ध्रुव द्वारा भगवान की स्तुति अर्थ सहित

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ध्रुव द्वारा भगवान की स्तुति अर्थ सहित

 

श्रीमद भागवतम चतुर्थ स्कन्ध अध्याय नौ

 

ध्रुव उवाच 

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां

संजीवयत्यखिल शक्तिधरः स्वधाम्ना ।

अन्यांश्च हस्त चरण श्रवण त्व गादीन् 

प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यं ।।1।।

 

प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हैं ; आप ही मेरे अंतःकरण मे प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोई हुयी वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ , पैर , कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं । मैं आप अंतर्यामी भगवान को प्रणाम करता हूँ ।।1।।

 

एकस्तवमेव भगवान्निद्मात्म शक्त्या 

मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषं।

सृष्टवानुविष्य पुरुषस्ततदसदगुणेषु 

नानेव दारुषु विभाव सुवद्विभासि।।2।।

 

भगवन ! आप एक ही हैं , परन्तु अपनी अनंत गुणमयी मायाशक्ति से महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अंतर्यामी रूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत गुणों में उनके अधिष्ठात्र देवताओं के रूप में स्थित होकर अनेक रूप में भासते हैं – ठीक वैसे ही जैसे तरह – तरह की लकड़ियों में प्रकट हुयी आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न – भिन्न रूपों में भासती है ।।2।।

 

त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं

सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः।

तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं

विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबंधो।।3।।

 

नाथ ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने भी आपकी शरण ले कर आपके दिए हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था । दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं , कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ।।3।।?

 

नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते 

ये त्वां भवाप्ययविमोक्षण मन्यहेतोः।

अर्चंति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्य 

मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरये ऽपि नृणां।।4।।

 

प्रभो ! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगा जाने वाला , इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है । जो लोग इस विषय सुख के लिए लालायित रहते हैं और जो जन्म – मरण के बंधन से छुड़ा देने वाले कलपतरु स्वरूप आपकी उपासना भगवत प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं , उनकी बुद्धि अवश्य ही माया द्वारा ठगी गयी है ।।4।।

 

या निर्वृत्ति स्तनुभृतां तव पादपद्म

ध्यानाद्भवज्जन कथाश्रवणेन वा स्यात्।

सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्

किं त्वन्त कासिलुलितात्पततां विमानात् ।।5।।

 

नाथ ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनंद प्राप्त होता है , वह निजानंद स्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ? ।।5।।

 

भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसंगो 

भूयादनन्त महताम मलाशयानाम् ।

येनांजसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं

नेष्ये भवद्गुण कथामृत पानमत्तः ।।6।।

 

अनंत परमात्मन ! मुख्य तो आप उन विशुद्धह्रदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये , जिनका आप में अविच्छिन्न  भक्तिभाव है , उनके संग में मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा – सुधा को पी – पी कर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इन अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा।।6।।

 

ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यं 

ये चान्वदः सुतसुहृद्गृहवित्तदाराः।

ये त्वब्जनाभ भवदीय पदारविन्द –

सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसंगाः ।।7।।

 

कमलनाथ प्रभो ! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगंध में लुभाया हुआ है , उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं – वे अपने इस अत्यंत प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र , मित्र , गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते ।।7।।

 

तिर्यङ्गनगद्विजसरीसृपदेवदैत्य  

मर्त्यादिभिः परिचितं सद्सद्विशेषं।

रूपं स्थविष्ठमज ते महादाद्यनेकं

नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः।।8।।

 

अजन्मा परमेश्वर ! मैं तो पशु , वृक्ष , पर्वत , पक्षी , सरीसृप ( सर्पादि रेंगने वाले जंतु ) , देवता , दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सद्सदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जानता हूँ ; इससे परे जो आपका परम स्वरूप है , जिसमें वाणी की गति नहीं है , उसका मुझे पता नहीं है ।।8।।

 

कल्पांत एतदखिलं जठरेन गृह्णन् 

शेते पुमान् स्वदृगनन्त सखस्तदङ्के ।

यन्नाभिसिंधु रूह कांचन लोकपद्म 

गर्भे द्युमान् भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै ।।9।।

 

भगवन ! कल्प का अंत होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परम पुरुष इस सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते तथा जिनके नाभि – समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णमय कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए , वे भगवान आप ही हैं , मैं आपको प्रणाम करता है ।।9।।

 

त्वं नित्यमुक्त परिशुद्ध विबुद्ध आत्मा 

कूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्रयधीशः।

यद्बुद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या 

दृष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से।।10।।

 

प्रभो ! आप अपनी अखंड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्ध सत्त्वमय , सर्वज्ञ , परमात्मस्वरूप , निर्विकार , आदि – पुरुष , षडैश्वर्य – संपन्न एवं तीनो लोकों के अधीश्वर हैं । आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थिति के लिए यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं ।।10।।

 

यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनीशं पतन्ति

विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।

तद्ब्रह्म विश्व भवमेकमनन्तमाद्य-

मानन्दमात्रम विकार महं प्रपद्ये ।।11।।

 

आपसे ही विद्या – अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियां धारावाहिक रूप से निरंतर प्रकट होती रहती हैं । आप जगत के कारण , अखंड , अनादि , अनंत , आनंदमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं । मैं आपकी शरण हूँ ।।11।।

 

सत्याशिषो हि भगवंसत्व पादपद्म-

माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थ मूर्तेः।

अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान्

वाश्रेव वत्सक मनुग्रह कातरोस्मान्।।12।।

 

भगवन ! आप परमानन्दमूर्ति हैं  – जो लोग ऐसा समझकर निष्काम भाव से आपका निरंतर भजन करते हैं उनके लिए राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है । स्वामिन ! यद्यपि बात ऐसी ही है , तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्मे हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है , उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिए निरंतर विकल रहने के कारण हम जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार भय से रक्षा करते रहते हैं।।12।। 

 

 

 

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