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जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोड़ कर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है । हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन-वन में भटक कर तुम्हें ढूँढ रही हैं ।।1।।
शरदुदाशये साधुजातसत्
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥
हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो । हे प्रिय ! क्या केवल अस्त्रों से वध करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रों से मारना हमारा वध करना नहीं है ।।2।।
विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्
वर्ष मारुताद् वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद् विश्वतोभयाद
वृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥
हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु से , इंद्र की वर्षा से , आकाशीय बिजली से , दावानल से ( जंगल की अग्नि ) , आँधी रुपी तृणावर्त दैत्य से , अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर नामक दैत्य से, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है ।।3।।
न खलु गोपिकानन्दनो भवान
ऽखिलदेहिनाम अंतरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥
हे हमारे परम सखा ! आप केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हैं ,अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं । चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे पृथ्वी पर अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की थी । इसलिए आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं।।4।।
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥
हे वृष्णि धुर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रुपी संसार के चक्र से भयभीत हो कर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर-कमल , अपनी छत्र-छाया में लेकर अभय कर देते हैं । सबकी लालसा – अभिलाषा को पूर्ण करने वाले वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकड़ा है। प्रिये! उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर- कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें ।।5।।
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥
हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुःखो को दूर करने वाले हो । तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देती है । हे मित्र ! हम से रूठो मत , प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी हैं । तुम्हारे चरणों में न्योछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुख कमल दिखलाओ।।6।।
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥
आपके चरणकमल आपके शरणागत हुए समस्त देहधारियों के विगत जन्मों के सभी पापों को नष्ट करने वाले हैं। लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान हैं । वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती हैं , वह कोमल चरण बछड़ों के पीछे-पीछे चल रहे हैं । उन्हीं चरणों को तुमने कालिया नाग के शीश पर धारण किया था। तुम्हारी विरह की वेदना से हमारा हृदय संतप्त हो रहा है । तुमसे मिलने के लिए हम व्याकुल हो रहे हैं । हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल ( हृदय ) पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो।।7।।
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीर
ऽधर सीधुना प्या यय स्वनः ॥ ८॥
हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढ़ कर मधुर है । बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासियाँ मोहित हो रही हैं । हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर रस पिलाकर हमें जीवन दान दो।।8।।
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥
आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन, इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वाले प्राणियों के जीवन के लिए प्राण रूप है । ज्ञानियों , महात्माओं , भक्तों और कवियों ने तुम्हारी अनेक लीलाओं का गुणगान किया है । जो जीवों के सारे पाप – ताप को मिटाने वाली हैं और केवल उन लीला कथाओं और गुण चरित्रों का श्रवण करने मात्र से वे भक्तों का परम मंगल एवं परम कल्याण करने वाली हैं । तुम्हारी लीला-कथा परम सुन्दर , मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है । जो तुम्हारी लीलाओं का गान करते है वे लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी हैं ।।9।।
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥
आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम- भरी चितवन, आपके द्वारा हमारे साथ की गयी दिव्य और घनिष्ठ लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है और ये सब गतिविधियां हमारे हृदयों को स्पर्श करती हैं । उसके साथ ही , हे छलिया ! वे हमारे मनों को अत्यंत क्षुब्ध भी करती हैं।
Gopi Geet Hindi Lyrics – गोपी गीत ( अर्थ सहित )
Gopi Geet Hindi Lyrics – गोपी गीत ( अर्थ सहित )
चलसि यद् वृजा चार यन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिल तृणांकुरैः सीदतीति नः
कलि लतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥
हे स्वामी, हे प्रियतम ! आपके चरणारविन्द कमल से भी अधिक सुकोमल और सुन्दर हैं। अतः हे कान्त ! जब आप नंगे पाँव गौवें चराने के लिए गाँव छोड़ कर जाते हैं तब इस दुस्सह आशंका से हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते हैं कि कमल पुष्प से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में वृन्दावन के जंगलों के कुश , शिला , कंकण, तृण , घास- फूस एवं नुकीले पौधे आदि चुभ जाऐंगे । यह सोचकर ही हमारा मन बहुत विकल हो उठता है ।।11।।
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्
वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्
मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥
हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखते हैं कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही है और गौओं के खुरों से उड़-उड़कर आपके उन घुंघराले केशों पर पड़ी हुई घनी धूल से वे धूल धूसरित हो गयी हैं । तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम-पूरित करके प्रेम की कामना उत्पन्न करते हो।।12।।
प्रणतकामदं पद्मजा ऽर्चितं
धरणि मण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥
हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुःखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं । इन चरणों का ध्यान करने मात्र से ही सभी व्याधियां शांत हो जाती हैं। हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण-कमल हमारे वक्ष स्थल ( ह्रदय ) पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो ।।13।।
सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्ते ऽधरामृतम् ॥ १४॥
हे वीर ! आप अपने अधरों के उस अमृत को हम में वितरित कीजिये जो माधुर्य , प्रेम , हर्ष को बढ़ाने वाला और राग- द्वेष , शोक को मिटाने वाला तथा महा औषधि के समान है । उसी अमृत का आस्वादन, आपकी दिव्य ध्वनि करती हुई वंशी करती है और लोगों को अन्य सारी सांसारिक आसक्तियां भुलवा देती है। । ।।14।।
अटति यद् भवान अह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्म कृद् दृशाम ॥ १५॥
हे हमारे प्यारे ! जब तुम दिन के समय वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण एक- एक युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तब तुम्हारी घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को जब हम देखते हैं । उस समय हमारी पलकों का गिरना हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी होता है । तब ऐसा अनुभव होता है कि इन पलकों को बनाने वाला विधाता अज्ञानी है ।।15।।
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान
अतिविलङ्घ्य ते ऽन्त्य ऽच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद गीत मोहिताः
कितव योषितः कस्त्य जेन्निशि ॥ १६॥
हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, भाई, बंधु और कुल-परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई हैं। हम तुम्हारी हर चाल को जानते हैं , हर संकेत को समझते हैं । तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर हम यहाँ आई हैं । हे कपटी ! इस प्रकार रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड़ सकता है।।16।।
रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिता ननं प्रेम वीक्षणम् ।
बृह दुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरति स्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥
हे प्यारे ! एकांत में तुम प्रेम पूर्ण बातें किया करते थे । हँसी मजाक करके हमें चिढ़ाते थे , हंसाते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे । तुम्हारा विशाल वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हम लोग निहारा करती थीं । अतः हे प्रिये! तुम्हें देखने की हमारी आशा और लालसा निरंतर बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन भी क्षण – प्रतिक्षण तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।17।।
व्रज वनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिन हन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥
हे प्यारे ! तुम्हारी यह छवि और प्राकट्य ब्रजवासियों और वनवासियों के सम्पूर्ण दुःखों और तापों को नष्ट करने वाला और विश्व का मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम से मिलने की आशा पूरित हो रहा है । अतः हे मोहन ! आप प्रकट हो कर अपने स्वजनों के ह्रदय रोग को दूर कारण एक लिए कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त जनों के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दें ।।18।।
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥
हे कृष्ण ! तुम्हारे चरणारविन्द पुष्प कमल से भी अत्यधिक कोमल है । उन्हें हम अपने कठोर वक्ष स्थल ( ह्रदय ) पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है । जिससे आपके कोमल चरणों में कहीं चोट न लग जाये । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो। क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती ? हम तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत हुयी जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए ही है , हम तुम्हारे लिए ही जी रही हैं और हम सिर्फ तुम्हारी ही हैं ।।19।।
इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥
Gopi Geet Hindi Lyrics – गोपी गीत ( अर्थ सहित )
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