसे एक आनंदमय और जागरूक आत्मा के रूप में अपनी वास्तविक प्रकृति का एहसास होता है और फिर वह भक्ति का उच्चतम रूप विकसित करता है, जो कि भगवान का शुद्ध प्रेम है। ईश्वर का यह प्रेम सभी आध्यात्मिक साधकों का अंतिम लक्ष्य और भक्ति का सार है।
प्रमाणैस्तत् सदाचारैस्तदभ्यासैर्निरन्तरम् ।
बोधयनात्मनात्मानं भक्तिमप्युत्तमां लभेत् ॥32॥
कोई भी व्यक्ति शास्त्रों के प्रमाणों के अनुसार उनके आदेशों का पालन करके, उनके अनुसार अच्छे आचरण द्वारा , उनके निरंतर अभ्यास द्वारा , धार्मिक ढंग से व्यवहार करके, आध्यात्मिक अनुशासन की आदत डालकर और अपने मन को पूर्ण सत्य के ज्ञान से प्रबुद्ध करके ईश्वर का शुद्ध प्रेम प्राप्त और सर्वोच्च भक्ति प्राप्त कर सकता है।
यस्याः श्रेयस्करं नास्ति यया निर्वृतिमाप्नुयात् ।
या साधयति मामेव भक्तिं तामेव साधयेत् ॥33॥
“प्रेम-भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। जो भक्ति मुझे प्राप्त कराती है, वही श्रेष्ठ है। उसके पीछे हमेशा दिव्य आनंद होता है और वह मुझे प्राप्त करा सकती है।” इस श्लोक का अर्थ है कि प्रेम-भक्ति ही आत्मा के लिए सबसे अधिक कल्याणकारी है। यह धार्मिक साधना की अंतिम लक्ष्य है और आत्मा को उच्चतम आनंद प्रदान कर सकती है। इसके बिना कोई भी अन्य उपाय आत्मा को इस आनंद की ओर नहीं ले सकता। यह श्लोक विशेष रूप से भक्ति योग के माध्यम से भगवान की प्रेम-भक्ति को बताता है। जो व्यक्ति इस लक्ष्य के साथ ध्यान और साधना करता है, वह अपने जीवन में अनंत प्रेम की खोज में सफल हो सकता है।
धर्मानन्यान् परित्यज्य मामेकं भज विश्वसन् ।
यादृशी यादृशी श्रद्धा सिद्धिर्भवति तादृशी ।
कुर्वन्निरन्तरं कर्म लोकोऽयमनुवर्तते ।
तेनैव कर्मणा ध्यायन्मां परां भक्तिमिच्छति ॥34॥
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्त से कह रहे हैं कि वे अन्य धर्मों को छोड़कर केवल मुझे ही भजें। जैसी श्रद्धा उनकी ओर रहेगी, वैसी ही सिद्धि प्राप्त होगी। इस लोक में निरंतर कर्म करने वाले लोग रहते हैं लेकिन वे जो मुझे ही ध्यान करके कर्म करते हैं, वे ही उच्च भक्ति को प्राप्त करते हैं।
अहं हि विश्वस्य चराचरस्य
बीजं प्रधानं प्रकृतिः पुमांश्च ।
मयाहितं तेज इदं बिभर्षि
विधे विधेहि त्वमथो जगन्ति ॥35॥
“मैं ही विश्व के सभी चराचर प्राणियों का बीज हूँ, प्रधान और पुरुष भी। मेरे द्वारा यह तेज बिभासित किया जाता है, और तुम इसे विधान करो, तब जगत का नियमित चलन होता है॥” यह श्लोक ईश्वर की अद्वितीयता और जगत के नियमित चलन की अद्वितीयता को व्यक्त करता है।
इति श्री ब्रह्म संहिता सम्पूर्णम् ।
इति श्रीगोविन्दस्तोत्रम् समाप्तम् ॥
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गोविन्दं आदि पुरुषं तमहं भजामि लिरिक्स हिंदी अर्थ सहित