रहीम के दोहे अर्थ सहित| रहीम के दोहे | संत रहीमदास के दोहे अर्थ सहित | Rahim ke dohe with hindi meaning
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रहीम के दोहे सुंदर हैं, कवित्वपूर्ण हैं, गहन हैं और भक्ति-रस से परिपूर्ण हैं। रहीम का एक-एक शब्द प्रेम के रस से सराबोर है। कह सकते हैं कि रहीम के दोहे ब्रज की सुवास से परिपूर्ण हैं। शब्द और भाव का ऐसा माधुर्य है उनके काव्य में कि पढ़ने से मन नहीं भरता । ये दोहे न सिर्फ़ काव्य में रचे-बसे हैं, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। रहीम दास जी का जन्म 17 दिसंबर 1556 को हुआ था भक्ति काल में जन्मे रहीमदास जी को दोहे और कवितायें लिखने का शौक था और रहीम दास जी राजा अकबर के नवरत्नों में से एक नवरत्न के रूप में जाने जाते थे । 1 अक्टूबर 1627 में 70 वर्ष की आयु में रहीम दास जी की आगरा में मृत्यु हो गयी थी और उसके बाद ये हमेशा के लिए अमर हो गए । भक्तिकाल के समय में रहीमदास जी का हिंदी साहित्य में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इन्होंने अपने जीवनकाल में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी और हिंदी जैसी कई भाषाओं का बहुत ही गहराई से अध्यन किया था । वैसे तो रहीमदास जी राजा अकबर के दरबार में कई सारे मुख्य पदों पर कार्यरत थे लेकिन साथ ही साथ रहीम दास जी हिंदी साहित्य में भी अपना योगदान दिया करते थे ।
1.राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि
2.राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि
3.जेहि ‘रहीम’ मन आपनो कीन्हो चारु चकोर।
4. ‘रहिमन’ कोऊ का करै, ज्वारी, चोर, लबार।
5.‘रहिमन’ गली है सांकरी, दूजो नहि ठहराहि।
6.अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
7.जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
8.धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
9.प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
10.‘रहिमन’ पैडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
11.‘रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोडो चटकाय ।
12.‘रहिमन’ प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून ।
13. कहा करौ वैकुण्ठ लै, कल्पवृच्छ की छांह।
14.जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहि ।
15. रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार ।
16.यह न ‘रहीम’ सराहिये, लेन – देन की प्रीति ।
17.‘रहिमन’ मैन-तुरंग चढि, चलिबो पावक माहि ।
18.वहै प्रीत नहि रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
19.गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
20.मुनि-नारी पाषान ही, कपि, पशु, गुह मातंग।
21.मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय ।
22.जिहि ‘रहीम’ तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन ।
23.जे गरीब सों हित करें, धनि ‘रहीम’ ते लोग।
24.जो ‘रहीम’ करबौ हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
25.हरि रहीम’ ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
26.‘रहिमन’ कीन्ही प्रीति , साहब को भावै नहीं।
27.बिन्दु में सिन्धु समान, को अचरज कासों कहैं।
28.‘रहिमन’ बात अगम्य की, कहनि-सुननि की नाहि ।
29.सदा नगारा कूच का, बाजत आठौ जाम ।
30.सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट ।
31.‘रहिमन’ कठिन चितान तै, चिता को चित चैत ।
32.कागज को सो पूतरा, सहजहि में घुल जाय।
33.तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खेंचत बाय।
34.‘रहिमन’ ठठरि धूरि की, रही पवन ते पूरि ।
35.‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
36.सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम ।
37.खीरा को सिर काटिकै, मलियत लौन लगाय।
38.जो ‘रहीम’ ओछो बढे, तो अति ही इतराय ।
39.‘रहिमन’ नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
40.कौन बडाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
41.खरच बदयो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन ।
42.जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
43.जिहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
44.‘रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ।
45.‘रहिमन’ अब वे बिरछ कह, जिनकी छाँह गंभीर ।
46.‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।।
47.‘रहिमन’ तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान ।
48.‘रहिमन’ खोटी आदि को, सो परिनाम लखाय ।
49.रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौ लौ सील समुच ।
50.धन थोरो, इज्जत बडी, कहि,रहीम’ का बात।
51.धनि रहीम’ जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
52.अनुचित बचत न मानिए, जदपि गुरायसु गाढि।
53.अब,रहीम मुसकिल पडी, गाढे दोऊ काम।
54.आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं ।
55.आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
56.एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
57.अन्तर दावा लगि रहै, धुआं न प्रगटै सोय।
58.कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
59.कमला थिर न रहिम’ कहि, यह जानत सब कोय
60.रत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर ।
61.कहि ‘रहिम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति ।
62.कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग।
63.कहु रहीम’ कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय।
64.काह कामरी पामडी, जाड गए से काज ।
65.कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर ।
66.कोउ रहीम’ जहि काहुके, द्वार गए पछीताय ।
67.खैर , खुन, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान ।
68.गरज आपनी आप सों , रहिमन’ कही न जाय।
69.छिमा बडेन को चाहिए , छोटन को उतपात ।
70.जब लगि विपनु न आपनु , तब लगि मित्त न होय ।
71.जे रहीम’ बिधि बड किए, को कहि दूषन काढि ।
72.जैसी परै सो सहि रहे , कहि.रहीम’ यह देह ।
73.जो घर ही में घुसि रहे, कदली सुपत सुडील ।
74.जो बडेन को लघु कहै, नहि,रहीम’ घटि जाहि ।
75.जो रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
76.जो रहीम’ मन हाथ है, तो तन कहुँ किन जाहि।
77.जो विषया संतन तजी, मूढ ताहि लपटात।
78.तबही लौ जीवो भलो, दीबो होय न धीम।
79.तरुवर फल नहि खात है, सरवर पियहि न पान ।
80.थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम’ घहरात ।
81.थोरी किए बडेन की, बडी बडाई होय ।
82.दीन सबन को लखत है, दीनहि लखे न कोय ।
83.दोनों रहिमन’ एक से, जो लों बोलत नाहि ।
84.धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम’ केहि काज।
85.नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत ।
86.निज कर क्रिया रहीम’ कहि, सिधि भावी के हाथ।
87.पनगबेलि पतिव्रता , रिति सम सुनो सुजान ।
88.पावस देखि रहीम’ मन, कोइल साधे मौन।
89.बड माया को दोष यह , जो कबहूं घटि जाय।
90.बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि।
91.बडे बडाई ना करें , बडो न बोले बोल ।
92.बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
93.भजौ तो काको मैं भजौ, तजौ तो काको आन।
94.भार झोंकि के भार में, ‘रहिमन’ उतरे पार।
95.भावी काहू ना दही, भावी-दह भगवान् ।
96.भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।
97.माँगे घटत, रहीम’ पद , किती करो बढि काम ।
98.माँगे मुकरि न को गयो , केहि न त्यागियो साथ ।
99.मूढमंडली में सुजन , ठहरत नहीं बिसेखि ।
100.यद्यपि अवनि अनेक हैं , कूपवंत सरि ताल ।
101.यह रहीम’ निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
102.यह रहीम’ माने नहीं , दिल से नवा न होय ।
103.यों रहीम’ सुख दुख सहत , बड़े लोग सह सांति ।
104.रन, बन व्याधि, विपत्ति में, रहिमन’ मरे न रोय।
105.रहिमन’ आटा के लगे, बाजत है दिन-राति।
106.रहिमन’ ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति।
107.‘रहिमन’ कहत सु पेट सों, क्यों न भयो तू पीठ।
108.रहिमन’ कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक ।
109.‘रहिमन’ चुप हो बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
110.‘रहिमन’ छोटे नरन सों, होत बडो नहि काम ।
111.‘रहिमन’ जग जीवन बडे काहु न देखे नैन ।
112.रहिमन’ जो तुम कहत हो, संगति ही गुन होय ।
113.रहिमन’ जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाव ।
114.‘रहिमन’ तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
115.‘रहिमन’ दानि दरिद्रतर , तऊ जाँचिबे जोग ।
116.रहिमन’ देखि बढेन को , लघु न दीजिए डारि ।
117.‘रहिमन’ निज मन की बिथा, मनही राखो गोय ।
118.‘रहिमन’ निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय ।
119.‘रहिमन’ पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
120.रहिमन’ प्रीति न कीजिए , जस खीरा ने कीन ।
121.‘रहिमन’ बहु भेषज करत , व्याधि न छाँडत साथ ।
122.‘रहिमन’ भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
123.रहिमन’ मनहि लगाई के, देखि लेहु किन कोय ।
124.‘रहिमन’ मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव ।
125.रहिमन’ यह तन सूप है, लीजे जगत पछोर ।
126.‘रहिमन’ राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय।
127.रहिमन’ रिस को छाँडि के, करौ गरीबी भेस ।
128.रहिमन’ लाख भली करो, अगुनी न जाय ।
129.‘रहिमन’ विद्या, बुद्धि नहि, नहीं धरम, जस, दान ।
130.‘रहिमन’ विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय ।
131.रहिमन’ वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहि ।
132.‘रहिमन’ सुधि सबसे भली, लगै जो बारंबार ।
133.राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन-साथ ।
134. रूप कथा, पद, चारुपट, कंचन, दोहा, लाल ।
135.बरु रहीम’ कानन भलो, वास करिय फल भोग ।
136.वे रहीम’ नर धन्य हैं , पर उपकारी अंग ।
137.सबै कहा लसकरी, सब लसकर कहं जाय ।
138.समय दशा कुल देखि के, सबै करत सनमान ।
139.समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
140.समय-लाभ सम लाभ नहि , समय-चूक सम चूक ।
141.सर सूखे पंछी उडे, और सरन समाहि ।
142.स्वासह तुरिय जो उच्चरे, तिय है निहचल चित्त ।
143.साधु सराहै साधुता, जती जोगिता जान ।
144.संतत संपति जान के , सब को सब कछु देत ।
145.संपति भरम गँवाइके , हाथ रहत कछु नाहि ।
146.ससि संकोच, साहस, सलिल, मान, सनेह,रहीम’ ।
147.सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
148.हित रहीम’ इतनै करै, जाकी जिति बिसात ।
149.होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम’ अति दूर ।
150.ओछे को सतसंग, रहिमन’ तजहु अंगार ज्यों ।
151.रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
152.चित्रकूट में रमि रहे, ‘रहिमन’ अवध-नरेस ।
153.ए रहीम, दर-दर फिरहि, माँगि मधुकरी खाहि ।
154.देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन ।
155.रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
156.जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
157.लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
158. माघ मास लहि टेसुआ मीन परे थल और
159.रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
160.संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं
161.साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
162.वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
163.रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
164.निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
165.परजापति परमेश्वरी गंगा रूप समान।
166.धनि रहीम जलपंक को लघु जिय पियत अघाय।
167.रहिमन पर उपकार के करत न यारी बीच।
168.काह कामरी पागरी जाड़ गये से काज।
169.को रहीम पर द्वार पै जात न जिय सकुचात।
170.गति रहीम बड़ नरन की ज्यों तुरंग व्यबहार।
171.अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल ।
172.अमी पियावत मान बिनु, रहिमन मोहि न सुहाय।
173.चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
174.मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
175.अधम वचन काको फल्यो, बैठि ताड़ की छांह।
176.ज्यों चैरासी लख में मानुस देह
177.रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लाय
178.बड़ माया को दोस यह जो कबहुँ घटि जाय।
179.याते जान्यो मन भयो जरि बरि भसम बनाय
180.रहिमन रहिबो व भलो जौ लौ सील समूच
181.गुनते लेत रहीम जन सलिल कूपते काढि।
182.दिब्य दीनता के रसहि का जाने जग अंधु
183.भावी या उनमान की पांडव बनहिं रहीम।
184.जो रहीम होती कहूँ प्रभु गति अपने हाथ
185.कहि रहीम धन बढि घटे जात धनिन की बात
186.बढत रहीम धनाढ्य धन धनी धनी को जाड।
187.रहिमन कहत स्वापेट सों कयों न भयो तू पीठ
188.स्वारथ रचत रहीम सब औगुन हूँ जग मंहि ।
189.रूप बिलोकि रहीम तहं जहं तहं मन लगि जाय
190.नैन सलोने अधर मधु कह रहीम घटि कौन
191.रहिमन जा डर निसि परै ता दिन डर सब कोय
192.ये रहीम फीके दुवौ जानि महा संताप
193.एक उदर दो चोंच है पंछी एक कुरंड
194.यों रहीम सुख होत है बढत देखि निज गोत
195.मन से कहा रहीम प्रभु दृग सों कहा दिवान
196.रहिमन अपने गोत को सबै चहत उत्साह
197.रहिमन ब्याह वियाधि है सकहुँ तो जाहु बचाय
198.रहिमन तीर की चोट ते चोट परे बचि जाय
199.रहिमन मन की भूल सेवा करत करील
200.रहिमन चाक कुम्हार को मांगे दिया न देई
201.रहिमन जिह्वा बाबरी कहिगै सरग पाताल।
202.रहिमन असमय के परे हित अनहित है जाय
203.रहिमन याचकता गहे बड़े छोट है जात
204.रहिमन वित्त अधर्म को जरत न लागै बार
205.रहिमन सूधी चाल में प्यादा होत उजीर
206.करत निपुनई गुन बिना रहिमन निपुन हजूर
207.लिखि रहीम लिलार में भई आन की आन
208.उरग तुरग नारी नृपति नीच जाति हथियार
209.रहिमन घटिया रहट की त्यों ओछे की डीढ
210.जो रहीम पगतर परो रगरि नाक अरू सीस
211.दुरदिन परे रहीम कहि भूलत सब पहिचानि
212.रहसनि बहसनि मन हरै घोर घोर तन लेहि
213.रहीमन थोड़े दिनन को कौन करे मुँह स्याह
214.अनकीन्हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय ।
215.रहिमन अपने पेट सों बहुत कह्यो समुझाय।
216.रहिमन जाके बाप को पानी पियत न कोय
217.मनसिज माली कै उपज कहि रहीम नहि जाय
218.यह रहीम मानै नहीं दिल से नवा जो होय
219.कहि रहीम इक दीप तें प्रगट सबै दुति होय
220.जे अनुचितकारी तिन्हें लगे अंक परिनाम।
221.मंदन के मरिह गए अबगुन गुन न सराहि।
222.देनहा कोई और है भेजत सो दिन रात।
223.मथत मथत माखन रहै दही मही बिलगाय
224.जो रहीम दीपक दसा तिय राखत पट ओट
225.रहिमन तुम हमसों करी करी करी जो तीर।
226.वरू रहीम कानन बसिय असन करिय फल तोय
227.जलहिं मिलाई रहीम ज्यों कियो आपु सग छीर
228.सबको सब कोउ करै कै सलाम कै राम
229.रहिमन प्रीत न कीजिये जस खीरा ने कीन।
230.रहिमन खोजे ईख में जहाँ रसनि की खानि।
231.जेहि रहीम तन मन लियो कियो हिय बेचैन।
232.रहिमन बात अगम्य की कहन सुनन की नाहि।
233.अंतर दाव लगी रहै धुआँ न प्रगटै सोय
234.कहि रहीम या जगत तें प्रीति गई दै टेर
235.नाते नेह दूरी भली जो रहीम जिय जानि
236.चढिबो मोम तुरंग पर चलिबो पावक माहि ।
237.जहाँ गाँठ तह रस नही यह रहीम जग जोय।
238.रहिमन वहां न जाइये जहाँ कपट को हेत।
239.रहिमन सो न कछु गनै जासों लागो नैन।
240.रीति प्रीति सबसों भली बैर न हित मित गोत
241.बिरह विथा कोई कहै समझै कछु न ताहि
242.दादुर मोर किसान मन लग्यौ रहै धन माहि
243.मानो कागद की गुड़ी चढी सु प्रेम अकास।
244.विपति भये धन ना रहै रहै जो लाख करोर।
245.समय परे ओछे वचन सबके सहै रहीम।
राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
कहि रहीम क्यों मानिहै, जम के किंकर कानि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिस मानव ने राम की महिमा नहीं समझी और अन्य देवों की ही पूजा की तो उसमें उसे हानि ही होती है। ऐसे में यमराज के सेवक किसी मर्यादा को नहीं मानेंगे।
राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि।
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खड़े किये उनका जन्म व्यर्थ है। वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं। राम-नाम का माहात्म्य तो जाना नहीं और जिसे जानने का जतन किया, वह सारा व्यर्थ था। राम का ध्यान तो किया नहीं और विषय-वासनाओं से सदा लिपटा रहा। पशु नीरस खली को तो बड़े स्वाद से खाते हैं, पर गुड़ की डली जबरदस्ती बेमन से गले के नीचे उतारते हैं।
जेहि ‘रहीम’ मन आपनो कीन्हो चारु चकोर।
निसि-वासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर ॥
जिस किसी ने अपने मन को सुन्दर चकोर बना लिया, वह नित्य निरन्तर, रात और दिन, श्री कृष्ण रूपी चन्द्र की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है। चन्द्र का उदय रात को होता है, पर यहाँ वासर अर्थात दिन भी आया है । अत: वासर का आशय है नित्य निरन्तर से।
‘रहिमन’ कोऊ का करै, ज्वारी, चोर, लबार।
जो पत-राखनहार है, माखन-चाखनहार॥
जिसकी लाज रखने वाले माखन के चाखनहार अर्थात रसास्वादन लेने वाले स्वयं श्रीकृष्ण हैं, उसका कौन क्या बिगाड़ सकता है? न तो कोई जुआरी उसे हरा सकता है, न कोई चोर उसकी किसी वस्तु को चुरा सकता है और न कोई लफंगा उसके साथ असभ्यता का व्यवहार कर सकता है। जुआरी का आशय है यहां शकुनि से, जिसने युधिष्ठर को धूर्ततापूर्वक जुए में बुरी तरह हरा दिया था। ब्रह्मा द्वारा जब ग्वाल-बालों की गायें चुरा ली गयीं, तब श्रीकृष्णजी ने उनकी रक्षा की थी। इसी प्रकार दुष्ट दुःशासन द्वारा साड़ी खींचने पर आर्त द्रौपदी की लाज श्रीकृष्ण ने बचाई थी।
‘रहिमन’ गली है सांकरी, दूजो नहि ठहराहि।
आपु अहै, तो हरि नहीं, हरि, तो आपुन नाहि ॥
जब गली सांकरी है, तो उसमें एक साथ दो जने कैसे जा सकते है? यदि तेरी खुदी ( मैं ) ने सारी ही जगह घेर ली तो हरि के लिए वहां कहां ठौर है? और हरि उस गली में यदि आ भी गए तो फिर साथ-साथ खुदी का गुजारा वहां कैसे होगा? मन ही वह प्रेम की गली है, जहां अहंकार और भगवान् एक साथ नहीं गुजर सकते, एक साथ नहीं रह सकते।
अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
‘रहिमन’ ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि ॥
अमरबेलि में जड़ नहीं होती, बिलकुल निर्मूल होती है परन्तु प्रभु उसे भी पालते-पोसते रहते हैं। ऐसे प्रतिपालक प्रभु को छोड़ कर और किसे खोजा जाय?
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँडति छोह॥
धन्य है मीन की ! अनन्य भावना से सदा साथ रहने वाला जल मोह छोड़ कर उससे विलग हो जाता है, फिर भी मछली अपने प्रिय का परित्याग नहीं करती उससे बिछुड़ कर तड़प – तड़प कर अपने प्राण दे देती है।
धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौर को भाय ॥
धन्य है मछली की ! अनन्य प्रीति प्रेमी से विलग होकर उस पर अपने प्राण न्यौछावर कर देती है और यह भ्रमर जो अपने प्रियतम कमल को छोड़ कर अन्यत्र उड़ जाता है।
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आप फिर जाय।।
जिन आँखों में प्रियतम की सुन्दर छबि बस गयी, वहां किसी दूसरी छबि को कैसे ठौर मिल सकता है? भरी हुई सराय को देखकर पथिक स्वयं वहां से लौट जाता है । मन -मन्दिर में जिसने भगवान को बसा लिया, वहां से मोहिनी माया, कहीं ठौर न पाकर, उल्टे पांव लौट जाती है।
‘रहिमन’ पैडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।
बिलछत पांव पिपीलिको, लोग लदावत बैल ॥
प्रेम की गली में कितनी ज्यादा फिसलन है चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं इस पर और हम लोगों को तो देखो जो बैल लादकर चलने की सोचते है । दुनिया भर का अहंकार सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रेम के विकट मार्ग पर चल सकता है? वह तो फिसलेगा ही।
‘रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोडो चटकाय ।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गांठ पड जाय ॥
बडा ही नाजुक है प्रेम का यह धागा । झटका देकर इसे मत तोड़ो , भाई टूट गया तो फिर जुड़ेगा नहीं, और जोड़ भी लिया तो गाँठ पड़ जायगी। प्रिय और प्रेमी के बीच दुराव आ जायगा ।
‘रहिमन’ प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥
सराहना ऐसे ही प्रेम की की जाय जिसमें अन्तर न रह जाय । चूना और हल्दी मिलकर अपना-अपना रंग छोड़ देते है। न दृष्टा रहता है और न दृश्य, दोनों एकाकार हो जाते हैं ।
कहा करौ वैकुण्ठ लै, कल्पवृच्छ की छांह।
‘रहिमन’ ढाक सुहावनो, जो गल पीतम-बाँह ॥
वैकुण्ठ जाकर कल्पवृक्ष की छांह तले बैठने में क्या रखा है ? यदि वहां प्रियतम पास न हो । उससे तो ढाक का पेड़ ही सुखदायक है, यदि उसकी छांह में प्रियतम के साथ गलबाँह देकर बैठने को मिले ।
जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहि ।
‘रहिमन’ दाहे प्रेम के, बुझि-बुझिझै सुलगाहि ॥
आग में पड़ कर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने वाले प्रेमीजन बुझकर भी सुलगते रहते है । ऐसे प्रेमी ही असल में ‘मरजीवा’ हैं।
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार ।
‘रहिमन’ फिर-फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार ॥
अपना प्रिय एक बार तो क्या, सौ बार भी रूठ जाय, तो भी उसे मना लेना चाहिए । मोतियों के हार टूट जाने पर धागे में मोतियों को बार-बार पिरो लेते हैं ।
यह न ‘रहीम’ सराहिये, लेन – देन की प्रीति ।
प्रानन बाजी राखिये, हार होय के जीत ॥
ऐसे प्रेम को कौन सराहेगा जिसमें लेन-देन का नाता जुड़ा हो ? प्रेम क्या कोई खरीद-फरोख्त की चीज है? उसमें तो प्राणों का दांव लगा दिया जाता है फिर यह परवाह नहीं रहती कि हार होती है या जीत।
‘रहिमन’ मैन-तुरंग चढि, चलिबो पावक माहि ।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहि ॥
प्रेम का मार्ग हर कोई नहीं तय कर सकता। इस मार्ग पर चलना उसी प्रकार बड़ा कठिन है जैसे मोम के बने घोड़े पर सवार हो कर आग पर चलना ।
वहै प्रीत नहि रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
घटत-घटत ‘रहिमन’ घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥
कौन उसे प्रेम कहेगा, जो धीरे-धीरे घट जाता है? प्रेम तो वह, जो एक बार किया, तो घटना कैसा ? वह रेत तो है नहीं, जो हाथ में लेने पर छन-छनकर गिर जाय । प्रीति की रीति बिलकुल ही निराली है ।
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
‘रहिमन’ जगत-उधार को, और न कछू उपाय ॥
संसार-सागर के पार ले जाने वाली नाव बस एक राम की शरणागति ही है। संसार से उद्धार पाने का दूसरा कोई उपाय नहीं, कोई और साधन नहीं।
मुनि-नारी पाषान ही, कपि, पशु, गुह मातंग।
तीनों तारे रामजू, तीनों मेरे अंग ॥
राम ने पाषाणी अहल्या को तार दिया, वानर पशुओं को पार कर दिया और नीच जाति के उस गुह निषाद को भी । ये तीनों ही मेरे अंग-अंग में बसे हुए हैं– मेरा हृदय ऐसा कठोर है, जैसा पाषाण। मेरी वृत्तियां, मेरी वासनाएं पशुओं की जैसी हैं, और मेरा आचरण नीचतापूर्ण है। हे राम ! तब फिर, मुझे तारने में तुम्हे संकोच क्या हो रहा है ?
मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय ।
‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय ॥
सच्चा मित्र वही है, जो विपदा में साथ देता है । वह किस काम का मित्र, जो विपत्ति के समय अलग हो जाता है? मक्खन मथते-मथते रह जाता है, किन्तु मट्ठा दही का साथ छोड देता है।
जिहि ‘रहीम’ तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन ।
तासों दुःख-सुख कहन की, रही बात अब कौन ॥
जिस प्रिय मित्र ने तन और मन पर कब्जा कर रखा है और हृदय में जो सदा के लिए बस गया है, उससे सुख और दुःख कहने की अब कौन-सी बात बाकी रह गयी है? (दोनों के तन एक हो गये, और मन भी दोनों के एक ही।
जे गरीब सों हित करें, धनि ‘रहीम’ ते लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई-जोग।।
धन्य हैं वे, जो गरीबों से प्रीति जोड़ते हैं । बेचारा सुदामा क्या द्वारिकाधीश कृष्ण की मित्रता के योग्य था?
जो ‘रहीम’ करबौ हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
तो काहे कर पर धरयौ, गोवर्धन गोपाल ॥
हे गोपाल ! ब्रज को छोड़ कर यदि तुम्हें उसका यही हाल करना था, तो उसकी रक्षा करने के लिए अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत को क्यों उठा लिया था? (प्रलय जैसी घनघोर वर्षा से व्रजवासियों को त्राण देने के लिए पर्वत को छत्र क्यों बना लिया था?)
हरि रहीम’ ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खेंचि आपनी ओर को, डारि दियौ पुनि दूर ॥
जैसे धनुष पर चढाया हुआ तीर पहले तो अपनी तरफ खींचा जाता है, और फिर उसे छोडकर बहुत दूर फेंक देते हैं। वैसे ही हे नाथ पहले तो आपने कृपा कर मुझे अपनी और खींच लिया और फिर इस तरह दूर फेंक दिया कि मैं दर्शन पाने को तरस रहा हूँ।
‘रहिमन’ कीन्ही प्रीति , साहब को भावै नहीं।
जिनके अगनित मीत, हमें गरीबन को गर्ने ॥
मैंने स्वामी से प्रीति जोड़ी पर लगता है कि उसे वह अच्छी नहीं लगी। मैं सेवक तो गरीब हूँ और स्वामी के अगणित मित्र हैं। ठीक ही है, असंख्य मित्रों वाला स्वामी गरीबों की तरफ क्यों ध्यान देने लगा?
बिन्दु में सिन्धु समान, को अचरज कासों कहैं।
हेरनहार हिरान, ‘रहिमन’ आपुनि आपमें॥
अचरज की यह बात कौन कहे और किससे कहे ? लो, एक बूंद में सारा ही सागर समा गया। जो खोजने चला था, वह अपने आप में खो गया । खोजनहारी आत्मा और खोजने की वस्तु परमात्मा । भ्रम का पर्दा उठते ही न खोजने वाला रहा और न वह कि जिसे खोजा जाना था। दोनों एक हो गए। अचरज की बात कि आत्मा में परमात्मा समा गया। समा क्या गया, पहले से ही समाया हुआ था ।
‘रहिमन’ बात अगम्य की, कहनि-सुननि की नाहि ।
जे जानत ते कहत नहि, कहत ते जानत नाहि ॥
जो अगम है उसकी गति कौन जाने? उसकी बात न तो कोई कह सकता है, और न वह सुनी जा सकती है। जिन्होंने अगम को जान लिया, वे उस ज्ञान को बता नहीं सकते, और जो इसका वर्णन करते है, वे असल में उसे जानते ही नहीं।
सदा नगारा कूच का, बाजत आठौ जाम ।
‘रहिमन’ या जग आइकै, को करि रहा मुकाम ॥
आठों ही पहर नगाड़ा बजा करता है इस दुनिया से कूच कर जाने का। जग में जो भी आया, उसे एक-न-एक दिन कूच करना ही होगा। किसी का मुकाम यहां स्थायी नहीं रह पाया।
सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट ।
फिर सौदा पैहो नहीं, दूरि जात है बाट ॥
दुनिया की इस हाट में जो भी कुछ सौदा करना है, वह कर लो, गफलत से काम नहीं बनेगा। यह रास्ता बड़ा ही लम्बा है, जिस पर तुम्हें चलना होगा। इस हाट से जाने के बाद न तो कुछ खरीद सकोगे, और न कुछ बेच सकोगे।
‘रहिमन’ कठिन चितान तै, चिता को चित चैत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव-समेत ॥
चिन्ता यह चिता से भी भंयकर है। सो तू चेत जा। चिता तो मुर्दे को जलाती है, और यह चिन्ता जिन्दा को ही जलाती रहती है।
कागज को सो पूतरा, सहजहि में घुल जाय।
‘रहिमन’ यह अचरज लखो, सोऊ खेंचत जाय ॥
शरीर यह ऐसा हैं, जैसे कागज का पुतला, जो देखते-देखते घुल जाता है । पर यह अचरज तो देखो कि यह साँस लेता है, और दिन-रात लेता रहता हैं।
तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खेंचत बाय।
जस कागद को पूतरा, नमी माहि घुल जाय ॥
कागज के बने पुतले के जैसा यह शरीर है। नमी पाते ही यह गल-घुल जाता है। समझ में नहीं आता कि इसके अन्दर जो साँस ले रहा है, वह आखिर कौन है?
‘रहिमन’ ठठरि धूरि की, रही पवन ते पूरि ।
गाँठि जुगति की खुल गई, रही धूरि की धूरि ॥
यह शरीर क्या है, मानो धूल से भरी गठरी । गठरी की गाँठ खुल जाने पर सिर्फ धूल ही रह जाती है। खाक का अन्त खाक ही है।
‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥
ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे । हम तो बड़ी मेहनत से कुएं से ढेंकुली द्वारा पानी खींचते हैं और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।
सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम ।
हित अनहित तब जानिये, जा दिन अटके काम ॥
आपस में तो सभी मिलते हैं । सबसे राम-राम, सलाम और जुहार करते हैं। पर कौन मित्र है और कौन शत्रु, इसका पता तो काम पड़ने पर ही चलता है। तभी जब किसी का कोई काम अटक जाता है ।
खीरा को सिर काटिकै, मलियत लौन लगाय।
‘रहिमन’ करुवे मुखन की, चहिए यही सजाय।।
चलन है कि खीरे का ऊपरी सिरा काट कर उस पर नमक मल दिया जाता है। कडुवे वचन बोलने वाले की यही सजा है।
जो ‘रहीम’ ओछो बढे, तो अति ही इतराय ।
प्यादे से फरजी भयो, टेढो-टेढो जाय ॥
कोई छोटा या ओछा आदमी, अगर तरक्की कर जाता हैं, तो मारे घमंड के बुरी तरह इतराता फिरता है। देखो न, शतरंज के खेल में प्यादा जब फरजी बन जाता है, तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
‘रहिमन’ नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारिन हाथ लखि, सब समुझहि मद ताहि ।।
नीच लोगों का साथ करने से भला कौन कलंकित नहीं होता है। कलारिन शराब बेचने वालीह के हाथ में यदि दूध भी हो, तब भी लोग उसे शराब ही समझते हैं।
कौन बडाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
केहि की प्रभुता नहि घटी पर-घर गये ‘रहीम’ ॥
गंगा की कितनी बड़ी महिमा है, पर समुद्र में पैठ जाने पर उसकी महिमा घट जाती है। घट क्या जाती है, उसका नाम भी नहीं रह जाता। सो, दूसरे के घर, स्वार्थ लेकर जाने से, कौन ऐसा है, जिसकी प्रभुता या बड़प्पन न घट गया हो?
खरच बदयो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु ‘रहीम’ कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥
बूढ़े हो चुके राजा की स्थिति बड़ी विषम होती है, क्योंकि खर्च बढ़ जाते है और आय के स्रोत कम हो जाते है रहीम जी कहते है, ऐसे राजा की स्थिति उस मछली के जैसी है जो छिछले पानी में जीवन यापन कर रही है । वो न जी पाती है और न ही मर पाती है और परिस्थितियों से समझौता कर लेती है।
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
ताको बुरो न मानिये, लेन कहां तूं जाय ॥
जिसकी जैसी जितनी बुद्धि होती है वह वैसा ही बन जाता है या बना-बना कर वैसी ही बात करता है। उसकी बात का इसलिए बुरा नहीं मानना चाहिए । कहां से वह सम्यक बुद्धि लेने जाये ?
जिहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
‘रहिमन’ असमय के परे, मित्र सत्रु हवै जात ॥
साड़ी के जिस आँचल से दीपक को छिपाकर एक स्त्री पवन से उसकी रक्षा करती है, दीपक उसी आँचल को जला डालता है। बुरे दिन आते हैं, तो मित्र भी शत्रु हो जाता है।
‘रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥
आंसू आंखों में ठुलक कर अन्तर की व्यथा प्रकट कर देते हैं। घर से जिसे निकाल बाहर कर दिया, वह घर का भेद दूसरों से क्यों न कह देगा?
‘रहिमन’ अब वे बिरछ कह, जिनकी छाँह गंभीर ।
बागन बिच-बिच देखिअत, सेंहुड कुंज करीर ॥
वे पेड़ आज कहां, जिनकी छाया बड़ी घनी होती थी ? अब तो उन बागों में कांटेदार सेंहुड, कंटीली झाडियाँ और करील देखने में आते हैं।रहीम कहते हैं, अब ऐसे वृक्ष कहीं देखने को नहीं मिलते जिनकी घनी छांव के नीचे बैठकर थके मांदे व संतप्त जनों को चैन और शांति मिलती थी। अब तो बागों में जहां तहां सेहुड़ (एक पौधा जिसके पत्ते बड़े होते हैं), कुंज (जंगली लताएं) और करीर (करील के झाड़ झंखाड़) आदि उगे हैं, जिनसे किसी को लाभ नहीं होता और जो देखने मं भी भले नहीं लगते। इस दोहे में रहीम सामाजिक दुरावस्था देखकर अफसोस जताते हैं। उनका कथन है कि समाज में पहले जैसे महापुरूष और गुणीजन नहीं रहे, जिनकी छत्रछाया में बैठकर जीवन के सार्थक मूल्यों और आदर्शों का सारगर्भित ज्ञान प्राप्त होता था। अब तो चारों ओर भ्रष्टचारियों, धूर्तों, कामियों और विधर्मियों की धूम मची हुई है, जिनके अपकर्मों से निर्दोष जनता त्राहि त्राहि कर रही है।
‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥
क्या किया जाय इस पगली जीभ का, जो न जाने क्या-क्या उल्टी-सीधी बातें स्वर्ग और पाताल तक की बक जाती है। खुद तो कहकर मुँह के अन्दर हो जाती है, और बेचारे सिर को जूतियाँ खानी पड़ती है।
‘रहिमन’ तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान ।
घटत मान देखिय जबहि, तुरतहि करिय पयान ॥
तभी तक वहां रहा जाय, जब तक दान, मान और सम्मान मिले। जब देखने में आये कि मान-सम्मान घट रहा है, तो तत्काल वहां से चल देना चाहिए।
‘रहिमन’ खोटी आदि को, सो परिनाम लखाय ।
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय ॥
जिसका आदि बुरा, उसका अन्त भी बुरा। दीपक आदि में अन्धकार का भक्षण करता है, तो अन्त में वमन भी वह कालिख का ही करता जैसा आरम्भ, वैसा ही परिणाम ।
रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौ लौ सील समुच ।
सील ढील जब देखिए, तुरंत कीजिए कूच ॥
तभी तक कहीं रहना उचित हैं, जब तक की वहाँ शील और सम्मान बना रहे । शील-सम्मान में ढील आने पर उसी वक्त वहाँ से चल देना चाहिए।
धन थोरो, इज्जत बडी, कहि,रहीम’ का बात।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथडन माहि समात ॥
पैसा अगर थोडा है, पर इज्जत बड़ी है, तो यह कोइ निन्दनीय बात नहीं । खानदानी घर की स्त्री चीथड़े पहन कर भी अपने मान की रक्षा कर लेती हैं ।
धनि रहीम’ जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बडाई कौन हैं, जगत पियासो जाय ॥
कीचड़ का भी पानी धन्य हैं, जिसे पीकर छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी तृप्त हो जाते हैं। उस समुद्र की क्या बडाई, जहां से सारी दुनिया प्यासी ही लौट जाती हैं ?
अनुचित बचत न मानिए, जदपि गुरायसु गाढि।
हैं रहीम’ रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढि ॥
किसी की भी ऐसी आज्ञा नहीं माननी चाहिए, जो अनुचित हो। पिता का वचन मानकर राम वन को चले गए । किन्तु भरत ने बड़ों की आज्ञा नहीं मानी, जबकी उनको राज करने को कहा गया था फिर भी राम के यश से भरत का यश महान् माना जाता हैं । तुलसीदास जी ने बिल्कुल सही कहा हैं कि जग जपु राम, राम जपुजेही’ अर्थात् संसार जहां राम का नाम का जाप करता हैं, वहां राम भरत का नाम सदा जपते रहते हैं।
अब,रहीम मुसकिल पडी, गाढे दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झुठे मिलै न राम ॥19॥
बड़ी मुश्किल में आ पड़े कि ये दोनों ही काम बड़े कठिन हैं । सच्चाई से तो दुनिया दारी हासिल नहीं होती हैं, लोग रीझते नहीं हैं, और झूठ से राम की प्राप्ति नहीं होती हैं । तो अब किसे छोड़ा जाए, और किससे मिला जाए ?
आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं ।
जो, रहीम’ कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहीं ॥
राजा के बहुत समीप जाने से आदर कम हो जाता है और साथ रहने से कुछ भी मिलने का नहीं । बिना आदर के करोड़ों का धन मिल जाए, तो संसार में धिक्कार हैं ऐसे जीवन को ।
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरै, ‘रहिमन’ पेड बबूल ॥
बबूल का पेड़ खुद अपने लिए भी किस काम का? न तो डालें हैं, न पत्ते हैं और न फल और फूल ही। दूसरों को भी रोक लेता है, उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन’ मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय ॥
एक ही काम को हाथ में लेकर उसे पूरा कर लो। सबमें अगर हाथ डाला, तो एक भी काम बनने का नहीं । पेड़ की जड़ को यदि तुमने सींच लिया, तो उसके फूलों और फलों को पूर्णतया प्राप्त कर लोगे।
अन्तर दावा लगि रहै, धुआं न प्रगटै सोय।
के जिय जाने आपनो, जा सिर बीती होय ॥
आग अन्तर में सुलग रही है, पर उसका धुआं प्रकट नहीं हो रहा है । जिसके सिर पर बीतती है, उसी का जी उस आग को जानता है । कोई दूसरा उस आग का यानी दुःख का मर्म नहीं समझ सकता। अर्थात हृदय में अंदर आग लगी हुई है-उसका धुआं भी दिखाई नहीं देता है। इसका दुख वही स्वयं जानता है जिसके उपर बीत रही हो। प्रेम की तड़प केवल प्रेमी ही अनुभव कर सकता है।
कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन ॥
स्वाती नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसके गुण अलग-अलग तीन तरह के देखे जाते है । कदली में पड़ने से, कहते है कि, उस बूंद का कपूर बन जाता है और अगर सीप में वह पड़ी तो उसका मोती हो जाता है । सांप के मुँह में गिरने से उसी बूंद का विष बन जाता है । जैसी संगत में बैठोगे, उसका वैसा ही परिणाम होगा । यह कवियों की मान्यता है, और इसे कवि समय’ कहते है।
कमला थिर न रहिम’ कहि, यह जानत सब कोय
पुरूष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय ॥
लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती । मूढ़ जन ही देखते है कि वह उनके घर में स्थिर होकर बैठ गयी है । लक्ष्मी प्रभु की पली है, नारायण की अर्धांगिनी है । उस मूर्ख की फजीहत कैसे नहीं होगी, जो लक्ष्मीजी को अपनी कहकर या अपनी मानकर चलेगा।
रत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर ।
मानहुं टेरत बिटप चढि, मोहि समान को कूर ॥
बिना किसी निपुणता और बिना किसी गुण के जो व्यक्ति बुद्धिमानों के आगे डींग मारता फिरता है। वह मानो वृक्ष पर चढ़ कर अपनी निरि मूर्खता की घोषणा करता है।
कहि ‘रहिम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति ।
बिपति-कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत ॥
धन सम्पत्ति यदि हो, तो अनेक लोग सगे-संबंधी बन जाते हैं पर सच्चे मित्र तो वे ही हैं , जो विपत्ति की कसौटी पर कसे जाने पर खरे उतरते हैं। सोना सच्चा है या खोटा, इसकी परख कसौटी पर घिसने से होती है। इसी प्रकार विपत्ति में जो हर तरह से साथ देता है, वही सच्चा मित्र है ।
कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥
बेर और केले के साथ-साथ कैसे निभाव हो सकता है ? बेर का पेड़ तो अपनी मौज में डोल रहा है, पर उसके डोलने से केले का एक-एक अंग फटा जा रहा है । दुर्जन की संगति में सज्जन की ऐसी ही गति होती है ।
कहु रहीम’ कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछीताय ॥
आयु अब कितनी रह गयी है, कितनी बीत गई है । अब तो चेत जा । माया में, ममता में और मोह में फँसकर अन्त में पछतावा ही साथ लेकर तू जायगा ।
काह कामरी पामडी, जाड गए से काज ।
‘रहिमन’ भूख बुताइए, कैस्यो मिले अनाज ॥
क्या तो कम्बल और क्या मखमल का कपड़ा असल में काम का तो वही है, जिससे कि जाड़ा चला जाय । खाने को चाहे जैसा अनाज मिल जाय, उससे भूख बुझनी चाहिए ।
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर ।
‘रहिमन’ बसि सागर विषे, करत मगर सों बैर ॥
सबल के साथ बैर निभाने से कमजोर का निर्वाह कैसे होगा ? सबल निर्बल को दबोच लेगा। यह तो समुद्र के किनारे रहकर तो मगरमच्छ से बैर निभाने जैसा हुआ ।
कोउ रहीम’ जहि काहुके, द्वार गए पछीताय ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै ले जाय ॥
किसी के दरवाजे पर जाकर पछताना नहीं चाहिए । धनी के द्वार तो सभी जाते हैं । यह विपत्ति कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती है ।
खैर , खुन, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान ।
रहिमन’ दाबे ना दबै, जानत सकल जहान ॥
दुनिया जानती है कि ये चीजें दबाने से नहीं दबतीं, छिपाने से नहीं छिपती – खैर अर्थात कुशल , खून या हत्या, खाँसी, खुशी , बैर, प्रीति और मदिरा-पान।
[खैर कत्थे को भी कहते हैं, जिसका दाग कपड़े पर साफ दिख जाता है।]
गरज आपनी आप सों , रहिमन’ कही न जाय।
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जात लजाय ॥
अपनी गरज की बात किसी से कही नहीं जा सकती । इज्जतदार आदमी ऐसा करते हुए शर्मिन्दा होता है, अपनी गरज को वह मन में ही रखता है । जैसे कि किसी कुलवधू को पराये घर में जाते हुए शर्म आती है।
छिमा बडेन को चाहिए , छोटन को उतपात ।
का रहीम’ हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥
रहीम कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु को क्षमा कर दिया। इससे विष्णु का क्या बिगड़ा! क्षमा बड़प्पन की निशानी है।
जब लगि विपुन न आपुने , तब लगि मित्त न होय ।
‘रहिमन’ अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिन हित होय ॥
तब तक कोई मित्रता नहीं करता, जब तक कि अपने पास धन न हो । बिना जल के सूर्य भी कमल से अपनी मित्रता तोड़ लेता है ।
जे रहीम’ बिधि बड किए, को कहि दूषन काढि ।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढि ॥
विधाता ने जिसे बड़ाई देकर बड़ा बना दिया, उसमें दोष कोई निकाल नहीं सकता । चन्द्रमा सभी नक्षत्रों से अधिक प्रकाश देता है, भले ही वह दुबला और कुबड़ा हो।
जैसी परै सो सहि रहे , कहि.रहीम’ यह देह ।
धरती ही पर परग है , सीत, घाम औ’ मेह ॥
जो कुछ भी इस देह पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए । जैसे, जाड़ा , धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है ।
जो घर ही में गुसि रहे, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम’ तिनते भले, पथ के अपत करील ॥
केले के सुन्दर पत्ते होते हैं और उसका तना भी वैसा ही सुन्दर होता है किन्तु वह घर के अन्दर ही शोभित होता है । उससे कहीं अच्छे तो करील हैं , जिनके न तो सुन्दर पत्ते हैं और न जिनका तन ही सुन्दर है, फिर भी करील रास्ते पर होने के कारण पथिकों को अपनी ओर खींच लेता है ।
जो बडेन को लघु कहै, नहि,रहीम’ घटि जाहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहि ॥
बड़े को यदि कोई छोटा कह दे, तो उसका बड़प्पन कम नहीं हो जाता । जैसे गिरधर (गिरि को धारण करने वाले कृष्ण) को मुरलीधर भी कहा जाता है लेकिन कृष्ण की महानता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
जो रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे इजियारो लगे, बढे अंधेरो होय ॥
दीपक की तथा कुल में पैदा हुए कुपूत की गति एक-सी है । दीपक जलाया तो उजाला हो गया और बुझा दिया तो अन्धेरा-ही-अंधेरा । कुपूत बचपन में तो प्यारा लगता है और बड़ा होने पर बुरी करतूतों से अपने कुल की कीर्ति को नष्ट कर देता है । अर्थात दीपक और कुपुत्र की हालत एक होती है । दीप जलने पर उजाला कर देता है और पुत्र जन्म पर आशा से आनन्द फैल जाता है परन्तु दीप बुझ जाने पर अंधकार हो जाता है और कपूत के बड़ा होने पर घर को निराशा के अन्धकार में डुबा देता है ।
जो रहीम’ मन हाथ है, तो तन कहुँ किन जाहि।
जल में जो छाया परे , काया भीजति नाहि ॥
मन यदि अपने हाथ में है, अपने काबू में है, तो तन कहीं भी चला जाय, कुछ बिगड़ने का नहीं । जैसे जल में छाया पड़ने पर काया ( शरीर ) नहीं भीगती है। जीत और हार का कारण मन ही है, तन नहीं । मन के जीते जीत है, मन के हारे हार ।
जो विषया संतन तजी, मूढ ताहि लपटात।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खात ॥
संतजन जिन विषय-वासनाओं का त्याग कर देते हैं, उन्हीं को पाने के लिए मूढ़ जन लालायित रहते हैं । जैसे वमन किया हुआ अन्न कुत्ता बड़े स्वाद से खाता है ।
तबही लौ जीवो भलो, दीबो होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित होय,रहीम’ ॥
जीना तभी तक अच्छा है, जब तक कि दान देना कम न हो । संसार में दान-रहित जीवन कुत्सित है । उसे सफल कैसे कहा जा सकता है ?
तरुवर फल नहि खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि,रहीम’ परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ॥
वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और तालाब अपना पानी स्वयं नहीं पीते । दूसरों के हितार्थ ही सज्जन सम्पत्ति का संचय करते हैं । उनकी विभूति परोपकार के लिए ही होती है ।
थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम’ घहरात ।
धनी पुरुष निधन भये, करैं पाछिली बात ॥
क्वार मास में पानी से खाली बादल जिस प्रकार गरजते हैं, उसी प्रकार धनी मनुष्य जब निर्धन हो जाता है, तो अपनी बातों का बार-बार बखान करता है ।
थोरी किए बडेन की, बडी बडाई होय ।
ज्यों रहीम’ हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥
अगर बड़ा आदमी थोडा सा भी काम कुछ कर दे, तो उसकी बड़ी प्रशंसा की जाती है । हनुमान इतना बड़ा द्रोणाचल उठाकर लंका ले आये, तो भी उनको कोई गिरिधर नहीं कहता । (छोटा-सा गोवर्धन पर्वत उठा लिया, तो कृष्ण को सभी गिरिधर कहने लगे ।)
दीन सबन को लखत है, दीनहि लखे न कोय ।
जो, रहीम’ दीनहि लखे, दीनबंधु सम होय ॥
गरीब की दृष्टि सब पर पड़ती है, पर गरीब को कोई नहीं देखता । जो गरीब को प्रेम से देखता है, उसकी मदद करता है, वह दीनबन्धु भगवान के समान हो जाता है ।
दोनों रहिमन’ एक से, जो लों बोलत नाहि ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माहि ॥
दोनों का रूप एक सा ही है । पहचानने में धोखा खा जाते हैं कि कौन कौआ है और कौन कोयल । दोनों की पहचान करा देती है, वसन्त ऋतु । एक तरफ जबकि कोयल की कूक सुनने में मीठी लगती है और दूसरी तरफ कौवे का काँव-काँव कानों को फाड़ देता है । (रूप एक-सा सुन्दर हुआ, तो क्या हुआ दुर्जन और सज्जन की पहचान कडुवी और मीठी वाणी स्वयं करा देती है ।)
धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम’ केहि काज।
जेहि रज मुनि-पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज ॥
हाथी नित्य क्यों अपने सिर पर धूल को उछाल-उछाल कर रखता है ? जरा पूछो तो उससे। उत्तर है:- जिस श्रीराम के चरणों की धूल से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी थी, उसे ही गजराज ढूंढता है कि वह कभी तो मिलेगी ।
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत ।
ते रहीम’ पसु से अधिक, रीझेहु कछू न देत ॥
गान के स्वर पर रीझ कर मृग अपना शरीर शिकारी को सौंप देता है और मनुष्य धन-दौलत पर प्राण गंवा देता है परन्तु वे लोग पशु से भी गये बीते हैं, जो रीझ जाने पर भी कुछ नहीं देते ।
निज कर क्रिया रहीम’ कहि, सिधि भावी के हाथ।
पाँसा अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ॥
कर्म करना तो अपने हाथ में है, पर उसकी सफलता दैव के हाथ में है । जैसे कि चौपड़ के खेल में – पासा अपने हाथ में है, पर दाँव अपने हाथ में नहीं ।
पनगबेलि पतिव्रता , रिति सम सुनो सुजान ।
हिम रहीम’ बेली दही, सत जोजन दहियान ॥
सज्जनों , ध्यान देकर सुनो । पान की बेल पतिव्रता की भाँति है । प्रेम करने और उसे निभाने में दोनों ही समान हैं । पान की बेल पाला पड़ने से जल जाती है और पतिव्रता पति के विरह में जलती रहती है।
पावस देखि रहीम’ मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन ॥
वर्षा ऋतु आने पर कोयल यह सोच कर मौनव्रत ले लेती है कि अब हमें कौन पूछेगा ? अब तो मेंढक ही बोलेंगे, उन्हीं वक्ताओं के भाषण होंगे अब ।
बड माया को दोष यह , जो कबहूं घटि जाय।
तो, रहीम’ मरोबो भलो, दुख सहि जियै बलाय ॥
धन सम्पत्ति का बहुत बड़ा दोष यह है :- यदि वह कभी घट जाय, तो उस दशा में मर जाना ही अच्छा है । दुःख झेल-झेलकर कौन जिये ?
बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम’ पहिचानि ॥
बड़े लोग जब किसी गरीब का दुखड़ा सुनते हैं, तो उनके हृदय में दया उमड़ आती है । भगवान की कब जान पहचान थी ग्राह से ग्रस्त गजेन्द्र के साथ ?
बडे बडाई ना करें , बडो न बोले बोल ।
रहिमन’ हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल ॥
जो सचमुच बड़े होते हैं, वे अपनी बडाई नहीं किया करते, बड़े-बड़े बोल नहीं बोला करते । हीरा कब कहता है कि मेरा मोल लाख टके का है । [छोटे छिछोरे आदमी ही बातें बना-बनाकर अपनी तारीफ के पुल बाँधा करते हैं।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन’ फाटे दूध को, मथै न माखन होय ॥
लाख उपाय क्यों न करो, बिगड़ी हुई बात बनने की नहीं । जो दूध फट गया, उसे कितना ही मथो, उसमें से मक्खन निकलने का नहीं ।
भजौ तो काको मैं भजौ, तजौ तो काको आन।
भजन तजन से बिलग है, तेहि रहीम’ तू जान ॥
भजूं तो मैं किसे भजूं ? और तजूं तो कहो किसे तजूं ? तू तो उस परमतत्व का ज्ञान प्राप्त कर, जो भजन अर्थात राग-अनुराग एवं त्याग से, इन दोनों से बिल्कुल अलग है, सर्वथा निर्लिप्त है ।
भार झोंकि के भार में, ‘रहिमन’ उतरे पार।
पै बूडे मँझधार में , जिनके सिर पर भार ॥
अहम् को यानी खुदी के भार को भाड़ में झोंककर हम तो पार उतर गये । बीच धार में तो वे ही डूबे, जिनके सिर पर अहंकार का भार रखा हुआ था, या जिन्होंने स्वयं भार रख लिया था।
भावी काहू ना दही, भावी-दह भगवान् ।
भावी ऐसी प्रबल है, कहि,रहीम’ यह जान ॥
भावी अर्थात् प्रारब्ध को कोई नहीं जला सका, उसे जला देने वाला तो भगवान ही है । समझ ले तू कि भावी कितनी प्रवल है । भगवान यदि बीच में न पड़ें तो होनहार होकर ही रहेगी ।
भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।
‘रहिमन’ गिरि ते भूमि लौ, लखौ एकै रूप ॥
राजा की दृष्टि में गुणी छोटे हैं, और गुणी राजा को छोटा मानते हैं । पहाड़ पर चढ़ कर देखो तो न तो कोई बड़ा है, न कोई छोटा, सब समान ही दिखाई देंगे ।
माँगे घटत, रहीम’ पद , किती करो बढि काम ।
तीन पैड बसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥
कितना ही महत्व का काम करो, यदि किसी के आगे हाथ फैलाया, तो ऊँचे से ऊंचा पद स्वतः छोटा हो जायेगा । विष्णु ने बड़े कौशल से राजा बलि के आगे सारी पृथ्वी को मापकर तीन पग बताया, फिर भी उनका नाम बामन ही रहा । (वामन से बन गया बावन अर्थात् बौना ।)
माँगे मुकरि न को गयो , केहि न त्यागियो साथ ।
माँगत आगे सुख लह्यो, तै रहीम’ रघुनाथ ॥
माँगने पर कौन नहीं हट जाता ? और ऐसा कौन है, जो याचक का साथ नहीं छोड़ देता ? पर श्रीरघुनाथजी ही ऐसे हैं, जो माँगने से भी पहले सब कुछ दे देते हैं, याचक अयाचक हो जाता है । (श्रीराम के द्वारा विभीषण को लंका का राज्य दे डालने से यही आशय है, जबकि विभीषण ने कुछ भी माँगा नहीं था ।)
मूढमंडली में सुजन , ठहरत नहीं बिसेखि ।
स्याम कचन में सेत ज्यो, दूरि कीजियत देखि ॥
मूर्खों की मंडली में बुद्धिमान कुछ अधिक नहीं ठहरा करते । काले बालों में से जैसे सफेद बाल देखते ही दूर कर दिया जाता है ।
यद्यपि अवनि अनेक हैं , कूपवंत सरि ताल ।
‘रहिमन’ मानसरोवरहि, मनसा करत मराल ॥
यों तो पृथ्वी पर न जाने कितने कुएँ, कितनी नदियाँ और कितने तालाब हैं, किन्तु हंस का मन तो मानसरोवर का ही ध्यान किया करता है ।
यह रहीम’ निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर, प्रीति, अभ्यास, जस होत होत ही होय ॥
बैर, प्रीति, अभ्यास और यश इनके साथ संसार में कोई भी जन्म नहीं लेता । ये सारी चीजें तो धीरे-धीरे ही आती हैं ।
यह रहीम’ माने नहीं , दिल से नवा न होय ।
चीता, चोर, कमान के, नवे ते अवगुन होय ॥
चीते का, चोर का और कमान का झुकना अनर्थ से खाली नहीं होता है । मन नहीं कहता कि इनका झुकना सच्चा होता है । चीता हमला करने के लिए झुककर कूदता है । चोर मीठा वचन बोलता है, तो विश्वासघात करने के लिए । कमान धनुष झुकने पर ही तीर चलाती है ।
यों रहीम’ सुख दुख सहत , बड़े लोग सह सांति ।
उवत चंद जेहि भाँति सों , अथवत ताही भाँति ॥
बड़े आदमी शान्तिपूर्वक सुख और दुःख को सह लेते हैं । वे न सुख पाकर फूल जाते हैं और न दुःख में घबराते हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार उदित होता है, उसी प्रकार डूब भी जाता है ।
रन, बन व्याधि, विपत्ति में, रहिमन’ मरे न रोय।
जो रक्षक जननी-जठर, सो हरि गए कि सोय ॥ 70॥
रणभूमि हो या वन अथवा कोई बीमारी हो या विपदा हो, इन सबके मारे रो-रोकर मरना नहीं चाहिए । जिस प्रभु ने माँ के गर्भ में रक्षा की, वह क्या सो गया है ?
रहिमन’ आटा के लगे, बाजत है दिन-राति।
घिउ शक्कर जे खात हैं , तिनकी कहा बिसाति ॥
मृदंग को ही देखो । जरा-सा आटा मुँह पर लगा दिया, तो वह दिन रात बजा करता है, मौज में मस्त होकर खूब बोलता है । फिर उनकी बात क्या पूछते हो, जो रोज घी शक्कर खाया करते हैं ।
रहिमन’ ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत ॥
ओछे आदमी के साथ न तो बैर करना अच्छा है, और न प्रेम । कुत्ते से बैर किया, तो काट लेगा, और प्यार किया तो चाटने लगेगा ।
‘रहिमन’ कहत सु पेट सों, क्यों न भयो तू पीठ।
रीते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ ॥
पेट से बार-बार कहता हूँ कि तू पीठ क्यों नहीं हुआ ? अगर तू खाली रहता है, भूखा रहता है तो अनीति के काम करता है और, अगर तू भर गया, तो तेरे कारण नजर बिगड़ जाती है, बदमाशी करने को मन हो आता है । इसलिए तुझसे तो पीठ कहीं अच्छी है ।
रहिमन’ कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक ।
चतुरन के कसकत रहै, समय चूक की हूक ॥
यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति समय चूक गया, तो उसका पछतावा हमेशा कष्ट देता रहता है । कठोर कुठार बनकर उसकी कसक कलेजे के दो टुकड़े कर देती है ।
‘रहिमन’ चुप हो बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर ॥
यह देखकर कि बुरे दिन आ गये, चुप बैठ जाना चाहिए । दुर्भाग्य की शिकायत क्यों और किस से की जाय ? जब अच्छे दिन फिरेंगे, तो बनने में देर नहीं लगेगी । इस विश्वास का सहारा लेकर तुम चुपचाप बैठे रहो । अर्थात संकट के समय धीरज से चुप रह कर बुरे समय का फेर समझ कर जीना चाहिये। अच्छा समय आने पर झटपट सब ठीक हो जाता है और सब काम सफल हो जाते हैं। अतः धीरज से समय बदलने का इंतजार करना चाहिये।
‘रहिमन’ छोटे नरन सों, होत बडो नहि काम ।
मढो दमामो ना बनै, सौ चूहों के चाम ॥
छोटे आदमियों से कोई बड़ा काम नहीं बना करता, सौ चूहों के चमड़े से भी जैसे नगाड़ा नहीं मढ़ा जा सकता ।
‘रहिमन’ जग जीवन बडे काहु न देखे नैन ।
जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥
दुनिया में किसी को अपने जीते-जी बड़ाई नहीं मिली । रावण के रहते हुए बन्दरों ने लंका को लूट लिया । उसकी आँखों के सामने ही उसका सर्वस्व नष्ट हो गया ।
रहिमन’ जो तुम कहत हो, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रसभरा, रस काहे ना होय ॥
तुम जो यह कहते हो कि सत्संग से सदगुण प्राप्त होते हैं तो ईख के खेत में ईख के साथ-साथ उगने वाले रसभरा नामक पौधे से रस क्यों नहीं निकलता ?
रहिमन’ जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाव ।
जो बासर को निसि कहै, तो कचपची दिखाव ॥
अगर मालिक के साथ रहना चाहते हो तो, हमेशा उसकी हाँ’ में हाँ’ मिलाते रहो । अगर वह कहे कि यह दिन नहीं , यह तो रात है, तो तुम आसमान में तारे दिखाओ । (अगर रहना है, तो खिलाफ में कुछ मत कहो, और अगर साफ-साफ कह देना है, तो वहाँ से फौरन चले जाओ,रहना तो कहना नहीं, कहना तो रहना नहीं ।)
‘रहिमन’ तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर-बस परे, परोस-बस, परे मामिला जानि ॥
क्या हित है और क्या अनहित, इसकी पहचान तीन प्रकार से होती है — दूसरे के बस में होने से, पड़ोस में रहने से और मामला मुकदमा पड़ने पर ।
‘रहिमन’ दानि दरिद्रतर , तऊ जाँचिबे जोग ।
ज्यों सरितन सूखा परे, कुँआ खदावत लोग ॥
दानी अत्यन्त दरिद्र भी हो जाय, तो भी उससे याचना की जा सकती है । नदियाँ अब सूख जाती हैं तो उनके तले में ही लोग कुएँ खुदवाते हैं ।
रहिमन’ देखि बढेन को , लघु न दीजिए डारि ।
जहाँ काम आवै सुई , कहा करै तरवारि ॥
बड़ी चीज को देखकर छोटी चीज को फेंक नहीं देना चाहिए । सुई जहाँ काम आती है, वहाँ तलवार क्या काम देगी ? मतलब यह कि सभी का स्थान अपना-अपना होता है ।
‘रहिमन’ निज मन की बिथा, मनही राखो गोय ।
सुनि अठिलेहें लोग सब , बाँटि न लैहें कोय ॥
अन्दर के दुःख को अन्दर ही छिपाकर रख लेना चाहिए, उसे सुनकर लोग उल्टे हँसी करेंगे कोई भी दुःख को बाँट नहीं लेगा ।
‘रहिमन’ निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय ।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहि रवि सकै बचाय ॥
काम अपनी ही सम्पत्ति आती है, कोई दूसरा विपत्ति में सहायक नहीं होता है । पानी न रहने पर कमल को सूखने से सूर्य बचा नहीं सकता ।
‘रहिमन’ पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै , मोती, मानुष, चून ॥
अपनी आबरू रखनी चाहिए । बिना आबरू के सब कुछ बेकार है , बिना आब का मोती बेकार, और बिना आबरू का आदमी कौड़ी काम का भी नहीं और इसी प्रकार चूने में से पानी यदि जल गया तो वह बेकार ही है ।
रहिमन’ प्रीति न कीजिए , जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन ॥ 86॥
ऐसे आदमी से प्रेम न जोड़ा जाय, जो ऊपर से तो मालूम दे कि वह दिल से मिला हुआ है, लेकिन अंदर जिसके कपट भरा हो । खीरे को ही देखो, ऊपर से तो साफ -सपाट दिखता है, पर अंदर उसके तीन-तीन फाँके हैं ।
‘रहिमन’ बहु भेषज करत , व्याधि न छाँडत साथ ।
खग, मृग बसत अरोग बन , हरि अनाथ के नाथ ॥
कितने ही इलाज किये, कितनी ही दवाइयाँ लीं, फिर भी रोग ने पिंड नहीं छोडा । पक्षी और हिरण आदि पशु जंगल में सदा निरोग रहते हैं। भगवान् के भरोसे, क्योंकि वह अनाथों का नाथ है ।
‘रहिमन’ भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तो न कोऊ मरि जात ॥
औषधियों के बल पर यदि काल को कहीं जीत लिया गया होता तो, दुनिया के बड़े-बड़े समर्थ और शक्तिशाली मौत के पंजे से साफ बच जाते ।
रहिमन’ मनहि लगाईके, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥
मन को स्थिर करके कोई क्यों नहीं देख लेता इस परम सत्य को कि मनुष्य को वश में कर लेने की तो बात ही क्या, नारायण भी वश में हो जाते हैं । रहीमदास जी कहते हैं कि यदि आप अपने मन को एकाग्रचित रखकर काम करेंगे, तो आप अवश्य ही सफलता प्राप्त कर लेंगे। उसी प्रकार मनुष्य भी एक मन से ईश्वर को चाहे तो वह ईश्वर को भी अपने वश में कर सकता है।
‘रहिमन’ मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव ।
जो डिगहै तो फिर कहूँ, नहि धरने को पाँव ॥
हाँ, यह मार्ग प्रेम का मार्ग है । कोई नासमझ इस पर पैर न रखे । यदि डगमगा गये तो, फिर कहीं पैर धरने की जगह नहीं । मतलब यह कि बहुत समझ-बूझकर और धीरज और दृढता के साथ प्रेम के मार्ग पर पैर रखना चाहिए । प्रेम का मार्ग अत्यंत खतरनाक खाईयों वाला वीहड़ है। यदि कोई इस रास्ते से डिग गया-पथ भ्रष्ट हो गया तो उसे पुनः पैर रखने को भी स्थान नहीं मिलता है। प्रेम के पथ में प्राणों का बलिदान करने को तैयार रहना चाहिये।
रहिमन’ यह तन सूप है, लीजे जगत पछोर ।
हलुकन को उडि जान दे, गरुए राखि बटोर ॥
तेरा यह शरीर क्या है, मानो एक सूप है । इससे दुनिया को पछोर लेना, यानी फटक लेना चाहिए । जो सारहीन हो, उसे उड़ जाने दो, और जो भारी अर्थात् सारमय हो, उसे तू रख ले । (हलके से आशय है कुसंग से और गरुवे यानी भारी से आशय है सत्संग से, वह त्यागने योग्य है, और यह ग्रहण करने योग्य ।)
‘रहिमन’ राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय।
कहा बापुरो भानु है, तप्यो तरैयन खोय ॥
ऐसे ही राज्य की सराहना करनी चाहिए, जो चन्द्रमा के समान सभी को सुख देने वाला हो । वह राज्य किस काम का, जो सूर्य के समान होता है, जिसमें एक भी तारा देखने में नहीं आता । वह अकेला ही अपने-आप तपता रहता है । [तारों से आशय प्रजाजनों से है, जो राजा के आतंक के मारे उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं कर सकते, मुंह खोलने की बात तो दूर ]
रहिमन’ रिस को छाँडि के, करौ गरीबी भेस ।
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारी देस ॥
क्रोध को छोड़ दो और सादगी से रहो । प्रेम से मीठे वचन बोलो और नम्रता युक्त चाल – चलन रखो , अकड़ कर नहीं । फिर तो सारा ही देश तुम्हारा है। सम्पूर्ण संसार में तुम्हारी प्रतिष्ठा रहेगी।
रहिमन’ लाख भली करो, अगुनी न जाय ।
राग, सुनत पय पिअतहू, साँप सहज धरि खाय ॥
लाख नेकी करो, पर दुष्ट की दुष्टता जाने की नहीं । सांप को बीन पर राग सुनाओ, और दूध भी पिलाओ, फिर भी वह दौड़ कर तुम्हें काट लेगा । स्वभाव ऐसा ही होता है । स्वभाव का इलाज क्या ?
‘रहिमन’ विद्या, बुद्धि नहि, नहीं धरम, जस, दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूँछ-विषान ॥
न तो पास में विद्या है, न बुद्धि है, न धर्म-कर्म है और न यश है और न दान भी किसी को दिया है । ऐसे मनुष्य का पृथ्वी पर जन्म लेना व्यर्थ ही है । ऐसा मनुष्य बिना पूँछ और बिना सींगो का पशु ही है ।
‘रहिमन’ विपदाहू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय ॥
तब तो विपत्ति ही अच्छी, जो थोड़े दिनों की होती है । संसार में विपदा के दिनों में पहचान हो जाती है कौन हित करने वाला है और कौन अहित करने वाला ।
रहिमन’ वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहि ।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि ॥
जो मनुष्य किसी के सामने हाथ फैलाने जाते हैं, वे मृतक के समान हैं और वे लोग तो पहले से ही मृतक हैं, मरे हुए हैं, जो माँगने पर भी साफ इन्कार कर देते हैं ।
‘रहिमन’ सुधि सबसे भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यह जान अवतार ॥
याद कितनी अच्छी होती है, जो बार-बार आती है । बिछुड़े हुए मनुष्यों की याद ही तो प्रभु को धरती पर उतारने को विवश कर देती है, भगवान् के अवतार लेने का यही कारण है , यही रहस्य है ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन-साथ ।
जो रहीम’ भावी कतहुँ, होत आपने हाथ ॥
होनहार यदि अपने हाथ में होती, उस पर अपना वश चलता, तो माया-मृग के पीछे राम क्यों दौडते और रावण क्यों सीता को क्यों हर ले जाता ?
रूप कथा, पद, चारुपट, कंचन, दोहा, लाल ।
ज्यों-ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम’ बिसाल ॥
रूप और कथा , कविता तथा सुन्दर वस्त्र एवं स्वर्ण , दोहा तथा रतन, इन सबका असली मोल तो तभी आंका जा सकता है, जबकि अधिक-से-अधिक सूक्षमता के साथ इनको देखा परखा जाय।
बरु रहीम’ कानन भलो, वास करिय फल भोग ।
बंधु मध्य धनहीन हवै, बसिबो उचित न योग ॥
निर्धन हो जाने पर बन्धु-बान्धवों के बीच रहना उचित नहीं । इससे तो वन में जाकर बस जाना और वहाँ के फलों पर गुजर करना कहीं अच्छा है ।
वे रहीम’ नर धन्य हैं , पर उपकारी अंग ।
बाँटनवारे को लगै, ज्यों मेंहदी को रंग ॥
धन्य है वे लोग, जिनके अंग-अंग में परोपकार समा गया है । मेंहदी पीसने वाले के हाथ अपने-आप रच जाते हैं, लाल हो जाते हैं ।
सबै कहा लसकरी, सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन’ सेल्ह जोई सहै, सोई जगीरे खाय ॥
सैनिक कहलाने में सभी को खुशी होती है, सभी सेना में भरती होना चाहते हैं, पर जीत और जागीर तो उसी को मिलती है, जो भाले के वार फूलों की तरह सहर्ष अपने ऊपर झेल लेता है ।
समय दशा कुल देखि के, सबै करत सनमान ।
‘रहिमन’ दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥
सुख के दिन देखकर अच्छी स्थिति और ऊँचा खानदान देखकर सभी आदर-सत्कार करते हैं किन्तु जो दीन हैं, दुखी हैं और सब तरह से अनाथ हैं, उन्हें अपना लेने वाला भगवान के सिवाय दूसरा और कौन हो सकता है ?
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहि एक सी, कारहीम’ पछितात ॥
क्यों दुखी होते हो और क्यों पछता रहे हो ? भाई जब समय आता है तब वृक्ष फलों से लद जाते हैं, और फिर ऐसा समय आता है, जब उसके सारे फूल और फल झड़ जाते हैं । समय की गति को न जानने-पहचानने वाला ही दुखी होता है ।
समय-लाभ सम लाभ नहि , समय-चूक सम चूक ।
चतुरन चित रहिमन’ लगी , समय चूक की हूक ॥
समय पर अगर कुछ बना लिया, तो उससे बड़ा और कौन-सा लाभ है ? और समय पर चूक गये तो चूक ही हाथ लगती है । बुद्धिमानों के मन में समय की चूक सदा कसकती रहती है ।
सर सूखे पंछी उडे, और सरन समाहि ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम’ कहँ जाहि ॥
सरोवर सूख गया, और पक्षी वहाँ से उड़कर दूसरे सरोवर पर जा बसे पर बिना पंखों की मछलियाँ उसे छोड़ और कहाँ जायें ? उनका जन्म-स्थान और मरण-स्थान तो वह सरोवर ही है ।
स्वासह तुरिय जो उच्चरे, तिय है निहचल चित्त ।
पूरा परा घर जानिए, ‘रहिमन’ तीन पवित्त ॥
ये तीनों परम पवित्र हैं :- वह श्वास जिसे खींचकर योगी तुरीय अवस्था का अनुभव करता है, वह स्त्री जिसका चित्त पतिव्रत में निश्चल हो गया है, पर पुरुष को देखकर जिसका मन चंचल नहीं होता और सुपुत्र [जो अपने चरित्र से कुल का दीपक बन जाता है। ]
साधु सराहै साधुता, जती जोगिता जान ।
रहिमन’ साँचे सूर को, बैरी करै बखान ॥
साधु सराहना करते हैं साधुता की और योगी सराहते हैं योग की सर्वोच्च अवस्था को और सच्चे शूरवीर के पराक्रम की सराहना उसके शत्रु भी किया करते हैं ।
संतत संपति जान के , सब को सब कछु देत ।
दीनबंधु बिनु दीन की, को.रहीम’ सुधि लेत ॥
यह मानकर कि सम्पत्ति सदा रहने वाली है धनी लोग सबको जो माँगने आते हैं, सब कुछ देते हैं किन्तु दीन-हीन की सुधि दीनबन्धु भगवान को छोड़ और कोई नहीं लेता ।
संपति भरम गँवाइके , हाथ रहत कछु नाहि ।
ज्यों,रहीम’ ससि रहत है, दिवस अकासहि माहि ॥
बुरे व्यसन में पड़ कर जब कोई अपना धन खो देता है , तब उसकी वही दशा हो जाती है, जैसी दिन में चन्द्रमा की । अपनी सारी कीर्ति से वह हाथ धो बैठता है, क्योंकि उसके हाथ में तब कुछ भी नहीं रह जाता है । जो आदमी भ्रम में पड़कर अपनी धन संपत्ति गँवा देता है-उसके पास कुछ नहीं रह जाता है। उसका सब कुछ लुट जाता है तो वो वैसे ही छिपा रहता है जैसे दिन में चन्द्रमा कांतिहीन , अनदेखा आकाश में कहीं कोने में छिपा रहता है।
ससि संकोच, साहस, सलिल, मान, सनेह,रहीम’ ।
बढत-बढत बढि जात है, घटत-घटत घटि सोम ॥
चन्द्रमा, संकोच, साहस, जल, सम्मान और स्नेह, ये सब ऐसे है, जो बढ़ते- बढ़ते बढ़ जाते हैं, और घटते-घटते घटने की सीमा को छू लेते हैं ।
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
रहिमन’ तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥
सूर्य शीत को भगा देता है, अन्धकार का नाश कर देता है और सारे संसार को प्रकाश से भर देता है पर इसमें सूर्य का क्या दोष, यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता ।
हित रहीम इतनै करें, जाकी जिति बिसात।
नहि यह रहै, न वह रहै , रहे कहन को बात ॥
हमें दूसरों की भलाई अपने सामथ्र्य के अनुसार हीं करनी चाहिये। छोटी छोटी भलाई करने बाले भी नहीं रहते और बड़े उपकार करने बाले भी मर जाते हैं-केवल उनकी यादें और बातें रह जाती हैं।
होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम’ अति दूर ।
बाढेहु सो बिनु काजही , जैसे तार खजूर ॥
क्या हुआ, जो बहुत बड़े हो गए । रहीम कहते हैं कि ताड़ और खजूर की तरह ऐसा बढ़ जाना बेकार है जो किसी को छाँव नहीं दे सकते और जिसके फल भी बहुत दूर हैं। ऐसे ही किसी भी ऐसे व्यक्ति का बहुत बड़ा हो जाना तब तक बेकार जब तक वो किसी के काम नहीं आ सकता ।
ओछे को सतसंग, रहिमन’ तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग , सीरे पै कारो लगे ॥
नीच का साथ छोड दो, जो अंगार के समान है । जलता हुआ अंगार अंग को जला देता है, और ठंडा हो जाने पर कालिख लगा देता है ।
रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
जिनके अनगिनत मीत, समैं गरीबन को गनै ॥
मालिक से हमने प्रीति जोड़ी पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं । उसके अनगिनत चाहक हैं , हम गरीबों की साई के दरबार में गिनती ही नहीं ।
क्या रहिमन’ मोहि न सुहाय, अमी पआवै मान बनु ।
बरु वष देय बुलाय, मान-सहत मरबो भलो ॥
वह अमृत भी मुझे अच्छा नहीं लगता, जो बिना मान-सम्मान के पिलाया जाय । प्रेम से बुलाकर चाहे विष भी कोई दे दे तो अच्छा । सम्मान के साथ मरना कहीं अधिक अच्छा है ।
चित्रकूट में रमि रहे, ‘रहिमन’ अवध-नरेस ।
जा पर बिपदा परत है , सो आवत यहि देस ॥
अयोध्या के महाराज राम अपनी राजधानी छोड़ कर चित्रकूट में जाकर बस गये । इस अंचल में वही आता है, जो किसी विपदा का मारा होता है ।
ए रहीम, दर-दर फिरहि, माँगि मधुकरी खाहि ।
यारो यारी छाँडिदो, वे,रहीम’ अब नाहि ॥
रहीम आज द्वार-द्वार पर मधुकरी माँगता गुजर कर रहा है । वे दिन लद गये, आज तब का वह रहीम नहीं रहा । यह रहीम बदल गया है । इसलिए दोस्तों इस रहीम से दोस्ती छोड़ दो जो इसके साथ तुमने की थी ।
देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरै, याते नीचे नैन ॥
हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं । देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए । लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है । मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगने वाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।
रहीम कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु को फेंक नहीं देना चाहिए । जहां छोटी सी सुई काम आती है, वहां तलवार बेचारी क्या कर सकती है?
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
रहीम कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।
लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।
रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।
माघ मास लहि टेसुआ मीन परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।
माघ मास आने पर टेसू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है। इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है। मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।
रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।
जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।
संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं।।
जिस प्रकार दिन में चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन में फंस कर अपना धन गँवा देता है वह निष्प्रभ हो जाता है।
साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान।।
रहीम कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है । यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।
वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग।।
रहीम कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है । इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का भोजन करें।
रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।
रहीम कहते हैं कि उस व्यवहार की सराहना की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान हो । घड़ा और रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं । जब घड़ा कुँए में जाता है तो रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है।
निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।
रहीम कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है । सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे चौपड़ खेलते समय पासे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता।
परजापति परमेश्वरी गंगा रूप समान।
जाके रंग तरंग में करत नैन अस्नान ।।
समस्त जीवों का पालन करने वाली माँ का रूप गंगा की तरह निर्मल और पतित पाविनी है। वह समस्त पापों का नाश करती है।उनके दर्शन से आंखों को तृप्ति , मन को शान्ति और हृदय को निर्मलता प्राप्त होती है।
धनि रहीम जलपंक को लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बडाई कौन है जगत पियासो जाय ।।
कीचड़ युक्त जल धन्य है जिसे छोटे जीव जन्तु भी पीकर तृप्त हो जाते हैं। समुद्र का कोई बड़प्पन नहीं क्योंकि संसार की प्यास उससे नहीं मिटती है। सेवाभाव वाले छोटे लोग ही अच्छे हैं।
रहिमन पर उपकार के करत न यारी बीच।
मांस दियो शिवि भूप ने दीन्हों हाड़ दधीच ।।
परोपकार करने में स्वार्थ; अपना – पराया , मित्रता आदि नहीं सोचना चाहिये। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण रक्षा हेतु अपने शरीर का मांस और दधीचि ऋषि ने अपनी हड्डियां दान दी थी। परोपकार करते समय जीवन का बलिदान करने से भी नहीं हिचकना चाहिये ।
काह कामरी पागरी जाड़ गये से काज।
रहिमन भूख बुझाईये कैस्यो मिले अनाज ।।
जिस कपड़े से जाड़ा चला जाये वही सबसे अच्छा चादर या कम्बल कहा जायेगा। जिस अनाज से भूख मिट जाये वह जहाँ से जैसे भी मिले वही उत्तम है।
को रहीम पर द्वार पै जात न जिय सकुचात।
संपति के सब जात है विपति सबै लै जात ।।
कोई भी ब्यक्ति किसी के भी दरवाजे पर मांगने के लिये जाने में संकोच करता है लेकिन लोग कष्ट में धनवान के यहाँ ही जाते हैं अैार विपत्ति ही उन्हें याचना के लिये ले जाती है। धनवान को कष्ट में पड़े ब्यक्ति का आदर करना चाहिये।
गति रहीम बड़ नरन की ज्यों तुरंग व्यबहार।
दाग दिवावत आपु तन सही होत असवार ।।
अच्छे लोग दूसरों की सेवा करना अपना धर्म मानते हैं। घोड़े को अधिक कष्ट देकर दाग दिया जाता था और घुड़सवार उस पर सवारी करके अपनी जीविका कमाता था। अच्छे लोग अपना धर्म निर्बाह हेतु सहर्ष कष्ट उठाने के लिये तत्पर रहते हैं।
अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल ।।
रहीम परम पावन और सर्वसक्षम गंगा माता से प्रार्थना करते हैं कि आप भगवान विष्णु के चरणों में तथा भगवान शिव के सिर पर विराजती हैं। हे माता ! यदि आप कृपा करके मेरा उद्धार करें तो मुझे विष्णु नहीं शिव स्वरूप प्रदान करना, ताकि मैं आपको चरणों में रखने के पाप का भागी न बनूँ । आपको अपने सिर पर धारण करने का सौभाग्य प्राप्त कर पाऊँ।
अमी पियावत मान बिनु, रहिमन मोहि न सुहाय।
मान सहित मरिबो भलो, जो बिस देय बुलाय।।
रहीम दास ने इस दोहे में आत्मसम्मान के साथ जीने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं कि यदि कोई मुझे बिना उचित सम्मान के अमृत भी पिलाएँ तो मुझे वह स्वीकार नहीं होगा। यदि सम्मान सहित बुलाकर कोई मुझे विष भी पिलाए, तो मैं उस विष को पीकर सम्मान के साथ मरना स्वीकार करूंगा।
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वो राजाओं के राजा हैं क्योंकि उन्हें ना तो किसी चीज की चाह है, ना ही चिंता और उबका मन तो बिल्कुल बेपरवाह है।
मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय।।
रस, फूल, दूध, मन और मोती जब तक स्वाभाविक सामान्य रूप में है, तब तक अच्छे लगते है ।लेकिन यह एक बार टूट-फट जाए तो कितनी भी युक्तियां कर लो वो फिर से अपने स्वाभाविक और सामान्य रूप में नहीं आते।
अधम वचन काको फल्यो, बैठि ताड़ की छांह।
रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग मांह।।
रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे ताड़ की छाया में बैठने से कोई फल नहीं मिलता, इसी प्रकार निंदनीय वचन फलदायी नहीं होते। जो मनुष्य संसार में आकर किसी के काम नहीं आते, वे मनुष्य संसार में रसहीन होते हैं ।
ज्यों चैरासी लख में मानुस देह।
त्यों हीं दुर्लभ जग में सहज सनेह ।।
जिस तरह चैरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है । उसी प्रकार इस जगत में सहजता सुगमता से स्नेह प्रेम प्राप्त करना भी दुर्लभ है।
रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लाय
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ।
यदि भोजन को प्रेम एवं इज्जत से परोसा जाये तो वह अत्यधिक सुरूचिपूर्ण हो जाता है लेकिन मलिन मन से परोसा गया भोजन जले हुये मैदा से भी खराब होता है। मैदा के इस भोजन को जला देना ही अच्छा है।
बड़ माया को दोस यह जो कबहुँ घटि जाय।
तो रहीम गरीबो भलो दुख सहि जिए बलाय।।
धनी आदमी के गरीब हो जाने पर बहुत तकलीफ होती है। इससे तो गरीबी अच्छी है। जो समस्त दुख सह कर भी वह जी लेता है। सांसारिक माया से मोह करना ठीक नहीं है।
याते जान्यो मन भयो जरि बरि भसम बनाय।
रहिमन जाहि लगाइये सोइ रूखो दै जाय ।।
रहीम जिससे भी मन / हृदय लगाते हैं वही दगा / धोखा दे जाता है। इससे रहीम का हृदय जलकर राख हो गया है। जो ईर्ष्या द्वेष से ग्रसित हो उसे कौन अपना हृदय देना चाहेगा ।
रहिमन रहिबो व भलो जौ लौ सील समूच।
सील ढील जब देखिये तुरत कीजिए कूच ।।
किसी के यहाँ तभी तक रहें जब तक आपकी इज्जत होती है। मान सम्मान में कमी देखने पर तुरन्त वहाँ से प्रस्थान कर जाना चाहिये ।
गुनते लेत रहीम जन सलिल कूपते काढि।
कूपहु ते कहुँ होत है मन काहू के बाढि ।।
प्यास लगने पर लोग रस्सी की मदद से कुएं से जल निकालते हैं। इसी तरह हृदय या मन के भीतर की बात जानने के लिये विश्वास की रस्सी की मदद ली जाती है।
दिब्य दीनता के रसहि का जाने जग अंधु।
भली बिचारी दीनता दीनबंधु से बंधु ।।
गरीबी में बहुत आनंद है। यह संसार में धन के लोभी अंधे नहीं जान सकते । रहीम को अपनी गरीबी प्रिय लगती है क्योंकि तब उसने गरीबों के सहायक दीनबंधु भगवान को पा लिया है।
भावी या उनमान की पांडव बनहिं रहीम।
तदपि गौरि सुनि बाझ बरू है संभु अजीम ।।
भावी या होनी ईश्वर की भयानक शक्ति है। इसने पांडवों जैसे शक्तिशालियों को जंगल में रहने को मजबूर कर दिया। महादेव की पत्नी गौरी को पुत्रहीन ही रहना पड़ा। होनी से किसी दया की आशा ब्यर्थ है।
जो रहीम होती कहूँ प्रभु गति अपने हाथ।
तो काधों केहि मानतो आप बढाई साथ ।।
यदि लोग स्वयं अपने लाभ , नुकसान , प्रतिष्ठा इत्यादि को मन मुताबिक कर पाते तो वे किसी को अपने से अधिक नहीं मानते। इसी कारण ईश्वर ने मनुष्य को कमजोर बनाया है। ताकत के साथ सज्जनता आवश्यक है।
कहि रहीम धन बढि घटे जात धनिन की बात।
घटै बढे उनको कहा घास बेचि जे खात ।।
धनी आदमी को गरीब या धन की कमी होने पर बहुत कष्ट होता है लेकिन जो प्रतिदिन घास काट कर जीवन निर्वाह करते हैं – उन पर धन के घटने बढ़ने का कोई असर नही होता है।
बढत रहीम धनाढ्य धन धनी धनी को जाड।
घटै बढे वाको कहा भीख मॉगि जो खाइ।।
धनी व्यक्ति का धन बढ़ता जाता है। कारण धन ही धन को आकर्षित करता है। जो गरीब भीख मांग कर गुजारा करते हैं-उनका धन कभी घटता बढ़ता नही हैं।
रहिमन कहत स्वापेट सों कयों न भयो तू पीठ।
रीते अनरीते करें भरै बिगाडै दीढ ।।
रहीम अपने पेट से कहते हैं कि तुम पेट के बजाय पीठ क्यों नही हुआ? भूखा रहने पर पेट लोगों को गलत काम करने को बाध्य करता है और पीठ लोगों का बोझ ढोकर कष्ट दूर करती है।
स्वारथ रचत रहीम सब औगुन हूँ जग मंहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ पथ रथ कूबर छांहि ।।
लोग अपने स्वार्थ में संसार के सब लोगों मे गुण अवगुण खोज लेते हैं। पहले जो रूके रथ की छाया को अशुभ मानते थे-अब वे ही लोग उस रथ की छाया में बैठ कर विश्राम और शांति का अनुभव कर रहे हैं।
रूप बिलोकि रहीम तहं जहं तहं मन लगि जाय।
याके ताकहिं आप बहु लेत छुड़ाय छुड़ाय ।।
जहाँ सुन्दर रूप दिखाई देता है वहीं मन लग जाता है। आसक्ति बढ़ जाती है। उस सुन्दर रूप को आखें बहुत काल तक देखती ही रह जाती हैं। मन को वहाँ से हटाने पर वह फिर वहीं चला जाता है। रूप का जादू किस पर नहीं चलता।
नैन सलोने अधर मधु कह रहीम घटि कौन।
मीठो भावे लोन पर अरू मीठे पर लौन ।।
सुन्दर आखों और मीठे अधरों में किसका स्वाद रसपान कम है-कहना अति कठिन मीठा खाने पर नमकीन औरनमकीन के बाद मीठा खाने का स्वाद अत्यंत रूचिकर होता हैं।
रहिमन जा डर निसि परै ता दिन डर सब कोय।
पल पल करके लागते देखु कहां धौ होय ।।
अधिक कठिनाई झेलने वाला भय के मारे न रात में सो पाता है न दिन में भय से निश्चिंत रह पाता है। वह प्रत्येक क्षण डरा रहता है कि पता नही कहाँ से कौन सी विपत्ति आ जाये। इस हालत को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है।
ये रहीम फीके दुवौ जानि महा संताप
ज्यों तिय कुच आपन गहे आपु बड़ाई आपु ।
आत्म प्रशंसा एक बीमारी है। यदि नवयुवती अपने हाथों से अपने उरोज का मर्दन करने लगे तो समझें कि वह काम से अतृप्त आत्म प्रशंसा हार का लक्षण है।
एक उदर दो चोंच है पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए जुदे जुदे दो पिंड ।।
कारंडव पक्षी को एक पेट और दो चोंच है। इसलिये वह पेट भरने के लिये निश्चिंत है लेकिन रहीम कहते हैं कि अगर किसी को दो पेट और एक चोंच हो तो वह कैसे जीवित रह सकेगा ? कमाने वाला रहीम एक और कई पेट। वह आर्थिक तंगी से बेहाल हो गया है।
यों रहीम सुख होत है बढत देखि निज गोत।
ज्यों बड़री अंखियां निरखि अंखियन को सुख होत ।।
अपने वंश की , खानदान की वृद्धि देखकर उसी तरह सुख का अनुभव होता है जैसे युवती की सुन्दर आखें देखकर पुरुष को आनन्द प्राप्त होता है। प्रत्येक आदमी को अपनी बृद्धि से सुख प्राप्त होता है।
मन से कहा रहीम प्रभु दृग सों कहा दिवान
देखि दृगनजो आदरै मन तोहि हाथ बिकान ।
मन जैसा उदार राजा और आखों जैसा तुरंत प्रसन्न होने वाला मंत्री होने से यदि मंत्री को आदर सम्मान देकर प्रसन्न कर लिया जाता है तो राजा उस चतुर आदमी ( मंत्री ) के हाथों बिक जाता है फिर मंत्री ही सब राजकाज चलाता है।
रहिमन अपने गोत को सबै चहत उत्साह
मृग उछरत आकाश को भूमि खनत बराह ।
सभी अपने कुल की वृद्धि चाहते हैं । बंश परम्परा में वृद्धि से सब उत्साहित होते हैं। हिरण अपने वंश की वृद्धि पर ऊपर की ओर उछलते हैं और सुअर जमीन खोदने लगता है।
रहिमन ब्याह वियाधि है सकहुँ तो जाहु बचाय।
पायन बेडी पडत है ढोल बजाय बजाय ।।
शादी-ब्याह एक सामाजिक रोग है-संभव हो सके तो इससे बचना चाहिये। यह एक तरह का पॉव में बेड़ी है।बस घर परिवार का ढोल बजाते रहो।
रहिमन तीर की चोट ते चोट परे बचि जाय।
नयन बान की चोट तैं चोट परे मरि जाय ।।
रहीम कहते हैं कि तीर की चोट पड़ने पर कोई व्यक्ति बच सकता है किंतु नयनों की मार से कोई नहीं बच सकता। नयन बाण की चोट से मरना / समर्पण अवश्यंभावी है।
रहिमन मन की भूल सेवा करत करील।
की इनतें चाहत फूल जिन डारत पत्ता नही।।
करील कांटे वाला पौधा है। इसकी सेवा करना व्यर्थ है। इसमें फूल और फल की इच्छा बेकार है। इसके डाल पर तो पत्ते भी नहीं होते हैं। अर्थात दुर्जन से सज्जनता की इच्छा करना बेकार है ।
रहिमन चाक कुम्हार को मांगे दिया न देई।
छेद में डंडा डारि कै चहै नांद लै लेई ।।
कुम्हार के चाक से दिया मांगने पर वह नहीं देता है अर्थात कुम्हार का चाक केवल मांगने से दिया नहीं दे देता है। उसके लिए कुम्हार को उसके छेद में डंडा डालकर चलना पड़ता है । जब कुम्हार उसके छेद में डंडा डालकर चलाता है तो वह दिए के बदले नाद भी दे देता है। दुर्जन ब्यक्ति नम्रता को कमजोरी मानता है। तब उस पर दंड की नीति अपनानी पड़ती है।
रहिमन जिह्वा बाबरी कहिगै सरग पाताल।
आपु तो कहि भीतर रही जूती खात कपाल ।।
जीभ पागल होती है। शब्द कमल का फूल और तीर दोनों ही होते हैं । अंट संट बोल कर जीभ स्वयं तो अंदर रहती है और सिर को जूते खाने पड़ते हैं। वाणी पर नियंत्रण रख कर सोच समझ कर बोलना चाहिये।
रहिमन असमय के परे हित अनहित है जाय।
बधिक बधै भृग बान सों रूधिरै देत बताय ।।
बुरे दिन में हित की बात भी अहित कर देती है। शिकारी के तीर से घायल हिरण जान बचाने के लिये जंगल में छिप जाता है पर उसके खून की बूंदें उसका स्थान बता देती हैं। उसका खून ही उसका जानलेवा हो जाता है। समय पर मित्र शत्रु और अपना पराया हो जाता है।
रहिमन याचकता गहे बड़े छोट है जात
नारायरा हू को भयो बाबन आंगुर गात ।
भिक्षा मांगने बाला बड़ा ब्यक्ति भी छोटा हो जाता है । भगवान विष्णु को भी मांगने के लिये महाराज बलि के पास बावन अंगुली का बौना-बामन अवतार लेना पड़ा था।
रहिमन वित्त अधर्म को जरत न लागै बार
चोरी करि होरी रची भई तनिक में छार ।
अधर्म से कमाया गया धन के विलुप्त होने में देर नहीं लगती। होलिका दहन के लिये लोग चोरी करके लकड़ियाँ जमा करते हैं जो तुरंत ही जलकर राख हो जाती हैं। बेईमानी से अर्जित धन राख की ढेरी के समान है।
रहिमन सूधी चाल में प्यादा होत उजीर
फरजी मीर न है सकै टेढे की तासीर ।
शतरंज में सीधे – सीधे चलने से प्यादा भी वजीर हो जाता है पर टेढ़े – टेढ़े चलने का फल है कि मंत्री कभी भी बादशाह नहीं बन पाता है। उच्च पद पाने हेतु सीधापन होना चाहिये। कपट से कोई बड़ा नहीं बन सकता है।
करत निपुनई गुन बिना रहिमन निपुन हजूर
मानहु टेरत विटप चढि मोहि समान को कूर ।
गुणहीन ब्यक्ति जब अपनी चतुराई दिखाने का प्रयास करता है तो उसकी कलई खुल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह पेड़ पर चढ़ कर अपने पाखंड की प्रदर्शनी कर रहा हो ।
रहिमन अति न कीजिये गहि रहिए निज कानि
सैजन अति फूलै तउ डार पात की हानि ।
किसी बात का अति खराब है। अपनी सीमा के अन्दर इज्जत बचा कर रहें। सहिजन के पेड़ में यदि अत्यधिक फूल लगते हैं तो उसकी डाल और पत्ते सब टूट जाते हैं। अपनी शक्ति का अतिक्रमण नहीं करें।
लिखि रहीम लिलार में भई आन की आन
पद कर काटि बनारसी पहुंची मगहर थान ।
भाग्य के लेख को मिटाया नहीं जा सकता। किसी ने काशी में मरकर मोक्ष पाने के लिये अपने हाथ पैर काट लिये पर वह किसी प्रकार मगहर पहुंच गया। कहते हैं कि मगहर में प्राण त्यागने से गदहा का जन्म होता है। भाग्य के आगे ब्यक्ति की समस्त युक्तियाँ ब्यर्थ हो जाती है।
उरग तुरग नारी नृपति नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें संभारिए पलटत लगै न बार ।।
सांप , घोड़ा , स्त्री , राजा , नीच ब्यक्ति और हथियार को हमेशा संभालकर रखना चाहिये और इनसे सर्वदा होशियार रहना चाहिये। इन्हें पलट कर वार करने में देर नहीं लगती है।
रहिमन घटिया रहट की त्यों ओछे की डीढ।
रीतेहि सन्मुख होत है भरी दिखा पीठ ।।
रहट का पानी का पात्र और निकृष्ट व्यक्ति का आचरण समान होता है। नीच व्यक्ति जरूरत पड़ने पर सामने आ जाता है और काम पूरा हो जाने पर वह पीठ दिखाकर भाग जाता है। इसी तरह रहट का पात्र खाली रहने पर सामने से और भरा रहने पर पीछे से दिखाई पड़ता है ।
जो रहीम पगतर परो रगरि नाक अरू सीस।
निठुरा आगे रोयबो आसू गारिबो खीस ।।
यदि निष्ठुर हृदयहीन के चरणों पर तुम अपना नाक और सिर भी रगड़ोगे तब भी वह तुम पर दया नहीं करेगा। उनके आगे अपने आँसू बहाकर उसे बर्बाद मत करो।
दुरदिन परे रहीम कहि भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं बित हानि को जो न होय हित हानि ।।
दुख का समय या बुरे दिन आने पर अपने लोग भी पहचानने से भूल जाते हैं। ऐसे समय में धन की हानि तो होती है-हमारे शुभचिंतक भी साथ छोड़ देते हैं।
रहसनि बहसनि मन हरै घोर घोर तन लेहि।
औरत को चित चोरि कै आपुनि चित्त न देहि ।।
रसिक स्त्री सबों के मन को हर लेती है। प्रत्येक व्यक्ति उसकी ओर आकर्षित हो जाता है । वह प्रेमी लोगों के मन / चित्त को चुरा लेती है परन्तु अपना मन / हृदय किसी को नहीं देती है। अतः रसिक स्त्रियों के फेर में नहीं पड़ना चाहिये।
रहीमन थोड़े दिनन को कौन करे मुँह स्याह।
नहीं छनन को परतिया नहीं करन को ब्याह ।।
इस संसार में बहुत कम दिन रहना है। अब बाल काला रंग करके किसी गरीब की बेटी से छलावा करके विवाह करना उचित नहीं है। ढलती उम्र में जब वासना जोर मारती है तो लोग धन-पद के बल पर गलत रास्ता अपनाते हैं ।
अनकीन्हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय ।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ।।
लोग अपने को ज्ञानी दिखाने हेतु आदर्श बघारते हैं किंतु स्वयं अपने जीवन में उसे नहीं अपनाते हैं। वह आदमी जागते हुये भी सोया हुआ है। उस घमंडी को जगाना , सिखाना , समझाना व्यर्थ है।
रहिमन अपने पेट सों बहुत कह्यो समुझाय।
जो तू अनखाए रहे तो सों को अनखाय ।।
भूखा आदमी कुकर्म करने को तैयार हो जाता है। रहीम ने बहुत समझाकर अपने पेट से कहा कि तुम अपने भूख को नियंत्रित करो ताकि तुम बिना खाये रह सको तो किसी को भी बुरा काम करने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
रहिमन जाके बाप को पानी पियत न कोय।
ताकी गैल अकास लौं कयों न कालिमा होय ।।
जिसके पिता का पानी कोई नहीं पीता था-जो कंजूसी , बेईमानी , दुष्टता, नीचता पर रहता है – उसका प्रभाव उसके संतान पर भी अवश्य पड़ता है। आकाश के काले बादलों ने पूरे आकाश को काला कर दिया है। भूतकाल का प्रभाव बर्तमान और भविष्य पर भी पड़ता है ।
मनसिज माली कै उपज कहि रहीम नहि जाय।
फल श्यामा के उर लगे फूल श्याम उर जाय ।।
कामदेव ने राधा के हृदय / वक्ष स्थल पर फल लगा दिये और माली रूपी श्याम के वक्ष पर कोमल फूल। भला कामदेव जैसे माली ने ऐसा क्यों किया ?
यह रहीम मानै नहीं दिल से नवा जो होय
चीता चोर कमान के नए ते अवगुन होय ।
जो झुक कर नम्रता से बातें करता है – कोई जरूरी नहीं कि वह दिल से भी नम्र प्रकृति का हो। चीता शिकार के वक्त , चोर चोरी के समय , तीर धनुष पर चढाने के समय झुके रहते हैं। इस तरह के दुष्टों से सावधान रहना अच्छा है।
कहि रहीम इक दीप तें प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै दृग दीपक जरू दोय ।।
एक दीपक की रोशनी में सब साफ – साफ दिखाई देता है। आखों के दो दीपक से कोई अपने प्रेम को कैसे छिपा सकता है? आखें प्रेम को स्पष्ट कर देती हैं।
जे अनुचितकारी तिन्हें लगे अंक परिनाम।
लखे उरज उर बेधिए कयों न होहि मुख स्याम।।
अनुचित काम का अंतिम परिणाम कलंकित होना है। जो युवती के उन्नत उरोजों को देखकर काम वासना से पीड़ित होगा-उसका मुंह काला होगा। अन्याय का फल सबको मिलता है।
मंदन के मरिह गए अबगुन गुन न सराहि।
ज्यों रहीम बॉधहु बॅधै मरबा है अधिकाहि।।
बुरे लोगों के मरने पर वे अपने दुर्गुण अपने साथियों के पास छोड़ जाते हैं। बाघ द्वारा मारे गये दुष्ट व्यक्ति भूत-प्रेत के रूप में जन्म लेकर अधिक कष्ट देते रहते हैं।
देनहा कोई और है भेजत सो दिन रात।
लोग भरम हम पै धरै याते नीचे नैन ।।
देने वाला तो कोई और प्रभु है जो दिन रात हमें देने के लिये भेजता रहता है लेकिन लोगों को भ्रम है कि रहीम देता है। इसलिये रहीम आखें नीचे कर लोगों को देता है। ईश्वर के दान पर रहीम अपना अधिकार नहीं मानते ।
मथत मथत माखन रहै दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है भीर परे ठहराय ।।
दही को बार – बार मथने से दही और मक्खन अलग हो जाते हैं। रहीम कहते हैं कि सच्चा मित्र दुख आने पर तुरंत सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। मित्रता की पहचान दुख में ही होती है।
जो रहीम दीपक दसा तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत हैं वाही पट की चोट ।।
जिस प्रकार वधु दीपक को आँचल की ओट से बचाकर शयन कक्ष में रखती है उसे ही मिलन के समय बुझा देती है। बुरे दिनों में अच्छा मित्र भी अच्छा शत्रु बन जाता है ।
रहिमन तुम हमसों करी करी करी जो तीर।
बाढे दिन के मीत हो गाढे दिन रघुबीर ।।
कठिनाई के दिनों में मित्र गायब हो जाते हैं और अच्छे दिन आने पर हाजिर हो जाते हैं । केवल प्रभु ही अच्छे और बुरे दिनों के मित्र रहते हैं। मैं अब अच्छे और बुरे दिनों के मित्रों को पहचान गया हूँ।
वरू रहीम कानन बसिय असन करिय फल तोय।
बंधु मध्य गति दीन है बसिबो उचित न होय ।।
जंगल में बस जाओ और जंगली फल – फूल – पानी से निर्वाह करो लेकिन उन भाइयों के बीच मत रहो जिनके साथ तुम्हारा सम्पन्न जीवन बीता हो और अब गरीब होकर रहना पड़ रहा हो।
जलहिं मिलाई रहीम ज्यों कियो आपु सग छीर।
अगबहिं आपुहि आप त्यों सकल आच की भीर ।।
दूध पानी को अपने में पूर्णतः मिला लेता है पर दूध को आग पर चढ़ाने से पानी ऊपर आ जाता है और अन्त तक सहता रहता है। सच्चे दोस्त की यही पहचान है।
सबको सब कोउ करै कै सलाम कै राम।
हित रहीम तब जानिये जब अटकै कछु काम ।।
सबको सब लोग हमेशा राम- राम कर के सलाम करते हैं परन्तु जो आदमी कठिन समय में रूके कार्य में मदद करे वही वस्तुतः अपना होता है।
रहिमन प्रीत न कीजिये जस खीरा ने कीन।
उपर से दिल मिला भीतर फॉके तीन ।।
खीरा बाहर से एक दिखता है पर भीतर से वह तीन फांक में रहता है। प्रेम बाहर-भीतर एक जैसा होना चाहिये। प्रेम में कपट नहीं होना चाहिये। वह बाहर – भीतर से एक समान पवित्र और निर्मल होना चाहिये। केवल उपर से दिल मिलने को सच्चा प्रेम नहीं कहते।
रहिमन खोजे ईख में जहाँ रसनि की खानि।
जहां गांठ तहं रस नही यही प्रीति में हानि।।
ईख रस की खान होती है पर उसमें जहाँ गाँठ होती है वहां रस नहीं होता है। यही बात प्रेम में है। प्रेम मीठा रसपूर्ण होता है पर प्रेम में छल की गाँठ रहने पर वह प्रेम नहीं रहता है।
जेहि रहीम तन मन लियो कियो हिय बेचैन।
तासों सुख दुख कहन की रही बात अब कौन ।।
जिसने हमारा तन-मन ले लिया है और हमारे हृदय में अपना निवास स्थान बना लिया है । अब उससे अपना सुख – दुख कहने की क्या जरूरत है ? अब उससे क्या कहना बच गया है ? शरणागत भक्त सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।
रहिमन बात अगम्य की कहन सुनन की नाहि।
जो जानत सो कहत नहि कहत ते जानत नाहि ।।
परमेश्वर अगम्य , अथाह , वर्णन से परे है और वह कहने सुनने की चीज नहीं है। उसे जो जानता है वह कहता नहीं है और जो उसके बारे में बोलता है वह वस्तुतः उसे जानता नहीं है। ईश्वर केवल प्रेम के द्वारा ह्दय में अनुभव की चीज है।
कहि रहीम या जगत तें प्रीति गई दै टेर।
रहि रहीम नर नीच में स्वारथ स्वारथ टेर।।
रहीम को लगता है कि इस संसार में प्रेम समाप्त हो गया है। निकृष्ट लोगों में केवल स्वार्थ रह गया। दुनिया में स्वार्थी लोग रह गये हैं। दुनिया मानव रहित खोखली हो गई है।
नाते नेह दूरी भली जो रहीम जिय जानि।
निकट निरादर होत है ज्यों गड़ही को पानि ।।
संबंधियों से दूरी रखना ही अच्छा है। तब हृदय में प्रेम बना रहता है। अधिक नजदीकी रहने पर आदर में कमी होने लगती है। नजदीक के तालाब की अपेक्षा दूर के तालाब को लोग अधिक अच्छा समझते हैं।
चढिबो मोम तुरंग पर चलिबो पावक माहि ।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब कोउ निबहत नाहिं।।
मोम के घोड़े पर सवार होकर आग पर चलना जिस तरह कठिन होता है उसी तरह प्रेम के रास्ते पर चलना भी अत्यधिक मुश्किल है। सभी लोगों से प्रेम का निर्वाह कर पाना संभव नहीं होता है।
जहाँ गाँठ तह रस नही यह रहीम जग जोय।
मंडप तर की गाँठ में गॉठ गाँठ रस होय ।
व्यक्तिगत संबंधों में जहाँ गाँठ होती है- वहां प्रेम या मिठास नहीं होती है लेकिन शादी के मंडप में बाँधी गई अनेक गांठें प्रेम के रस में भीगी रहती है।
रहिमन वहां न जाइये जहाँ कपट को हेत।
हम तन ढारत ढेकुली सींचत अपनो खेत ।।
प्रेम में छल नहीं होना चाहिये। हमें उन लोगों से प्रेम नहीं करना चाहिये जो कपटी स्वभाव के हैं। रात भर किसान अपना खेत सींचने हेतु ढेंकली चलाता रहा पर सवेरे दिखाई पड़ा कि छल करके पानी को दूसरे के खेत में काट कर सींच लिया गया है। संबंध की परख करके ही प्रेम करना चाहिये।
रहिमन सो न कछु गनै जासों लागो नैन।
सहि के सोच बेसाहियो गयो हाथ को चैन ।।
जिसे कहीं प्रेम हो गया वह कहने – समझाने – बुझाने से भी नहीं मानने वाला है। जैसे उसने प्रेम के बाजार में अपना सब सुख – चैन बेचकर अपना दुख खरीदकर ले आया हो।
रीति प्रीति सबसों भली बैर न हित मित गोत।
रहिमन याही जनम की बहुरि न संगति होत ।।
सब लोगों से प्रेम का व्यव्हार करना अच्छा है। किसी से भी शत्रुता करना किसी के लिये भी लाभकारी नहीं है। पता नहीं इस जन्म के बाद मनुष्य के रूप में जन्म लेकर अच्छी संगति प्राप्त करना संभव होगा अथवा नहीं।
बिरह विथा कोई कहै समझै कछु न ताहि।
वाकं जोबन रूप की अकथ कथा कछु आहि।।
विरह के दुख को कहने पर भी कोई उसे समझ नहीं सकता है। एक रूपवती नवयौवना के समक्ष प्रेमी अपने विरह को व्यक्त करता है परन्तु वह ऐसा दिखाती है कि वह कुछ नहीं समझती है।
दादुर मोर किसान मन लग्यौ रहै धन माहि।
पै रहीम चातक रटनि सरवर को कोउ नाहिं।।
दादुर , मोर एवं किसान का मन हमेशा बादल , वर्षा और मेघ के प्रेम में लगा रहता है किंतु चातक को स्वाति नक्षत्र के बादल के लिये जो प्रेम रहता है वैसा इन तीनों को नहीं रहता है। चातक अनूठे प्रेम का प्रतीक है।
मानो कागद की गुड़ी चढी सु प्रेम अकास।
सुरत दूर चित खैचई आइ रहै उर पास ।।
प्रेम भाव कागज के पतंग की तरह धागे के सहारे से आकाश तक चढ़ जाता है। प्रेमी को देखते ही वह चित्त को खींच लेता है और प्रेम हृदय से लग जाता है।
विपति भये धन ना रहै रहै जो लाख करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं ज्यों रहीम ये भोर ।।
विपत्ति आने पर धन – सम्पत्ति भी चली जाती है। भले ही वह लाखों – करोड़ों में क्यों न हो ठीक वैसे ही जैसे सवेरा होते ही समस्त तारे छिप जाते हैं।
समय परे ओछे वचन सबके सहै रहीम।
सभा दुसाशन पट गहै गदा लिये रहे भीम ।।
वीर पुरुष को भी खराब समय पर निकृष्ट बोल सहने पड़ते हैं। सभा में दुःशासन जब द्रौपदी का चीर हरण कर रहा था तो भीम गदा लेकर भी चुपचाप रहे। समय पर जीवन के लिये व्यूह रचना करनी पड़ती है।
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